हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

हिन्दी कहानी का उद्भव और विकास 

0 46,881

‘कहानी’ का प्राचीन नाम संस्कृत में ‘गल्प’ या ‘आख्यायिका’ मिलता है। आधुनिक हिन्दी कविता का जन्म वर्तमान युग की आवश्यकताओं के कारण हुआ। कहानी को पश्चिम में ‘शार्ट स्टोरी’ कहा जाता है। पाश्चात्य साहित्य में कहानी-कला का उद्भव सर्वप्रथम अमेरिका में एडलर एलन पो (1809-49 ई.) द्वारा हुआ। उन्होंने कहानी की परिभाषा देते हुए कहा है कि “छोटी कहानी एक ऐसा आख्यान है, जो इतना छोटा है कि एक बैठक में पढ़ा जा सके और जो पाठक पर एक ही प्रभाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से लिखा गया हो।” 

          मुंशी प्रेमचंद कहानी पर विचार करते हुए कहते हैं कि “कहानी (गल्प) एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या मनोविज्ञान को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली तथा कथा-विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं।” 

          हिन्दी कहानी का उद्भव द्विवेदी युग में ‘सरस्वती पत्रिका’ (1900 ई.) के प्रकाशन से प्रारम्भ होता है। हिन्दी कहानी के विकासकी बात की जाए तो उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने निभायी। इस युग पुरुष ने अपनी कहानियों की विविध शैलियों के माध्यम से साहित्य संसार को सौंपा इसलिए कहानी साहित्य संसार शिरोमणियों ने हिन्दी कहानी परम्परा में प्रेमचंद का स्थान केन्द्रीय महत्त्व का स्वीकारा । मुंशी प्रेमचंद ने अपने जीवन काल में तीन सौ कहानियाँ लिखीं, इन्होंने हिन्दी कहानी को वह श्रेष्ठता प्रदान की जिससे प्रेरणा प्राप्त कर हिन्दी के अन्य कहानिकारों ने हिन्दी कहानी कोश की श्रीवृद्धि की, इसलिए हिन्दी कहानी के विकास के केन्द्र में मुंशी प्रेमचंद को तीन चरणों में बाँटते हैं 

(क)    प्रेमचंद से पूर्व की कहानी (सन् 1901 से 1914 ई.) 

(ख)    प्रेमचंद युग की कहानी (सन् 1914 से 1936 ई.) 

(ग)     प्रेमचंदोत्तर युग की कहानी (सन् 1936 से वर्तमान तक) 

          प्रवृत्तियों की दृष्टि से इन चरणों को कई धाराओं में विभाजित किया जाता है जिनका हम यहाँ निम्न प्रकार से करते हैं। 

(क)  प्रेमचंद युग से पूर्व की कहानी 

          जैसा कि विद्वान् प्रेमचंद पूर्व युग कहानी का समय सन् 1901 से सन् 1914 तक मानते हैं। हिन्दी की प्रथम कहानी कौन-सी है? इस विषय में काफी विवाद हैं। हिन्दी की प्रारम्भिक अवधि में मुंशी इंशा अल्ला खाँ ने ‘उदय भान चरित्र’ या ‘रानी केतकी की कहानी’ रचना की थी। समय की दृष्टि से यह सबसे पुरानी कहलाती है परंतु आधुनिक कहानी कला की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण रचना नहीं है। 

          आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का विचार है कि- “यह मुस्लिम (फारसी) प्रभाव की अन्तिम कहानी है यद्यपि इसकी भाषा और शैली में आधुनिक कहानी कला का आभास मिल जाता है। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्दी की कहानी ‘राजाभोज का सपना’ भी ऐसी ही कहानी है, इसमें भी थोड़ा बहुत आधुनिकता का पुट मिलता है। इन कहानियों के अतिरिक्त किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ बंग महिला कि ‘दुलाई वाली’ आदि कहानियाँ इसी कोटि की कहानियाँ हैं। इन कहानियों को प्रयोगशील कहानियाँ कह सकते हैं। जिनमें कहानी लेखकों ने विदेशी और बंगला कहानियों के प्रभाव में आकर हिन्दी भाषा में भी कहानी लिखने का प्रयास किया। 

          आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘इन्दुमती’, ‘गुलबहार’ (किशोरीलाल गोस्वामी), ‘प्लेग की चुडैल’ (मास्टर भगवानदास), ‘ग्यारह वर्ष का समय’ (रामचन्द्र शुक्ल), ‘पंडित और पंडितानी’ (गिरिजादत्त वाजपेयी) और ‘दुलाई वाली’ (बंग महिला) को सामने रखकर हिन्दी की पहली मौलिक कहानी का निर्णय किया है। ये कहानियाँ क्रमशः 1900 ई., 1902 ई., 1903 ई., 1903 ई. और 1907 ई. में लिखी गई। इन पर विचार करते हुए शुक्ल जी ने लिखा है- “इनमें यदि मार्मिकता की दृष्अि से भावप्रधान कहानियों को चुने तो तीन मिलती हैं ‘इन्दुमती’, ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाई वाली’। इन्दुमती किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरान्त ‘ग्यारह वर्ष का समय’ फिर ‘दुलाई वाली’ का नम्बर आता है।” 

          आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी की पहली मौलिक कहानी को ढूँढ़ने के क्रम में काफी अनुसंधान हुआ ‘इन्दुमती’ को शेक्सपीयर के ‘टेम्पेस्ट’ की छाया कहकर विद्वानों ने उसे मौलिक कहानी के दायरे से बाहर कर दिया। देवीप्रसाद वर्मा ने सन् 1901 में ‘छत्तीसगढत्र मित्र’ में छपी माधव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी सिद्ध किया। 

          यदि हम कहानी की जीवनावधी को अधिक लम्बी सिद्ध करने के लिए थोथी माथापच्ची न करें तो यह स्वीकार करने में कोई विशेष हानि नहीं है कि हिन्दी कहानी की विकास यात्रा ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही शुरू हुई और वह उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर चलती गई। इसी पत्रिका के माध्यम से किशोरीलाल गोस्वामी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बंग महिला, वृन्दावनलाल वर्मा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, विश्वम्भरनाथ शर्म-कौशिक, प्रेमचंद प्रभृति महत्त्वपूर्ण कहानीकार प्रकाश में आये। गुलेरी जी की अमर कहानी ‘उसने कहा था’ सन् 1915 में और मुंशी प्रेमचंद की ‘पंच परमेश्वर’ कहानी सन् 1916 में इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 

          ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित कुछ कहानियों और उसके पूर्व लिखी गई कहानियों को ‘आरंभिक हिन्दी कहानी’, ‘प्राचीन हिन्दी कहानी’ या ‘प्रेमचंद पूर्व हिन्दी कहानी’ की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसी कहानियों में भारतेन्दु के पूर्व लिखी गई ‘प्रेमसागर’ (लल्लू लाल), ‘नासिकेतोपाख्यान’ (सदल मिश्र), ‘रानी केतकी की कहानी’ (सैय्यद इंशा अल्ला खाँ) तथा ‘सरस्वती’ पत्रिका के आरंभिक दो वर्षों में प्रकाशित कहानियों को परिगणित किया जा सकता है। प्रेमचंद युग से पूर्व के कहानी-साहित्य की अपरिपक्वता, शिथिलता, स्फीर्ति आदि को लक्ष्य करके कुछ विद्वानों ने इन्हें हिन्दी कहानी के ‘बाल्यकाल का साहित्य’ या ‘शैशवकाल का साहित्य’ कहा है। 

          प्रेमचंद पूर्व हिन्दी कहानी के कथानक स्थूल, विवरणात्मक और घटनाओं के कुतूहलपूर्ण चमत्कार पर ही आधारित है। यह विशेषता ‘प्रेमसागर’,  ‘नासिकेतोपाख्यान’ और ‘रानी केतकी की कहानी’ में ही नहीं, किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इन्दुमती’ रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ में भी मौजूद है। भगवानदास की ‘प्लेग की चुडैल’, केशवप्रसाद सिंह की ‘चन्द्रलोक की यात्रा’, गिरिजादत्त वाजपेयी की ‘पति का पवित्र प्रेम’ जैसी कहानियों में वर्णनात्मकता, स्थूलता, घटनात्मकता, आकस्मिकता और कुतूहलपूर्णता चरम रूप में विद्यमान है। भारतेन्दु युग के कुछ कहानीकारों की कहानियों में निबन्धात्मकता, उपदेशात्मकता और अद्भुत रस की प्रधानता है। तात्पर्य यह है कि भाषा, शिल्प, संवेदना, उद्देश्य, शैली आदि सभी दृष्टियों से विचार करने पर प्रारंभिक हिंदी कहानियों में पर्याप्त कच्चापन दिखाई पड़ता है। उन कहानियों पर भारत के प्राचीन कथा-साहित्य और लोककथा-साहित्य का गहरा प्रभाव 

(ख)   प्रेमचंद युग की कहानी 

          हिन्दी कहानी का प्रेमचंद युग का आरंभ सन् 1915 ई. से माना जाता है। मुंशी प्रेमचंद जिस अवधि में कहानियाँ लिख रहे थे उसी अवधि में कई कहानिकारों ने इस विधा को आगे बढ़ाने के लिए अपनी लेखनियाँ उठाई। जिसमें जयशंकर प्रसाद, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, सुदर्शन आदि मुख्य कहानीकार है। इसी युग में जिन कहानीकारों ने हिन्दी कहानी विधा को नई दिशा प्रदान की उनमें श्री विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक’, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, भगवती प्रसाद वाजपेयी, श्री वृन्दावन लाल वर्मा, गोपालराम गहमरी, राधाकृष्ण दास, ज्वालादत्त शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इन कहानीकारों की कहानियाँ प्रकाशित हुई, जिससे हिन्दी कहानी के लेखक ही नहीं पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई। 

          प्रेमचंद के आगमन से हिंदी कहानी को एक नई दिशा एवं दृष्टि मिली। यद्यपि वे सन् 1907 से ही उर्दू में कहानियाँ लिखने लगे थे, किन्तु सन् 1916 में जब उनकी ‘पंच परमेश्वर’ कहानी ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई, तब से वे हिन्दी कथा-क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में न केवल जाने-पहचाने गये, बल्कि उनसे हिन्दी कहानी की एक नई दिशा मिली। उन्होंने हिन्दी के प्राचीन कथा-शिल्प को तोड़कर युगानुरूप उसे नया रूप-रंग प्रदान किया। अब तक कहानी में कुतूहल, रोमांचकता की प्रधानता थी, अब हिन्दी कहानी मनुष्य के यथार्थ से जुड़ गई। 

          प्रेमचंद ने पहली बार कहानी को ‘मनोवैज्ञानिक विश्लेषण’ ‘जीवन के यथार्थ चित्रण’ और ‘स्वाभाविक वर्णन’ से जोडत्रने और ‘कल्पना की मात्रा कम करने का आग्रह किया। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर मानवीय संवेदना और हिन्दी कथा-संसार से देवता, राजा और ईश्वर को अपदस्थ करके दीन, दलित, शोषित प्रताड़ित मनुष्य को नायक के पद पर प्रतिष्ठित किया। यह उनका युगान्तकारी कार्य था, इसलिए उनके समय को हिन्दी कथा-साहित्य में प्रेमचंद युग के नाम से जाना जाता है। इसे हम कथा साहित्य का वास्तविक ‘विकास-युग’ भी कह सकते हैं। इसी युग में कहानी को स्वतंत्र व्यक्तित्व मिला और अनेक ऐसी कहानियों का सृजन हुआ जो अन्य भाषाओं की कहानियों की तुलना में खड़ी होने की सामर्थ्य भी रखती है। 

          प्रेमचंद एक सजग कहानीकार थे। उन्होंने अपने युग को अपने संस्कारों में ढालकर प्रस्तुत किया। प्रेमचंद-युग का साहित्य प्रथम विश्व युद्ध के बाद का साहित्य है। यह युग भारतीय स्वाधीनता-संघर्ष का भी स्वर्ण-काल है। इसी समय स्वाधीनता-संघर्ष को नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथों में आया, जिनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विचारों और कार्यकलापों का गहरा प्रभाव उस समय के लेखकों पर पड़ा। आरंभ में प्रेमचंद ने गांधी के प्रभावस्वरूप आदर्शवादी और सुधारवादी कहानियाँ लिखीं जिनमें देश-भक्ति के साथ-साथ आदर्श, नैतिकता, मर्यादा, कर्तव्यपरायणता आदि का स्वर काफी ऊँचा है। ‘सौत’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘विचित्र होली’, ‘आहुति’, ‘जुलूस’, ‘सत्याग्रह’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘नमक का दारोगा’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘अलग्योझा’ आदि अनेक कहानियाँ प्रेमचंद की उपर्युक्त कथा-प्रवृत्ति को समझने में सहायक है। प्रेमचंद का कहानी-लेखन सन् 1916 से सन् 1936 तक के बीच सम्पन्न हुआ ऐसा लेखन है जिसमें युग के समानान्तर चलने और युग की गति को समझने और बदलने की तीव्र आकांक्षा दिखाई पड़ती है। उनके इस लेखन में बराबर परिवर्तन और विकास होता रहा है। उन्होंने अपनी कथा-संचेतन और कहानी-कला को बराबर विकसित किया है। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं। ये कहानियाँ अपने रूप-रंग में प्रेमचंद के कथा-शिल्प के क्रमिक विकास को संजोए हुए हैं। इनमें हम आसानी से देख सकते हैं कि जो प्रेमचंद आरंभ में देश के सुधारवादी आंदोलनों के प्रभाव में हल्के-फुल्के आदर्शवाद और सुधारवाद को ध्यान में रखकर सरल और हृदय परिवर्तनवादी कहानियाँ लिख रहे थे, उन्होंने ही आगे चलकर जटिल और क्रूर यथार्थ वाली कहानियाँ लिखीं। उनकी ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘मुक्ति मार्ग’, ‘पूस की रात’, ‘सद्गति’, ‘बाबा जी का भोज’, ‘कफन’ जैसी अनेक कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। 

