हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

Solved Question Answers, घनानन्द

0 511

प्रश्न-2 घनानंद के काव्य सौंदर्य की समीक्षा कीजिए।

या

घनानंद के काव्य कला पर विचार कीजिए।

उत्तर रीतिमुक्त कवि, ब्रजभाषा, प्रवीण, विरह विदग्ध वियोगी कवि घनानंद का नाम रीतिकाल में ही नहीं, बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य में अप्रेमय है। घनानंद के काव्य में भावों की गरिमा के समान ही कला-प्रवीणता भी दिखाई देती है। घनांनद रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्यधारा के शिखर पुरुष है। हिन्दी साहित्य में ये ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में प्रसिद्ध है। इनका साहित्य कई संवेदनात्मक व शैल्पिक विशिष्टताओं को धारण करता है।

संवेनात्मक विशेषताएँ-

  • शृंगार वर्णन- घनानंद का शृंगार वर्णन अत्यन्त गहरा व एकनिष्ठता से युक्त है। सुजान के रूप-सौंदर्य, लज्जा, व्यवहार आदि का अत्यन्त मार्मिकता के साथ अंकन किया है। इनका काव्य प्रेम की एकनिष्ठता की प्रस्थापना करता है। इनका शृंगार वर्णन प्रेम की मानसिक अनुभूति को गहराई और तीव्रता से अभिव्यक्त करते हैं। इनकी प्रेमव्यंजना में इतनी व्याकुलता, इतनी व्यथा एवं इतनी पीड़ा है कि कठोर से कठोर श्रोता एवं पाठक भी द्रवित हो जाता है। इनकी प्रेमानुभूति में आत्मानुभूति का सर्वाधिक योग है।
  • इहलौकिक प्रेम- घनानंद का लौकिक प्रेम वर्णन अंत में अलौकिक रूप प्राप्त कर लेता है। सुजान के प्रति जो लौकिक प्रेम था वह राधा-कृष्ण के प्रति अलौकिक स्तर पर व्यक्त होले लगा। घनानंद का प्रेम लौकिक प्रेम की भाव-भूमि से ऊपर उठकर आलौकिक प्रेम की बुंलदियों को छूता नजर आता है, तब कवि की प्रिया सुजान ही परमब्रह्म का रूप बन जाती है। ऐसी दशा में घनानंद प्रेम से ऊपर उठकर भक्त बन जाते हैं-

“मेरी रूप अगाधे राधे, राधे, राधे, राधे,
तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जतन है साधे।”

  • निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति- घनानंद के काव्य में प्रेम के प्रति एक निश्चित और व्यवस्थित दृष्टिकोण उपलब्ध होता है। उन्होंने अपनी अनुभूति के बल पर प्रेम-तत्त्व को पहचान लिया है। घनानंद प्रेम के पक्ष में निश्छलता और निष्कपटता को ही अत्यधिक महत्त्व देते हैं। उन्होंने प्रेम के मार्ग को अत्यन्त सीधा बताया है, जहाँ तनिक भी चतुराई नहीं चलती। प्रेम के विषय में उनका सर्वप्रधान मान्यता है-

“अति सूधो सनेह को मारग है
जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।”

  • विरह की पीड़ा (विरहाकुलता)- घनानंद एक सच्चे प्रेमी थे। सच्चे प्रेमियों को अपने प्रिय का विरह बहुत पीड़ा देता है। इस पीड़ा को घनानंद ने स्वयं अनुभव किया था। दिनकर जी कहते हैं कि- “दूसरों के लिए किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसे कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में रो रहा है।”
  • वियोग वर्णन- किसी भी प्रेमी कवि के काव्य में संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन मिलता है। कभी वह संयोग के सुख में अपनी अनुभूति को ताजा करता है तो कभी वियोग में अपने प्रेम की परीक्षा से गुजरता है। घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। सुजान के प्रति जो इन्होंने विरह भोगा है वह इनके काव्य का मूल भाव है। शुक्ल जी ने लिखा है- 

          “ये वियोग शृंगार के प्रधान कवि है। सामान्यता प्रिय के वियोग की स्थिति में व्यथा का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। तब वह प्रेम जीवन का अंग हो जाता है। ‘घनानंद’ ने स्पष्ट ही कहा है-

“यह कैसा संजोग न बूझ परै,
जो वियोग न क्यूं हूँ विछोहत है।”

  • प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण- घनानंद सच्चे प्रकृति प्रेमी भी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था। इसलिए उन्होंने प्रकृति के अनेक सुन्दर एवं सजीव चित्र अंकित किए हैं। प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा घनानंद ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण अधिक सरसता एवं मार्मिकता के साथ किया है, क्योंकि घनानंद का काव्य विरह-प्रधान है और विरह में प्रकृति प्रायः विरही जनों के भावों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई जाती है। कभी पुरवैया हवा चलकर, तो कभी कोकिला कूक कर, तो कभी बादल घिरकर, कभी बिजली चमककर तो कभी पुष्प अपनी सुगंध से बेचारे विरही को रात-दिन सताते है-

“कारी कूर कोकिल। कहाँ कौ बैर काढति री।
कूकि कूकि अबही करेजो किन कोरि ले।।”

