हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

संस्मरण साहित्य : उद्भव और विकास

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          संस्मरण और रेखाचित्र में बहुत ही सूक्ष्म अंतर है। यदि लेखक व्यक्तित्व चित्रण तक ही स्मृति को सीमित रखता है तो वह रचना रेखाचित्र की श्रेणी में रखी जाएगी। यदि लेखक स्मृतियों से प्रसंग को उभारने का काम करता है तो वह रचना संस्मरण कहलाएगी। संस्मरण में पूरा संदर्भ और प्रसंग अर्थवान होता है। रेखाचित्र में व्यक्ति चित्रांकन का केन्द्र बिन्दु होता है। स्मृति में एक विशिष्ट प्रकार की संवेदना होती है। यह संवेदना हमारे नोस्टलजिक बोध को झंकृत कर देती हैं संस्मरण से हमारा अतीत बोध जुड़ा होता है। अतीत का कोई मूल्यवान क्षण संस्मरण रचने को प्रेरित करता है। संस्मरण में कथा का ताना-बाना सच्ची घटनाओं में बुना जाता है। संस्मरण आधुनिक गद्य विधा है। हिंदी में संस्मरण साहित्य का प्रारंभ द्विवेदी युग से होता है। सरस्वती पत्रिका में कुछ संस्मरण यदा-कदा प्रकाशित हो जाते थे। हिन्दी में संस्करण लिखने का प्रारंभ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हुआ। ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘क्षुधा’, ‘विशाल भारत’ आदि में साहित्यिकों और समाज सुधारकों के संस्मरण छपते रहते थे, हिन्दी में पहला संस्मरण 1907 ई. में बालमुकुन्द गुप्त द्वारा प्रतापनारायण मिश्र पर लिखा गया था, इसके कुछ दिन बाद ही गुप्त जी द्वारा लिखित ‘हरिऔध जी के संस्मरण’ नामक एक अन्य संस्मरणात्मक पुस्तक का भी उल्लेख मिलता है। इसमें पन्द्रह संस्मरण संकलित है। सन् 1928 में रामदास गौड़ ने श्रीधर पाठक और राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ जैसे साहित्यकारों का संस्मरण लिखा, ये संस्मरण दोनों साहित्यकारों की सािित्यक अंतर्दृष्टि स्पष्ट करने में सहायक है। ‘क्षुधा’ पत्रिका में इलाचंद्र जोशी ने ‘मेरे प्रारंभिक जीवन की स्मृतियाँ’ शीर्षक से अपने बचपन की स्मृतियों को लिखा। 1932 ई. में ‘विशाल भारत’ पत्रिका में बनारसीदास चतुर्वेदी ने श्रीधर पाठक का संस्मरण रेखाचित्र लिखा। ये संस्मरण कभी तो संस्मरण लेखक के ही बारे में होते थे कभी इनमें किसी व्यक्ति के जीवन की विशेषताओं का चित्रण होता था। देखा जाए तो, बीसवीं शताब्दी के प्रथम, द्वितीय और तृतीय दशकों में संस्मरण विधा स्थापित होने लगी थी। इन संस्मरणों में उस समय की राजनीतिक और साहित्यिक जीवन की गतिविधियों का चित्र भी प्राप्त होता है। इस समय रूपनारायण पांडेय, गोपालराम गहमरी, महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि के संस्मरण भी प्रकाशित होने लगे थे।

          संस्मरण लेखन में राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ‘सावनी समां’ (1938) तथा ‘सूरदास’ (1940) उनकी विशिष्ट संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं। ‘सूरदास’ में उन्होंने नायक सूरदास की संवेदनशीलता के साथ-साथ उसके आत्मविश्वास को भी उभारने का प्रयत्न किया है। निम्न वर्ग के पात्रों में मानवता की खोज और उर्दू-मिश्रित चुभती हुई भाषा-शैली राधिकारमण जी के संस्मरणों की विशेषता है। महादेवी वर्मा के संस्मरण हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनकी कृति ‘पथ के साथी’ (सन् 1956) में लेखिका ने अपने समकालीन रचनाकारों का संस्मरण लिखा है। इस कृति में पंत, निराला, सुभद्राकुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त आदि के संस्मरण संकलित है। रामवृक्ष बेनीपुरी के संस्मरण ‘जंजीरें और दीवारे’ में उनके जेल जीवन के संस्मरण हैं। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की कृति ‘भूले हुए चेहरे’ उल्लेखनीय संस्मरण रचना है। संस्मरण लेखन में रामधारी सिंह दिनकर की कृति ‘लोकदेव नेहरू’ तथा ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ महत्त्वपूर्ण हैं। ‘लोकदेव नेहरू’ में नेहरू के जीवन की अंतरंगता और अनौपचारिकता से परिचित कराया गया है। नेहरू के समकालीन रचनाकारों के संबंधों पर भी प्रकाश डाला गया है। ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ में लेखक ने अपने युग के प्रमुख राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों का स्मरण किया है। डॉ. नगेन्द्र के संस्मरण ‘चेतना के बिंब’ में सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त आदि व्यक्तियों के जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को संस्मरण में उभारने का प्रयत्न किया गया है। हरिवंश राय बच्चन की कृति ‘कवियों में सौम्य संत हैं में सुमित्रानंदन पंत के आत्मीय और सात्यिक संस्मरण दिए गए हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा का ‘संस्मरणों के सुमन’, विष्णु प्रभाकर की ‘मेरे अग्रजः मेरे गीत’ तथा फणीश्वरनाथ रेणु का ‘वन तुलसी की गंध’ उल्लेखनीय संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं। संस्मरण साहित्य में अज्ञेय की कृति ‘स्मृतिलेखा’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस रचना में श्रद्धेय साहित्यकारों के साथ बिताए गए क्षणों का वर्णन है। इस संस्मरण में साहित्यकार के व्यक्तित्व को उनकी कलाकृति से जोड़ने का प्रयास किया गया है। ‘स्मृतिलेखा’ तथ्यों का ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है। वह स्मृति की विशिष्ट सर्जना है। एक रचनाकार जब दूसरे रचनाकार को देखता है, उसमें जो कुछ ग्रहण करता है उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति ‘स्मृतिलेखा’ में मिलती है। स्मृति अज्ञेय के लिए मूल्यांकन की रचनात्मक कसौटी बन गई है।

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