हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

Solved Question Answers, B.A. Hindi Hons.

0 243

प्रश्न-1:   तुलसीदास की समन्वयभावना को चित्रित कीजिए?

उत्तर-  तुलसीदास भक्तिकालीन सगुण काव्य धारा की रामभक्ति शाखा के सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। तुलसीदास ने रामभक्ति काव्यधारा में ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जिससे परवर्ती काल के जितने भी कवि हुए वे उनके प्रेरणास्रोत बन गये। गोस्वामी तुलसीदास समग्र मानवता के कवि हैं। तुलसीदास मध्यकाल के जिस सामंती परिवेश में विद्यमान थे, उसमें अनेक विरोधी शक्तियाँ समाज के विभिन्न स्तरों पर संघर्षरत थी। तुलसीदास ने उन विरोधी विचारधाराओं में समन्वय स्थापित करके अत्यन्त लोककल्याणकारी कार्य किया। उन्होंने अनेक स्तरों पर समन्वय किया।

          आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी समन्वय साधना की गंभीर प्रशंसा करते हुए लिखा है कि- “तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली उसका कारण यह था कि वे समन्वय की विशाल बुद्धि लेकर उत्पन्न हुए थे। भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य लेकर सामने आया हो।… उन्हें लोक और शास्त्र दोनों का बहुत व्यापक ज्ञान प्राप्त था।

          तुलसीदास एक भक्त के रूप में, लोकनायक के रूप और एक कवि के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होते हैं। उनमें केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है वैराग्य और गृहस्थ का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का समन्वय रामचरितमानस के आदि और अन्त दो छोरों पर जाने वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयास है। इस महान समन्वय का आधार उन्होंने रामचरितमानस को चुना है। उनकी उदात्य, सांस्कृतिक समन्वय चेतना, चरित्र निर्माण एवं कलात्मक विभूति का साक्षात् प्रमाण है, रामचरितमानस। तुलसीदास की इस महान समन्वय चेतना को निम्नलिखित स्तरों पर देखा जा सकता है-

1. भक्ति व ज्ञान का समन्वय- तुलसीदास की भक्ति मूलतः भावनाओं पर आधारित सगुण भक्ति है किन्तु वे केवल भावनाओं पर आधारित भक्ति को ही काम्य नहीं मानते, इसलिए वे भक्ति में ज्ञान का भी आग्रह करते हैं। वे शंकराचार्य के भक्ति विरोधी ज्ञानमार्ग को अस्वीकार करते हैं किंतु भक्ति और ज्ञान में गहरा सगंध खोजते हैं और कहते हैं कि-

‘ग्यानि प्रभुहिं बिसेसि पियारा’
तथा                      
‘भगतिहिं ग्यानहिं कछु भेदा।’

2. निर्गुण व सगुण का समन्वय- सगुण और निर्गुण का विवाद तुलसीदास के समय का जटिल विवाद है। तुलसी सगुण भक्त है, इसलिए वे मानते हैं कि जिस राम की वह बात कर रहे हैं वह दशरथ पुत्र राम ही हैं। किन्तु चूँकि तुलसीदास समन्वय चेतना के कवि है, इसलिए वे निर्गुण व सगुण को परस्पर विरोध नहीं मानते हैं-

“सगुनहिं अगुनहिं नहीं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा।।”                

3. शैव व वैष्णव का समन्वय- तुलसीदास मुलतः राम की भक्ति करते हैं किन्तु वे अपनी समन्वय साधना के अन्तर्गत अन्य देवों की प्रार्थना करना भी नहीं भूलते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों की शुरुआत प्रायः गणेश वन्दना से की है। साथ ही अपने समय के शैव तथा वैष्णव मतभेदों को भी सुलझाने के लिए प्रायः शिव और राम को एक-दूसरे का भक्त बताया है। उदाहरण के लिए तुलसीदास के राम कहते हैं-

“शिव द्रोही मम दास कहावा।
सो नर मोहिं सपनेहु नहिं भावा।।”

