सिद्ध, नाथ एवं जैन साहित्य

सिद्ध साहित्य
सिद्ध साहित्य से हमारा तात्पर्य वजयान परंपरा के उन सिद्धाचार्यों के साहित्य से है, जो अपभ्रंश के दोहे तथा चर्यापद के रूप में उपलब्ध है।
सिद्धों ने प्रबंध काव्य और खंडकाव्य के स्थान पर गीति और मुक्तक काव्य में रचना की है। चर्यापद और वज्रगीत गीतकाव्य के उदाहरण हैं तथा दोहे और अर्द्धालियाँ मुक्तक के उदाहरण हैं। दोहे में सिद्धों ने नीति के वचन तथा दार्शनिक खंडन मंडन को प्रस्तुत किया है। सिद्धों ने भाषा में अपभ्रंश के साहित्यिक वर्चस्व के स्थान पर देशभाषा को अपनी रचना का आधार बनाया। साहित्य के हर क्षेत्र में चाहे वह भाषा हो, बिंब हो, अनुभूति हो सिद्धों का योगदान एकदम मौलिक है। साहित्य में उन्होंने नये सौंदर्यबोध को प्रस्तावित किया है।
- सिद्ध साहित्य के प्रमुख रचनाकार
सरहपाः सरहपा को प्रथम सिद्ध कवि माना जाता है जिनका काल 769 ई. बताया जाता है। वज्रयान पर इनके 32 ग्रंथों का अनुवाद मिलता है। इनकी कृतियों में काम कोष, अमृत वज्र गीत, दोहाकोष गीत, बसन्त तिलक, महामुद्रोपदेश आदि उल्लेखनीय हैं। दोहाकोष में इन्होंने गुरु महिला, कर्मकांडों का विरोध, कायारूपी तीर्थ की प्रशंसा तथा महासुख और सहज मार्ग का वर्णन किया है-
जहि मण पवण ण संचरइ, रवि ससि नाहि पवेश।
तहि वत चित्त विसाम करू, सरेहे कहिअ उवेश।।
आगे चलकर भक्ति काल में जायसी, तुलसी के यहाँ जो दोहा, चौपाई का सम्मिलित प्रयोग मिलता है, उसका आदि स्रोत सरहपा का ही काव्य है। सरहपा दोहा, चौपाई शैली के प्रथम प्रयोक्ता थे-
पण्डिअ सअल सत्य बक्खाणइ।
देहहि बुद्ध बसन्त न जाणइ।।
सबरपा : सबरपा की 26 रचनायें मिलती हैं, जिसमें महामुद्रा वज्रगीत और शून्यता दृष्टि उल्लेखनीय है। उन्होंने कई चर्यापद भी लिखे हैं। शबरपा सरहपा के शिष्य थे, शबरों की सी भेषभूषा में रहने के कारण इनका नाम शबरपाद पड़ा। चर्यापदों की रचना अवहट्ठ में हुई है
ऊँचा ऊँचा पर्वत तहाँ बसई सबरी वाली।
कण्हपा : कण्हपा सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ विद्वान तथा सबसे बड़े कवि थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार “कण्हपा पाण्डित्य और कवित्व में बेजोड़ थे।”
कण्हपा की 57 रचनायें मिलती हैं, 12 संकिर्तन पद मिलते हैं। उनका दोहाकोष उल्लेखनीय महत्त्व का है। जिसमें उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था और कर्मकाण्डों का खण्डन किया है।
आगम वेउ पुराणे, पंडित मान बहंति।
पक्त सिरी फल अलिअँ, जिमी वाहेरिअ भमयंति।।
लुइपा : लुइपा शबरपा के शिष्य थे। 84 सिद्धों में लूइपा का स्थान सबसे ऊँचा माना जाता है। लुइपा के काव्य में रहस्यातमक तत्त्व की अधिकता मिलती है। उनकी कविता में आध्यात्मिक तत्त्वों के प्रतीकों का प्रयोग बहुलता में देखा जा सकता है
काआ तरुअर पंच विडाल।
चंचल चीए पइट्ठा काल।
(काया रूपी तरुवर है और पंचेन्द्रियाँ हैं। चंचल चित्त में काल ने प्रवेश कर लिया है।) स्पष्ट है कि सिद्ध काव्य में जिन काव्य रूढ़ियों का विकास हो रहा है, वे आगे चलकर अपने प्रशस्त रूप को प्राप्त करते हैं। सिद्ध काव्य भाव और भाषा दोनों क्षेत्रों में भक्तिकालीन काव्य का प्रेरणास्रोत है।
