हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

हिंदी की प्रमुख बोलियों का परिचय

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1. खड़ीबोली

आधुनिक हिंदी का मानकीकृत रुप खड़ी बोली को माना जाता है। खड़ी बोली का विकास शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी हिंदी उपभाषा से हुआ है। हिन्दुस्तानी, उर्दू, दक्खिनी हिंदी का आधार भी खड़ी बोली को माना जाता है। ‘खड़ी बोली’ शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई इस पर कई विद्वानों में मतभेद दिखाई पड़ता हैं। राहुल सांकृत्यायन खड़ी बोली को “कौरवी” कहते हैं, तो कुछ विद्वान इसकी कर्कशता के कारण इसे खड़ी कहते हैं। गिलक्राइस्ट खड़ी बोली को ‘गँवारू’ कहने के पक्ष में हैं। किशोरी लाल गोस्वामी इसमें खड़ी पाई की प्रधानता को देखते है जिस कारण इसे खड़ी बोली कहते है। निष्कर्षतः इन सभी तथ्यों के आधार पर ‘खड़ी बोली’ नाम ही सबसे सर्वमान्य लगता है।

खड़ी बोली मुख्यतः दिल्ली, मेरठ, बिजनौर, देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुज्जफरनगर, रामपुर, मुरादाबाद आदि के आसपास बोली जाती है। भारत में खड़ी बोली बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है। हिंदी की सम्पर्क भाषा के रूप में खड़ी बोली की महत्ता और बढ़ जाती है।

साहित्य की दृष्टि से यदि हम खड़ी बोली पर विचार करें तो हिंदी साहित्य का आधुनिक काल (भारतेंदु से अब तक) का सारा साहित्य खड़ी बोली में रचित है। हिंदी भाषा के रूप में खड़ी बोली को विकसित करने में फोर्टविलियम कॉलेज का योगदान सबसे महत्वपूर्ण रहा। खड़ी बोली के रूप में हिंदी भाषा के अध्ययन की शुरुआत सर्वप्रथम फोर्टविलियम कॉलेज में हुई। इसके उपरांत हिंदी साहित्य के आधुनिक कालीन साहित्यकार भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, प्रेमचंद आदि ने खड़ी बोली को साहित्यिक आधार प्रदान किया। आज समकालीन युग में तो हिंदी का सारा साहित्य खड़ी बोली में रचित है। यही नहीं सन् 1950 में संविधान ने हिंदी की जिस बोली को राष्ट्रीयभाषा तथा राजभाषा का दर्जा दिया वह हिंदी की खड़ी बोली है।

खड़ी बोली की भाषागत विशेषता की बात करें तो खड़ी बोली देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। साथ ही ब्रज भाषा के ओकारांत रूप जैसे (घोड़ों) तथा अवधी भाषा के व्यंजनांत रूप जैसे (धोड़) की तुलना में खड़ी बोली में आकारांत रूप (घोड़ा) मिलता है। जिसे हिंदी का शुद्ध तथा मानक रूप माना जाता है।

2. ब्रजभाषा

खड़ी बोली की भांति ब्रज भाषा का उद्भव भी शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। ब्रज का शाब्दिक अर्थ है “चरवाहा भूमि” इस कारण ब्रजभाषा अपने प्रारंभ से ही मध्यदेश की भाषा रही है जहाँ पशुओं की संख्या अधिक होती है जैसे मथुरा, आगरा आदि। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने इसे ‘माथुरी’ या ‘नागभाषा’ कहा है तो कुछ विद्वानों ने ब्रजभाषा को ‘अन्तर्वेदी’ नाम भी दिया है तथा प्रारंभ में इसे पिंगल भाषा के रूप में जाना जाता था।