          प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सामाजिक यथार्थ और समस्याओं का चित्रण करके केवल कहानी के कथानक में परिवर्तन नहीं किया बल्कि उसे यथार्थ शिल्प भी प्रदान किया। उनकी कहानियों में कथानक की जो सघन अन्विति, सहज प्रवाह, चरमसीमा में मार्मिकता, चित्रण की यथार्थता, भाषा की सादगी और अभिव्यक्ति में पैनापन है, वह बहुत कम कहानिकारों में दिखाई पड़ता है। उनकी कहानियों में शिल्प के स्तर पर साधारण और असाधारण का सुखद संयोग हुआ है। 

          प्रेमचंद की तरह सामाजिक यथार्थ को केन्द्र में रखकर कहानी लिखने वालों में सुदर्शन, विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक’, भगवती प्रसाद वाजपेयी, ज्वालादत्त शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कौशिक की ‘ताई’, ‘रक्षाबंधन’, ‘विधवा’, ‘इक्केवाला’, सुदर्शन की ‘हार की जीत’, ‘सूरदास’, ‘हेरफेर’, भगवती प्रसाद वाजपेयी की ‘निंदिया लागी’, ‘मिठाई वाला’ आदि कहानियाँ उल्लेखनीय हैं किंतु इन कहानीकारों ने सामाजिक यथार्थ के चित्रण में न तो प्रेमचंद जैसी सिद्धता हासिल की है और न ही उनकी जैसी व्यापक मानवीय संवेदना उभारने में सफलता प्राप्त की है, फिर भी इनकी कलात्मक उपलब्धि उल्लेखनीय है। सुदर्शन की ‘हार की जीत’, कौशिक की ‘ताई’, भगवती प्रसाद वाजपेयी की निंदिया लागी’ जैसी कहानियों ने अपने मार्मिक संवेदना, मानव-हृदय की सच्ची अभिव्यक्ति और मनोवैज्ञानिक चित्रण के कारण पाठकों के हृदय पर अमिट छाप छोड़ी है। 

          जयशंकर प्रसाद- हिंदी कहानी के विकास में प्रेमचंद की ही तरह जयशंकर प्रसाद का योगदान भी उल्लेखनीय है। प्रसाद जी कवि पहले है, कहानीकार बाद में। परिणामतः उन्होंने ऐसी कहानियों की रचना की जिनमें भावुकता, कल्पनाप्रवणता और काव्यात्मकता की प्रधानता है। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से भारतीय संस्कृति और इतिहास के उन स्वर्णिम अध्यायों को भी फिर से प्रकाशित किया जिनमें देशप्रेम, आत्मगौरव, आदर्श, प्रेम और कर्त्तव्य की मार्मिक झाँकी अंकित है। अतीत के गौरव-गान के द्वारा प्रसाद जी ने प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्ष को काफी बल प्रदान किया। इस दृष्टि से उनकी ‘देवरथ’, ‘सालवती’, ‘पुरस्कार’, ‘सिकन्दर की शपथ’, ‘चित्तौढ़ का उद्धार’ जैसी कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। प्रसाद जी की ऐतिहासिक इतिवृत्ति पर लिखी गई ऐसी अनेक कहानियाँ हैं जो प्रेमभावना के विभिन्न रूपों को उद्घाटित करती हैं जैसे ‘तानसेन’, ‘रसिया बालम’, ‘गुलाम’, ‘जहाँ आरा’, ‘मदन-मृणालिनी’ आदि। प्रसाद जी मूलतः प्रेम और सौन्दर्य के रचनाकार हैं। यह उनकी विशिष्टता और एक हद तक सीमा भी है। उनकी यह विशिष्टता उनकी कहानियों में भी मोजूद है। प्रसाद जी की प्रकृति अन्तर्मुखी थी, जिसके कारण उनकी अधिकांश कहानियों में व्यक्तिवादी रचना-दृष्टि दिखाई पड़ती है, किन्तु उनकी अनेक कहानियाँ ऐसी भी हैं, जिनमें सामाजिक-राजनीतिक चिनताओं और समस्याओं की अभिव्यक्ति प्रभावशाली ढंग से हुई है। ‘बिसाती’, ‘मधुआ’ जैसी कहानियाँ लिखकर प्रसाद जी ने सामान्य जन के प्रति भी अपना गहरा राग प्रदर्शित किया है। ‘मधुआ कहानी उनकी अनुपम रचना है। यह प्रेमचंद की सामाजिक कहानियों के बीच स्थान पाने के योग्य है। प्रसाद और प्रेमचंद एक ही युग के रचनाकार होते हुए भी अपनी प्रेरणा, भावना और रचना-दृष्टि के धरातल पर एक-दूसरे से काफी भिन्न थे। एक तरह से दोनों ने हिन्दी कहानी में दो समानान्तर धाराओं को विकसित किया- एक थी प्रेमचंद की समाजपरक यथार्थवादी धारा, दूसरी थी प्रसाद की भाववादी व्यक्तिवादी धारा; किन्तु इन दोनों धाराओं को विरोधी धाराएँ न मानकर परस्पर पूरक और सहयोगी धाराएँ मानना चाहिए। दोनों ने अपने समय के समाज के अपने-अपने ढंग से जगाने और आगे ले चलने का कार्य किया। 

          प्रेमचंद युगीन कहानियों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

•         ये परिमार्जित भारवा वाली कहानियाँ हैं। 

•         ये आदर्श और यथार्थवादी कहानियाँ है। 

•         ये मानवीय सम्बन्धों का उद्घाटन करने वाली कहानियाँ हैं। 

•         ये ग्राम्य जीवन पर प्रकाश डालने वाली कहानियाँ हैं। 

•         ये राष्ट्रवादी और देश प्रेम से ओतप्रोत तथा राजनैतिक पराधीनता और आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाली कहानियाँ हैं। 

