Solved Question Answers, सूरदास
प्रश्न-1: भ्रमर गीतसार के माध्यम से सूरदास के वियोग वर्णन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर– सूरदास के काव्य ‘सूरसागर’ से संकलित ‘भ्रमरगीत’ में गोपियों का विरह-पीड़ा को चित्रित किया गया है। श्री कृष्ण के ब्रज छोड़कर मथुरा चले जाने पर गोपियाँ विरह-पीड़ा से व्यथित हो उठीं। एक दृष्टि से भ्रमरगीत सार एक उपालम्भ काव्य भी है जिसका अर्थ है- उलाहना देना या प्रेमी के किसी विशेष व्यवहार पर व्यंग्य के माध्यम से चोट करना।
सूरदास ने वात्सल्य की ही भाँति वियोग का भी अत्यन्त व्यापक एवं विशद वर्णन किया है। भ्रमरगीत में गोपियों को प्रवासजन्य वियोग की पीड़ा झेलनी पड़ रही है। इस वियोग की कई विशेषताएँ है। इसकी पहली विशेषता है कि सूरदास जी ने विरह की सारी दशाओं का वर्णन किया है। काव्यशास्त्र में तो विरह (वियोग) की दस दशाओं का ही वर्णन मिलता है। सूरदास जी ने तो उससे भी आगे बढ़कर कई ऐसी दशाओं का चित्रण किया है जो उसमें शामिल नहीं हो पाती8। इनमें से हम कुछ दशाओं को विश्लेषण के माध्यम से समझ सकते हैं। भ्रमरगीत सार में गोपियों की जो श्री कृष्ण से मिलने की व्याकुलता है, वह स्पष्ट दिखायी देती है।
गोपियाँ कृष्ण के दर्शन की प्यासी है और उनमें कृष्ण से मिलने की गहरी अभिलाषा है। ऐसी स्थिति में वे कई ऐसी बाते कहती है जो उनके वियोग की तीव्रता को व्यक्त करती है। उदाहरण-
“निसि दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस रितु हमपैं जबतै स्याम सिधारे।”
दर्शन की यह अभिलाषा इतनी गहरी है कि जब कृष्ण के मित्र उद्धव आते हैं तो गोपियाँ उद्धव को देखकर भी कृष्ण से मिलने का सुख पाती है-
“अखियाँ हरि दर्शन की भूखी।
कैसे रहे रूप रस राँची ये बतियाँ सुनि रूखी।”
वियोग की तीव्रता समय के साथ बढ़ती जा रही थी। अब यह विरह इतना तीव्र हो चुका है कि कृष्ण का पत्र (संदेश) प्राप्त करके गोपियों की आँखों में आँसू आ गये हैं।
“निरखति अकं स्याम सुन्दर के बार-बार लावति छाती।
लोचन जल कागद मसि मिलिकै ह्वै गई स्याम स्याम की पाती।”
वियोग विरही व्यक्ति को इतना उदार और सहिष्णु बना देता है कि वह किसी भी स्तर तक झुकने को तैयार हो जाता है। जो गोपियाँ एक हद तक कृष्ण पर व्यंग्य करती है और उद्धव से कहती हैं कि-
“हरि काहे के अंतर्यामी।
जो हरि मिलत नहीं यदि औसर, अवधि बतावत लामी।”
वही इतनी उदार और सहिष्णु हो जाती है कि वियोग से बेचैन होकर अपने अधिकारों को छोड़कर भी कृष्ण को बुलाना चाहती है-
“फिर ब्रज बसहु गोकुल नाथ।
देह दर्शन नंद नंदन, मिलन की ही आस।”
विरह की एक दशा का नाम है ‘आत्म समाधान’। इसका अर्थ है खुद को एक प्रकार की झूठी तसल्ली देना। विरही व्यक्ति घोर दुःख सहकर भी कभी यह मन में नहीं लाता कि इससे तो अच्छा होता कि प्रेम न होता। वह दुनिया भर से चाहे कहता रहे कि प्रेम मार्ग में बहुत कष्ट है किन्तु वह स्वयं विरह में भी तसल्ली ढूँढ़ता है। गोपियाँ भी आत्म समाधान की दशा में आती हैं। सूरदास जी ने इस दशा का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया है। गोपियाँ कहती है कि-
“हम तो दुहूँ भाँति फल पायो।
