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Beimani ki Parat बेईमानी की परत : हरिशंकर परसाई

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“बेईमानी की परत” (Beimani ki Parat) हरिशंकर परसाई द्वारा लिखा गया एक प्रसिद्ध व्यंग्य निबंध है। यह निबंध समाज में व्याप्त बेईमानी और भ्रष्टाचार पर तीखा कटाक्ष करता है। हरिशंकर परसाई ने इस निबंध में बेईमानी के विभिन्न रूपों और उसे छिपाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को व्यंग्यात्मक ढंग से उजागर किया है और बड़े हास्यास्पद तरीके से बेईमानों के आचरण पर बड़ी गहरी चोट की है।  

कपड़ा पहिनते-पहिनते छोटा हो जाता है, यह मैं मूल चुका था। कई सातों से ऐसी घटना ही नहीं घटी थी। मैं उनमें से नहीं रहा, जो इस सान पेंट सिलवाते हैं और प्रगते ही साल उसे पली की पुरानी साड़ी की किनार से वाँघने लगते हैं। उच्चवर्गी और मध्यवर्ती में यही प्रन्तर है। उच्चवर्गी का पेंट जब छोटा होता है, तो वह उसे माने के लिए छोड़ देता है। पर मध्यवर्ती का कुछ ‘मागे’ के लिए नहीं होता; इसलिए वह स्त्री की फटी साड़ी की किनार खोजने लगता है। (Beimani ki Parat)

ठण्ड शुरू होने पर मैंने गरम शेरवानी निकास कर पहिनी तो देखा कि बटन नहीं लगती। पिताजी जब मेरे कपड़े सिलाने देते थे, तो दजी से कह देते थे-जरा बहते शरीर का बनाना। जब से अपने कपड़े बनवाने का जिम्मा खुद लिया है, हर बार दी से कहना चाहता हूँ-जरा घटते रारीर का बनाना। शरीर जब तक दूसरों पर लदा है, तव तक मुटाता है। जब प्रपने ही ऊपर चढ आता है, तव दुवलाने लगता है। जिन्हें मोटे रहना है, वे दूसरों पर लदे रहने का सुभीता कर लेते हैं- नेता जनता पर लदता है, साधु भक्तों पर, भाचार्य महत्त्वाकांक्षी छात्रों पर भोर बड़ा साहब जूनियरों पर । (Beimani ki Parat)

मुझे ऐसा कोई ग्रासन नहीं मिला। फिर भी कुछ मोटा हो जाने की इच्छा मरी नहीं। जब भी सफर करता, रेलवे प्लेटफार्म पर बजन तोलने की मशीन में १० पैसे डालकर वजन का टिकिट निकलता। टिकिट के दूसरे तरफ भाग्य-फल लिखा है, जो अकसर १० पैसे के बदले में की गई चापलूसी होता है। इस देश की मशीनें भी चापलूसी करना सीख गयी है।

सिर्फ १० पैसे में कुछ ऐसी बातें कहती हैं- ‘आपके विचार बहुत : हैं। श्राप उनके अनुसार कार्य करेंगे, तो सफल होंगे’ मैं कहता हूँ – सिस्टर कभी तो सच बोला करो। यह कोई तुम्हारा ‘स्टेंडर्ड’ है कि सिर्फ १०६ में! मशीनों की राय पर में ज्यादा भरोसा नहीं करता, विशेषकर पर जो आदमी को तौलने के लिए जगह-जगह रखी हुई हैं। इनके मुंह १० पैसे डाल दो तो तारीफ़ का एक वाक्य बोल देती हैं। (Beimani ki Parat)

इसीलिए मैं किसी इनाम के लिए कभी किताव नहीं भेजता । श्र समीक्षकों के घरों में पुत्र-जन्म होते रहते हैं, पर में वधाई के कार्ड ना लिख पाता। नतीजा यह कि वजन बढ़ता भी है, तो किसी मशीन व टिकिट पर रिकार्ड नहीं होता। जमाने में वजन से ज्यादा उसके रिका का महत्त्व है। इसीलिए चतुर लोग दूसरे की गोद में बैठकर अपने तुलवा लेते हैं, और बढ़े वजन का टिकिट जेब में रखे रहते हैं। (Beimani ki Parat)