•         ये समाज में व्याप्त रूढ़िवादी, कुरीतियों और अशिक्षा को दर्शाने वाली कहानियाँ हैं। 

(ग)   प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी 

          प्रेमचंद के पश्चात् हिन्दी कहानी का विकास और तीव्रता से हुआ। प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद के पश्चात् नये युग में हिन्दी कहानी की दो प्रमुख शाखाएँ उभरकर आयी। इनमें एक शाखा का सम्बन्धी प्रेमचंद के यथार्थवादी परंपरा से था, और दूसरी शाखा का सम्बन्ध जयशंकर प्रसाद की भाववादी मनोवैज्ञानिक परंपरा से। इसलिए इन्हें इतिहासकारों ने प्रगतिवादी और मनोवैज्ञानिक कहानियों का नाम दिया। 

          प्रगतिवादी कहानी- हिन्दी की प्रगतिवादी कहानी को यथार्थवादी और सामाजिक कहानी भी कहा जाता है। सन् 1936 में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई इसके पश्चात् अनेक कहानी लेखक इससे जुड़े जिन्होंने अनेक यथार्थवादी कहानियाँ लिखीं। साहित्य समीक्षकों ने इन्हीं कहानियों को प्रगतिशील कहानियों का नाम दिया, इन कहानीकारों में यशपाल, उपेन्द्रनाथ 

          ‘अश्क’, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, विष्णु प्रभाकर, अमृतलाल नागर आदि कहानीकार मुख्य हैं। इन सभी कहानीकारों ने प्रेमचंद की तरह ही धार्मिक अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों, आर्थिक शोषण तथा राजनैतिक पराधीनता ने निर्धन वर्ग को अपनी कहानियों का विषय बनाया। इन कहानीकारों ने निर्धन वर्ग को अपनी कहानियों के केन्द्र में रखा, इनकी कहानियाँ, कहानी तत्त्वों की कसौटी पर खरी उतरती है। इन कहानियों के शीर्षक, कथानक, कथोपकथन, चरित्र चित्रण पात्र, उद्देश्य, देशकाल-वातावरण तथा भाषा शैली जैसे कहानी तत्त्व इन्होंने कहानियों में जब कभी पात्रों का चरित्र चित्रण किया है तो इनकी दृष्टि व्यक्ति के अन्तर्गत के बजाय उसके सामाजिक व्यवहार पर अधिक स्थिर होती है। 

यशपाल इस अवधि में यशपाल हिन्दी कहानी के क्षेत्र में उतरे। इन्होंने जीवन के यथार्थ को लेकर उसकी मार्क्सवादी व्याख्या की। यशपाल की रचनाओं पर फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद का प्रभाव दृष्टिगत होता है। इनकी कहानियों में मध्यम वर्गीय जीवन की विसंगतियों का मार्मिक चित्रण मिलता है। साथ ही निम्नवर्गीय शोषितों की व्यथा, अभाव और जीवन संघर्ष के भी दर्शन होते हैं। 

          यशपाल प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाले कहानीकार हैं। उन्होंने सामाजिक शोषण, दरिद्रता, नग्नता, अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न आदि को अपनी कहानियों का विषय बनाया और हमारे सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के संघर्षों, मूल्यों, मर्यादाओं एवं नैतिकता के खोखलेपन को उद्घाटित किया। उन्होंने ‘कर्मफल’, ‘फूल की चोरी’, ‘चार आने’, ‘पुनियाँ की होली’, ‘आदमी का बच्चा’, ‘परदा’, ‘फूलों का कुर्ता’, ‘धर्म रक्षा’, ‘करवा का व्रत’, ‘पतिव्रता’ आदि कहानियों में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता के दोषों, तज्जनित परिणामों और कुरीतियों की मार्मिक अभिव्यक्ति की। यशपाल ने मर्यादा धर्म और नैतिकता के थोथेपन पर तीव्र आघात किया और उसके विरुद्ध अपने पात्रों में संघर्ष-चेतना जाग्रत की। उनकी कहानियों में व्यंग्य का स्वर मुखरित हुआ, कहानी कला में स्थूल समाज-चित्रण के स्थान पर उसके मार्मिक एवं सांकेतिक उद्घाटन की कला का विकास हुआ, कहानी की स्थूलता समाप्त हुई और उसे सूक्ष्म संगठित व्यक्तिवाद प्राप्त हुआ। यशपाल की इस मार्क्सवादी यथार्थवादी कलादृष्टि को प्रश्रय देने वाले कहानीकारों में रांगेय राघव, भैरवप्रसाद गुप्त, नागार्जुन के नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने शोषण, अन्याय और पूँजीवाद व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष-भाव को प्रेरित करने वाली कहानियाँ लिखीं। रांगेय राघव ने राष्ट्रीय स्वाधीनता-संघर्ष, बंगाल का आकाल, देश-विभाजन, साम्प्रदायिक विद्वेष, मजदूरों की देशव्यापी हड़तालों, गोलीकांड, बेरोजगारी और भुखमरी आदि को विषय बनाकर जो कहानियाँ लिखीं, वे उनकी सामाजिक-राजनीतिक राजगरूकता का पता देती है। उनकी उल्लेखनीय कहानियों में ‘गदल’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘मृगतृष्णा’, ‘कुत्ते की दुम शैतान’ का नाम लिया जा सकता है। 

पाण्डेय बेचन शर्माउग्र‘- पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने इस काल में प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद से भिन्न एक अलग रास्ता बनाया, उन्होंने स्वतंत्र रूप से साहित्य-साधना की और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। ‘उग्र’ ने अपने को हिन्दी के प्रथम राजनीतिक लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ‘उसकी माँ’, ‘दोजख की आग’, ‘चिन्गारी’, ‘बलात्कार’, ‘भुनगा’ आदि कहानियों की रचना करके राजनीतिक एवं सामाजिक यथार्थ का प्रकृत रूप प्रस्तुत किया जिसके लिए उनकी कटु आलोचना भी हुई। लोगों ने उनके साहित्य को ‘अश्लील’ और उन्हें ‘घासलेटी साहित्यकार’ भी कहा किन्तु ‘उग्र’ ने इस सब की परवाह न करते हुए सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर करारा व्यंग्य किया, उसकी कुरीतियों-त्रुटियों को बड़े साहस के साथ प्रकाशित किया। उन्होंने अपने सहज व्यंग्य से हिन्दी कहानी की भाषा को धार और सजीवता प्रदान की। 

