कविता : आह! धरती कितना देती है-सुमित्रानंदन पंत
मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थेसोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।सपने जाने कहां मिटे , कब!-->…