इस बार जरूर वजन बढ़ा है। अब मशीन की धांधली नहीं चलेगी मुटाई के अहसास ने शरीर में ऐसी सनसनी पैदा की कि जी हुआ फैलक शेरवानी को तार-तार कर दूं और ठंड उघाड़े बदन गुजार दूँ । (Beimani ki Parat)

फिर में भेंपा भी। वजन बढ़ना तो लड़कपन की हरकत है। कोः प्रौढ़ आदमी भी इस जमाने में क्यों मोटा होगा ? लोग क्या सोचेंगे? अनाज की दूकानों के सामने थैला हाथ में लिये क़तार में खड़ा आदमंः सूख रहा है। जब तक उसका नम्वर श्राता है, दाम बढ़ जाते हैं और घर रे. लाए पैसे कम पड़ जाते हैं। साधारण आदमी भी जहाजों के टाइम-टेविल याद रखने लगा है। अमेरिका से जहाज ग्रायगा तो उसमें हमारे लिए गेहूं, होगा; जापान से आयेगा तो चावल होगा। अमेरिका में जहाजी कर्म-चारियों की हड़ताल से भारतीय जन चिन्तित हो जाता है। मुखमरी से हम में अन्तर्राष्ट्रीय चेतना था गई। अगर अकाल पड़जाय, तो हर भारतीय अपने को विश्व-मानव समझने लगेगा । (Beimani ki Parat)

यह वक्त भी कहीं मोटे होने का है! मैं शर्म से कमरे में छिपा बैठा रहा जैसे कुमारी गर्भ को छिपाती है। मेरे देशवासियो, मुझ देशमं को माफ़ करना। भारत माता, क्षमा करना, तेरा यह एक कपूत मोटा हो गया। में तीसरी पंचवर्षीय योजना का एक झूठा आंकड़ा हूँ, जो तुम्हें धोखा दे रहा है। सुब्रमन्यम, माफ़ करना पार, तुम्हारी साद्य-व्यवस्था के बावजूद मैं मोटा हो गया। टी० टी० भाई, तुम भी मुझे माफ करो; मैंने तुम्हारी मर्य-नीति का अपमान किया है। कन्हैयालाल मुंशी, अजितप्रसाद जैन, सापोदा पाटिल- मेरे पिछले खाद्य भत्रियो, तुम्हारे सामने मैं शनिदा हूँ। चितामन देशमुख ौर मोरार जी भाई, मेरे भूतंपूर्व अर्थ मंत्रियो, मैं तुम्हें मुंह दिखाने के काबिल नही रहा। मैं पिछले १५ वर्षों की उलभी प्रर्य-नीति घौर खाद्य-नीति के प्रति अपराधी हूँ।

ग्लानि से दुबला होने में देर लगती है प्रोर पानीदार ही दुबला होता है। मुझे इस बड़े शरीर की व्यवस्था करनी ही होगी। शेरवानी को खुलवाना ही पड़ेगा। मैंने छोटे भाई से कहा। वह बहुत खुश हुधा और मुहल्ले में जितने लोगों को सूचित कर सकता था, कर आया कि मेरा भाई मोटा हो गया है। मैं हरा कि अभी लोग श्रायेंगे और कहेंगे- सुना है साहब, प्राप मोटे हो गये। बधाई है। ईश्वर सवको इसी तरह मोटा करे। (Beimani ki Parat)

लेकिन शाम तक मैंने लज्जा-भाव को जीत लिया। इसमे क्या शर्म की बात है। मोटा हुमा है, तो मेरा ही शरीर हुआ है। मेरे कारण कोई दूसरा तो मोटा नहीं हुआ। मैं इशारे से इस उपलब्धि को बताने भी लगा। दोस्त ठंड की बात करते तो मैं बीच मे कह देता- हाँ, ठंड सिर पर आ गई और हमारे गर्म कपड़े छोटे पड गये। बटन नहीं लगती।

