हिन्दी नाटक का उद्भव और विकास
नाट्य-लेखन एवं प्रयोग-विज्ञान (अभिनय) की भारतीय परंपरा बहुत पुरानी है। संस्कृत साहित्य में नाट्य-रचना और रंगमंचीय प्रदर्शनों का एक लम्बा इतिहास रहा है। किंतु मध्य-युग में आकर प्रेक्षागृहों और नाट्य-प्रदर्शनों का क्रमशः हरास होता गया। मनु और याज्ञवल्क्य स्मृतियों में नटों के प्रति हेय भावना व्यक्त किए जाने के कारण रंगकर्मियों एवं अभिनेताओं की प्रतिष्ठा घटी। विदेशी आक्रमणों ने भी राजप्रासादों से जुड़ी रंगशालाओं को तहस-नहस कर दिया। जयशंकर प्रसाद लिखते हैं कि “मध्यकालीन भारत में जिस आतंक और अस्थिरता का साम्राज्य था, उसने यहाँ की प्राचीन रंगशालाओं को तोड़-फोड़ दिया।” 11वीं-12वीं शताब्दी तक आते-आते नाट्य-लेखन रंगभूमि के जीवित संदर्भ से कट गया। इतिवृत्तमूलक संवादात्मक काव्य को ही नाटक कहा जाने लगा। मध्य युग के उत्तरार्द्ध में ब्रज भाषा हिंदी में भी कुछ ऐसे नाटक प्रणीत हुए जिनकी मूल प्रकृति को काव्यपरक ही है, किंतु संवाद-शैली में रचे जाने के कारण उन्हें नाटक की संज्ञा दे दी गई है। कुछ उल्लेखनीय नाटक इस प्रकार है- ‘रामायण महानाटक’- प्राणचन्द चौहान (सन् 1080 ई.), ‘करुणाभरण’- लछिराम (सन् 1657 ई.), ‘शकुन्तला’- नेवाज (सन् 1680 ई.), ‘आनन्द रघुनन्दन’- महाराज विश्वनाथ’ (सन् 1700 ई.), ‘रामकरुणाकर’ एवं ‘हन्नुमन्नाटक’– उदय (सन् 1840 ई.) इत्यादि। इनकी सृजनात्मक प्रवृत्ति तत्त्वतः नाट्योपयोगी उतनी नहीं हैं जितनी की काव्योपजीवी हैं। वस्तुतः उक्त कृतियाँ संवाद-शैली में रचित पद्यात्मक प्रबंध काव्य के ही रूप है। ‘आनन्द रघुनंदन’ की रचना में यद्यपि नाटक रचना के शास्त्रीय नियमों को अपनाया तो गया है परंतु आगे के हिंदी नाटक के विकास को वह दिशा नहीं देता। उसमें नान्दी, विष्कंभक, भरतवाक्य आदि नाटक-रचना की शास्त्रीय विधियों को अपनाया गया है, तथापि आगे के हिन्दी नाटक-लेखन को उससे कोई सार्थक दिशा नहीं मिली। नाट्य-वस्तु एवं शैली-शिल्प की दृष्टि से हिंदी नाटक के आधुनिक मौलिक स्वरूप का विकास भारतेंदु के नाट्य-प्रयोगों में ही प्रतिफलित हुआ। अपने ‘नाटक’ नाम के निबंध में तो भारतेन्दु ने स्वयं यह लिखा है कि हिंदी में पहले दो ही नाटक लिखे गये थे– महाराज विश्वनाथ कृत ‘आनन्द रघुनन्दन’ नाटक और गोपालचन्द का ‘नहुष’ नाटक। ये भी ब्रजभाषा में ही लिखे गये थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि “विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य-साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ। भारतेंदु से पहले ‘नाटक’ के नाम दो-चार ग्रंथ ब्रज भाषा में लिखे गये थे, उनमें विश्वनाथ सिंह के ‘आनन्द रघुनन्दन’ को छोड़कर किसी में नाटकत्व न था।” पुनः वे लिखते हैं कि “जब भारतेंदु अपनी मंजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तब हिंदी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्रकृत साहित्यिक रूप मिल गया।” इस प्रकार हिंदी नाटक की अविच्छिन्न परंपरा भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के अन्य नाटककारों- प्रताप नारायण मिश्र, श्रीनिवास दास, बदरी नारायण चौधरी, राधाचरण गोस्वामी, राधाकृष्ण दास आदि के नाटकों से ही शुरू हुई समझी जाने लगी।
भारतेन्दु युग के नाटक
