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भारत की भाषिक विविधता (bharat ki bhashik vividhta)

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भारत की भाषिक विविधता (bharat ki bhashik vividhta) विश्व में अद्वितीय मानी जाती है और इसकी जड़ें विभिन्न भाषीय परिवारों की बहुलता में निहित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में भाषाओं का विकास विविध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के अंतर्गत हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ कई भाषा-परिवार समानांतर रूप से विकसित हुए। भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण मुख्यतः चार प्रमुख भाषीय परिवारों में किया जाता है—आर्य भाषा-परिवार, द्रविड़ भाषा-परिवार, ऑस्ट्रिक (मुंडा) भाषा-परिवार तथा तिब्बती-बर्मी भाषा-परिवार। इन भाषा-परिवारों की आंतरिक विविधता भारत को अत्यंत जटिल और समृद्ध भाषिक परिदृश्य प्रदान करती है।

1. आर्य भाषा-परिवार (Indo-Aryan Family)
आर्य भाषा-परिवार भारत में सर्वाधिक व्यापक है और यह भारतीय-यूरोपीय भाषा-परिवार की एक प्रमुख शाखा है। इस परिवार से हिंदी, उर्दू, बंगला, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी, कश्मीरी तथा नेपाली जैसी भाषाएँ संबंधित हैं। भारत की जनसंख्या का बड़ा भाग इन भाषाओं का प्रयोग करता है। आर्य भाषाएँ मुख्यतः उत्तर, मध्य और पूर्वी भारत में प्रचलित हैं। इन भाषाओं की संरचना ध्वन्यात्मक, व्याकरणिक और शब्द-भंडार के स्तर पर परस्पर संबद्धता प्रदर्शित करती है। संस्कृत, जो इस परिवार की प्राचीन भाषा मानी जाती है, ने भारतीय ज्ञान-परंपरा, दर्शन और साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। (bharat ki bhashik vividhta)

2. द्रविड़ भाषा-परिवार (Dravidian Family)
द्रविड़ भाषाएँ भारत की प्राचीनतम भाषाई परंपराओं में से एक हैं। इस परिवार में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम प्रमुख भाषाएँ हैं, जो मुख्यतः दक्षिण भारत में बोली जाती हैं। इसके अतिरिक्त तुलु, कोडगू, गोंडी और कुड़ुख जैसी भाषाएँ भी इसी परिवार में आती हैं। द्रविड़ भाषाओं की व्याकरणिक संरचना, ध्वनि-व्यवस्था तथा शब्द-संपदा उन्हें आर्य भाषाओं से पृथक एक विशिष्ट पहचान प्रदान करती है। तमिल इस परिवार की सबसे पुरानी और साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध भाषा है, जिसकी परंपरा दो हजार वर्षों से अधिक पुरानी मानी जाती है। द्रविड़ भाषाओं ने दक्षिण भारतीय संस्कृति, साहित्य, कला और सामाजिक संरचना के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई है।

3. ऑस्ट्रिक (मुंडा) भाषा-परिवार (Austro-Asiatic/Munda Family)
ऑस्ट्रिक या मुंडा भाषा-परिवार भारत की भाषिक विविधता का एक विशिष्ट आयाम प्रस्तुत करता है। यह परिवार मुख्यतः मध्य एवं पूर्वी भारत में फैला हुआ है, जहाँ संथाली, मुंडारी, हो, खड़िया और जुुआंग जैसी भाषाएँ प्रचलित हैं। ये भाषाएँ आदिवासी समुदायों द्वारा बोली जाती हैं और इनका संबंध संस्कृति, लोककथाओं, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक रीति-रिवाजों से गहराई से जुड़ा है। मुंडा भाषाओं की ध्वनि-रचना और व्याकरण आर्य तथा द्रविड़ भाषाओं से भिन्न है, जो इन्हें एक स्वतंत्र भाषिक पहचान प्रदान करता है। (bharat ki bhashik vividhta)

4. तिब्बती-बर्मी भाषा-परिवार (Sino-Tibetan/Tibeto-Burman Family)
उत्तर-पूर्वी भारत तिब्बती-बर्मी भाषा-परिवार का प्रमुख केंद्र है। नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा जैसे राज्यों में बोली जाने वाली भाषाएँ—जैसे बोडो, मीतेई (मणिपुरी), गारो, खासी, मिश्मी, कूकी और मिजो—इसी परिवार से संबंधित हैं। इन भाषाओं की स्वराघात-प्रधानता, व्यंजन-समूहों की जटिलता और अद्वितीय व्याकरणिक संरचना इन्हें भारतीय भाषाओं के व्यापक परिदृश्य में विशिष्ट स्थान प्रदान करती है। यह भाषाएँ न केवल भाषिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि इन समुदायों की सांस्कृतिक और सामाजिक अस्मिता की आधारशिला भी हैं।

भारतीय भाषिक विविधता मुख्यतः इन चार भाषा-परिवारों के समन्वित अस्तित्व का परिणाम है। प्रत्येक भाषीय परिवार अपनी अनूठी ध्वन्यात्मक विशेषताओं, व्याकरणिक संरचनाओं, सांस्कृतिक परंपराओं और साहित्यिक उपलब्धियों के साथ भारतीय समाज को बहुआयामी रूप प्रदान करता है। संविधान द्वारा 22 अनुसूचित भाषाओं की मान्यता और सैकड़ों गैर-अनुसूचित भाषाओं का सजीव उपयोग भारत के भाषिक परिदृश्य को और भी समृद्ध बनाता है। अतः भारत की भाषिक विविधता केवल संप्रेषण की विविधता नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक बहुलता, ऐतिहासिक गहराई और सामाजिक सह-अस्तित्व का प्रभावशाली प्रतीक है। (bharat ki bhashik vividhta)

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