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केवट प्रसंग: रामचरितमानस – तुलसीदास सप्रसंग व्याख्या

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दोहा : रथ हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषादबस धुनहिं सीस पछिताहिं ॥99॥

जासु वियोग बिल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसे॥
बरबस राम सुमंत्र पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए ॥1॥
मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई||2||
छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाइ। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ||3||
एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू।
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू ॥4॥

सोरठा : सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥

कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तब नाव न जाई॥
बेगि आतु जल पाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥
पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥
अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एक सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥

दोहा – पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामु गुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहुउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥ 4॥

दोहा – बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनयतन भगति बिमल बरु देइ ॥102॥

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥
पति देवर संग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहि पूजा तोरी॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥
लोकप होहि बिलोकत तोरे। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥
तुम्ह जो हमहिं बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तदति देबि मैं देब असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥ 4॥

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