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Solved Question Answers, तुलसीदास-2

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प्रश्न-2:    सुन्दरकाण्ड के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास की काव्यकला पर विचार कीजिए।

उत्तर  तुलसीदास रामभक्ति काव्यधारा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कवि है। तुलसीदास ने अनेक रचनाऐं की। कवितावली, दोहावली, जानकीमंगल, विनयपत्रिका, कृष्णगीतावली अनेक रचनाऐं की। परन्तु उनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार उनके द्वारा रचित रामचरितमानस थी।

तुलसीदास भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हैं। भारतीय संस्कृति का स्वरूप देखना हो तो रामचरितमानस एक आदर्श रूप प्रस्तुत करता है। तुलसीदास के उदात्य भाव, सांस्कृतिक समन्वय चेतना, चरित्र निर्माण एवं कलात्मक विभूति का साक्षात प्रमाण है, रामचरितमानस।

‘रामचरितमानस’ हिन्दी साहित्य के एक हजार वर्षों की परम्परा में रामचरितमानस को सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त है। तुलसीदास के रामचरितमानस में सात काण्ड है, उनमें से एक है ‘सुन्दरकाण्ड’।

सुन्दरकाण्ड में हनुमान द्वारा लंका यात्रा से लेकर समुद्र सेतु बाँधने के उपक्रम तक ही उल्लेख है।

तुलसीदास महान कवि होने के बावजूद अपने काव्यशास्त्र संबंधी अज्ञान पर बार-बार दावा करते हैं और कहते हैं-

“कवि न होऊँ नहिं वचन प्रवीनू।
सकल कला सब विद्या हीनू।।”

तथा

“कबित विवेक एक नहिं मोरे।
सत्य कहौं लिखि कागद कोरे।

वस्तुतः कलागत चमत्कारों के प्रति यह उदासीनता ही उन्हें महान कवि के पद पर पहुँचाती है।

तुलसीदास यह मानते हैं कि कविता में शिल्प तभी सार्थक होता है जब वह समुचित कथ्य के साथ सम्बन्धित हो। सुन्दरवाद वास्तव में रामकथा का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। सुन्दरकाण्ड में तुलसीदास के काव्यकला का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है।

निम्न बिन्दुओं के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास की काव्य कला पर विचार करते हैं-

1. भाषा- तुलसीदास संस्कृत के ज्ञाता है, किन्तु उन्होंने ब्रजभाषा और अवधी का चयन अपने काव्य भाषा के तौर पर किया है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान होने के साथ-साथ इन दोनों भाषाओं में भी सिद्धहस्त हैं। दोनों भाषाओं में उनकी प्रसिद्ध कविताएँ निम्नलिखित हैं-

ब्रजभाषा- कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका।

अवधी- रामचरितमानस, जानकीमंगल, पार्वतीमंगल।

तुलसीदास की भाषा अत्यन्त सरल और सुबोध है। तुलसीदास के काव्य में तद्भव, तत्सम और विदेशी सभी शब्द मिलते हैं। मुहावरों व कहावतों के प्रयोग से काव्यभाषा में लोक प्रभाव की क्षमता बढ़ती है। तुलसीदास ने इस तत्त्वों का प्रायः पर्याप्त प्रयोग किया है।

तुलसीदास की भाषा क्षमता का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है उनके द्वारा किया गया ध्वनियों का सटीक प्रयोग। किसी भाव के साथ किन ध्वनियों का प्रयोग किया जाना चाहिए, इसमें तुलसीदास की विशेषज्ञता सराहनीय है।

डॉ. रामविलास शर्मा कहा है- “भाव के साथ ध्वनि की तरंगें उठाने-गिराने में वे अद्वितीय हैं। उदाहरण-     

“सिथिल अगं पग मग डग डोलहि।
बिहबल बचन मेम बस बोलहिं।।” (रामचरितमानस)