दो-तीन दिनों में यह बात फैल गयी और मेरे एक बुजुर्ग रिश्तेदार यह कहते मेरे घर आये कि लड़के ने बताया कि तुम मोठे हो गये। मैंने सोचा, चलो देख आये ।

दुर्वलता का मैं अभ्यस्त हो गया था। गर्वपूर्वक दुबला रह लेता था। कोई ऋषि मोटा नही हुआ। वे सब सूखे और क्रोधी होते थे। कोई उनके चरण न छूए तो उसे शाप देकर बंदर बना देते थे। पर न मैं वैसा दुबला या, न वैसा कोधी। मैं ‘आजानुभुज’ और ‘आकंठटाँग’ वाला हूँ- यानी बैठने में टाँगें कंठ तक आ पहुंचती हैं। सोचता था, भुजाओं और टांगों का जो अतिरिक्त भाग है वह बाकी शरीर से चिपका दिया जाए, तो ठीक हो जाए। पुराने ज़माने में सुंदरियों के लिए ऐसी सर्जरी होती होगी कि इस अंग का कुछ अंग काटकर उस अंग मे चिपका दिया। प्रमाण चाहिए तो बिहारी की यह पंक्ति काफी है- ‘कटि को कंचन काटि कै, कुचन मध्य घरि दीन।’ (इससे दोनों ठीक हो गए) एक और तरह की सर्जरी है, जिसमें विना चाकू के पेट काटा जा सकता है। वर्तमान सभ्यता में इस रक्त-हीन सर्जरी ने काफी उन्नति की है। जो दस-पांच के पेट काट सके उसका पेट बड़ा हो जाता है। वे सारे पेट उसके पेट में चिपक जाते हैं। इस विद्या के विद्यालयों में मुझे प्रवेश नहीं मिला, वरना मैं भी यह सर्जरी सीख लेता और पेट बढ़ा लेता ।

यों हमारी पूरी दार्शनिक ट्रेनिग देह के खिलाफ जाती है। देह की सेवा बढ़ी हीन वात मानी गई है। दो-तीन साल पहिले एक मठाधीश स्वामाजी ने हमें यह वात अच्छी तरह समझा दी थी। वे अच्छे पुष्ट और गौरवर्ण संन्यासी थे। तख्त पर बैठे थे और देह की तुच्छता पर ऐसा जोरदार प्रवचन कर रहे थे कि हमें अपने शरीर से घृणा होने लगी थी। अच्छे उपदेशक वे, जो अच्छी से अच्छी चीज के प्रति नफरत पैदा कर देते हैं। वे कह रहे थे- ‘यह मलमूत्र की खान, यह गन्दा शरीर मिथ्या है, नाशवान है, क्षणमंगुर है। मूरख इसे स्वादिष्ट पकवान खिलाते हैं, इसे सजाते हैं, इस पर इत्र चुपहते हैं। वे भूल जाते हैं कि एक दिन यह देह मिट्टी में मिलेगी और इसे कीड़े खायेंगे।’ इतने में एक सेवक केसरिया रवड़ी का गिलास लाया और स्वामीजी ने उसे गटक लिया। मेरे पापी मन में शंका उपजी। पर पास में वैठे एक भक्त ने समझाया – यह मत समझ लेना कि स्वामीजी स्वादिष्ट रवड़ी खाते हैं। अरे, वे तो कीड़ों-मफोड़ों के खाने के लिए देह को पुष्ट और स्वादिष्ट बना रहे हैं। इस मृत देह को कीड़े खायें, तो उन्हें भी मजा भा जाय- यही सोचकर स्वामीजी रबड़ी पीते हैं। श्रद्धाहीन सोचते हैं कि स्वामीजी माल खाते हैं; यह नहीं जानते कि वे तो कीड़ों के लिए ‘डिनर’ बनाने में लगे हैं।

