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Thithurta Hua Gantantra ठिठुरता हुआ गणतंत्र : हरिशंकर परसाई

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‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ (thithurta hua gantantra) हरिशंकर परसाई के महत्वपूर्ण व्यंग्यों में से एक है। इसके ज़रिए परसाई ने भारत के गणतंत्र और रोब-दाब तथा ठाट-बाट वाली राज व्यवस्था पर गहरी चोट की है। गणतंत्र दिवस पर दिखाई जाने वाली झांकियों और असल विकास के बीच के फ़ासले को परसाई ने इस व्यंग्य के ज़रिए स्पष्ट किया है। व्यंग्य का पाठ नीचे दिया गया है।

चार बार मैं गणतंत्र दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आख़िर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूंदाबांदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत-सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। thithurta hua gantantra

इतना बेवकूफ़ भी नहीं हूँ कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखनेवाले बताते हैं कि हर गणतंत्र दिवस पर मौसम ऐसी ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। thithurta hua gantantra

आख़िर बात क्या है? रहस्य क्या है?

जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा, “ज़रा धीरज रखिए। हम कोशिश में लगे हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं है। वक़्त लगेगा। हमें सत्ता के कम-से-कम सौ वर्ष तो दीजिए!”
दिये। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिये, मगर हर साल उसका कोई छोटा कोना निकलता तो दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अन्तरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप एक दिन ऑपरेशन करके निकाल देंगे।

इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेसी से पूछा। उसने कहा, “हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडिकेटवाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे।” thithurta hua gantantra

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एक सिंडिकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा, “यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है, बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या ज़रूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?”

मैं संसोपाई भाई से पूछता हूँ। यह कहता है, “सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डॉ. लोहिया के कहने से हमारा पार्टी-फॉर्म भर दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे।” thithurta hua gantantra

जनसंघी भाई से भी मैंने पूछा। उसने साफ कहा, “सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि वह भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा।”

साम्यवादी ने मुझसे साफ़ कहा, “यह सब सी.आई.ए. का षड्यंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।”

स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा, “रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा!”

प्रसोपा के भाई ने अनमने ढंग से कहा, “सवाल पेचीदा है। नेशनल कौसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।”

राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है!
मैं इन्तज़ार करूँगा, जब भी सूर्य निकले।

स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। thithurta hua gantantra

स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र दिवस ठिठुरता है।

मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है, ‘घोर करतल ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं होता। हाथ अकड़ जाएँगे।

लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रही हैं। मैदान में ज़मीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलती है, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। thithurta hua gantantra

पर कुछ लोग कहते हैं, ‘गरीची मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं, ‘ऐसा कहनेवाले प्रजातंत्र के लिए ख़तरा पैदा कर रहे हैं।’
गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन, इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे।

एक सिंडिकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा, “यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है, बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या ज़रूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?” thithurta hua gantantra

पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आन्ध्र की झाँकी में हरिजन जलाते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्य प्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नज़दीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्य प्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कायों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो में झाँकी में झूठे मस्टर-रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अंगूठा हज़ारों मूर्षों के नाम के आगे लगवाता; नेता, अफ़सर, ठेकेदार के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कलों की ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता-मंत्री, अफ़सर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। thithurta hua gantantra

जो हाल झांकियों का वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है, पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा करते हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा।

मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं, पर टीले को घेरे खड़े हैं कई तरह के समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही वहीं लाऊँगा।

समाजवाद टीले से चिल्लाता है, “मुझे बस्ती में ले चलो।”

मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं, “पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा!”

समाजवाद की घेराबन्दी कर रखी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले साम्यवादी हैं, दोनों तरह के कांग्रेसी हैं, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटरवाले हैं। क्रान्तिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है, “लो, मैं समाजवाद ले आया।”

समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ़ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। “ख़बरदार, उधर से मत जाना!” एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा, दूसरा हाथ पकड़कर उसे खींचता है। तब बाक़ी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहूलुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। thithurta hua gantantra

इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। thithurta hua gantantra

याँ प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है।

मैं एक कल्पना कर रहा हूँ:

दिल्ली में फ़रमान जारी हो जाएगा, “समाजबाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बन्दोबस्त किया जाए।” thithurta hua gantantra

एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा, “लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इन्तज़ाम करो। नाक में दम है।”
कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। thithurta hua gantantra

पुलिस-दफ़्तरों में फ़रमान पहुँचेंगे, “समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो।” दफ़्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे, “काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवादवाला काग़ज़ आया था न, ज़रा निकालो!” thithurta hua gantantra

तिवारी बाबू काग़ज़ निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे, “अरे, वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम काग़ज़ दबाकर रख लेते हो। बड़ी ख़राब आदत है तुम्हारी।”

तमाम अफ़सर लोग चीफ सेक्रेटरी से कहेंगे, “सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इन्तज़ाम नहीं कर सकेंगे। दशहरा आ रहा है। दंगे के आसार हैं। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।”

मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा, “हम समाजवाद की सुरक्षा का इन्तजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।”

जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज़ दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे ख़ास एतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दास्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।

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