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भाषा-विज्ञान की उपयोगिता

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प्र.       भाषा-विज्ञान की उपयोगिता।

उ.       सामान्य और बेहद आम प्रचलित भाषा में करें तो भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन जिस शास्त्र के अंतर्गत किया जाता है, उसे ही भाषा-विज्ञान कहा जाता है। भाषा-विज्ञान का आधुनिक विषय के रूप में प्रथमतः सूत्रपात का श्रेय 1786 ई. में विलियम जोंस को दिया जाता है। विलियम जोंस ने ही सर्वप्रथम यह बतलाया कि कई भाषा के मूल में एक भाषा का रूप ही आधार हो सकता है, पर उसमें सूक्ष्म संबंध विद्यमान हो सकता है। मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना भाषाओं की उपयोगिता को बनाए रखता है। भाषा विज्ञान की सबसे महनीय उपयोगिता के रूप में मनुष्य के ज्ञान की भूख को शांत करना स्वीकारा गया है। आचार्य पतंजलि लिखते हैं कि-

ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षड्ड्गो वेदोऽक्ष्येयोज्ञेयश्च।

          पतंजलि वेदों के अध्ययन को अनिवार्य बतलाते हुए लिखते हैं कि भाषा मनुष्य को मानसिक व बौद्धिक शांति प्रदान करती है क्योंकि मनुष्य की ज्ञान पीपासा का शमन सफलतापूर्वक करती है। यही वजह है कि भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा को जीवन के अभिन्नतम अंग के रूप में स्वीकार किया है।

          भाषा-विज्ञान की महत्त्वपूर्ण उपयोगिता मनुष्य द्वारा बोली जा रही भाषा का परिष्कृत करने में भी है। भाषा-विज्ञान के माध्यम से प्रयुक्त भाषा की ध्वनियों, वर्णों, प्रकृति, प्रत्यय और साथ ही अर्थ का भी परिष्कृत और संग ही उसके वास्तविक रूपों का ज्ञान होता है। शुद्ध अर्थ का बोध होने के पश्चात् मनुष्य की भाषा में परिष्करण संभव हो पाता है। परिष्कृत रूप के संबंध में एक श्रुति में कहा गया है कि उससे वाग्ब्रह्म का साक्षात्कार होता है-

एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः

सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके काम धुग् भवति।

          भाषा विज्ञान की उपयोगिता मात्र भाषा के परिष्करण तक ही सीमित न होकर उसे निरंतर वैाानिक बनाने का भी प्रयास करती है। भाषा को निरंतर वैज्ञानिक बनाने के प्रयास में भाषा वैज्ञानिक का दृष्टिकोण विज्ञान मूलक होता चला जाता है।

          भाषा विज्ञान की उपयोगिता इसलिए भी विद्यमान है क्योंकि यह प्राचीन काल में विद्यमान संस्कृति व सभ्यता का ज्ञान प्रदान करती है। भाषा का प्रत्येक शब्द अपने प्रयोग के दौरान अपना परिचय स्वयं ही देता है और उन्हीें शब्दों के सूक्ष्म अध्ययन के माध्यम से तत्कालीन समय की संस्कृति और साथ ही सभ्यता का ज्ञान होता है। प्रागेतिहासिक काल के साथ-साथ आर्य जाति, द्रविड़, जाति, प्राचीन मिस्र और साथ ही असीरिया की जाति का बोध तो भाषा विज्ञान के माध्यम से ही किया जाता रहा है।

          भाषा विज्ञान की उपयोगिता के विद्यमान होने के महत्त्वपूर्ण कारकों में यह स्वीकारा जाता है कि भाषा विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर लें। अनेक भाषाओं का इस प्राप्त करने में अधिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है। विभिन्न भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् मनुष्य में विश्वबंधुत्व की भावना का प्रसार होता है क्योंकि जब यह पता चलता है कि वह भाषा भी इसी भाषा से संबंध रखती है तो आत्मीयता के भाव के साथ-साथ भाषायी प्रेम का भी भाव जाहिर होता है। लेकिन ग्रीक अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, रूसी, आवेस्ता, फारसी का संबंध संस्कृत भाषा परिवार से ही है जिससे इन भाषाओं के साथ आत्मीयता का भाव प्रगाढ़ रूप संबद्ध हो जाता है।

          भाषा विज्ञान मात्र विश्वबंधुत्व की भावना के लिए ही नहीं जाना जाता है बल्कि इसकी उपयोगिता संचार साधनों में देखी गयी है। वर्तमान समय में यांत्रिक प्रतीकात्मक अनुवाद के लिए भाषा विज्ञान के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। संचार साधनों में भाषा-विज्ञान के संकेतों के द्वारा ही दूरसंचार पद्धति निर्बाध रूप में कार्य कर सकती है।

          भाषा विकास की उपयोगिता लिपि विकास में भी स्पष्ट रूप में दिखलायी पड़ती है। भाषा-विज्ञान के बृहत अध्ययन के पश्चात् निर्मित सांकेतिक चिन्ह मनुष्य के भावनाओं को और अधिक व्यवस्थित तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इसके अलावा भाषा-विज्ञान विभिन्न अन्य भाषाओं के ग्रंथों का अन्य भाषाओं में अनुवाद करने की योग्यता भाषा-विज्ञान की उपयोगिता को बनाए रखता है।

          निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आधुनिक समय में निरंतर भाषा-विज्ञान की उपयोगिता में वृद्धि हो रही है। संचार साधनों में बृहत प्रयोग, वैज्ञानिकता, प्राचीन संस्कृति को जानने का जरिया बनना तथा मनुष्य में व्याप्त ज्ञान की भूख को समाप्त करने के कारण उसकी उपयोगिता में वृद्धि होती जा रही है।

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