साहित्यिक दृष्टि से यदि ब्रजभाषा के इतिहास पर विचार करें तो हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल की सबसे परिनिष्ठित भाषा ब्रज भाषा रही है। 14वी शताब्दी से प्रारंभ ब्रज भाषा का इतिहास लगभग 500 वर्षों रहा है। भक्तिकाल में कृष्णकाव्य परम्परा से लेकर रीतिकाल का पूरा काल ब्रजमय रहा है। सूरदास, तुलसीदास, नंददास ने जहाँ भक्तिकाल में ब्रजभाषा का उत्थान किया, वहीं रीतिकाल में केशवदास, बिहारी, मतिराम, देव, घनानंद आदि ने अपने साहित्य की रचना ब्रजभाषा में की। उन्होंने ब्रज भाषा को साहित्यिक उन्नयन प्रदान किया। मध्यकाल ही नहीं आधुनिक काल में भी ब्रजभाषा का प्रभाव बना रहा। भारतेंदु काल में काव्य भाषा ब्रज द्विवेदी युग में भी जगन्नाथदास रत्नाकर, अयोध्यासिंह हरिओध आदि बड़े लेखकों ने ब्रजभाषा में साहित्य रचना की। इस प्रकार ब्रज भाषा साहित्यिक दृष्टि से सबसे समृद्ध भाषा रही है। यही कारण है कि ब्रजभाषा बोली के रूप में नहीं अपितु भाषा के रूप में जानी जाती है किन्तु आधुनिक काल तक आते-आते गद्य की रचना की रचना के लिए अक्षम हो गई। यही वजह है कि ब्रजभाषा, भाषा न बनकर एक बोली बनकर रह गई।

ब्रजभाषा का क्षेत्र मुख्यतः मथुरा, आगरा, अलीगढ़, मैनपुरी, बदायूँ, बरेली, राजस्थान में भरतपुर आदि हैं।

ब्रज भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है तथा इसकी भाषिक विशेषता “ओकारांत” शब्दावली है। ‘घोड़ा’ के स्थान पर ‘घोरो’ या बड़ा के स्थान पर बड़ों का प्रयोग ब्रजभाषा की विशेषता है।

3. हरियाणी

हरियाणी बोली का उद्भव भी पश्चिमी हिंदी से हुआ। “हरियाणा” शब्द की उत्पत्ति पर भी कई मत हमें मिलते है। कुछ विद्वानों का मत है कि हरि का यान यहाँ से निकला था। इस कारण इस स्थान को हरियाणा कहते हैं। कुछ विद्वान का मानना है कि हराश्वन जहाँ वनों की संख्या अधिक थी उस स्थान को हरियावन कहा गया जो बाद में हरियाणा बना और वहाँ की बोली हरियाणी कहलायी। हरियाणी को अन्य नाम जाटू और देसवाली नाम से पुकारा जाता हैं। भाषा विद् ग्रियर्सन इसे बॉंगरू कहते हैं।

हरियाणी बोली मुख्य रूप से खड़ी बोली, अहीरवटी, और पंजाबी से प्रभावित है। इसका भाषा क्षेत्र मुख्य रूप से दिल्ली का देहाती भाग, करनाल, रोहतक, पानीपत, कुरुक्षेत्र, जींद, हिसार, महेंद्रगढ़ के आसपास का क्षेत्र है।

हरियाणी बोली भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से देखें तो हरियाणी में कोई साहित्य तो नहीं रचा गया किन्तु लोकसाहित्य की रचना पर्याप्त मात्र में मिलती है।

हरियाणी बोली भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से देखें तो हरियाणी में कोई साहित्य तो नहीं रचा गया किन्तु लोकसाहित्य की रचना पर्याप्त मात्र में मिलती है।

4. बुन्देली

मध्यदेश के बुंदेले राजपूतों के स्थान को बुंदेलखंड कहते हैं और वहाँ की बोली बुन्देली कहलाती हैं। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी हिंदी उपभाषा से हुआ है।

बुन्देली का भाषाक्षेत्र मुख्य रूप से हमीरपुर, झाँसी, जालौन, बाँदा, ग्वालियर, ओरछा, सागर, जबलपुर, होशंगाबाद तक फैला हुआ है।