गद्य की अन्य विधाओं की तरह हिंदी नाटकों की शुरूआत भारतेंदु युग से ही स्वीकार की जाती है। भारतेंदु बाबु ने पहली बार भारतीय एवं पाश्चात्य नाट्य परंपरा का संयोजन करते हुए हिंदी में रंग कर्म की आधार भूमि तैयार की। उन्होंने न केवल समाज की मध्यवर्गीय नवचेतना को सबसे पहले अपने नाटकों के माध्यम से वाणी प्रदान की, बल्कि रंग जगत को नई शैली और प्रेरणाएँ देने के साथ-साथ नाटककारों का एक मंडल भी तैयार किया। उन्होंने हिन्दी नाटक और रंगमंच को पारसी रंगमंच की अतिनाटकीय स्थितियों, चकाचौंध, फूहड़पन और अश्लीलता के घेरे से निकालकर साहित्यिक और सार्थक स्वरूप प्रदान किया। भारतेंदु ने नाट्य-लेखन और अभिनय को मनोविनोद के साथ-साथ समाज सुधार और युगीन नवजागरण से भी जोड़ा। वे मानते थे कि नाट्य प्रदर्शनों के माध्यम से समाज-सुधार का आंदोलनअधिक प्रभावी हो सकता है। सामाजिक या दर्शक को उसके यथार्थ को दिखलाकर अधिकाधिक झकझोरा और अपनी दशा को सुधारने की ओर प्रेरित किया जा सकता है। इसी प्रयोजन से भारतेंदु ने अपने युग के विविध धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि प्रश्नों या समस्याओं को अपने प्रहसनों एवं नाटकों में रूपायित किया और पुनरूत्थानमूलक समाधान प्रस्तुत किया। भारतेंदु मंडल के अन्य नाटककारों ने भी उन्हीं के आदर्शों का अनुसरण किया। भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के दूसरे नाटककार मूलतः सुधारवादी थे। समाज सुधार की भावना से प्रेरित होकर इन्होंने अपने समाज की वर्तमान दशा का चित्र प्रेरित होकर इन्होंने अपने समाज की वर्तमान दशा का चित्र प्रस्तुत किया। भारतेन्दु युगीन नाटकों में पारिवारिक विसंगतियों, अन्ध-विश्वासों, पाखण्डों, व्यभिचारी, स्त्री-स्वातंत्र्य, दामपत्य-जीवन, प्रेम, विवाह, यौन व पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति में डूबे नवशिक्षितों आदि से सम्बन्धित अनेकानेक प्रश्नों और समस्याओं को नाटककारों ने पूरी गम्भीरता व गहराई के साथ उद्घाटित किया है। इन नाटकों में तर्क या बुद्धि की अपेक्षा सुधारवादी मूल्यों पर विशेष बल दिया गया है।
भारतेंदु की सभी मौलिक रचनाओं यथा- ‘भारत दुर्दशा’, ‘भारत-जननी’, ‘अंधेर नगरी’, ‘नीलदेवी’, ‘सत्यहरिश्चन्द्र’, ‘पाखण्ड विडम्बना’, ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवती’, ‘विषस्य विषमौषधम्’, ‘प्रेमयोगिनी’, ‘सती प्रताप’ में देश प्रेम प्रबल पक्ष के रूप में प्रकट है। अनूदित नाट्य रचनाओं यथा “विद्या सुन्दर’, ‘कर्पूर मंजरी’, ‘मुद्रा राक्षस’, ‘दुर्लभ बन्धु’ आदि में भी देश-प्रेम लक्षित होता है।
भारतेंदु के नाटकों में देश-प्रेम के आधार के रूप में चरित्र बल और अपनी भाषा संस्कृति के प्रचार-प्रसार को विशेष महत्त्व दिया गया है। इसलिए उनके नाटकों का रूझान आदर्शवादी है। भारतेंदु यह जानते थे कि पराधीनता से मुक्त होने के लिए देशवासियों में चरित्रबल का होना जरूरी है। राष्ट्रीय मुक्ति के विचार–प्रसार के लिए राष्ट्र भाषा का भी उतना ही महत्त्व है। इसको बहुत साफ रूप में समझाने के लिए नाटकों में उन्होंने कहीं सीधे उपदेश की शैली का प्रयोग किया है, तो कहीं भरत वाक्य में उसे प्रकट करते हैं। अधिकतर हास्य-व्यंग्य की शैली में वे चरित्र निर्माण की शिक्षा देते हैं। नाटकों के कथानक चरित्र बल की अभिव्यक्ति करते हैं। हरिश्चन्द्र का सत्यप्रिय, न्यायप्रिय, त्यागप्रिय एवं कर्त्तव्यपरायण चरित्र भारतीय चरित्र के आदर्श का मानदंड है। सत्य हरिश्चन्द्र के रंगमंच पर आने के बाद से अंग्रेजीराज को हटाने का संदेश देने के लिए ये पंक्तियाँ रची गई है