विष्णु प्रभाकर विष्णु प्रभाकर एक सुधारवादी लेखक है। इन्होंने वर्तमान समय की सामाजिक व्यवस्था तथा व्यक्ति एवं परिवार के सम्बन्धों को लेकर कहानियों की रचना की। इस कहानीकार ने वर्तमान सामाजिक एवं शासन व्यवस्था में व्यक्ति-जीवन के संकट को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है, इनकी ‘धरती अब घूम रही है’ लोकप्रिय कहानी है, ‘रहमान का बेटा’, ‘ठेका’, ‘जज का फैसला’, ‘गृहस्थी मेरा बेटा’ अभाव आदि कहानियाँ विष्णु प्रभाकर की उत्तम कोटि की कहानियाँ हैं। 

अमृतलाल नागर अमृतलाल नागर ने आज के जीवन के आर्थिक संकट, विपन्नता, पारिवारिक संबंधों का तनाव आदि विषयों को अपनी कहानियों का विषय बनाया। ‘दो आस्थाएँ’, ‘गरीब की हाय’, ‘निर्धन कयामत का दिन’, ‘गोरख धन्धा’ आदि कहानियाँ इनकी महत्त्वपूर्ण कहानियाँ हैं। 

मनोवैज्ञानिक कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद के पश्चात् हिन्दी कहानी संसार में कुछ ऐसे कहानीकार भी आये जिन्होंने मानवमन को केन्द्र में रखा। इन कहानीकारों ने समस्याओं की अपेक्षा आदमी की वैयक्तिक पीड़ाओं और मानसिक अन्तर्द्वन्द्व को अधिक महत्त्व दिया। इन्होंने मानव के अवचेतन मन की क्रियाओं और उनकी मानसिक ग्रन्थियों को अपनी कहानियों का विषय बनाया मानव के अन्तर्द्वन्द्व को केन्द्र में रखने के कारण इन कहानीकारों की कहानियों में मनोवैज्ञानिक सत्य और चरित्र की वैयक्तिक विशिष्टता विशेष रूप से व्यक्त हुई है। इन कहानीकारों में जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, भगवती चरण वर्मा, चन्द्र गुप्त विद्यालंकार आदि कहानीकार मुख्य हैं। 

जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद के यथार्थ और आदर्श की दिशा से बिल्कुल हटकर मानव मन के चितेरे के रूप में जिन अन्य कहानीकारों ने हिन्दी कहानी संसार में प्रवेश किया उनमें जैनेन्द्र कुमार का प्रमुख स्थान है। इनका ध्यान समाज के विस्तार की अपेक्षा व्यक्ति की मानसिक गुत्थियों, सामाजिक परिवेश के दबाव और प्रतिबद्धता के कारण होने वाली वैयक्तिक समस्याओं की ओर अधिक गया। जैनेन्द्र मनोवैज्ञानिक सत्यको उद्घाटित करने वाले कहानीकार हैं किन्तु उनकी दृष्टि सिद्धान्तबद्ध और संकुचित नहीं है। उन्होंने व्यावहारिक मनोविज्ञान का सहारा लिया है, मनोवैज्ञानिक युक्तियों का नहीं। ‘पत्नी’, ‘पाजेब’, ‘जाह्नवी’, ‘ग्रोमोफोन का रिकार्ड’, ‘एक गो’ जैसी कहानियों में केवल मनोवैज्ञानिक युक्तियाँ नहीं है बल्कि उनमें गहरी मानवीय संवेदना और वास्तविकता भी है। जैनेन्द्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण स्वस्थ एवं स्वच्छ हैं, उसमें विश्वसनीयता और आत्मीयता है। वे हिन्दी के पहले ऐसे कहानीकार हैं जिसने हिन्दी कहानी को घटना-वर्णन के घेरे से निकालकर पूरी तरह चरित्र–प्रधान बनाया। जैनेन्द्र ने मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं का चित्रण करते हुए समाज की कुरीतियों और कुसंस्कारों से लड़ने के लिए विद्रोह भाव भी पैदा किया। 

इलाचन्द्र जोशी इलाचंद्र जोशी की कहानियाँ फ्रायड के सिद्धान्त का साहित्यिक रूपान्तरण प्रतीत होती हैं। उनकी कहानियों में मनुष्य की दमित वासनाओं, इच्छाओं, रुग्ण मनोवृत्तियों, अहंकार, आत्मरति, ईर्ष्या, अंधविश्वास आदि का सूक्ष्म, प्रतीकात्मक और सांकेतिक अंकन हुआ है। जोशी जी का विचार है कि मनुष्य का असली रूप उसके भीतर-मन में विद्यमान है अतः उसके अन्तर्मन की परतों को उधेड़कर ही उसे जाना जा सकता है। 

          अपनी इस धारणा के तहत उन्होंने ‘रोगी’, ‘परित्यक्ता’, ‘खण्डहर की आत्माएँ’, ‘दुष्कर्मी’, ‘बदला’ जैसी कहानियाँ लिखीं। इन कहानियों से जोशी जी ने जिस मनुष्य को रूपायित किया वह काफी रुग्ण, आत्मसीमित, कुंठित और अपराधी है। जोशी की कहानियों में आन्तरिक यथार्थ के चित्रण पर बल देने के कारण भाषा-शैली में व्यापक परिवर्तन परिलक्षित हुआ। उनकी भाषा जटिल मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति के लिए, जटिल और दुर्बोध हुई, उसकी लयात्मकता और मिठास गायब हो गई और शैली में प्रतीकात्मकता और व्यंजकता का समावेश हुआ। 

अज्ञेय अज्ञेय इस परम्परा के तीसरे महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। उनमें मनोवैज्ञानिक पकड़ के साथ चिन्तन की गहराई और सूक्ष्मता है जो कभी-कभी दार्शनिक ऊँचाई भी प्राप्त कर लेती है। उन पर सार्च आदि अस्तित्ववादी चिन्तकों का भी गहरा प्रभाव है। अज्ञेय की कहानियाँ पाठक को झकझोरती, उबुद्ध करती और उसकी अपनी पहचान बनाने के लिए तैयार करती है। ‘जयदोल’, ‘कोठरी की बात’, ‘रोज’, ‘परम्परा’, ‘द्रोही’, ‘शरणदाता’, ‘विपथगा’ आदि कहानियाँ उनके गूढ़ चिन्तन, मनोवैज्ञानिक चित्रण और विद्रोही स्वभाव का परिचय देने में सक्षम हैं। अज्ञेय मूलतः एक ऐसे कहानीकार हैं जो मानव के मानसिक अन्तर्द्वन्द्वों और गूढ़ रहस्यों को परखने का यत्न करते हैं। इसलिए इनकी कहानियों में एक विशेष प्रकार की ‘चिन्तन शीलता’ तथा ‘तटस्थ बौद्धिकता’ के दर्शन होते हैं। 