साहित्यिक दृष्टि से देखें तो बुन्देली में साहित्यिक रचना तो नहीं मिलती किन्तु लोक साहित्य भरपूर मात्र में मिलता है। ईसुरी के घग बुन्देली की प्रसिद्ध रचना है यही नहीं हिंदी साहित्य के आदिकालीन रचनाकार जगनिक की रचना ‘आल्हा खंड’ बुन्देली की उपबोली ‘बनाफरी’ में रचित है।

आल्हा खंड’ बुन्देली की उपबोली ‘बनाफरी’ में रचित है। बुन्देली बोली मुख्यतः नागरी लिपि में लिखी जाती है। भाषिक दृष्टि से बुन्देली बोली में कई महत्वपूर्ण विशेषता दिखाई पड़ती है। बुन्देली में हिंदी वर्णमाला के ‘ए’ के स्थान पर ‘इ’ का प्रयोग मिलता है जैसे ‘बेटी’ के स्थान पर ‘बिटिया’, ‘लोटे’ के स्थान पर ‘लुटिया’ आदि। सर्वनाम में ‘मैं’ के स्थान पर ‘मोरो’ या ‘मो’ का प्रयोग होता है।

5. कन्नौजी

कन्नौज नगर के नाम पर इस बोली का नाम कन्नौजी पड़ा है। कन्नौजी पर ब्रज का बहुत अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है इस कारण कई विद्वान इसे ब्रज की ही एक उपबोली मानते है।

कन्नौजी मुख्य रूप ईटावा, फर्रुखाबाद, शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई, पीलीभीत आदि इलाकों में बोली जाती है।

कन्नौजी में कोई साहित्यिक रचना नहीं मिलती किन्तु लोकसाहित्य मिलता हैं। हिंदी के रीतिकालीन कवि जैसे चिंतामणि, मतिराम भूषण आदि का संबंध कन्नौज से रहा है किन्तु उन्होंने अपना साहित्य कर्म ब्रजभाषा में किया है।

भाषिक दृष्टि से देखें तो कन्नौजी भाषा की लिपि देवनागरी है। इसमें उकारांत शब्द का प्रयोग मिलता है जैसे ‘सब’ का ‘सबु’, घर का ‘घरु’ आदि। इसी प्रकार सर्वनाम में हम के हाथ हमलोग शब्द का प्रयोग कन्नौजी की भाषिक विशेषता है।

6. निमाड़ी

पश्चिमी हिंदी उपभाषा से हिंदी की बोली निमाड़ी का जन्म होता है। मध्यप्रदेश के निमाड़ प्रान्त की बोली निमाड़ी है। इस बोली पर राजस्थानी की बोली मालवी, मराठी, गुजरती का प्रभाव दिखाई पड़ता है। साहित्यिक दृष्टि से देखें तो निमाड़ी में साहित्य रचना नहीं मिलती।

भाषिक आधार पर देखें तो निमाड़ी बोली में हिंदी के महाप्राण ध्वनि के स्थान पर अल्पप्राण ध्वनि का प्रयोग मिलता है, जैसे हाथ के स्थान पर हात। इसमें अकारण अनुनासिकता का बोध जैसे चावल के स्थान पर चावल प्रयोग होता है। निमाड़ी की भाषिक विशेषता है।

7. राजस्थानी

शौरसेनी अपभ्रंश से हिंदी की उपभाषा ‘राजस्थानी’ का उद्भव होता है जिससे चार बोलियाँ विकसित होती है। जयपुरी (पूर्वी राजस्थानी), मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी ), मेवाती (उत्तरी राजस्थानी), मालवी (दक्षिणी राजस्थानी)

1. जयपुरी (पूर्वी राजस्थानी):

जयपुरी बोली का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश के राजस्थानी उपभाषा से हुआ है। जयपुरी को कुछ विद्वान “ढुढाड़ी” कहते हैं। जयपुरी बोली मुख्य रूप से जयपुर, किशनगढ़, इंदौर, अजमेर एवं मेरवाड़ा के आस-पास के स्थानों पर बोली जाती है।

