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रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ (Ritikal ki pravrittiyan)

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रीतिकाल हिंदी साहित्य ((Ritikal ki pravrittiyan)) में सन् 1643 ईस्वी से 1843 ईस्वी तक का वह कालखंड है, जो मुख्य रूप से दरबारी संस्कृति और श्रृंगारिक चेतना से प्रभावित रहा। इस काल की कविता की प्रवृत्तियाँ तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश का सीधा प्रतिबिंब हैं। इन प्रवृत्तियों को तीन मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: रीति-निरूपण, श्रृंगारिकता, और आश्रयदाताओं की प्रशंसा

1. रीति-निरूपण की प्रवृत्ति (आचार्यत्व प्रदर्शन)

रीतिकाल की सबसे प्रमुख और विशिष्ट प्रवृत्ति रीति-निरूपण या काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का विवेचन करना था।

  • विशेषता: कवि पहले संस्कृत काव्यशास्त्र (रस, अलंकार, रीति, ध्वनि आदि) के लक्षण (परिभाषाएँ) और नियम बताते थे, और फिर उन लक्षणों को स्पष्ट करने के लिए अपनी ओर से उदाहरण (कविता) प्रस्तुत करते थे। इस कारण कवि पहले आचार्य बने और बाद में कवि
  • उदाहरण (चिंतामणि):“सगुन अलंकारन सहित, दोष रहित जो होइ।शब्द अर्थ ताको कहत, विबुध कवित सब कोइ।”(चिंतामणि ने यहाँ काव्य का लक्षण निर्धारित किया, जिसमें गुण, अलंकार और दोष-रहितता को अनिवार्य माना।)
  • उदाहरण (केशवदास – अलंकार):“जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त।।”(केशव ने स्पष्ट रूप से कहा कि अलंकार (भूषन) के बिना कविता (और स्त्री) सुशोभित नहीं होती। यह अलंकार संप्रदाय का समर्थन है।)

2. श्रृंगार रस की प्रधानता (रसराजत्व)

रीतिकाल का दूसरा सबसे सशक्त पक्ष श्रृंगार रस का वर्णन है, जिसने इस काल के काव्य को एक विशेष पहचान दी।

  • विशेषता: राजाओं और आश्रयदाताओं की विलासी प्रवृत्ति के कारण कवियों ने श्रृंगार रस को काव्य का मुख्य विषय बनाया और इसे रसराज (सभी रसों का राजा) घोषित किया। यह श्रृंगार वर्णन संयोग (मिलन) से अधिक वियोग (विरह) का नहीं, बल्कि अंग-प्रत्यंग के सूक्ष्म और मादक चित्रण पर केंद्रित था। (Ritikal ki pravrittiyan)
  • उदाहरण (बिहारी – संयोग श्रृंगार):“कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात।भरे भौन मैं करत हैं, नैनन्ह हीं सब बात।।”(बिहारी ने नायक-नायिका के भरे हुए भवन में केवल आँखों के इशारों से होने वाले सूक्ष्म वार्तालाप और प्रेम-भावों का वर्णन किया है।)
  • उदाहरण (मतिराम – रूप सौंदर्य):“कुंदन को रंग फीको लगै, झलकै अति अँगनि चारु गोराई।आँखिन में अंजन हूँ न टिकै, दधि मीनो सो कजरौ डराई।।”(मतिराम ने नायिका के गोरे रूप का वर्णन करते हुए कहा कि उसके सामने सोना (कुंदन) भी फीका लगता है। यह नख-शिख वर्णन की उत्कृष्ट प्रवृत्ति है। (Ritikal ki pravrittiyan)
  • राधा-कृष्ण का लौकिकीकरण: भक्ति काल के राधा-कृष्ण यहाँ आराध्य कम और लौकिक नायक-नायिका अधिक बन गए, जिनका प्रयोग केवल श्रृंगारिक चेष्टाओं के वर्णन के लिए किया गया।

3. आश्रयदाताओं की प्रशंसा और राजप्रशस्ति

यह प्रवृत्ति तत्कालीन दरबारी अर्थव्यवस्था का सीधा परिणाम थी।

  • विशेषता: कवि अपनी जीविका के लिए राजाओं और सामंतों पर निर्भर थे। अतः उन्होंने राजाओं की स्तुति, दानशीलता, और युद्ध कौशल का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया। हालाँकि, वीरता वर्णन भी श्रृंगार रस के साथ मिलाकर ही किया जाता था। (Ritikal ki pravrittiyan)
  • उदाहरण (भूषण – वीर रस/प्रशस्ति):“इंद्र जिम जंभ पर, बाड़व सुअंभ पर, रावण सदंभ पर रघुकुल राज है।पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर, ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज है।दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर, भूषन वितुंड पर जैसे मृगराज है।तेज तम-अंस पर, कन्ह जिम कंस पर, त्यों म्लेंच्छ बंस पर सेर सिवा राज है।।”(कवि भूषण ने छत्रसाल और शिवाजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें उनकी तुलना इंद्र, राम और सिंह (मृगराज) जैसे महान नायकों से की है। यह अतिरंजित राजप्रशस्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है।)

4. अन्य गौण प्रवृत्तियाँ

उपर्युक्त तीन मुख्य प्रवृत्तियों के अतिरिक्त, कुछ गौण प्रवृत्तियाँ भी इस काव्य में मिलती हैं:

  • मुक्तक काव्य की प्रधानता: इस काल में प्रबंध काव्य (जैसे रामचरितमानस) की जगह मुक्तक (दोहे और कवित्त-सवैया) की रचना अधिक हुई, क्योंकि मुक्तक दरबारी मनोरंजन के लिए तत्काल प्रभाव उत्पन्न करने में अधिक सहायक थे। (Ritikal ki pravrittiyan)
  • ब्रजभाषा का उत्कर्ष: ब्रजभाषा माधुर्य गुण के कारण श्रृंगार रस के वर्णन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त सिद्ध हुई, अतः यह इस काल की एकमात्र प्रमुख काव्यभाषा बन गई।
  • ज्ञान प्रदर्शन (पांडित्य): कवियों ने अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए ज्योतिष, वैद्यक, और कामशास्त्र जैसे अन्य शास्त्रों की जानकारी का समावेश भी काव्य में किया।

रीतिकाल की ये प्रवृत्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि यह काल अत्यधिक कलात्मक, नियमबद्ध और दरबार केंद्रित था, जहाँ कवि की प्रतिभा का उपयोग सौंदर्य और विलास को बढ़ाने के लिए किया जाता था, न कि लोक-मंगल या आध्यात्मिक खोज के लिए। (Ritikal ki pravrittiyan)

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