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Solved Question Answers, बिहारी

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प्रश्न-2: ‘बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया है’ इस कथन का विश्लेषण कीजिए।

उत्तर  बिहारी के दोहों के सम्बन्ध में यह उक्ति बहुत ही प्रसिद्ध है कि बिहारी ने ‘गागर में सागर’ भर दिया है। इस कथन पर पूर्णतया विचार किया जाए तो सर्वप्रथम दृष्टि बिहारी द्वारा अपनी रचना में ‘दोहा’ छंद के प्रयोग पर जाती है। बिहारी ने दोहा छंद के साथ-साथ कहीं-कहीं पर ‘सोरठा’ नामक छंद का भी प्रयोग किया है जो कि दोहे से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। सोरठा छंदों की संख्या नगण्य है और फिर दोहा तथा सोरठा छंदों में कोई मूलभूत अन्तर भी नहीं हैं, केवल चरणों की अदला-बदली है। बिहारी की रचना दोहों में ही है। दोहा यद्यपि बहुत ही छोटा छंद है और प्रत्यक्षतः बड़ा सरल प्रतीत होता है पर भाव की व्याप्ति की दृष्टि से दोहे का रचना-विधान बड़ा ही जटिल और कौशल-सापेक्ष होता है। प्रथम तथा तृतीय चरणों में 13 और द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों में 11 मात्राओं के हिसाब से चारों चरणों में कुल 48 मात्रायें होती हैं। एक दोहे में एक ही भाव की व्याप्ति होती है। इस प्रकार के लघुकाय छंद में भाव को बाँधकर चलाना बड़े ही सिद्धहस्त कवि का काम है। कवित्तों, कुण्डलियों और छप्पयों के बड़े आकारों में आनेवाले भावों को यदि छोटे-छोटे छंदों में ही व्यक्त कर दिया जाऐ तो यह कवि की विशेष प्रतिभा का ही परिणाम हो सकता है। बिहारी ने यह सिद्ध कर दिया कि दोहे में उतनी बातों को एक साथ व्यक्त किया जा सकता है जिसके लिए कवियों को सवैया तथा छप्पय का सहारा लेना पड़ा है। इनमें भाषा की दृष्टि से समास पद्धति का अनुसरण करना पड़ता है। संक्षिप्त पदावली में अधिक से अधिक भाव भरकर बिहारी ने काव्य क्षेत्र में बड़ा ही प्रशंसनीय स्थान प्राप्त किया है। बिहारी को मानव प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति दोनों का ही सम्यक ज्ञान था। यही कारण है कि इन्होंने इन दोनों के ऐसे सुन्दर, संश्लिष्ट चित्रण उपस्थित किये हैं जो भाव को व्यापकता एवं मार्मिकता दोनों ही दृष्टियों से बड़े महत्त्वपूर्ण है।

          ऐसा कहा जाता है कि बिहारी के एक दोहे ने जयपुर महाराजा जयसिंह को अपनी प्रजा की और किंकर्तव्य-विमूढ किया अन्यथा वे तो अपनी छोटी रानी के प्रेम पाश में इस तरह डूबे हुए थे कि उन्हें अपनी प्रजा के सुख-दुख का कुछ ख्याल ही नहीं था। पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार है-

“नहीं पराग नहिं मधुर मधु,
नहिं विकास यहि काल,
अली कली ही सो बँध्यो
आगे कौन हवाल।”

          जयपुर नरेश बिहारी को उनके प्रत्येक दोहे पर एक अशर्फी देते थे। इस प्रकार बिहारी ने सात सो दोहे लिखे। दोहे के इस संग्रह को ‘बिहारी सतसई’ के नाम से जाना जाने लगा। बिहारी सतसई ऐसा एक मात्र काव्य है जिस पर सबसे अधिक टीकाएँ लिखी गई है।

          पं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने लिखा है कि- शृंगार रस के ग्रन्थों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। बिहारी ने सतसई के अलावा और कोई ग्रन्थ नहीं लिखा। यही ग्रन्थ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए, वह बिहारी के दोहों में अपने चरमउत्कर्ष को पहुँचा है। इसमें कोई संदेह नहीं है। जिस कवि के दोहों में अपने कल्पना की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद में रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है। ‘बिहारी सतसई’ के दोहे में थोड़े में बहुत कुछ कहने की अद्भुत क्षमता मिलती है। बिहारी जी ने स्वयं अपने ‘सतसई’ के बारे में लिखा है कि-   

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटन लगे, घाव करे गम्भीर।”

          बिहारी ने कुछ दोहे नीति, ज्ञान और वैराग्य पर लिखे हुऐ है पर इनकी कविताओं में शृंगार रस की प्रधानता है। कुछ विशेषताऐं जो बिहारी के दोहे में गागर में सागर भरने का काम करता है वह इस प्रकार है-

  • शृंगार रस की प्रधानता- बिहारी ने बिहारी सतसई के मंगलाचरण में शृंगार रस की नायिका राधा की स्तुति से प्रारम्भ किया है-

