मीरा का समय (सामाजिक, राजनीतिक एवं अन्य परिस्थितियाँ) mirabai ka samay kal
मीरा बाई, भक्ति युग की प्रमुख संत-कवयित्री, का जीवन पंद्रहवीं–सोलहवीं शताब्दी के उस संक्रमणकाल में बीता जब भारत का राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य तीव्र परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। यह वह समय था जब मध्यकालीन भारतीय समाज अपनी पुरानी संरचनाओं से जूझ भी रहा था और नई चेतना को जन्म भी दे रहा था। इस व्यापक पृष्ठभूमि ने मीरा के जीवन, व्यक्तित्व और काव्य-सृष्टि को गहरे रूप में प्रभावित किया। (mirabai ka samay kal)
1. राजनीतिक परिस्थितियाँ
मीरा के जीवनकाल का राजनीतिक परिदृश्य अत्यंत उथल-पुथल से भरा हुआ था। दिल्ली सल्तनत का प्रभाव कमज़ोर पड़ चुका था और उसके स्थान पर मुगल सत्ता उभर रही थी। 1526 ई. में बाबर की विजयों के साथ भारत की सत्ता-संरचना बदलने लगी। राजनीतिक अस्थिरता, क्षेत्रीय संघर्ष और सत्ता-प्रतिस्पर्धा इस युग की विशेषताएँ थीं। (mirabai ka samay kal)
राजपूताना, जहाँ मीरा का जन्म और विवाह हुआ, अनेक स्वतंत्र राजपूत राज्यों में विभाजित था—मेवाड़, मारवाड़, बूंदी, कोटा, जयपुर आदि। इन राज्यों में आपसी संघर्ष, सामंती मर्यादाएँ और वर्चस्व की लड़ाई लगातार बनी रहती थी। मेवाड़ उस समय राणा सांगा और आगे चलकर राणा विक्रमादित्य तथा राणा उदयसिंह जैसे पराक्रमी परंतु संघर्षशील शासकों के नेतृत्व में मुगल सत्ता के विरुद्ध संघर्षरत था। युद्धों का यह वातावरण न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक जीवन को भी अस्थिर करता था।
मीरा का विवाह मेवाड़ के राजा राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। राजदरबार की राजनीति, कुल-प्रतिष्ठा और युद्धकालीन तनावों ने मीरा के जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। मीरा के कृष्ण-प्रेम और उनके द्वारा अपनायी गयी स्वतंत्र साधना-जीवनशैली को इस सामंती राजनीतिक व्यवस्था में स्वीकार किया जाना कठिन था। मीरा का दरबार की मर्यादाओं से दूर रहना, साधु-संतों के साथ बैठना, कृष्ण को ‘स्वामी’ कहना और सांसारिक दायित्वों को त्याग देना—ये सभी राजवंशीय प्रतिष्ठा के विरुद्ध माने जाते थे। इसी कारण उन्हें दरबार से विरोध, कटुता और षड्यंत्रों का सामना करना पड़ा।
इस प्रकार राजनीतिक व्यवस्था का कठोर और सामंती स्वरूप मीरा के आध्यात्मिक पथ के मार्ग में बाधा बनता रहा, परंतु उन्होंने अपने भक्ति-समर्पण को कभी नहीं छोड़ा।
2. सामाजिक परिस्थितियाँ
मीरा के समय समाज गहरी जातिगत सीमाओं, कठोर परंपराओं और रूढ़िगत सोच में जकड़ा हुआ था। वर्ण-व्यवस्था का प्रभाव इतना कठोर था कि निम्न जातियों को सामाजिक बराबरी तो दूर, धार्मिक गतिविधियों में भी पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं थे। सामाजिक गतिशीलता अत्यंत सीमित थी। (mirabai ka samay kal)
स्त्रियों की स्थिति तो और भी दुर्बल थी। राजपूत समाज में स्त्रियों के लिए कठोर मर्यादाएँ निर्धारित थीं—पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, पति-भक्ति और कुल-सम्मान को अत्यधिक महत्व दिया जाता था। स्त्रियों की स्वतंत्रता लगभग निषिद्ध मानी जाती थी। शिक्षा, सामाजिक सहभागिता और बाहर की दुनिया से संपर्क सीमित था।
अतः मीरा का अपने भक्ति-मार्ग को खुलकर अपनाना, समाज-नियंत्रित जीवन से हटकर साधना-मार्ग पर चलना, राजदरबार को त्यागकर साधु-संतों के साथ समय बिताना—इन सबको समाज ने अस्वीकार्य माना। उनके आध्यात्मिक प्रेम को प्रायः सामाजिक नियमों के उल्लंघन के रूप में देखा गया। मीरा के विरुद्ध उठती नाराज़गी, उन्हें विष देने का प्रयास या उनके साधना-जीवन पर पहरे—ये सभी सामाजिक असहिष्णुता के प्रमाण थे। (mirabai ka samay kal)
लेकिन इन परिस्थितियों में भी मीरा ने अपने जीवन और भक्ति को सत्य के रूप में स्वीकार किया। उनके काव्य में कई जगह वे अपनी पीड़ा का उल्लेख करती हैं—
“लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।” (पदावली, भाग-5)