2. बिम्बात्मकता- तुलसीदास के काव्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें बिम्ब चित्रित होता है। जब हम उनके काव्य रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड को पढ़ते हैं तो हमारी आँखों के सामने एक बिम्ब बनने लगता है। सुन्दरकाण्ड का एक चित्र बिम्ब के रूप में दिखायी देता है। सुन्दरकाण्ड की कुछ पंक्तियों के उदाहरण से हम समझते हैं। जैसे-

“जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दूत कवि रूप देखावा।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।”

3. छन्दों का प्रयोग- तुलसीदास ने अपने काव्य में अलग-अलग छन्दों का प्रयोग किया है। छन्दों का चयन विषयों के अनुकूल लय की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए किया है। रामचरितमानस में वे अवधी भाषा के अनुरूप दोहा व चौपाई छन्द का प्रयोग करते हैं। चौपाइयों पर उनका असाधारण अधिकार है। 16 मात्राओं का एक चरण होता है तथा चौपाई में 4 चरणों में इन 16-16 मात्राओं का निर्वहन सम्पूर्ण रामचरितमानस के साथ-साथ सुन्दरकाण्ड में भी भली प्रकार से हुआ है।

काव्य शिल्प की दृष्टि से विविधता लाने के लिए कुछ चौपाइयों के बाद एक दोहा का प्रयोग से काव्य का सौंदर्य द्विगुणित करने में भी तुलसीदास जी को सफलता प्राप्त हुई है। जब हम सुन्दरकाण्ड का पाठ करते हैं तो कुछ चौपाइयों के बाद ही एक दोहा आता है, जिससे पाठकों और श्रोताओं को एक नया उत्साह मिल जाता है तथा रस परिवर्तन भी होता है। उदाहरण-

“जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।।”

4. अलंकारों का प्रयोग- तुलसीदास कविता में कथ्य को महत्त्व देते हैं किन्तु उसकी प्रभावशीलता अभव्यक्ति के लिए उन्होंने अलंकारों का संयमति तथा सधा हुआ प्रयोग किया। उनके काव्य में शब्दालंकार कम है और अर्थालंकार अधिक। उनके अनुप्रास जैसे शब्दालंकारों के कुशल प्रयोग से प्रभावित होकर आचार्य शुक्ल को यहाँ तक कहना पड़ा “अनुप्रास के तो वह बादशाह थे।” अनुप्रास अलंकार के साथ-साथ उन्होंने और भी अलंकारों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। उनके काव्य में हमे उपमा अलंकार, यमक, श्लेष आदि अलंकार देखने को मिलते हैं।

“अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे।।”

5. रसों का प्रयोग- तुलसीदास के रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में अनेक रसों की सुन्दर योजना की गई है। सुन्दरकाण्ड में शृंगार रस के वियोग शृंगार का वर्णन होता है, साथ ही उसमें वीर रस, रौद्र रस, अद्भुत रस आदि का वर्णन मिलता है।

सुन्दरकाण्ड में रौद्र रस का प्रमाण भी दिखाई देता है। इसका स्थायी भाव क्रोध है। सुन्दरकाण्ड की एक चौपाइ्र निम्न है जिसमें रौद्र रस की झलक दिखाई देती है-

“सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।”

सुन्दरकाण्ड में हनुमान जी की वीरता का भी बहुत अद्भुत वर्णन किया है-

जेंहि गिरि चरन देह हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।।”

6. प्रतीकात्मकता- कविता में कम शब्दों में अधिक प्रभावी बात कहने के लिए कवि प्रतीकों का प्रयोग करता है। प्रतीकों के प्रयोग से कविता में सारगर्भिता का गुण पैदा होता है। तुलसी कविता आम समाज के लिए लिख रहे थे, इसलिए जटिल प्रतीकों का प्रयोग नहीं किया। किन्तु उन्होंने प्रासंगिक प्रतीकों का प्रयोग अवश्य किया है।

“तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तौ दादुर बोलिहैं हमैं पूछिहैं कौन।।”

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