“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परै श्याम हरित दुति होय।।”

          बिहारी के दोहे में शृंगार रस की प्रधानता सबसे अधिक देखने को मिलती है। बिहारी शृंगार रस के कवि है शृंगार रस के अलावा उनकी सतसई में भक्ति और नीति के दोहे भी पाए जाते हैं जिससे उनके छोटे से दोहे में चार चाँद आ जाता है। भक्ति से परिपूर्ण उनके दोहे हृदस को छू लेते हैं इसे हम इस दोहे के माध्यम से देख सकते हैं-

“या अनुरागी चिन्त की गति, समुझै नहिं कोय।
ज्यौं-ज्यौं बूड़ै श्याम रंग, त्यौं-त्यौं उज्ज्वल होय।।

  • राधा और कृष्ण की भक्ति- बिहारी के दोहे में राधा और कृष्ण के प्रेम रस देखने को मिलता है जिस राधा से श्रीकृष्ण प्रेम करते हैं बिहारी के अनुसार उसी राधा के दर्शन मात्र से सभी दुख दर्द दूर हो जाते हैं और कहते हैं कि-

“मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोय।
जा तन की झाई परै श्याम हरित दुति होय।।”

          बिहारी श्रीकृष्ण से अत्यन्त प्रेम करते हैं इस दोहे में स्पष्ट होता है-

“सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानक मो मन बसौ, सदा बिहारी लाल।।”

  • रस की प्रधानता- बिहारी के दोहे में संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष देखने को मिलता है। संयोग पक्ष का एक सुन्दर दोहा इसे प्रमाणित करता है-

“बरसत लालच लाल की, मुरली दरी लुकाई।
सौहा करे भवानु हंसे, दैन कहे बटि जाय।।”

          इसी प्रकार वियोग पक्ष में बिहारी के प्रतिभा निखर कर दिखाई पड़ती है-

“इत आवत चलि जात उत, चली छः सहायक हाथ।
चढी हिंडोरें सी रहै, लगी उसासन साथ।।”

          हिन्दी साहित्य में शृंगार वर्णन हृदय को स्पर्श करने वाला है। शृंगार रस का बिहारी सतसई में प्रचुर मात्रा में वर्णन है। बिहारी ने अपने दोहों का वर्गीकरण नहीं किया। जहाँ उनकी समझ में जो भाव अथवा विचार आये है उनकों उन्होंने दोहों के रूप में प्रस्तुत कर दिया।

  • बिहारी की भाषा-शैली- किसी भी कार्य की सफलता का आधार न केवल भाव-समृद्धि है और न भाषा समृद्धि वरन् इन दोनों का समन्वय है। “बिहारी की भाषा चलती हुई साहित्यिक ब्रजभाषा है जिसमें बीच-बीच में पूर्वी प्रयोग भी पाये जाते हैं। बिहारी ने कहीं-कहीं शब्दों की अवधी प्रकृति को भी स्वीकार किया है। यथा- ‘है’ का अवधी रूप ‘आहि’ प्रयुक्त हुआ है-

रही कराहि अति अब मुँह आह न आहि।

          बिहारी के जीवन का कुछ भाग बुन्देलखण्ड में व्यतीत हुआ था। अतएव इनकी रचनाओं में बुन्देलखण्डी प्रयोग ‘स्पोलने’, ‘चला’, ‘गीधे’ आदि ज्यों के त्यों पाये जाते हैं।

  • प्रकृति वर्णन- कवि ने अपने दोहे में प्रकृति का सुन्दर वर्णन किया है जैसे आम की मंजरी का सुंगध, विभिन्न ऋतु एवं वातावरण और भावों का समूह, प्रचंड ग्रीष्म ऋतु जैसे प्राकृतिक चित्रण इनके दोहे में दिखाई पड़ते हैं।

          बिहारी प्रकृति को इस तरह के रूपों में उपमानों के जरिये सजाते है कि अब बरबा कह उठते हैं कि बिहारी प्रकृति के संचेतना के कवि है।

निष्कर्ष:

कहा जा सकता है कि बिहारी जी ने अभिव्यक्ति के माध्यम से दोहों में एक चमत्कारिता को जन्म दिया है। वे एक सच्चे कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। पूरे हिन्दी साहित्य में वह अकेले ऐसे कवि है। जिसने अनुभवों की समुपरिस्थिति से पूरे भाव के मंच पर शैलीगत अभिनय का विधान किया हैं हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा है रीतिकाल के कवियों में शब्दालंकार के प्रयोग बहुत हैं लेकिन अधिकतर वे काव्य के घटिया प्रभाव को उत्पन्न करके रह जाते हैं अर्थ की बात सत्ता से उनका जितना संबंध होता है, उतना रमणीयता का ध्यान बराबर रखा। बिहार के छोटे-छोटे दोहे भी हृदय में छेद कर देते हैं इसी बिहारी को गागर में सागर भरने वाला कवि कहा जाता है।

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