इन पंक्तियों में मीरा ने उस समाज का चित्रण किया है जिसने स्त्री की स्वतंत्रता, विशेषतः आध्यात्मिक स्वतंत्रता, को स्वीकार नहीं किया था।
3. धार्मिक परिस्थितियाँ
मीरा का काल धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह समय भक्ति आंदोलन के उत्कर्ष का था। दक्षिण भारत से चली भक्ति की धारा रामानुज, बसवण्णा, निम्बार्क, रामानंद, कबीर, तुलसी, सूरदास, नानक आदि संतों के माध्यम से उत्तर भारत में फैल चुकी थी।
धार्मिक जीवन कई धारणाओं से प्रभावित था—
- वैष्णव भक्ति
- शैव मत
- शाक्त परंपरा
- सूफ़ी-संतों का प्रेम-आधारित इस्लामी दृष्टिकोण
- जैन और बौद्ध धारणाओं के अवशेष
इन सबके बीच ईश्वर से व्यक्तिगत संपर्क, नाम-स्मरण, प्रेम और समर्पण को महत्वपूर्ण माना जाने लगा था। मीरा इसी भक्ति-धारा का सच्चा रूप थीं, जहाँ भक्त का ईश्वर से संबंध अत्यंत व्यक्तिगत, प्रेमपूर्ण और मधुर होता है। (mirabai ka samay kal)
मीरा पर विशेष रूप से श्रीवल्लभाचार्य और उनके पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा प्रवर्तित ‘पुष्टिमार्ग’ का प्रभाव देखा जाता है। कृष्ण के प्रति माधुर्य-भक्ति की यह धारा भक्त को अपने आराध्य से प्रेम करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती थी। मीरा का कृष्ण-मिलन की व्याकुलता से भरा काव्य इसी माधुर्य-भाव का विस्तार है—
“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।” (पदावली, भाग-5)
इसके अतिरिक्त सूफ़ी भक्तों द्वारा प्रचारित प्रेम, समानता और मानवता के विचारों ने भी मीरा के आध्यात्मिक दृष्टिकोण को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया।
4. सांस्कृतिक परिस्थितियाँ
मीरा का समय सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध था। साहित्य, संगीत, स्थापत्य, नृत्य और लोक-संस्कृति सभी क्षेत्रों में विस्तार हो रहा था।
भक्ति आंदोलन के प्रभाव से क्षेत्रीय भाषाओं का विकास तीव्र हुआ। ब्रज, अवधी, राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती जैसी भाषाएँ जनभाषा के रूप में साहित्य का माध्यम बनीं। मीरा ने ब्रज और राजस्थानी मिश्रित भाषा में काव्य रचा, जिससे उनका भजन लोक-धुनों की तरह अत्यंत सहज और मधुर हो गया। (mirabai ka samay kal)
सूरदास, तुलसीदास, कबीर,नानक आदि संतों की कृतियों ने साहित्य को आध्यात्मिक और लोकतांत्रिक रूप प्रदान किया। यह वही समय था जब साहित्य का केंद्र दरबार नहीं, जनसाधारण बन गया।
संगीत भक्ति-अभिव्यक्ति का मूल माध्यम था। मीरा स्वयं वीणा और करताल लेकर गाती थीं। उनके पद लोकधुनों से प्रेरित थे, इसलिए जन-जन तक सरलता से पहुँचते थे। राजस्थानी लोक-नृत्यों, धमार, केहरवा और चकरपण की लय उनमें सुनाई देती है।
राजपूत राजाओं ने इस युग में किलों, महलों, मंदिरों और सरोवरों का निर्माण कराया—मेवाड़ का कुम्भलगढ़, चित्तौड़गढ़, उदयपुर के महल, बूंदी और कोटा के चित्र—ये सब इसी युग की जीवंत देन हैं।
यह स्थापत्य, चित्रकला और शौर्य-परंपरा का ऐसा समय था जिसने लोक और शास्त्र—दोनों को महत्व दिया। मीरा के काव्य में कई सांस्कृतिक तत्व मिलते हैं, जैसे:
- नृत्य-गान
- होली और फाग
- झूला
- लोक-रंग
- रास-लीला के प्रसंग
इस प्रकार मीरा के समय की राजनीतिक अस्थिरता, सामाजिक रूढ़िवाद, धार्मिक जागरण और सांस्कृतिक समृद्धि ने उनकी व्यक्तित्व-निर्मिति और काव्य-सृष्टि को गहराई से प्रभावित किया। राजनीतिक संघर्षों ने उन्हें सामाजिक कठिनाइयों का सामना करने पर मजबूर किया; समाज की कठोर परंपराओं ने उन्हें विद्रोही और निर्भीक बनाया; धार्मिक क्रांति ने उन्हें भक्ति-पथ का आलोक दिया; और सांस्कृतिक समृद्धि ने उनके काव्य को मधुरता, सौंदर्य और व्यापक जन-स्वीकार्यता प्रदान की।
मीरा इन सभी परिस्थितियों का परिणाम होते हुए भी उनसे ऊपर उठकर एक ऐसी भक्त-कवयित्री बनती हैं जो प्रेम, भक्ति, स्वतंत्रता और स्त्री-स्वाभिमान की प्रतीक के रूप में आज भी याद की जाती हैं। उनका काव्य न केवल अपने समय की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिक्रिया है, बल्कि मानवता, प्रेम और सत्य की अनंत साधना का प्रतीक भी है। (mirabai ka samay kal)