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी 

          प्रेमचंदोत्तर हिन्दी कहानी के कई रचनाकार स्वातंत्र्योत्तर काल में भी रचनारत रहे और उन्होंने हिन्दी कहानी को नई गति और दिशा देने में अपना रचनात्मक महयोग भी दिया किन्तु सन् 1947 में आजाद हुए भारत में कहानीकारों की जो नई पीढ़ी तैयार हुई उसने हिन्दी कहानी के वस्तु, शिल्प और संचेतना में व्यापक परिवर्तन उपस्थित कर दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक हिन्दी कहानी का त्वरित एवं अनेकायामी विकास हुआ है; कई छोटे बड़े कहानी आन्दोलनों के बीच से गुजरती हुई हिन्दी कहानी आज जिस मुकाम पर पहुँची है, उसे देखते हुए कहना पड़ता है कि स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी अपने समय और समाज के साथ चलती हुई निरन्तर अपने को नये रूप-रंग में ढालती रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी कहानी में कई आन्दोलन चले जिनमें से प्रमुख हैं- ‘नयी कहानी’, ‘अकहानी’ तथा ‘जनवादी कहानी। 

नयी कहानी : आन्दोलन की शुरुआत 

          स्वतंत्रता प्राप्ति तक हिन्दी में कोई कहानी आन्दोलन नहीं चला था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ‘नयी कहानी’ के रूप में एक ऐसा कहानी आन्दोलन चला जिसने कहानी के पारंपरिक प्रतिमानों को नकार दिया और अपने मूल्यांकन के लिए नई कसौटियाँ निर्धारित की। जाहिर है कि स्वतंत्रता मित्र जाने पर भारतीय मानस में एक नयी चेतना, नये विश्वास और नयी आशा-आकांक्षा का जन्म हुआ। नयी-कहानी के आन्दोलनकारियों ने, जिसमें राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर के नाम प्रमुख हैं- इस बदले हुए यथार्थ और नये अनुभव-संबंधों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति पर बल दिया। नये कहानीकारों ने ‘परिवेश की विश्वसनीयता’, ‘अनुभूति की प्रमाणिकता’ और ‘अभिव्यक्ति की ईमानदारी’ का प्रश्न उठाया और आग्रह किया कि ‘नयी कहानी’ अपने युग सत्य से सीधे जुड़ी हुई है जिसका मूल उद्देश्य है पाठक को उसके समकालीन यथार्थ से यथार्थ रूप में परिचित कराना। फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, मार्कण्डेय, अमरकान्त, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, हरिशंकर परसाई, शैलेष मटियानी जैसे कहानीकारों ने अपने युगीन यथार्थ की मार्मिक एवं प्रामाणिक अभिव्यक्ति करके ‘नयी कहानी’ के आन्दोलन को तीव्र किया। राजेन्द्र यादव ने ‘एक दुनिया : समानान्तर’ नामक पुस्तक का संपादन करके ‘नयी कहानी’ का एक प्रामाणिक संग्रह प्रस्तुत किया। इस संग्रह में जो कहानियाँ संकलित की गई हैं उनमें से कुछ प्रमुख के नाम हैं- ‘जिन्दगी और जोंक’ (अमरकान्त), ‘परिन्दे’ (निर्मल वर्मा), ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुल्फाम’ (फणीश्वरनाथ रेणु), ‘चीफ की दावत’ (भीष्म साहनी), ‘सही सच है’ (मन्नू भंडारी), ‘एक और जिन्दगी’ (मोहन राकेश), ‘प्रेत मुक्ति’ (शैलेश मटियानी), ‘भोलाराम का जीव’ (हरिशंकर परसाई)। इस सूची से यह सहज रूप से जाना जा सकता है कि ‘नयी कहानी’ के आन्दोलन के साथ कई बडे हस्ताक्षर प्रकाश में आये। आगे चलकर उनमें से अनेक ने अपने विशिष्ट रचना-शिल्प के आधार पर अपनी अलग पहचान बनाई, जैसे ‘रेणु’ को आंचलिक कथाकार के रूप में ख्याती मिली तो अमरकान्त मध्यवर्ग के दुख-सुख, शोषण-अन्याय के मार्मिक कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। और निर्मल वर्मा शहरी जीवन के अकेलेपन, ऊब, संत्रास और कुंठा के विशिष्ट गद्य में रचने वाले अनूठे कहानीकार प्रमाणित हुए। 

          स्वतंत्रता मिल जाने से सामाजिक जीवन में काफी उथल-पुथल हुई, पुराने रिश्ते-नाते टूटे-बिखरे, परिवार का परम्परागत ढाँचा जो प्रेमचंद के समय से ही चरमरा रहा था, बुरी तरह बिखर गया। स्त्री-पुरुष की स्थिति और संबंधों में परिवर्तन आया, स्वतंत्रता ने युगों से दलित स्त्री को पुरुषों की ही भाँति खाने-कमाने की आजादी दी, समाज के विभिन्न वर्गों में नयी चेतना विकसित हुई, अब तक जो दलित शोषित था उसे सिर उठाकर चलने का वातावरण मिला और सरकार बनाने में उसे भी बराबर का मताधिकार मिला। ‘नयी कहानी’ ने इन सारे परिवर्तित–विघटित होते हुए संबंधों एवं मूल्यों को बड़ी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाया। महानगरीय, कस्बाई एवं ग्रामीण जीवन-बोध, यथार्थ चित्रण, ऐतिहासिक मोहभंग, मध्यवर्गीय जीवन का मार्मिक अंकन, सामाजिक एवं पारिवारिक संबंधों के बिखराव और निर्मिति की सही पहचान, नवीन भाषा-शिल्प आदि नयी कहानी की उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। मोहन राकेश ने ‘मलबे का मालिक’, ‘मिसपाल’, ‘आर्द्रा’, राजेन्द्र यादव ने ‘खेल खिलौने’, ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’, कमलेश्वर ने ‘राजा निरबंसिया’, ‘दिल्ली में एक मौत’, उषा प्रियंवदा ने ‘वापसी’, भीष्म साहनी ने ‘चीफ की दावत’ जैसी कहानियों को लिखकर स्वातंत्र्योत्तर भारत को नगरीय जीवनबोध को ईमानदारी के साथ चित्रित किया। ‘रेणु’ जैसे रचनाकारों ने ‘तीसरी कसम’, ‘लालपान की बेगम’, ‘रसप्रिया’ जैसी कहानियों के माध्यम से अंचल विशेष की आशा-आकांक्षा और कथा-कथा को नये भाषा-शिल्प में प्रस्तुत करके आंचलिक कथा-लेखन का मार्ग प्रशस्त किया। ‘नयी कहानी’ में स्थूल कथानकों के स्थान पर सूक्ष्म कथा-तन्तुओं को प्रधानता मिली, सांकेतिकिता, प्रतीकात्मकता और बिम्बात्मकता का प्राधान्य हुआ। नये कहानीकारों ने कहानी का नया आलोचना-शास्त्र तैयार करने की पहल की, और नामवर सिंह ने ‘कहानी : नयी कहानी’ पुस्तक के माध्यम से ‘नयी कहानी’ के मूल्यांकन की कसौटियों को रेखांकित किया। हिन्दी की समूची कहानी यात्रा में ‘नयी कहानी’ आन्दोलन सशक्त और प्रभावशाली आन्दोलन रहा है। 

