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भाव या मनोविकार (निबन्ध) : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
अनुभूति के द्वंद्व ही से प्राणी के जीवन का आरंभ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है। बच्चे के छोटे से हृदय में पहले सुख और दु:ख की सामान्य अनुभूति भरने के लिए जगह होती है। पेट का भरा या खाली रहना!-->…
नमक का दारोगा (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद PDF
लेखक: प्रेमचंद
जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे. अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से. अधिकारियों के!-->!-->!-->…
कविता-लीक पर वें चलें : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
लीक पर वे चलें जिनकेचरण दुर्बल और हारे हैं,हमें तो जो हमारी यात्रा से बनेऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।साक्षी हों राह रोके खड़ेपीले बाँस के झुरमुट,कि उनमें गा रही है जो हवाउसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।शेष जो भी हैं-वक्ष खोले डोलती!-->…
कविता : आह! धरती कितना देती है-सुमित्रानंदन पंत
मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थेसोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।सपने जाने कहां मिटे , कब!-->…
कविता : बलिका का परिचय-सुभद्रा कुमारी चौहान
यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली।
दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली।
सुधाधार यह नीरस दिल की, मस्ती मगन तपस्वी की जीवित ज्योति नष्ट!-->!-->!-->!-->!-->…
कविता : धूप-केदारनाथ अग्रवाल
धूप चमकती है चांदी की साड़ी पहनेमैके में आई बिटिया की तरह मगन हैफूली सरसों की छाती से लिपट गई हैजैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैंभैया की बाहों से छूटी भौजाई-सीलहंगे की लहराती लचती हवा चली हैसारंगी बजती है खेतों की गोदी मेंदल के दल पक्षी!-->…
कविता : तोड़ती पत्थर – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
वह तोड़ती पत्थर;देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादारपेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;श्याम तन, भर बँधा यौवन,नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,गुरु हथौड़ा हाथ,करती बार-बार प्रहार :—सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।!-->!-->!-->…
कविता : नर हो, न निराश करो-मैथिलीशरण गुप्त
कुछ काम करो, कुछ काम करोजग में रह कर कुछ नाम करोयह जन्म हुआ किस अर्थ अहोसमझो जिसमें यह व्यर्थ न होकुछ तो उपयुक्त करो तन कोनर हो, न निराश करो मन कोसंभलो कि सुयोग न जाय चलाकब व्यर्थ हुआ सदुपाय भलासमझो जग को न निरा सपनापथ आप प्रशस्त करो!-->…
कविता : हिमाद्रि तुंग श्रृंग-जयशंकर प्रसाद
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती। स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती॥
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो। प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ, विकीर्ण दिव्य दाह-सी। सपूत मातृभूमि!-->!-->!-->!-->!-->…
कविता : बेटी की बिदा-माखनलाल चतुर्वेदी
आज बेटी जा रही है,मिलन और वियोग की दुनिया नवीन बसा रही है।मिलन यह जीवन प्रकाशवियोग यह युग का अँधेरा,उभय दिशि कादम्बिनी, अपना अमृत बरसा रही है।यह क्या, कि उस घर में बजे थे, वे तुम्हारे प्रथम पैंजन,यह क्या, कि इस आँगन सुने थे, वे सजीले मृदुल!-->…