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सप्रसंग व्याख्या, घनानन्द

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संकेत- रावरे रूप की रीति अनूप …………………….. बावरी रीझ की हाथनि हारियौ।

संदर्भ- प्रस्तुत पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिमुक्त कवि घनानंद द्वारा रचित सुजानहित से संकलित किया गया है।

प्रसंग- इस पद में कवि घनानंद ने प्रेमी की अनन्यता, धैर्य, दृढ़ संकल्प शक्ति और प्रेमी के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की भावना का वर्णन किया है। प्रेमी की प्रेम व्यंजना को प्रकट किया गया है।

व्याख्या- प्रस्तुत पद में कवि कहते हैं कि प्रेम में पड़े प्रेमी की स्थिति बहुत ही बुरी हो जाती है। वो कहता है कि हे प्राणप्रिय! आपके रूप की लावण्य की रीति अनोखी है। ज्यों ज्यों उसे निकट से देखते हैं, त्यों त्यों उसे और देखने की चाह उमड़ती है, मन तृप्त ही नहीं होता क्योंकि उनके रूप की अनोखी बात है, वह प्रत्येक क्षण बदलता रहता है पहले से अधिक आकर्षक होता जाता है। प्रिय का आकर्षण आयु के साथ-साथ कटता नहीं अपितु नया-नया होकर बढ़ता जाता है, बिखर रहा है। मेरे नेत्रों को अजीब आदत पड़ गयी है, तुम्हारे रूप सौंदर्य को देखकर मन नहीं भरता उसे बार-बार देखने का मन करता है। यह तुम्हारे रूप सौंदर्य के अलावा किसी और को देखने तक नहीं हैं। प्रेमी कहता है कि मेरे पास तो मेरे प्राण (जीव) है वह मैंने तुम पर न्यौछावर कर दिया, अब मेरे पास अपना कुछ नहीं है। अतः आपसे विनम्र प्रार्थना है कि संकोच त्याग कर मेरे चिंताकुल मन को सहारा दो, आपकी कृपा से ही मैं जीवित रह सकता हूँ। प्रेम का कड़वा फल जानते हुए मैं अपने नेत्रों को तुम्हारी ओर जाने से रोकता हूँ कि कही रूप जाल में फँसकर अपना सब कुछ न गवाँ दूँ और शेष जीवन विरह यातना में बीते। लेकिन ये मेरा कहना नहीं मानती है। मैं उसके हाथों पराजित होकर सब कुछ खो जाता हूँ। विवश होकर तुम्हारे प्रेम में पागल बना हुआ हूँ।

विशेष-

  1. मार्मिक पक्ष है।
  2. उच्चकोटि के प्रेमव्यंजना का प्रदर्शन।
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