अकहानी 

          सन् 1950 के आस-पास ‘नयी कहानी’ नये मूल्यों नये जीवन-बोध, नये शिल्प और नये अनुभव-संसार की प्रामाणिक अभिव्यक्ति करने का जो संकल्प लेकर चली, वह सन् 1960 तक आते-आते पुराना पड़ गया और यह कहानी भी अपनी रूढ़ियों में फँसकर एक प्रकार से निस्तेज हो गयी। इसका कारण यह भी था कि ‘नयी कहानी’ स्वतंत्रता प्राप्ति के जिस नये वातावरण में नयी चुनौतियों के बीच पनपी थी, वे समाप्त हो गयीं और देश तथा समाज अपनी असफलताओं, कमियों और असमर्थताओं का बुरी तरह शिकार हो गया। 

          सन् 1960 के बाद राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जीवन के बदले हुए घटनाक्रमों ने जो मोहभंग का दृश्य प्रस्तुत किया उसवे ‘नयी कहानी’ की चेतना संभाल न सकी। नयी कहानी खुद अपनी ही रूढ़ियों में फँस गयी, फलतः ‘अ-कहानी’ का स्वर तीव्र हुआ जिसकी मूल संकल्पना थी- “नयी कहानी के भोगे हुए यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता और प्रतिबद्धता जैसे खोखले नारों के खिलाफ एक सशक्त कार्यवाही।” इस कहानी पर फ्रांस की ‘एण्टी स्टोरी’ और अस्तित्ववादी चिन्तक सार्च और कामू के विचार-दर्शन का प्रभाव था। ‘अकहानी’ के लेखकों ने नकार या अस्वीकार का दर्शन स्वीकार किया। यह कथा के स्वीकृत आधारों का निषेध तथा किसी भी तरह की मूल्य-स्थापना के अस्वीकार का संकल्प लेकर आगे बढ़ी और इसमें बड़ी तन्मयता के साथ उस समय के मनुष्य की पीड़ा, संत्रास, कुण्ठा, व्यर्थताबोध, अजनबीपन, नगण्यताबोध आदि का चित्रण करके अपनी यथार्थ चेतना को नये परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने का प्रयत्न किया गया । 

          जगदीश चतुर्वेदी, श्रीकांत वर्मा, राजकमल चौधरी, प्रबोध कुमार, रविन्द्र कालिया, ममता कालिया, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल, महेन्द्र भल्ला, मुद्राराक्षस, गंगाप्रसाद विमल जैसे अनेक कहानीकारों ने तत्कालीन यथार्थ का चित्रण करते हुए ऐसी कहानियाँ लिखीं जो उस समय के मनुष्य की पीड़ा, हताशा, निराशा, ऊब, घुटन परेशानी और व्यर्थताबोध के साथ-साथ मूल्य विघटन की त्रासदी का मार्मिक साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। श्रीकांत वर्मा की ‘झाड़ी’, ‘शवयात्रा’, दूधनाथ सिंह की ‘रक्तपात’, ‘आइसबर्ग’, रवीन्द्र कालिया की “सिर्फ एक दिन’ जैसी कहानियाँ उपर्युक्त तथ्यों की पड़ताल के लिए पढ़ी जा सकती हैं। 

          कहानीकारों ने कुंठित, हताश और संत्रस्त मनुष्य के यथार्थ का चित्रण करते हुए अपनी दृष्टि काम-सम्बन्धों पर इस तरह टिकायी कि अकहानी अवस्थ मनोविज्ञान का पुलिंदा बन गयी। इन कहानीकारों ने काम-कुंठाओं और काम-विकृतियों का चित्रण करते हुए उन्मुक्त यौन-संबंधों की वकालत की जिससे तिलमिलाकर कमलेश्वर ने ‘ऐयाशों का प्रेत विद्रोह’ नामक लेख लिखा और हिन्दी कहानी के ‘जाँघों के जंगल’ में भटकी हुई कहकर भर्त्सना की। राजकमल चौधरी की कहानियों की आधी से अधिक दुनिया आवारा, पेशेवर, बाजारू औरतों की दुनियाँ और उनके पुरुष भी उसी धंधे की जरूरतों को पूरा करने वाले लोग हैं। उनकी इस चेतना में अकहानी आन्दोलन की सीमाओं का संकेत स्पष्ट रूप से विद्यमान है। जगदीश चतुर्वेदी की कहानियों में भी असामान्य यौनेच्छा ओर यौनावेग को प्रमुखता मिली है। 

          अकहानी ने कहानी के शिल्प उमें कुछ नये प्रयोग किये जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में कथा-तत्त्व नहीं के बराबर है, घटनाएँ और ब्यौरे भी असत्य है। कहानी में सूक्ष्मता को बल मिला है। इन सबका प्रभाव यह पड़ा है कि हिन्दी कहानी उत्तरोत्तर जटिल और दुर्बोध होती गई है और उससे कथारस गायब हो गया है। 