“प्रगटहु रवि-कुल-रवि निसि, बीती प्रजा कमलगन फूले |
मंद परे रिपुगन तारा सम, जन-मय-तम उनमूले।।”
नाटक के भरत वाक्य ‘स्वत्व निज भारत गहे’ में भी स्वतंत्रता की प्रबल उत्कंठा व्यंजित है। भारतेंदु यह मानते थे कि नारी के चरित्रबल और देश प्रेम का उतना ही महत्त्व है, जितना पुरुष के चरित्रबल का। इसी मान्यता से प्रेरित होकर उन्होंने ‘सती प्रताप’ और ‘नीलदेवी’ जैसे नाटकों की रचना की। ‘सती प्रताप’ में पतिव्रत्य को नारी का चरित्रबल बतलाया गया है। ‘नीलदेवी’ नारी की वीरता एवं देशभक्ति से संबंधित नाट्यकृति है। इसमें गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर भारतीयों को स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए अनुप्रेरित किया गया है-
“रहे हमहँ कबहूँ स्वाधीन आर्य बलधारी।”
“भारत जननी” में भी राष्ट्रीय जागरण का संदेश दिया गया है। अंग्रेजी शासन में देश की अधोगति दिखाकर देश रक्षा का विचार व्यक्त किया गया है-
“अब बिन जागे काज सरत नहिं आलस्य दूर बहाओ।
हे भारत भुवनाथ भूमि निज बूड़त आनि बचाओ।।”
नाटक में स्वाभिमान की भावना जगाई गई है और देश को प्रगतिशील बनाने के लिए भारतीयों को अनुप्रेरित किया गया है। भारत दुर्दशा’ की नाट्य रचना में देशभक्ति की ही अनुप्रेरणा है। इसमें अतीत के गौरव गान से वर्तमान भारत को पुनरूत्थान के लिए प्रेरित किया गया है, साथ ही इसमें देश की वर्तमान अधोगति को दिखाया गया है। नाटककार ने नाटक में अपने समय के भारत की दयनीय दशा का प्रभावशाली चित्र प्रस्तुत किया है। इस नाटक में वे देश की गिरी हुई अवस्था और अंग्रेजों की शोषक नीतियों का चित्रण कर एवं देश की अतीत कालीन उन्नत दशा और वीरता की याद दिलाकर दर्शक में देशप्रेम की संवेदना जगाकर स्वाधीनता-संघर्ष के लिए अनुप्रेरित करते हैं।
‘अंधेर नगरी’ में भी भारतेंदु ने व्यंग्योपहास की शैली में नाट्य रचना कर देश के भीतर के सूदखोर महाजन जैसे देश के दुश्मनों और अंग्रेजी शासन के जन विरोधी राजप्रबंध, शोषण एवं टैक्स की नीति पर कटु व्यंग्य किया है। नाटक का व्यंग्योपहास समाज की आँख खोलने के लिए है, देश-बचाने के लिए जनता को सजग करने के लिए है।
‘विषस्य विषमौधम्’ नाटक में देश के रजवाड़ों की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखलाकर देश को दुर्बल करने वाले तत्त्वों के प्रति सावधान किया गया है। इसी प्रकार ‘प्रेम योगिनी’ नाटक में भारतेंदु ने धार्मिक और सामाजिक गिरावट का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है। वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ में लोलुप स्वार्थी और अवसरवादी लोगों पर व्यंग्य किया गया है। देश को खोखला करने वाले तत्त्वों का व्यंग्य और उपहास की शैली में चित्रण कर भारतेन्दु राष्ट्रप्रेम की शिक्षा देते है, पुनरूत्थान की ओर अनुप्रेरित करते हैं। भारतेंदु के नाटक रंगशिल्प की दृष्टि से बहुत सरल और स्वाभाविक हैं। वे नाटककार ही नहीं निर्देशक ओर अभिनेता भी थे। उन्होंने थोडें से रंगमंचीय उपकरणों की सहायता से मेले ठेले में या कहीं भी खुली या बंद जगह में प्रदर्शित कर जनता को रंजित और शिक्षित करने के लिए ही नाटक की रचना की थी। अतः रंगमंचीय प्रदर्शन की दृष्टि से वे बहुत प्रभावशाली नाटक ज्ञात होते हैं। बहुत कुछ लोक-नाटक शैली की अपनाने के कारण भी उनके मंचन में कोई कठिनाई नहीं होती। हिंदी नाट्यकला के प्रवर्तक के रूप में भारतेंदु ने जो नेतृत्व किया उसकी छाया में नाटककारों का एक मंडल साहित्य क्षेत्र में अवतरित हुआ। अनेक तो भारतेंदु के संपर्क में उत्साहित होकर ही नाटककार बने।
