हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।
Browsing Tag

saprasang vyakhya

सप्रसंग व्याख्या, सूरदास

2. बिन गोपाल बैरिन भईं कुंजै।तब ये लता लागति अति शीतल, अब भईं ज्वाल की पुंजै।।बृथा बहति जमुना, खग बोलत, ब्रथा कमल फुलै, अलि गुंजैं।पवन पाति धनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भईं भुजैं।। ए, ऊधो, कहियो माधव सो बिरह कदन करि मारत

सप्रसंग व्याख्या, सूरदास

1. उद्धव! यह मन निश्चय जानों।मन क्रम बच मैं तुम्हैं पठावत ब्रज को तुरत पलानो।।पूरन ब्रह्म, सकल, अविनासी ताके तुम हो ज्ञाता।रेख, न रूप, जाति, कुल, नाही जाके नहीं पितु माता।।यह मत दै गोपिन कहु आवहु बिरह नदी में भासति।सूर तुरत यह जाय