  • सौंदर्य प्रियता- प्रेम के मूल में सौंदर्य चेतना होती है, चाहे वह प्रकृति प्रेम हो या व्यक्ति प्रेम। किसी के प्रति आकर्षण का प्रथम कारण ही उसके सौंदर्य से प्रभावित होना होता है। घनानंद के प्रेम का मूल कारण भी सुजान का आनंद सौंदर्य था, जो कवि घनानंद के रोम-रोम में बसा हुआ था। क्योंकि वे उसकी सहज सुकुमारता, स्वाभाविकता मधुरता एवं प्राकृतिक सुंदरता को देखकर ही उसके सच्चे प्रेमी बने थे। इसलिए घनानंद के हृदय में प्रेयसी सुजान की ‘तिरछी चितौनी’, ‘चंचल विशाल नैन’, ‘धूमरे कटाछि’, ‘रसीली हँसी’, ‘नवजोबन की सुथराई’, ‘नेह-ओपी-अरुनाई’ आदि। इसी कारण उनके हृदय में प्रिय के सौंदर्य का अथाह सागर हिलोरे लेता रहता है। उन्होंने अपने प्रिय सुजान के इसी आनंद सौंदर्य का बखान अपने काव्य में किया है।    

शिल्पगत विशेषताएँ

  • घनानंद की काव्य भाषा- बिहारी सहित लगभग सभी कवियों ने ब्रज को अरबी, फारसी व अन्य स्थानीय शब्दावली से मिश्रित कर दिया है, वहीं घनानंद ने शुद्ध ब्रज का प्रयोग किया है। यह शुद्धता शब्द निर्माण व चयन के स्तर पर भी है। उनकी ब्रजभाषा में सर्वत्र स्वच्छता, एकरूपता एवं सुघड़ता के दर्शन होते हैं।

          घनानंद के काव्य में भावों की गरिमा के समान ही कला प्रवीणता भी दिखाई देती है। इसका मुख्य कारण है उनका भाषाधिकार। भाषा की सफाई के फलस्वरूप घनानंद का काव्य-वैभव और भी अधिक चमक उठा है। भाषानुकूल भाषा लिखने में तो घनानंद सिद्धहस्त है। घनानंद ने मुहावरों युक्त अपनी लाक्षणिक भाषा का सफल प्रयोग किया है। घनानंद अपनी सरल और सहज अनुभूति को अपनी सरल और सहज भक्ति के द्वारा ही अभिव्यक्त कर देते हैं-

“लहकि लहकि आवैं ज्यौं पुरवाई पौन,
दहकि दहकि त्यों त्यों तन ताँवरे तचौ।”

          घनानंद की भाषा साहित्यिक व्याकरण सम्मत, मुहावरेदार, लाक्षणिक युक्त और व्यंजना प्रधान है।

  • अलंकारों का प्रयोग- घनानंद ने अलंकारों का प्रयोग अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति चमत्कार प्रदर्शन हेतु नहीं बल्कि अपने भावों को व्यक्त करने हेतु किया है-

विरोधाभास अलंकार- उजरनि बसी है हमारी आँखियन देखे।

श्लेष अलंकार-         “तुम कौन धौ पाटी पढे हो लला, मन लेहु पै देहु छंटाक नहीं।”

          घनानंद की कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रम, अपन्हुति, क्रम, असंगति, विभावना आदि के भी सुंदर प्रयोग किया है।

  • शब्द शक्तियों का प्रयोग- शब्द शक्तियों के प्रयोग में घनानंद का काव्य उत्कृष्ट है। लक्षण व व्यंजना का बड़ा ही सटीक व सादा प्रयोग किया है। इस प्रकार मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग भी द्रष्टव्य है। शब्द की तीन शक्तियाँ होती है- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। घनानंद ने सबसे अधिक उक्ति चमत्कार के वैचित्र्य का सहारा लिया है। इसलिए इनके काव्य में अभिधा की अपेक्षा एवं व्यंजना लक्षणा-प्रधान माना जाता है। घनानंद ने उक्ति-चमत्कार के लिए, भावों को गहन बनाने के लिए तथा सरसता उत्पन्न करने के लिए ही लाक्षणिक प्रयोगों को अधिक अपनाया है।
  • गुण- काव्य के तीन प्रमुख गुण माने जाते हैं- माधुर्य, ओज और प्रसाद गुण। माधुर्य गुण अन्तःकरण को आनन्द से द्रवीभूत करने वाला होता है, ओज गुण चित्त में स्फूर्ति उत्पन्न करने वाला होता है और प्रसाद गुण श्रवण मात्र के काव्य की शीघ्र अर्थ प्रतीत कराने वाला होता है। साहित्य शास्त्रियों ने अलंकारों के बिना भी काव्य की रचना की है किन्तु गुणों के बिना काव्य रचना नहीं होती। यदि कोई काव्य किसी गुण के बिना रचा भी जाता है तो वह निर्जीव, नीरस एवं निरर्थक होता है। घनानंद के काव्य में सर्वत्र माधुर्य गुण की प्रधानता है क्योंकि माधुर्य गुण की अनुभूति सर्वाधिक विप्रलम्भ शृंगार अथव विरह-निरूपण में होती है और घनानंद ने सबसे अधिक विरह का ही वर्णन किया है-

“रैन दिना घुटिबौ करे प्रान झरै अखियां झरना सो।
प्रीतम की सुधि अन्तर मैं कसकै सखी ज्यौ पंसरीन मे गाँसी।”

          इस प्रकार स्पष्ट है कि घनानंद के यहाँ संवेदना व शिल्प दोनों स्तरों पर प्रयोगशीलता, सहजता व मौलिकता के दर्शन होते हैं।

          घनानंद के भावपक्ष के ही समान उनका कलापक्ष भी उच्चकोटि का है।  

Leave A Reply

Your email address will not be published.