भारतेंदु मंडल के दूसरे नाटककारों ने भारतेंदु की नाट्य शैली का अनुसरण कर नाटक लिखे और हिंदी नाटक साहित्य को समृद्ध किया। भारतेंदु युग के कुछ उल्लेखनीय नाटक हैं- देवकीनन्दन खत्री कृत ‘सीताहरण’ (1876), शीतलाप्रसाद त्रिपाठी का ‘रामचरितावली’, श्रीनिवासदास का ‘प्रह्लाद चरित्र’, ‘रणधीर प्रेममोहीनी’, बालकृष्ण भट्ट के ‘नललदमयंती स्वयंवर’, ‘नया रोशनी का विष’, राधाचरण गोस्वामी का ‘अमर सिंह राठौर’, राधाकृष्ण दास का ‘दुखिनी बाला’ आदि।
द्विवेदी युग
भारतेंदु युग में नाटक की समृद्धि के पश्चात् द्विवेदी-युग में हिन्दी नाटक का चिराग कुछ समय के लिए मद्धिम हो गया। नाट्य-साहित्य के इतिहास में द्विवेदी-युग को नाटकों का ह्रास का युग कहा जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह युग नितांत उपेक्षणीय है। हिन्दी नाट्य-इतिहास की दृष्टि से इस युग का भी अपना महत्त्व है- वह चाहे अनूदित नाटकों की बाढ़ के कारण हो या फिर पारसी रंगमंचीय शैली की अतिरंजना और चमत्कारपूर्ण नाटकों के कारण। इसलिए हिन्दी नाट्य-इतिहास के अगले चरण प्रसाद-युग में रचित हिंदी नाटकों के विकास को समझने में द्विवेदी युगीन नाट्य-साहित्य की अपनी एक भूमिका है। द्विवेदी-युग के सभी नाटककारों ने भारतेन्दु युगीन नाट्य–परम्परा का पिष्टपेषण करते हुए आर्य समाजी नैतिकता, समाज-सुधार, धर्मोपदेश, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना एवं रोमांटिक बोध को ही अपने नाटकों में समाविष्ट किया।
द्विवेदी-युग में संख्या की दृष्टि से नाटककार कम नहीं है किंतु महत्त्व की दृष्टि से वे नगण्य है। ब्रजनंदन सहाय, विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, बद्रीनथ भट्ट, कन्हैयालाल, शयदेवी प्रसाद ‘पूर्ण, मिश्रबन्धु, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, चतुरसेन शास्त्री, सुदर्शन, प्रेमचंद, बेचन शर्मा ‘उग्र’, जमनादास मेहरा, बलदेव प्रसाद मिश्र, रूपनारायण मिश्र, जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी तथा हरिदास माणिक जैसे नामों की एक लम्बी श्रृंखला यहाँ देखने को मिलती है। इनमें से दो-चार को छोड़कर शेष सभी ने अपने विशिष्ट साहित्यिक विषयों से अवकाशोपरांत ही नाटक लिखने का प्रयास किया है। इनके अतिरिक्त इस युग में राधाचरण गोस्वामी प्रतापनारायण मिश्र, शालिग्राम वैश्य तथा बालकृष्ण भट्ट जैसे भारतेन्दुयुगीन ख्यात नाटककार भी यदा-कदा नाटक लिख रहे थे। साथ ही पारसी थियेटर करने वाली लोकप्रिय व्यावसायिक और अव्यावसायिक नाट्य-कम्पनियों के लिए मोहम्मद मियां ‘रोनक’, बनारसी, हुसैन मियां ‘जरीफ’, आगा मोहम्मद ‘हश्र’ काश्मीरी, पंडित नारायण प्रसाद ‘बेताब’, पंडित माधव शुक्ल, मुंशी विनायक प्रसाद ‘तालिब’, हरिकृष्ण जौहरी, कन्हैयालाल ‘कातिल’, मुंशी तोताराम ‘प्रेमी’, बलदेव प्रसाद खरे तथा आरजू आदि नाटक लिख रहे थे।
इस युग में मौलिक नाटक तो बहुत नहीं लिखे गए, किंतु अंग्रेजी और बंगला नाटकों का अनुवाद पर्याप्त मात्रा में हुआ। इन अनुवादों से आगे के नाटककारों को नाट्य सृजन के लिए नयी उर्वर भूमियाँ मिली।
