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साकेत (Saket Kavita) : मैथिलीशरण गुप्त

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महाकवि ‘मैथिलीशरण गुप्त’ द्वारा रचित महाकाव्य ‘साकेत’ (Saket Kavita) कुल बारह सर्गों में विभाजित है। यह कविता सन् 1931 ईस्वी में प्रकाशित हुई थी। शुरुआती सर्गों में राम के वन गमन का उल्लेख है वहीं अंतिम के सर्गों में लक्ष्मण वधू उर्मिला का वियोग वर्णन है। साकेत मुख्यतः उर्मिला को ही केंद्र में रख कर लिखी गई रचना है। जब राम और सीता के साथ लक्ष्मण वन चले जाते हैं तो उर्मिला की क्या मन:स्थिति होती है, उसका बेहद मार्मिक वर्णन कवि ने अपनी कविता के ज़रिए किया है। अपने पति की प्रतिमा अपने मन में लिए उर्मिला किस तरह व्याकुलता और विरह की अग्नि में नित चौदह वर्षों तक जलती है, परंतु पीड़ा ऐसी कि व्यक्त करने का माध्यम भी पति कसम कि परिधि में बांध के जाते हैं। नीचे साकेत के चतुर्थ सर्ग का कुछ अंश दिया गया है :-

यदि न आज वन जाऊँ मैं–
किस पर हाथ उठाऊँ मैं?
पूज्य पिता या माता पर?
या कि भरत-से भ्राता पर?
और किस लिए? राज्य मिले?
है जो तृण-सा त्याज्य, मिले?
माँ की स्पृहा, पिता का प्रण,
नष्ट करूँ, करके सव्रण?
प्राप्त परम गौरव छोडूँ?
धर्म बेचकर धन जोडूँ?
अम्ब! क्या करूँ, तुम्हीं कहो?
सहसा अधिक अधीर न हो।
त्याग प्राप्त का ही होता,
मैं अधिकार नहीं खोता।
अबल तुम्हारा राम नहीं,
विधि भी उस पर वाम नहीं।
वृथा क्षोभ का काम नहीं,
धर्म बड़ा, धन-धाम नहीं।
किसने क्या अन्याय किया,
कि जो क्षोभ यों जाय किया?

माँ ने पुत्र-वृद्धि चाही,
नृप ने सत्य-सिद्धि चाही।
मँझली माँ पर कोप करूँ?
पुत्र-धर्म का लोप करूँ?
तो किससे डर सकता हूँ?
तुम पर भी कर सकता हूँ।
भैया भरत अयोग्य नहीं,
राज्य राम का भोग्य नहीं।
फिर भी वह अपना ही है,
यों तो सब सपना ही है।
मुझको महा महत्व मिला,
स्वयं त्याग का तत्व मिला,
माँ! तुम तनिक कृपा कर दो,
बना रहे वह, यह वर दो!”

(Saket Kavita)

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