नाथ साहित्य
नाथपंथ के मुख्य रचनाकारों में गोरखनाथ, चौरंगीनाथ, गोपीचंद, चुणकरनाथ, भरथरी आदि का नाम प्रसिद्ध हैं। उनमें से किसी के साहित्य की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है। गोरखनाथ की देश भाषा में लिखी हुई रचनाओं में ‘गोरख बोध’, ‘गोरखनाथ की सत्रह कला’, ‘दत्त गोरख संवाद’, ‘योगेश्वरी साखी’, ‘नरवइ बोध’, ‘विराट पुराण’, ‘गोरखसार’ तथा ‘गोरख बानी’ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त गोरखनाथ की कुछ पुस्तकें संस्कृत में भी मिलती हैं।
गोरखनाथ की 40 रचनाएँ बतायी जाती हैं जिनमें डॉ. पिताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने 14 ग्रन्थों को प्रमाणिक मानकर उनका सम्पादन ‘गोरखबानी’ नाम से किया। गोरखनाथ के काव्य की कुछ बानियाँ
गगन मण्डल औंधा कुँआ, तहां अमृत का वा
गगन मण्डल में गाय वियायी, कागद दही जमाया
अन्य नाथ कवियों की छुटपुट रचनाएँ मौखिक रूप में उपलब्ध है। नाथ साहित्य की प्रमाणिकता संदिग्ध है। उसकी प्रामाणिकता के संदेह का आधार रचनाओं की भाषा है। जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग गोरखनाथ के साहित्य में मिलता है, उससे अनुमान लगाया जाता है कि उस भाषा का प्रचलन गोरखनाथ के काल में नहीं था। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि गोरखनाथ के नाम पर जो रचनाएँ मिलती हैं उन्हें नाथपंथ के अनुयायियों ने एकत्रित किया होगा। नाथपंथी साहित्य रचने के उद्देश्य से लेखन नहीं कर रहे थे। वे अपनी संवेदनाओं और अनुभव को लोगों से साझा करना चाहते थे। उसके लिए उन्होंने पुस्तक लिखने की आवश्यकता को महसूस नहीं किया और उसका परिणाम यह हुआ कि उनकी वाणी साहित्य बनकर लोगों के मुख के माध्यम से ही बहुत दिनों तक जीती रही। इस प्रक्रिया में नाथों की वाणी की भाषा बदल गई और भाव भी परिवर्तित हो गए। आचार्य शुक्ल ने नाथों की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा है, जो वस्तुतः संपर्क भाषा थी।
नाथ साहित्य में अंतःसाधना का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। नाथ साहित्य में साधनात्मक शब्दावली का प्रयोग बहुलता से मिलता है। नाथ आचरण की शुचिता पर अधिक बल देते हैं, परंतु यह आचरण सामान्य जन के लिए नहीं था, यह जोगी के लिए था-
जोगी होई पर निंदा झखै। मद मास अरु भांगि जो राई।
इकोता सैं पुरिषा नरकहिं जाई। सति सति भाषत श्री गोरख राई।।
नाथपंथ का महत्त्वपूर्ण योगदान भक्तिकालीन निर्गुण साहित्य को अपना अनुभव सौंपने में हैं। नाथपंथ ने निर्गुण पंथ के लिए एक मार्ग तैयार कर दिया था। कबीर साधना और भावना दोनों स्तर पर नाथपंथ के सिद्धांत को अपनाते हैं। आचार्य शुक्ल ने लिखा है- ‘कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार साखी और बानी शब्द मिले हैं, उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और सधुक्कड़ी भाषा भी।’