प्रसाद युग
हिंदी नाटकों का अगला महत्त्वपूर्ण पड़ाव प्रसाद युग (1915–33) है। जयशंकर प्रसाद का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ, जब हिंदी नाटकों में एक गतिरोध सा आ गया था। नाट्य-रचना के क्षेत्र में भारतेंदु की भांति प्रसाद भी एक युग-प्रवर्तक कलाकार के रूप में सामने आते हैं। भारतेन्दु द्वारा स्थापित हिंदी रंगमंच की परंपरा को जयशंकर प्रसाद ने एक नई दिशा और दृष्टि प्रदान की। प्रसाद सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। उन्होंने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि सभी साहित्यिक विधओं को छायावादी कल्पना एवं भावना के साथ विकसित किया। सभी नाट्य समीक्षक एक स्वर से यह मानते हैं कि प्रसाद ने हिंदी नाट्य सृजन को एक नयी शैली प्रदान की, नूतन प्राण-प्रतिष्ठा की और सांस्कृतिक राष्ट्रीय संचेतना की भावोच्छ्वासपूर्ण अभिव्यक्ति की। द्विवेदी-युग में हिंदी नाटक का जो चिराग मद्धिम हो गया था वह प्रसाद के आगमन के साथ पुनः दीप्त हो गया। प्रसाद के नाटकों ने हिंदी में एक क्रांति-सी ला दी। नाटककार जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा मौलिक और बहुमुखी थी। प्राचीन नाट्यशास्त्र और पाश्चात्य रंग-शैली दोनों से ही उनका प्रगाढ़ परिचय था। अपने नाटकों में उन्होंने दोनों नाट्य-शैलियों को अपनाकर अनूठी प्रतिभा व समन्यात्मक दृष्टि का सुंदर परिचय दिया। जयशंकर प्रसाद के नाटकों में भारतीय इतिहास, सांस्कृतिक समृद्धि, ऐश्वर्य एवं गौरव-गाथाओं का गान विद्यमान है किन्तु नाटककार उनके माध्यम से अपने युग को वाणी दी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि नाटककार जयशंकर प्रसाद राष्ट्रीयता से बहुत अधिक प्रभावित थे और इसीलिए उनके नाटकों में इतिहास के माध्यम से युगीन राष्ट्रीयसांस्कृतिक चेतना का निरूपण भी हुआ।
पारसी रंगमंच को हिंदी के शिष्ट समाज में मान्यता मिली नहीं, अव्यावसायिक रंगमंच भी प्रसाद के युग तक आते-आते समाप्त प्राय हो गया था। अतः प्रसाद के समय में हिंदी का अपना कोई रंगमंच सुलभ नहीं था, जो नाट्य सृजन को कोई निश्चित दिशा प्रदान करता। रंगमंच के अभाव में प्रसाद ने रंगनाटक न लिखकर काव्योपम औपन्यासिक नाटकों का सृजन किया। अभिनयात्मक सृजन शैली व सहारा कम लिया। वर्णनात्मक और भावुकतागर्भित बिम्बात्मक संवाद शैली में ही उन्होंने नाट्य वस्तु का प्रकाशन किया। इसलिए उनकी नाट्य शैली काव्योपम एवं औपन्यासिक प्रतीत होती है। इस अभिव्यंजना शैली को स्वच्छंदतावादी आदर्शोन्मुख काव्योपम नाट्य शैली कहा जा सकता है। प्रसाद की कल्पनाशील रोमांटिकधर्मी प्रकृति ने प्रस्तुत नाट्यशैली को बहुत आकर्षक रूप प्रदान किया। इस प्रकार की नाट्य शैली में उन्होंने अनेक कालजयी नाटकों की रचना की है- ‘राज्यश्री’ (1915 ई.), विशाखा’ (1921 ई. ), ‘अजातशत्रु (1922 ई.), ‘कामना’ (1923-24 ई.), स्कंदगुप्त’ (1928 ई.), ‘एक घुट’ (1930 ई.), ‘चन्द्रगुप्त’ (1931 ई.), ‘ध्रुवस्वामिनी’ (1939 ई.) आदि इन नाटकों के अतिरिक्त प्रारंभ में प्रसाद ने चार एकांकियों की भी रचना की थी, यथा ‘सज्जन’ (1910-11 ई.), ‘कल्याणी परिणय’ (1912 ई.), ‘करुणालय’ (1921 ई.) और ‘प्रायश्चित’ (1914 ई.)। इन एकांकियों में प्रसाद की सर्जनात्मक चेतना की वह झलक दिखाई देती है, जो ‘स्कंदगुप्त’ आदि नाटकों में आगे अधिक उभरकर सामने आई।