जयपुरी बोली में साहित्यिक सृजन कम हुआ है। हिंदी के भक्तिकालीन संत कवि दादू-पंथ की कुछ रचनाएँ जरुर हमें जयपुरी बोली में प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त जयपुरी में लोकसाहित्य भरपूर मात्र में लिखा गया।

भाषिक विशेषता के आधार पर देखें तो जयपुरी बोली में हिंदी वर्णमाला के ‘इ’ के स्थान पर ‘अ’ का प्रयोग जैसे ‘पंडित’ के स्थान पर ‘पंडत’, इसके अतिरिक्त संज्ञा रूप में ‘घोड़ा’ को घोड़ो बोला जाता है।

2. मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी) :

शौरसेनी अपभ्रंश के राजस्थानी उपभाषा की सबसे प्रसिद्ध बोली मारवाड़ी है। मारवाड़ राज की बोली होने के कारण इस बोली को मारवाड़ी कहा गया।

मारवाड़ी का भाषा क्षेत्र मारवाड़, मेवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, पूर्वी सिंध तथा उत्तर-पश्चिम जयपुर में आस-पास का स्थान हैं।

मारवाड़ी बोली साहित्यिक दृष्टि से भी सबसे समृद्ध है। हिंदी साहित्य में आदिकालीन डिंगल भाषा मारवाड़ी बोली का ही साहित्यिक रूप है। इसके अतिरिक्त मीरा ने अपना ज्यादातर साहित्य मारवाड़ी में रचा है। राजस्थान का भी पूरा साहित्य मारवाड़ी बोली में मिलता है।

मारवाड़ी बोली नागरी लिपि में लिखी जाती है और भाषिक दृष्टि से देखें तो मारवाड़ी बोली में बहुत सी भाषिक विशेषताएं मिलती है जैसे ‘ह’ ध्वनि का लोप ‘मिलता है जैसे ‘रहनो’ का ‘रैणों’ इसके अतिरिक्त ‘अल्पप्राण’ ध्वनि की अधिकता है जैसे ‘हाथ’ का ‘हात’

3. मेवाती (उत्तरी राजस्थानी ):

शौरसेनी अपभ्रंश के राजस्थान उपभाषा से निकली मेवाती बोली पूरे उत्तर-पूर्वी राजस्थान की भाषा है विशेषकर पूरे अलवर की। मेवाती के निकटिय ब्रज प्रदेश के क्षेत्र की बोली पर ब्रज का प्रभाव दिखाई पड़ता है। कुछ विद्वानों ने इसे ‘अहीरवटी’ नाम भी दिया है और अहीरवटी पर हरियाणी का प्रभाव दिखाई पड़ता है। मेवाती मुख्य रूप से अलवर, भरतपुर, हरियाणा के गुड़गाँव आदि इलाकों में बोली जाती है।

मेवाती बोली नागरी लिपि में लिखी जाती है। मेवाती में साहित्यिक लेखन तो नहीं हुआ केवल लोकसाहित्य रचा गया है। मेवाती की भाषिक विशेताओं को देखे तो यहाँ अल्पप्राण ध्वनियों की अधिकता है जैसे ‘हाथ’ को ‘हात’ इसके अतिरिक्त अकारण अनुनासिकता की अधिकता है जैसे चावल को चावल और पचास को पैंचास आदि।

4. मालवी (दक्षिणी राजस्थानी):

मालव प्रदेश अर्थात् उज्जैन के आसपास बोले जाने वाली बोली मालवी कही जाती है। इस का उद्भव भी शौरसेनी अपभ्रंश के राजस्थानी उपभाषा से हुआ है। मालवी का प्राचीनतम नाम आवन्ती था। यह बोली मुख्य रूप से मध्यप्रदेश के निकटिय राजस्थान में बोली जाती है।

मालवी का भाषा क्षेत्र इंदौर, उज्जैन, रतलाम, देवास, भोपाल, होशंगाबाद के आसपास केस्थान हैं।