इसी प्रकार उनके शिव कहते हैं-

“सोइ राम व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनि।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र निज रघुकुल मति।।”

4. राजा एवं प्रजा का समन्वय- तुलसीदास के समय में राजा एवं प्रजा के मध्य गहरी खाई बनती जा रही थी। एक ओर राजा भोग-विलास में डूबकर आनन्द लेते थे तो दूसरी ओर प्रजा दयनीय स्थिति में जीवन गुजरती थी। तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस में राजा व प्रजा के कर्तव्यों का निर्धारण करते हुए दोनों के सम्यक सम्बन्ध की व्याख्या कर राजा व प्रजा के मध्य समन्वय स्थापित किया-

“सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन माने जोई।  
जो अनीति कछु भाषों भाई। तो मोहिं बरजहु भय बिसराई।।”

5. पुरुष व नारी में समन्वय- तुलसीदास पुरुष एवं नारी में भी समन्वय स्थापित करते हैं। वे मर्यादा को सिर्फ नारियों तक ही सीमित नहीं रखते। तुलसीदास नारी से एक पतिव्रता होने की उम्मीद करते हैं तो पुरुष के लिए भी यही प्रतिमान निर्धारित करते हैं। उनके समय में जबकि प्रत्येक राजा के अपने-अपने हरम होते थे, साथ ही बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी, उनके आराध्य राम केवल एक विवाह करते हैं और प्रेम की प्रतिबद्धता के लिए दुनिया के सबसे आततायी सम्राट (रावण) से संघर्ष करते हैं। साथ ही रामायण में भी राम के प्रभाव से सभी पुरुष एक पत्नीव्रत हो जाते हैं-

“एक नारि व्रत रत सब झारी।
ते मन वच क्रम पति हितकारी।

साथ ही भक्ति के संदर्भ में भी तुलसी पुरुष और नारी के प्रति समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं-

“राम भगति रत नर अरू नारी।
सकल परमगति के अधिकारी।।”

6. विभिन्न वर्णों के समन्वय- तुलसीदास ने विभिन्न वर्णों के संबंध में भी अपनी प्रगतिशील समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचय दिया है। तुलसीदास लिखते हैं कि केवट अपनी सीमाएँ जानकर ऋषि वशिष्ठ को दूर से प्रणाम करता है किन्तु ऋषि स्वयं आगे बढ़कर उसे गले लगा लेते हैं-

“प्रेम पुलक केवट कहि नामू। कीन्हि दूरि ते दण्ड प्रणामू।
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।”

इसी प्रकार राम भी निम्न वर्ण की स्त्री शबरी के जुठे बेर खाते हैं। यहाँ भी तुलसीदास समन्वय स्थापित करते हैं। शबरी कहती है-

“अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह मह मे मतिमंद अधारी।।”

तो राम कहते हैं-

“नब महुं एकौ जिन्ह के होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई।।”

7. लोकभाषा व संस्कृत में समन्वय- तुलसीदास ने भाषा के स्तर पर भी समन्वय स्थापित किया है। संस्कृत के साथ-साथ उन्होंने लोकभाषा में भी अपने ग्रन्थों की रचनाएँ की है। भाषा सम्बन्धी समन्वय दृष्टि का उनका सबसे प्रमुख कथन है-

“का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच।
काम जु आवै कामरी, का लै करिअ कुमाच।।”

8. पारिवारिक समन्वय- तुलसीदास ने पारिवारिक समन्वय भी किया है। वे परिवार के सभी सदस्यों के दायित्व चेतना दिखाते हैं, न कि अधिकार चेतना। जब सामंती समय में राज्य के लिए बेटे के द्वारा पिता की तथा भाई के द्वारा भाई की हत्या समन्वय बात हो चुकी थी, वैसे समय में तुलसी के राम अपने राज्याभिषेक की सूचना पाकर प्रसन्न नहीं होते बल्कि चिंतित होते हैं-

“जन्में एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।
विमल वंश यह अनुचित एकू। बंधु बिहाई बड़ेहि अभिषेकू।।”

Leave A Reply

Your email address will not be published.