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भाषा की परिभाषा एवं स्वरूप

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प्र.       भाषा की परिभाषा बताते हुए उसके स्वरूप को स्पष्ट करें।

उ.       मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में भाषा को भी शामिल किया जाता रहा है। भावों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा की आवश्यकता मानव जाति के साथ-साथ संपूर्ण जीवों को होती है, और यही वजह है कि भाषा के अंतर्गत पशु आदि के साथ-साथ संकेत, चिन्हों, सांकेतिक भाषा व मानवीय व्यक्त भाषा को शामिल किया जाता है। भाषा वैज्ञानिकों ने भाषा के अंतर्गत सांकेतिक आदि से अलग मात्र मानवीय व्यक्त वाणी का ही शामिल किया है।

          संस्कृति की भाष् अर्थात् भ्वादिगणी धातु से ही भाषा शब्द की निर्मिति हुई है। भाष् धातु का सामान्य अर्थ है- व्यक्त वाणी। भाषा की परिभाषा का निर्धारण करने के दौरान भाषा विद्वानों के मती में पर्याप्त मतभेद दिखलायी पड़ता है। जिसके फलस्वरूप वर्तमान समय में भाषा की सर्वसम्मत परिभाषा नहीं है। पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिक स्वीट भाषा को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि- “ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।”

          पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक स्वीट की इसी परिभाषा का विस्तारित रूप ब्लाक और ट्रेगर द्वारा दी गयी भाषायी परिभाषा में दिखलायी पड़ता है। इन्होंने भाषा की पद्धति स्वीकारते हुए संकेतात्मक वाचिक ध्वनि संकेतों और यादृच्छिक संकेतों से युक्त बताया है- “भाषा यादृच्छिक ध्वनि संकेतों की वह पद्धति है जिसके द्वारा मानव परस्पर विचारों का आउदान-प्रदान करता है।”

          पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिकों ने ही नहीं बल्कि भारतीय भाषा विज्ञानियों ने भी भाषा को परिभाषाति करने का प्रयास किया है। भोलानाथ तिवारी भाषा को साधन मानते हुए परिभाषित करते हुए कहते हैं कि- “भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते हैं तथा अपने विचारों को व्यक्त करते हैं।”

          निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि संकेतों के आधार पर जब भावों को व्यवस्थित रूप में अभिव्यक्त किया जाए तो वह भाषा कहलाती है। इसमें कर्ता, कर्म, क्रिया का सुव्यवस्थित रूप में प्रयोग किया जाता है।

          भाषायी स्वरूप की बात की जाए तो सामान्य तौर पर भाषा की कुछ ऐसी विशेषताएँ और प्रवृत्तियाँ होती है जोकि विश्व भर की अधिकतर भाषाओं में सामान्य रूप में दिखलायी पड़ती है। प्रत्येक भाषा का अपना व्याकरण व अपना नियम होता है परंतु प्रत्येक भाषा में प्रवाह की अविच्छिन्नता परिवर्तनशीलता, समाजिकता पायी जाती है। विश्व की सभी भाषाएँ, परंपरागत रूप में विकसित होती है तथा अर्जित संपत्ति मानी जाती है। यह भाव संप्रेषण का माध्यम होती है तथा उत्तरोत्तर कठिनता से सरलता की तरफ जाती है।

          भाषा के स्वरूप पर विचार करने के दौरान भाषा वैज्ञानियों ने इसे परंपरागत वस्तु कहा है। क्योंकि यह पीढ़ी दर पीढ़ी परंपरागत रूप में ही मनुष्य को प्राप्त होती है। हिंदी, मराठी, बंग्ला, गुजराती, पंजाबी आदि समस्त भाषाएँ परंपरा का पालन करते हुए भारतीय जनमानस द्वारा प्रयोग की जाती है।

          परंपरा को ग्रहण समाज के माध्यम से ही किया जा सकता है। यही वजह है कि भाषा को सामाजिक वस्तु कहा जाता है। मनुष्य समाज से ही भाषा को ग्रहण करता है और समाजिकता बढ़ने के साथ उत्तरोत्तर अपनी ज्ञानराशि और शब्दकोश में भी वृद्धि करता चलता है। पतंजलि और पाणिनि लोक व्यवहार को भाषा ज्ञान का प्रमुख साधन स्वीकारते हैं।

          भाषा को समाज से ग्रहण करने तथा स्वयं के प्रयास से उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि करने के कारण अर्जित संपत्ति भी कहा जाता है। मनुष्य अपनी योग्यता तथा प्रतिभा के बल पर कई भाषा का ज्ञान हासिल कर सकता है।

          भाषा का अर्जन मात्र ज्ञान से ही नहीं बल्कि अनुकरण और व्यवहार के ही माध्यम से किया जा सकता है। बचपन में बच्चा माता-पिता द्वारा बोले गए शब्दों का अनुकरण करके सीखने का प्रयास करता है।

          भाषायी स्वरूप की महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि वह निरंतर परिवर्तनशीलता के गुण को धारण करती है। मौखिक रूप से सीखे जाने के कारण इसमें लगातार बदलाव होता रहता है। भाषा की परिवर्तनशीलता पर यह मुहावरा प्रसिद्ध है कि-

कोस कोस पर बदले पानी

चार कोस पर बानी।

          भाषायी परिवर्तन मात्र स्थान के प्रभाव स्वरूप ही नहीं होता बल्कि भाषा की कठिनता से सरलता की तरफ जाने वाली प्रवृत्ति भी प्रभावित करती है। जनसाधारण वर्ग क्लिष्ट व साहित्यिक शब्दों का उच्चारण सही रूप से नहीं कर पाते थे। कठिन से सरल की तरफ जाने का ही परिणाम है कि वैदिक संस्कृत परिवर्तित होकर लौकिक संस्कृत > पालि > प्राकृत > अपभ्रंश > हिंदी में परिवर्तित हो गया।

          निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने भावों को प्रदर्शित करने के लिए ध्वनियों का प्रयोग करता है। भाषा में व्यवस्था अनिवार्य रूप से शामिल होती है। भाषा के विभिन्न गुण जैसे अविच्छन्निता, परिवर्तनशीलता, समाजिकता के साथ-साथ कठिनता से सरलता की तरफ बढ़ती है तथा परंपरा का निर्वहन करने के साथ-साथ अर्जित संपत्ति भी स्वीकारी जाती है।  

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