वह उपदेश आज काम आया। संतोष भी हुआ कि अगर स्वामी जी का ‘मेनू’ पहिले दर्जे का है तो मेरा भी दूसरे का तो हो ही गया। मैं मिथ्या गर्व से बच गया। जो खुशी थी, वह लोगों के सवालों ने छीन ली । सोग पूछने लगे-मोटे हो रहे हो। क्या बात है? मैं क्या जवाब देता। कह दिया-स्वास्थ्य का ख्याल रखता हूँ। वह जो स्वामी शिवानन्द की किताब है न, उसी के मुताबिक चल रहा हूँ। उसमें लिखा है- समय पर भोजन करना चाहिए, सूर्यास्त के बाद चाय नहीं पोनी चाहिये, यधिक रात तक नहीं जागना चाहिए, हल्का भोजन करना चाहिए, मदिरा पादि मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करना चाहिए, मिर्च-मसाले नहीं खाना चाहिए, मन मे बुरे विचारों को नहीं माने देना चाहिये –

किसी को संतोष नहीं हुथा। लोग कहते – मजाक छोड़ो। सब वताम्रो, मोटे क्यों हो रहे हो ? पीठ पीछे जब कोई यह प्रश्न करते, तो वह कँटीला हो जाता। वे प्रारप्स में कहते- वह भाजकल भुटा रहा है। क्या बात है? मैं इस सवाल से घबड़ा उठा। मैं जब दुवला था, तब किसी ने प्रधान मंत्री से नहीं पूछा कि यह शख्स दुबला क्यों है। किसी ने संविधान नही देखा कि इसमें नागरिकों के कर्तव्यों में दुबला होना लिखा है या नहीं। हम सब ने दुबले होने को अपनी नियति मान लिया है। कोई मोटा हो जाता है, तो हजार अँगुलियाँ उठने लगती हैं। लोग यह समझ रहे थे कि या तो मैं गांजा-शराब के ‘स्मगलिंग’ में सगा हूँ, या किसी संस्था का मंत्री बनकर चन्दा खा रहा हूँ, या कहीं से काला पैसा ले रहा हूँ, या घूसखोरी के लिए किसी का एजेंट हो गया हूँ। रोटी खाने से कोई मोटा नही होता, चन्दा या घूस खाने से मोटा होता है। बेईमानी के पैसे में ही पौष्टिक तत्त्व बचे हैं।

पिछले १७ सालों से मोटे होने वालों ने ऐसी परम्परा हाली है कि ईमानदार को गोटे होने में डर लगता है। स्वस्थ रहने की हिम्मत नहीं होती ।

मेरे एक दोस्त ने मुझे बताया है कि जिनकी तोंदें इन १७ सालों मे बढ़ी है, जिनके चेहरे सुखे हुए हैं, जिनके शरीर पर मास भाया है, जिनकी चर्बी बढ़ी है- उनके भोजन का एक प्रयोगशाला मे विश्लेषण करने पर पता चला है कि वे अनाज नही खाते थे; चन्दा, घूस, काला पैसा, दूसरे की मेहनत का पैसा या पराया धन खाते थे। इसीलिए जब कोई मोटा होता दिखता है, तो सवाल उठते है। कोई विश्वास नहीं करता कि आदमी अपनी मेहनत से ईमान का पैसा कमाकर भी मोटा हो सकता है।

बेईमानी की तरह यह थोड़ा-सा मांस मेरे ऊपर चिपक गया है। मेरे दुश्मनो, एक वैज्ञानिक तथ्य तुम्हारे सामने है। मैं मोटा होकर कमजोर हो गया हूँ। मेरी बदनामी उड़ाने का ऐसा सुनहला अवसर तुम्हें कभी नहीं मिलेगा । तुम जल्द करो । मेरा क्या ठिकाना? मैं चार दिनों बाद फिर दुबला हो जाऊँगा। तब तुम हाथ मलते रह जाओगे।

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