प्रसाद की नाट्य शैली से प्रेरणा ग्रहण करते हुए अथवा उसके विरोध में, उनके काल में ही, हिंदी नाटक का बहुमुखी विकास हुआ। हरिकृष्ण ‘प्रेमी’, वृन्दावनलाल वर्मा, डॉ. रामकुमार वर्मा, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, गोविन्द वल्लभ पंत, उदयशंकर भट्ट, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द, लक्ष्मी नारायण मिश्र, चतुरसेन शास्त्री, पांडेय लोचन प्रसाद शर्मा, सीताराम चतुर्वेदी, इन्द्रदेव वेदालंकार जोशी, भवानीदत्त, रामवृक्ष बेनीपुरी, लाला किशनचन्द जेबा आदि बहुत से नाटककार प्रसाद के समय में ही या तो उनकी नाट्य शैली का अनुकरण करते हुए अथवा उनकी काव्यगरिमायुक्त आदर्शोन्मुख रोमांटिक धर्मी नाट्य शैली का विरोध करते हुए, युग की सामाजिक समस्याओं पर आधारित सामाजिक कथानक प्रधान यथार्थवादी ढर्रे के नाटक या समस्या नाटक लिखने की ओर अग्रसर हुए।
प्रसादोत्तर नाट्य साहित्य
प्रसाद के उपरांत हिन्दी नाट्य साहित्य में जिस नवीन प्रवृत्ति का आगमन हुआ, उसे प्रसादोत्तर युग के नाम से अभिहित किया गया। यह युग वर्तमान से सम्बद्ध होने के कारण निश्चित रूप से प्रसादकालीन नाट्य–परम्परा को एक व्यापक आयाम देता है। इस युग के नाटक कृत्रिम भावुकता व मिथ्यादर्श की अपेक्षा समसामयिक जीवन के संघर्ष, जटिल उलझनों और विद्रुपताओं-विडम्बनाओं की जीती जागती तस्वीर पेश करते हुए समाज-स्वीकृत कुत्सित रूढ़ियों, अंध-परम्पराओं और निर्मूल धारणाओं की आलोचना करते हैं।
प्रसादोत्तर नाटककारों में सर्वाधिक चर्चित व महत्त्वपूर्ण नाम लक्ष्मीनारायण मिश्र का है। इनके प्रमुख नाटकों में ‘सिंदूर की होली’ (1934), ‘राजयोग’ (1934), ‘आधी रात’ (1937), ‘गरुडध्वज’ (1945) और ‘नारद वीणा’ (1947) हैं। इनके अलावा हरिकृष्ण प्रेमी की शिव साधना’ (1937), ‘प्रतिशोध’ (1937), ‘रक्षाबन्धन’ (1937), ‘आहुति’ (1940), ‘छाया’ (1941), ‘विषपान’ (1945), ‘शशिगुप्त’ (1942), ‘दलित-सुमन’ (1942), ‘कर्ण’ (1946) तथा ‘प्रेम और पाप’ (1947), उदयशंकर भट्ट की ‘अम्बा’ (1934), ‘कामना’ (1936) और ‘कमला’ (1939), उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ की ‘जय-पराजय’ (1937), ‘स्वर्ग की झलक’ (1940), ‘भंवर या आदिमार्ग’ (1943) और ‘उड़न’ (1945), गोविंद वल्लभ पंत की ‘अंगूर की बेटी’ (1937), ‘अन्तःपुर का छिद्र’ (1940), ‘सुहाग-बिंदी’ (1940) तथा ‘ययाति’ (1947), वृन्दावनलाल वर्मा की ‘राखी की लाज’ (1946) और ‘बांस की फांस’ (1947), रामनरेश त्रिपाठी की ‘जयंत’ (1934) और ‘बफाती चाचा’ (1939), भगवती प्रसाद वाजपेयी की ‘छलना’ (1939), नारायण विष्णु जोशी की ‘जागीरदार’ (1946), विराज की “विक्रमादित्य’ (1947) आदि के नाम उल्लेखनीय है।
आजादी के बाद का दौर
हिंदी साहित्य के इतिहास में, स्वतंत्रता प्राप्ति का वर्ष (1947) अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। वह केवल ऐतिहासिक उपलब्धि मात्र नहीं है, बल्कि देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक व साहित्यिक ढांचे को प्रभावित करने वाली एक क्रांतिकारी घटना है। नए परिवेश के कारण नई दृष्टि और नए बोध का उदय हुआ जिसके परिणामस्वरूप कथ्य और शिल्प के स्तर पर हिंदी नाटक ने पुरानी लोक से हटकर नयी सोच को विकसित करना शुरू किया। 