हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

Kabir ke Dohe कबीर के दोहे हिन्दी-‘ग’

0 645

कबीर के दोहे (kabir ke dohe)

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय॥

निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय॥

कबिरा संगत साधु की ज्यों गंधी का बास।
जो कछु गंधी दे नहीं तौ भी बास सुबास॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का पेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥

पाहन पूजे हरि मिले, मैं तो पूजूं पहारं
याते चाकी भली जो पीस खाए संसार॥

वृच्छ कबहुँ नहिं फल भरौं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर॥

Leave A Reply

Your email address will not be published.