मालवी की लिपि नागरी है तथा इसमें साहित्य अधिकमतम रूप में नहीं रचा गया है। लोक साहित्य पर्याप्त मात्र में लिखा गया है। भाषिक विशेषता पर विचार करें तो मालवी बोली में हिंदी वर्णमाला के ‘ऐ’ के स्थान पर ‘ए’ का प्रयोग मिलता है जैसे चैन का चेन, मौज का मोज। इसके अतिरिक्त ‘ह’ का लोप मिलता है जैसे “महीना’ के स्थान पर ‘मइना’ आदि।

पहाड़ी

शौरसेनी अपभ्रंश से हिंदी की तीसरी उपभाषा विकसित पहाड़ी हुई है। इसके अंतर्गत दो बोलियाँ हैं पश्चिमी पहाड़ी तथा मध्यवर्ती पहाड़ी। मध्यवर्ती पहाड़ी के अंतर्गत दो बोलियाँ आती हैं कुमाउंनी तथा गढ़वाली।

1. पश्चिमी पहाड़ी :

शौरसेनी अपभ्रंश के पहाड़ी उपभाषा से पश्चिमी पहाड़ी का उद्भव हुआ है। पश्चिमी हिंदी मुख्य रूप से चम्बा, कुल्लू, मंडी, शिमला तथा पंजाब के उत्तरपूर्वी पहाड़ी भाग में बोली जाती है। यह बोली नागरी या ऊर्दू लिपि में लिखी जाती है।

साहित्य की दृष्टि से देखें तो इसमें केवल लोकसाहित्य ही मिलता है। भाषिक विशेषताओं की बात करें तो इसमें हिंदी के ‘स’ के स्थान पर ‘छ’ का प्रयोग मिलता है जैसे ‘सत्यनाश’ का ‘छत्यानाश’। इसके अतिरिक्त अल्पप्राण ध्वनियाँ मिलती हैं जैसे ‘था’ का ‘ता’ आदि।

2. मध्यवर्ती पहाड़ी:

मध्यवर्ती पहाडी बोली का उद्भव भी शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है मध्यवर्ती पहाड़ी क्षेत्र में दो बोलियाँ विकसित होती है कुमाउंनी तथा गढ़वाली कुमाउंनी मुख्यतः नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ आदि जगह पर बोली जाती प्रचुर है। कुमाउंनी पर राजस्थानी का बहुत प्रभाव दिखाई पड़ता है। कुमाउंनी नागरी लिपि में लिखी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से देखें तो कुमाउंनी में लोकसाहित्य तो मात्रा में मिलता ही है साथ ही साहित्यिक रचनाएं भी मिलती है जिसमें पत कुमाउंनी के प्रसिद्ध रचनाकार है। भाषिक सरंचना की बार करें तो कुमाउंनी बोली की बहुत सी विशेषता दिखाई पड़ती है। हिंदी वर्णमाला के ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग मिलता है जैसे किसान का किसाण आदि अनुनासिकता का प्रभाव भी इस बोली पर अधिक दिखाई पड़ता है। जैसे चावल चाँवल आदि।

मध्यवती पहाड़ी की दूसरी बोली है ‘गढ़वाली’। इसका क्षेत्र मुख्य रूप से केदारनाथ तथा उत्तराखंड के आस-पास का इलाका है जिसे पहले गढ़वाल प्रदेश कहा जाता था और वहाँ की बोली को गढ़वाली। गढ़वाली का भाषा क्षेत्र सम्पूर्ण गढ़वाल तथा इसके अतिरिक्त टिहरी, देहरादून, सहारनपुर आदि है। गढ़वाली बोली की लिपि नागरी लिपि है। इस बोली में साहित्यिक रचना तो नहीं हुई पर लोकसाहित्य भरपूर लिखा गया। गढ़वाली बोली की संरचनात्मक विशेषता को देखे तो कई महत्वपूर्ण विशेषता दिखाई पड़ती है जैसे ग ध्वनि का आगम है जैसे संसार के स्थान पर संगसार आदि इसके अतिरिक्त ‘ह’ ध्वनि का लोप है जैसे रहना के स्थान पर रेना आदि।