जनवादी कहानी 

          सन् 1982 में दिल्ली में ‘जनवादी लेखक संघ’ की स्थापना और उसके राष्ट्रीय अधिवेशन के साथ ही हिन्दी में जनवादी लेखन को तीव्रता प्राप्त हुई। इसके बाद जनवादी कहानी पर ‘कलम’ (कलकत्ता), “कथन’ (दिल्ली), ‘उत्तरगाथा’ (दिल्ली), ‘उत्तर्राध’ (मथुरा), ‘कंक’ (रतलाम) जैसी पत्रिकाओं में व्यापक रूप से चर्चा शुरू हो गई। जब हम हिन्दी कहानी में जनवादी कहानी आन्दोलन अन्य आन्दोलनों की तरह सहमा नहीं उठ खड़ा हुआ था। एक लम्बे समय से उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। इस पृष्ठभूमि के निर्माण में प्रेमचंद की जनपक्षधरता, यशपाल (परदा), रांगेय राघव (गदल), भैरव प्रसाद गुप्त (हड़ताल), मार्कण्डेय (हंसा जाई अकेला), भीष्म साहनी (चीफ की दावत), अमरकांत (दोपहर का भोजन), शेखर जोशी (कोसी का घटबारा) की प्रगतिशील रचनात्मकता, ‘समान्तर कहानी’ के आम आदमी की स्थापना और उसका संघर्ष तथा तत्युगीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों का बहुत बड़ा योगदान है। जनवादी कहानी अपनी मूल प्रकृति में सामान्य जन के संघर्ष की पक्षधर है तथा उसका वैचारिक आधार मार्क्सवाद है। वह प्रेमचंद की जनपक्षधर कथा-परम्परा का विकास है। मध्यवर्ग और सर्वहारा के बीच निकटता अनुभव करना प्रेमचंद की ऐतिहासिक समझ का परिणाम था। जनवादी कहानी का सर्वाधिक बल सर्वहारा तथा मध्यवर्ग द्वारा किये जा रहे शोषण-विरोधी संघर्ष पर है। यह संघर्ष बहुआयामी है। जनवादी कहानी में संघर्षरत पात्र निर्णय लेने की स्थिति में हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति पूर्ण सजग और संघर्षरत है। जनवादी कहानी की मूल प्रवृत्ति श्रमजीवी के प्रति सहानुभूति है। वह श्रमजीवी जनता के हक की लड़ाई की पक्षधर है। पूँजीवादी ताकतों को बेनकाब करना, उनके मंसूबों को विफल करना, शोषण-तंत्र को लुंज-पुंज करना और मेहनतकश जनता को एकजुट करके निर्णायक संघर्ष की ओर ले जाना आदि कुछ मूलभूत वे बाते हैं जो किसी कहानी को जनवादी कहानी का रूप प्रदान करती है। 

          जनवादी कहानी को अपनी रचनात्मकता से गति देने वाले रचनाकारों में रमेश उपाध्याय (देवी सिंह कौन, कल्प वृक्ष), रमेश बतरा (कत्ल की रात, जिंदा होने के खिलाफ), स्वयं प्रकाश (आस्मां कैसे-कैसे, सूरज कब निकलेगा), हेतु भारद्वाज (सुबह-सुबह, अब यही होगा), नमिता सिंह (राजा का चौक, काले अंधेरे की मौत), उदय प्रकाश (मौसा जी, टेपचू), राजेश जोशी (सोमवार, आलू की आँख), धीरेन्द्र अस्थाना (लोग हाशिये पर, सूरज लापता है), मदन मोहन (बच्चे बड़े हो रहे हैं, दारू) आदि के नाम उल्लेखनीय है। 

समकालीन हिन्दी कहानी 

          समकालीन हिन्दी कहानी से तात्पर्य उस कहानी से है जो आज की परिस्थितियों का साक्षात्कार करती है और बिना किसवी पूर्वाग्रह के समय के सच को पूरी ईमानदारी के साथ चित्रित करती है। इस संदर्भ में मधुरेश का यह वक्तव्य विचारणीय है- ‘समकालीन होने का अर्थ सिर्फ समय के बीच होने से नहीं है। समकालीन होने का अर्थ है समय के वैचारिक और रचनात्मक दबावों को झेलते हुए उनसे उत्पन्न तनावों और टकराहटों के बीच अपनी सर्जनशीलता द्वारा अपने होने को प्रमाणित करना। कुछ लोगों ने समकालीन हिन्दी कहानी के रूप में एक कहानी-आन्दोलन को भी रेखांकित करने की कोशिश की है किन्तु वास्तविकता यह है कि समकालीन कहानी, आन्दोलन की संकीर्णताओं से उबर चुकी है। समकालीन लेखक आन्दोलन के उन खतरों और सीमाओं से वाकिफ है, इसलिए वह स्वतंत्र रीति से साहित्य-साधना को प्रश्रय दे रहा है किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि कथा-लेखन की दुनिया से वैचारिक प्रतिबद्धता को विदाई मिल गई है या लेखक आत्मसीमित हो गया है। 

          समकालीन कथा-परिदृश्य में पिछले कहानी-आन्दोलनों से जुड़े रचनाकारों के अलावा अनेक नये कहानीकार सृजनरत हैं जैसे- संजय (कामरेड का कोट, भगदत्त का हाथी), उदय प्रकाश (दरियाई घोड़ा, तिरिछ, और अन्त में प्रार्थना), ज्ञान प्रकाश विवेक (जोसफ चला गया, मुंडेर, कमीज), अब्दुल बिस्मिल्लाह (रैन बसेरा, अतिथि देवो भव), रमेश उपाध्याय (नदी के साथ, जमी हुई झील), स्वयं प्रकाश (मात्रा और भार, सूरज कब निकलेगा), शिवमूर्ति (कसाईबाड़ा, तिरिया चरित्तर), मदन मोहन (दलदल, हारू, फिर भी सूखा) आदि। इनके अतिरिक्त नयी कहानी के दौर की प्रमुख लेखिकाओं मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा तथा समान्तर कहानी से जुड़ी लेखिकाओं- दीप्ति खण्डेलवाल, निरूपमा सेवती के साथ-साथ आठवें नवें दश्खक से अपनी रचनात्मकता को प्रकाशित करने वाली मृणाल पाण्डेय, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, राजी सेठ, मंजूल भगत, सुधा अरोड़ा, प्रभा खेतान के भी नाम उल्लेखनीय हैं जिनसे समकालीन हिन्दी कहानी का एक ऐसा परिदृश्य प्रत्यक्ष होता है जिसमें न तो वैचारिक जकड़बन्दी है, न सीमित जीवनानुभव पर आधारित कलाबाजी। आज का कहानीकार अपने समय के बृहत्तर सच को उसकी पूरी विविधता में चित्रित करने में लगा हुआ है। समकालीन जीवन पर राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय संदर्भो- वैश्वीकरण, उदारीकरण, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से कई तरह के दबाव पड़ रहे हैं। उन दबावों को पहचानना और उनके बीच से जीवन का मार्ग तलाशना आज के कहानीकार की जिम्मेदारी है। कहना न होगा कि समकालीन कहानीकार अपने दायित्व के प्रति काफी सजग है। 

Leave A Reply

Your email address will not be published.