भाषा-विज्ञान का स्वरूप तथा अध्ययन की पद्धतियाँ

प्र. भाषा-विज्ञान का स्वरूप तथा अध्ययन की पद्धतियाँ।
उ. पश्चिम से आए भाषा-विज्ञान शब्द से पहले भारत में भाषा-विज्ञान के संदर्भ में शिक्षा-निरुक्त, व्याकरण और प्रातिशाख्य जैसे श्ब्द प्रचलित थे। भाषा-विज्ञान शब्द दो शब्दों ‘भाषा’ तथा ‘विज्ञान’ शब्द का समुच्चय है जिसका सामान्य सा अर्थ है भाषा का विज्ञान। भाषा-विज्ञान में विज्ञान शब्द का प्रयोग विशिष्ट ज्ञान के संदर्भ में किया गया है-
“भाषायाः विज्ञानम् इति भाषा विज्ञानम्।”
हम कह सकते हैं कि भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन को ही भाषा-विज्ञान कहा जाता है। भाषा के अध्ययन को हम वैज्ञानिक तभी कह सकते हैं जब एक निश्चित प्रक्रिया को अपनाक तथा तकनीकों का पालन करते हुए उसका अध्ययन करते हैं। भाषा-विज्ञान को अध्ययन करने की विभिन्न तकनीकों को ही भाषा वैज्ञानिकों ने 5 भागों या प्रकारों का निर्धारण किया है-
– वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान
– ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान
– तुलनात्मक भाषा-विज्ञान
– संरचात्मक भाषा-विज्ञान
– प्रायोगिक भाषा-विज्ञान
वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान- जब किसी एक भाषा के माध्यम से किसी एक विशेष काल या समय के स्वरूप का विभिन्न दृष्टियों में वर्णन किया जाता है तो वह वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान कहलाता है। अध्ययन की इस प्रक्रिया के अंतर्गत किसी विशेष समय में भाषा में प्रयुक्त होने वाली ध्वनियाँ, पद रचना का स्वरूप, वाक्य रचना का रूप इत्यादि का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया जाता है। भाषा की विशिष्टता का ज्ञान इसी पद्धति के माध्यम से किया जाता है। पाणिनि द्वारा रचित ग्रन्थ अष्टाध्यायी इसका उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।
ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान- अध्ययन की इस पद्धति में सामान्य तौर पर भाषा के क्रमिक इतिहास का अध्ययन मात्र एक कालविशेष को ध्यान में न रखकर विभिन्न काल विशेष को दृष्टि में रखकर किया जाता है। इसमें किसी भाषा के विभिन्न अंगों जैसे ध्वनि, पदरचना, वाक्य रचना इत्यादि का अध्ययन क्रमिक विकास को ध्यान में रखकर किया जाता है और उससे इतिहास का सम्यक परिचय भी प्राप्त होता है। भाषा वैज्ञानिक इस प्रकार के अध्ययन के लिए प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ, शिलालेख, मुद्राओं पर अंकित भाषा का प्रयोग सामान्य तौर पर करते हैं।
तुलनात्मक भाषा-विज्ञान- भाषा वैज्ञानिक तुलनात्मक भाषा-विज्ञान के अंतर्गत दो भाषाओं का अध्ययन करते हैं। वह मुख्यतः दो भाषाओं का चुनाव करके विभिन्न कालों सहित विभिन्न परिस्थितियों में उसका तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। शब्द रचना व वाक्य रचना के आधार पर विभिन्न भाषाओं में तुलना की जाती है। विलियम जोंस द्वारा शुरू की गयी अध्ययन की यह पद्धति 10वीं शताब्दी में भाषा वैज्ञानिकों के मध्य बहुत अधिक प्रचलित थी।
संरचनात्मक भाषा-विज्ञान- भाषा अध्ययन की इस पद्धति में किसी भाषा प्रयुक्त होने वाले विभिन्न तरह के तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है। विभिन्न तरह की संरचना का अध्ययन करने के ही कारण इसे संरचनात्मक पद्धति कहा जाता है। पहले जेनेवा स्कूल तथा तत्पश्चात् प्राहा स्कूल से संबंध रखने वाले सस्यूर को संरचनात्मक भाषा-विज्ञान का जन्मदाता माना जाता है। इस पद्धति को कई विद्वान गठनात्मक भाषा-विज्ञान भी कहते हैं।
प्रायोगिक भाषा विज्ञान- यह अपने अत्यंत विस्तृत क्षेत्र के लिए जाना जाता है। इस पद्धति में देशी अथवा विदेशी भाषा को सिखाने की पद्धति के साथ-साथ एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने की शैली भी समाहित है। यंत्रों व उपकरणों का भाषा शिल्प में प्रयोग करना भी इस पद्धति के अंतर्गत आवश्यक है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भाषा-विज्ञान में भाषा का वैज्ञानिक स्तर पर अध्ययन किया जाता तथा इसकी तकनीकी अध्ययन को विभिन्न पद्धतियों का भी प्रयोग किया जाता है। वर्णानात्मक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, संरचनात्मक, प्रायोगिक पद्धति भाषा-विज्ञान की महत्त्वपूर्ण पद्धतियों में शामिल है। वर्तमान समय में प्रायोगिक भाषा-विज्ञान नामक अध्ययन की पद्धति अधिक प्रचलित है तथा निरंतर विकास को प्रोत्साहित करती है।