मागधी अपभ्रंश :

मागधी अपभ्रंश से हिंदी की उपभाषा बिहारी का उद्भव होता है। बिहारी से हिंदी की तीन बोलियाँ विकसित होती हैं।

बिहारी :

मागधी अपभ्रंश से बिहारी उपभाषा का जन्म हुआ है। इसमें हिंदी ही तीन बोलियाँ विकसित हुई हैं। भोजपुरी, मगही, मैथिली।

1. भोजपुरी:

भोजपुरी का उद्भव मागधी अपभ्रंश के बिहारी उपभाषा से हुआ है। बिहार के शाहाबाद जिले के भोजपुर गाँव के आधार पर इस बोली का नाम भोजपुरी पड़ा। कुछ विद्वान इस बोली को पूरबी भी कहते है।

भोजपुरी का भाषा क्षेत्र बिहार का शाहबाद, छपरा, चंपारण, राँची जसपुर आदि है। इसके अतिरिक्त भोजपुरी पूर्वी उत्तरप्रदेश के बनारस, गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, मिर्जापुर, गोरखपुर, आजमगढ़ आदि स्थानों पर भी बोली जाती है।”

भोजपुरी की लिपि नागरी है तथा इसमें लोकसाहित्य प्रचुर मात्र में मिलता है। भाषिक संरचना की दृष्टि से इस बोली को परखे तो प्रमुख विशेषताएं दिखाई पड़ती है जैसे ‘महाप्राण ध्वनियों’ का प्रयोग ‘सब’ के लिए ‘सभ’ शब्द का प्रयोग इस बोली में मिलता है। ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ का प्रयोग जैसे फल का फर आदि इस बोली की विशेषता है।

2. मगही:

मगध शब्द से मागधी बना है। मागधी का ही विकसित रूप है ‘मगही’ । मगही बोली का भाषा क्षेत्र मुख्य रूप से बिहार का गया प्रान्त है। इसके अतिरिक्त यह बोली पटना, हजारीबाग, मुंगेर, भागलपुर, पलामू आदि स्थानों के आस-पास बोली जाती है। यह बोली नागरी लिपि में लिखी जाती है मगही पर उड़िया तथा असमिया बोली का बहुत अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है।

भाषागत विशेषता की यदि हम बात करें तो मगही में श, ष ध्वनियों की जगह स ध्वनि का ही प्रयोग मिलता है। जैसे शैतान के स्थान पर सैतान आदि। इसके अतिरिक्त ल के स्थान पर र ध्वनि का प्रयोग मिलता है। यथा मछली की जगह मछरी आदि।

3. मैथिली:

हिंदी की प्राचीनतम बोलियों में मैथिली का भी नाम आता है। प्राचीन काल में इस भाषा को तिरहुतिया तथा देसिल बअना नाम से पुकारा जाता था। मैथिली का भाषा क्षेत्र मुख्य रूप से मुज्जफरपुर, उत्तरी भागलपुर, दरबंगा, पूर्णिया तथा नेपाल का कुछ भाग माना जाता है।

मैथिली बोली नागरी लिपि में लिखी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से यदि देखें तो मैथिली में हिंदी का प्राचुर साहित्य मिलता है मैथिली की सबसे प्राचीनतम रचना ज्योतीश्वर ठाकुर की ‘वर्णरत्नाकर’ है। इसके अतिरिक्त विद्यापति का प्रसिद्ध साहित्य मैथिली बोली में रचा गया हैं। भाषागत विशेषताओं पर यदि नजर डालें तो स्त्रीलिंग प्रत्यय का प्रयोग मिलता है जैसे घोड़ा का घोड़ीवा आदि।

अर्धमागधी

अर्धमागधी अपभ्रंश से हिंदी की पूर्वीहिंदी उपभाषा का विकास होता है। इससे तीन बोलियाँ विकसित हुई हैं- अवधि, बघेली, छत्तीसगढ़ी।

पूर्वी हिंदी

अर्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिंदी का जन्म हुआ है जिसके अंतर्गत तीन भाषाएँ अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी हैं।

