Solved Question Answers, बिहारी

प्रश्न-1: बिहारी के काव्य में व्यक्त शृंगार-भावना का परिचय दीजिए।
उत्तर– हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में बिहारी जी रीतिसिद्ध कवि के रूप में जाने जाते हैं। ये रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं। बिहारी को एकमात्र रचना सतसई (बिहारी सतसई) है। यह मुक्तक काव्य है। इसमें 119 दोहें संकलित है। कविषय दोहे संदिग्ध भी माने जाते हैं। ‘सतसई’ में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
सतसई को तीन मुख्य भागों में विभक्त किया जा सकता है- नीति विषयक, भक्ति और अध्यात्म भावपरक तथा शृंगारपरक। इनमें से शृंगारपरक भाग अधिक है। कलात्मक चमत्कार सर्वत्र चातुर्य के साथ प्राप्त होता है। शृंगारपरक भाग में रूपांग सौंदर्य, सौंदर्योपरक नायक-नायिका भेद तथा हाव, भाव, विलास का कथन किया गया है। नायक-नायिका निरूपण भी मिलता है। बिहारी सतसई ऐसा एक मात्र काव्य है जिस पर सबसे अधिक टीकाएँ लिखी गई है।
पं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने लिखा है कि- शृंगार रस के ग्रन्थों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रन्थ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है।
बिहारी मुख्यतः शृंगार के कवि है और इनके अधिकांश छन्दों में शृंगार के संयोग और वियोग पक्ष बिखरे हुए हैं। इनके शृंगार की प्रमुख विशेषताऐं इस प्रकार हैं-
1. बिहारी के शृंगार वर्णन में ‘देह’ की केन्द्रीय भूमिका है। रीतिकाल का दरबारी माहौल ऐसे शृंगार की ही परिस्थितियाँ तैयार करता है जिसमें देह की चमक दरबारी रसिकों को आनंदित कर सके। यही कारण है कि बिहारी की कविताओं में बार-बार ऐसे उपमान आते हैं जिनके माध्यम से नायिका के शरीर की चमक का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से किया गया है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित छंद में नायिका का शरीर इतना चमकता-दमकता हुआ बताया गया है कि उसकी उपस्थिति में दीपक जलाने की जरूरत ही नहीं है।
“अंग अंग नग जगमगति दीपसिखा सी देह,
दिया बुझाय ह्वै रहौ, बडो उजेरो गेह।”
एक अन्य उदाहरण में वे नायिका की देह (शरीर) की चमक को और अधिक अतिशयोक्तिपूर्ण तरीके से व्यक्त करते हैं। नायिका की चमक का आलम यह है कि उसके घर के आसपास हमेशा पूर्णिमा ही रहती है। अतः पांचांग की मदद से ही तय हो पाता है कि आज कौन सी तिथि है-
“पतरा ही तिथि पाइए, बा घर के चहुँ पास,
निति प्रति पून्यौई रहे, आनन ओप उजास।”
बिहार ने नायिका के रूप का बहुत ही अद्भुत वर्णन किया है। इसे हम एक और उदाहरण के द्वारा देख सकते हैं-
“लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेर कूर।।”
इसमें बिहारी जी ने नायिका के रूप सौन्दर्य को बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है। बिहारी जी कहते हैं कि नायिका इतनी सुन्दर है कि सारे चित्रकार नायिका के रूप सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अभिमान से बैठे हैं लेकिन उनका अभिमान टूट जाता है क्योंकि नायिका इतनी सुन्दर है कि चित्रकारों को बार-बार नायिका की सुन्दरता परिवर्तित दिखाई देती है।
2. बिहारी के शृंगार वर्णन की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उसका ‘अनुभाव केंद्रित’ होना है। अनुभाव का संबंध रस सिद्धान्त से है। रस निष्पत्ति की प्रक्रिया के अंतर्गत जब भावक या दर्शक का स्थायी भाव मंच पर जुटाए गए विभावों, अनुभावों और संचारी भावों की क्रिया-प्रतिक्रिया से परिपाक की स्थिति में आता है तो रस की निष्पत्ति होती है।
अनुभाव और अभिनय समानार्थक शब्द है। अनुभाव का अर्थ है जो मन में भाव उत्पन्न होने के बाद होता है तात्पर्य यह है कि मन में उत्पन्न भावों की अभिव्यक्ति को ही अनुभाव कहा जाता है।