1947 के बाद हिंदी नाटक सही अर्थों में आधुनिकता, प्रयोगधर्मिता, रंगधर्मिता, समसामयिकता, यथार्थवादिता, पश्चिमोन्मुखता और व्यक्ति विशेष क आभ्यंतरिक विशिष्टा की ओर तेजी से बढ़ा। नाटकों ने न केवल कथ्य के स्तर पर नवीन क्षितिज का संस्पर्श किया, बल्कि शैली, शिल्प और रंगमंच के धरातल पर भी आजादी के हिंदी नाट्य लेखक में नये मानदण्डों को अपनाया गया। स्वतंत्रता के बाद बड़ी संख्या में ऐसी नाट्य-कृतियों की रचना हुई, जिनमें व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं कई अन्य स्तरों पर व्याप्त विसंगतियों तथा विद्रुपताओं का चित्रण हुआ।
(i) जगदीशचंद्र माथुर
स्वतंत्रता के बाद हिंदी नाट्य-साहित्य में नए बौद्धिक परिवेश का प्रारम्भ सन् 1950 के आस-पास दिखलाई पड़ता है। यही वह प्रस्थान-बिंदु है जहाँ पर हिंदी नाटक अपनी अपूर्णता के बोध के साथ नवीन प्रयोगधर्मिता के लिए व्याकुल हो रहा था। इस सन्दर्भ में नाटककार जगदीशचंद्र माथुर को पूर्ववर्ती और परवर्ती नाटकों के बीच परम्परा व प्रयोग की सर्वप्रथम कड़ी कहा जाता है तथा स्वतंत्र्योत्तर रंगादोलन की उनकी रंग-कृति ‘कोणार्क’ (1951) का नाम सर्वप्रथम उभरकर सामने आता है। इसकी कथावस्तु ऐतिहासिक है किन्तु नाटककार ने इतिहास की स्थूल घटनाओं व देशकाल की बारीकियों का चित्रण नहीं किया है। उसके लिए तो इतिहास अपने विचारों को प्रकट करने का केवल एक माध्यम रहा है। इस नाटक में 13वीं शताब्दी में उड़ीसा के पूर्वी तट पर स्थित कोणार्क मंदिर के निर्माण व विध्वंस के माध्यम से कला एवं कलाकार के व्यक्तित्व का खूबसूरत विश्लेषण किया गया है। नाट्य-शिल्प और रंगचेतना की दृष्टि से यह नाटक अभूतपूर्व है। ‘शारदीया’ (1959) और ‘पहला राजा’ (1969) नाटककार जगदीश चंद्र माथुर की अन्य उल्लेखनीय कृतियाँ हैं। ‘पहला राजा’ पौराणिक-राजा पृथु के माध्यम से आधुनिक युग बोध का एक मार्मिक दृश्य प्रस्तुत करता है।
(ii) धर्मवीर भारती
धर्मवीर भारती का बहुचर्चित-बहुमंचित काव्य-नाटक ‘अंधा युग’ (1954) है। यह एक रंगानुभूति में ढली हिंदी नाट्य-साहित्य की एक ऐसी कालजयी क्लासिक कृति है जो आधुनिक भाव-बोध के साथ-साथ कथ्य की तीव्र व गहन अभिव्यक्ति तथा अपूर्व रंग सम्भावनाओं को लेकर प्रकट हुई। इस काव्य नाटक की कथा महाभारत युद्ध के अंतिम दिन की संध्या को लेकर लिखी गई है लेकिन पूरा नाटक पढ़ने व देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसमें समस्त मानव जाति की कालावधि को समाहित कर दिया गया है। युद्ध जन्य अंधी-संस्कृति व उससे उत्पन्न अनास्थावादी स्वरों को भारती अपनी मिथकीय निपुणता से अतीत एवं वर्तमान दोनों धरातलों पर एक साथ बांधते हुए अत्यंत प्रभावी ढंग से उद्घाटित करते चलते हैं। अंधा युग में मात्र धृतराष्ट्र ही अंधे नहीं हैं, बल्कि सारा युग ही अंधा है पथभ्रष्ट है, आत्महंता है- यह नाटक यहीं संदेश देता है।
(iii) मोहन राकेश