1. अवधी:

अवध प्रान्त में बोले जाने वाली भाषा को अवधी कहते हैं। अवधी का केंद्र अयोध्या है। कुछ विद्वान इसे कौसली या बैसवाड़ी कहते हैं परन्तु इसका उपयुक्त नाम अवधी ही है। भोलानाथ तिवारी इसे कौसली कहने के पक्ष में है। अवधी का व्यवहार क्षेत्र उत्तर प्रदेश के लखनऊ, बहराइच, लखीमपुर खीरी, गोंडा, उन्नाव, बस्ती, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, इलाहबाद, सुल्तानपुर, प्रतागढ़, आजमगढ़ आदि है अवधी नागरी लिपि में लिखी जाती है। अवधी हिंदी की साहित्यिक भाषा रही है। हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल के प्रेममार्गी शाखा के कवियों ने अपना पू साहित्य अवधी भाषा में ही रचा हैं, इसके अतिरिक्त राममार्गी काव्यधारा में तुलसी एवं उनके समकालीन अन्य साहित्यकारों ने अवधी को ही अपनी साहित्यिक भाषा के रूप में अपनाया है। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस अवधी भाषा में हो रचित है। उन्होंने अवधी भाषा को हर हिन्दू घर में पहुँचाया है। आधुनिक काल में भी अवधी भाषा का प्रयोग मिलता है द्विवेदी काल के प्रसिद्ध साहित्यकार द्वारिकाप्रसाद मित्र ने अपना साहित्य अवधी में रचा है।

भाषिक विशेषताओं की दृष्टि से देखे तो अवधी में ‘स’, ‘ष’, ‘श’ के स्थान पर ‘स’ का प्रयोग मिलता है। इसके अतिरिक्त ‘ए’ का उच्चारण ‘अइ’ होता है जैसे- ऐसे को अइसे और ण ध्वनि का प्रयोग न होता है मणि का मनि आदि।

2. बघेली:

मध्यप्रदेश के बघेले राजपूतों की बोली बघेली कहलाती हैं। मुख रूप से बघेली मध्यप्रदेश के रीवा के आसपास बोली जाती है। बघेली पर अवधी का बहुत अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है। बघेली का भाषा क्षेत्र रीवा, जबलपुर दमोह बाँदा, फतेहपुर आदि के आसपास का भाग है। बघेली नागरी लिपि में लिखी जाती है। बघेली में साहित्यिक रचना तो नहीं हुई, हाँ लोकसाहित्य पर्याप्य मात्र में मिलता है। भाषिक विशेषता की दृष्टि से देखें तो व के स्थान पर व ध्वनि उच्चारित होती है जैसे दावा के स्थान पर दाबा आदि। अकारण अनुनासिकता मिलती है जैसे हाथ का हाँथ आदि।

3. छत्तीसगढ़ी:

छत्तीसगढ़ की बोली छत्तीसगढ़ी कहलाती है। इस बोली पर उड़िया नेपाली और बांग्ला का प्रभाव बहुत अधिक दिखाई पड़ता है। छत्तीसगढ़ी बोली का भाषा क्षेत्र मुख्य रूप से रायपुर, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, सम्भलपुर बस्तर, एवं बिहार का कुछ हिस्सा आता है। यह बोली नागरी लिपि में लिखी जाती है। इस बोली में साहित्य सृजन तो नहीं हुआ पर लोकसाहित्य भरपूर मात्र में रचा गया है। भाषिक विशेषताओं के आधार पर देखें तो इस बोली में ‘ष’ का प्रयोग ‘स’ के रूप में होता है जैसे: वर्षा के स्थान पर बरसा इसी प्रकार ‘स’ ध्वनि का प्रयोग ‘छ’ ध्वनि में होता है। जैसे सीता का छीता आदि।

इस प्रकार अपभ्रंश से हिंदी की पांच उपभाषाओं एवं उन पांच उपभाषाओं से हिंदी की अठारह बोलियाँ विकसित होती हैं।

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