बिहारी के काव्य में अनुभावों की सघन उपस्थिति के कुछ ठोस कारण है। पहली बात है कि उन्हें दरबारी माहौल के भीतर चमत्कार पैदा करना था। चूँकि दरबारी रसिकों में धैर्य की भारी कमी होती है, इसलिए ऐसे माहौल में प्रबंधकाव्य लिखना लगभग असंभव हो जाता है। दरबार की प्रमुख चुनौती यह होती है कि कम से कम शब्दों में मुक्तक रचना के माध्यम से रसिकों को आह्लादित कैसे किया जाए? इसलिए बिहारी सिर्फ मुक्तक लिखते हैं। और उनमें भी सबसे छोटे दोहों व छंद का चयन करते हैं। यदि वे छोटे से छंद में विभाव पक्ष को लाने का प्रयास करेगें तो न तो संदर्भ पूरी तरह स्पष्ट होगा और न ही चमत्कार पैदा करने के लिए ज्यादा स्थान बचेगा। इसलिए, वे विभाव पक्ष से बचते हुए सिर्फ अनुभाव पर ध्यान देते हैं। विभाव तथा अन्य सूचनाओं के प्रति वे इतने उदासीन है कि पाठक को खुद उन सूचनाओं की कल्पना करनी पड़ती है। इस वजह से उनके छंदों में अनुभवों की सघनता विस्मित कर देती है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित दोहे की पहली पंक्ति में सात शब्द है और सातों शब्द एक-एक अनुभाव को व्यक्त करते हैं-
“कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात
भरे मौन में करत हैं, नैननु ही सो बात।”
अनुभावों की सघनता ने बिहारी के शृंगार वर्णन को बेहद बिम्बात्मक और सजीव बना दिया है। चूँकि अनुभावों का संबंध नायक-नायिका की चेष्टाओं से हैं इसलिए स्वाभाविक है कि चेष्टाओं का वर्णन होने पर बिंब बनेंगे ही। बिम्ब भाषा या चित्र भाषा में बिहारी को ऐसी महारत हासिल है कि उनके किसी-किसी दोहे को पढ़ना चलचित्र देख लेने जैसा अनुभव होता है। उदाहरण के लिए-
“बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय,
सौह करे, भौहनु हँसे, दैन कहे, नट जाय।”
निम्नलिखित दोहे में नायिका (राधा) द्वारा नायक (कृष्ण) की बाँसुरी को छिपा दिये जाने और उसकी खोज की प्रक्रिया में होने वाली नोंक-झोंक व तकरार का बेहद सुंदर व चित्रात्मक वर्णन हुआ है।
3. बिहारी के शृंगार प्रसंग में वियोग का भी गहरा महत्त्व है। उन्होंने वियोग का भी अद्भुत वर्णन किया है। मुख्यतः तो बिहारी संयोग के ही कवि है, क्योंकि दरबारी माहौल वियोग-वर्णन की संभावना प्रायः खारिज करता है, तब भी बिहारी ने वियोग वर्णन किया विप्रलंभ शृंगार के चारों भेद पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुण ‘बिहारी सतसई’ में मिल जाते हैं। यह ध्यान रखना जरूरी है कि वियोग के ये वर्णन चमत्कार ही ज्यादा पैदा करते हैं भावात्मक गहराइयों को कम छू पाते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित दोहे में नायिका करुण विप्रलंभ की स्थिति में है। बिहारी ने उसका अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते हुए दिखाया है कि वह इतनी कमजोर हो गई है कि साँस लेती है तो छ-सात हाथ पीछे चली जाती है और छोड़ती है तो इतना ही आगे आ जाती है। नायिका झूले की गति के समान गतिशील है-
“इत आवत चलि जात उत, चली छ सातक हाथ,
चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनि साथ।”
शृंगार रस संसार में हर जीव के लिए अनुभवगम्य है। इसमें अतुलित आनन्द की प्राप्ति होती है। बिहारी लाल रीतिकालीन, शृंगार रस के सम्राट है। लेकिन शृंगार रस पोषण शब्द चयन के साथ ही अधिक हुआ है। प्रधानतया वियोग शृंगार में वियोग जन्य भाव गंभीरता बिहारी जायसी और तुलसी के समकक्ष नहीं कर सके। विरहणी नायिका के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन में कभी हँसी मजाक आ गया है। अधिक ऊहात्मकता के कारण वियोग वर्णन में कहीं-कहीं अस्वभाविकता आ गई।