जो ब्रजनाथ मिलै तो नीको, नातरू जग जस गायों।”
प्रेम व्यक्ति को आत्मकेंद्रित बनाता है यही कारण है कि प्रेमी अपने प्रेम को बाँट नहीं सकता। इसी कारण असूया का भाव पैदा होता है। गोपियाँ एक ओर तो विरह के कष्ट में है और दूसरी ओर कृष्ण का कुब्जा के साथ सम्बन्ध को जाकर बहुत दुखी होती है। गोपियों के लिए यह स्थिति असहनीय है और वे असूया भाव से भर कर कहती है कि हे उद्धव सच पूछिये तो जीवन श्री कृष्ण की चहेती कुब्जा का धन्य है जो सदैव प्रियतम श्री कृष्ण के शरीर का वह स्पर्श और दर्शन किया करती है। हम लोग तो इन दोनों सुखों से वंचित है।
“जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी को।।”
विरह की एक विशेषता होती है कि स्थितियाँ कितनी भी जटिल हो अन्त तक एक अदम्य आशा बनी रहती है। यह स्थिति गोपियों के साथ भी है।
“ब्याहौ लाख धयै दस कुबरी, अन्तहि कान्ह हमारे।”
गोपियों को अन्तत यह विश्वास था कि श्री कृष्ण चाहे जो कर ले अन्त में वे लौट कर हमारे पास जरूर आयेगें। प्रेम की ऊँचाई इस बात पर निर्भर करती है कि विरही व्यक्ति केवल अपने सुख के लिए प्रिय को बुलाना चाहता है या उसके सुख में ही अपने सुख की तलाश करता है। एक दूसरे तरीके से देखें तो विरह की दशा ऐसी है जहाँ मिलन की आशा समाप्त हो जाती है और विरही केवल यह चाहता है कि प्रिय जहाँ भी रहे खुश रहे। गोपियाँ श्री कृष्ण के लिए यही सोचती है कि वह जहाँ रहे खुश रहें-
“जहँ-जहँ रहौ राज करो तहँ-तहँ लेहु कोटि सिरभ।”
विरह की अंतिम दशा वह है जिसे काव्यशास्त्र में मूर्छा कहा जाता है। यह अवस्था करुण विप्रलंभ से आती है। कृष्ण के वियोग में राधा धीरे-धीरे ऐसी दशा में पहुँच गयी है, जहाँ उनकी दशा के प्रति करुणा का भाव पैदा होने लगता है। वे मूर्छित तो नहीं है किन्तु उनकी दशा करुणोत्पादक अवश्य है-
“अति मलीन ब्रबभानु कुमारी।
हरि स्रमजलु अंतर तन भीजै,
ता लालच न धुवावतिसारी।।”
सूरदास के वियोग वर्णन की एक और विशेषता है- मानवेतर प्रकृति का समावेश विरह में प्रकृति का शामिल होना उसकी तीव्रता को व्यंजित करता है। गोपियाँ किस प्रकार अपने वियोग में प्रकृति की हर चीजों से नाता (संबंध) नहीं रखती। उन्हें अब यह सब कुछ अच्छा नहीं लग रहा है, इसका वर्णन करती है।
“बिन गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब ये लता जागति अति शीतल, अब भई ज्वाल की पुंजै।।”
इसमें प्रकृति का उद्दीपन विभाव से चित्रण किया गया है। गोपियाँ उद्धव से कहती है कि हे उद्धव, बिना कृष्ण के ये कुंज ये वन हमारे लिए शत्रु तुल्य बन गये हैं। वह कहती है कि ये लताऐं जो शीतल प्रतीत होती थीं आज वे ही लताऐं भयंकर अग्नि के समान लग रही है।
भ्रमरगीत की सबसे बड़ी विशेषता मानी गयी है कि यह हिन्दी साहित्य का अद्भुत उपालंभ काव्य है। भ्रमरगीत सार का अन्त इस प्रकार हुआ है कि उद्धव भी अपने ज्ञानमार्ग से डिगने लगे हैं। गोपियों के दृढ़ भावात्मक तर्कों के सामने वे महसूस करने लगते हैं कि जीवन की सार्थकता सगुण मार्ग व प्रेममार्ग में हैं। जीवन को माया मानकर इसे झुठलाया नहीं जा सकता। उद्धव अन्त में कहते हैं-
“अब अति पंगु भयो मन मेरो।
गयो तहाँ निर्गुण कहिवे को, भयो सगुण को चेरो।।”