मोहन राकेश का नाम स्वांतत्र्योत्तर युग के नाटककारों में प्रमुख है। उन्होंने बहुत कम नाटक लिखे, लेकिन सर्वाधिक प्रसिद्ध और प्रतिष्ठा प्राप्त की। आषाढ़ का एक दिन’ (1951) उनका प्रथम नाटक है जिसने राकेश से न केवल हिंदी नाट्य-जगत परिचित हुआ, बल्कि वे एक महत्त्वपूर्ण व प्रतिबद्ध नाटककार के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए। कवि कालिदास के जीवन को आधार बनाकर लिखा गया यह नाटक हिंदी नाटक के इतिहास की एक सशक्त कड़ी है। ‘लहरों के राजहंस’ (1963) राकेश की दूसरी उल्लेखनीय नाट्य-रचना है जिसमें महात्मा बुद्ध के प्रभाव तथा पत्नी सुंदरी की भोगेच्छाओं के बीच द्वंद्व झेलते कपिलवस्तु के राजकुमार नंद की बेचैनी, चित्रित की गई है। नाटककार राकेश की अगली महत्त्वपूर्ण रचना है ‘आधे-अधूरे’ जो उनकी नाट्य-रचनाओं में सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद होने के साथ ही हिंदी नाटकों के इतिहास में ‘मील का पत्थर’ भी है। राकेश का यह नाटक पाठकों व दर्शकों में इतना लोकप्रिय हुआ कि यह लगातार और बार-बार मंचित होता रहा है। कथ्य के धरातल पर यह नाटक महानगरीय जीवन में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवार के जीवन के अंतर्विरोधों और अनियंत्रित विसंगतियों- ‘अधूरेपन में पूरेपन को खोजन के प्रयास’ को बड़ी कुशलता से रूपायित करता है। ‘पैर तले की जमीन’ (1957) राकेश का अंतिम और अधूरा लिखा नाटक है जिसे बाद में प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ने पूरा किया। इसका पूरा मसौदा राकेश ने अपनी डायरी में लिख रहा था, जो कि ‘नटरंग’ के 21वें अंक में छपा है। यह अंक मोहन राकेश को समर्पित है।
सर्वाधिक नाटक लिखने वालों में लक्ष्मीनारायण लाल का नाम भी प्रमुख है। ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी नाट्य-जगत और रंगक्षेत्र में श्री लाल का उल्लेखनीय योगदान रहा है। वे एक अभिनेता, निर्देशक, रंगकर्मी और नाट्य-समीक्षक भी थे। ‘मादा कैक्टस’ (1959) जैसी श्रेष्ठ प्रतीकात्मक कृति से नाट्य-जगत में प्रवेश करने वाले डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने एक और मनोविज्ञान से जुड़े ‘रातरानी’ (1962), ‘दर्पण’ (1964) जैसे नाटकों की रचना की, तो दूसरी ओर सामाजिक समस्याओं, बदलते जीवन-मूल्यों से संबंधित ‘रक्तकमल’ (1962), ‘कप!’ (1972), ‘अब्दुल्ला दीवाना’ (1973), ‘व्यक्तिगत (1975), ‘कजरीवन’ (1980), ‘लंकाकांड’ (1980) की। उन्होंने मिथकों का सहारा लेते हुए ‘कलंकी’ पौराणिक कथाओं पर आधारित ‘सूर्यमुख’ (1968), ‘यक्ष प्रश्न’, ‘नरसिंह कथा’, ‘राम की लड़ाई’ आदि नाटक लिखे।
(iv) सुरेंद्र वर्मा
स्वातंत्र्योत्तर युग में मोहन राकेश के पश्चात जिस नाटककार के नाटकों ने प्रेक्षकों, रंग-समीक्षकों और नाट्य-निर्देशकों का ध्यान सर्वाधिक आकर्षित करते हुए पर्याप्त प्रसिद्धि व प्रतिष्ठा प्राप्त की, उनका नाम है सुरेन्द्र वर्मा । वस्तुतः नाटककार सुरेन्द्र वर्मा अपने नाटकों में कई धरातलों- कथ्य, शिल्प, संवाद रचना और आधुनिकता बोध के स्तर पर मोहन राकेश की याद दिलाते हैं। सुरेन्द्र वर्मा के अधिकांश नाटक इतिहास का आधार लेकर निर्मित हुए हैं। एक विशिष्ट अभिजात वर्ग के संस्कार, ऐतिहासिकता, भावात्मक व रूमानियत वातावरण, आंतरिक जटीलता, स्त्री-पुरुष के काम-संबंधों का संसार और आधुनिक मानवी संवेदनाएँ उनके नाटकों की मुख्य प्रवृत्ति हैं। 1970 में नटरंग में प्रकाशित सुरेन्द्र वर्मा का ‘द्रौपदी’ समकालीन परिवेश में आज का मानव किस प्रकार टुकड़ों में बंटकर कई जिंदगियों को जीता हुआ कुंठित होता है, इसका दर्शन करते हुए बदलते जीवन-मूल्यों और काम-संबंधों पर प्रकाश डालता है। ‘सेतुबंध’ (1972), ‘नायक खलनायक विदूषक’, ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ (1975), ‘आठवाँ सर्ग’ (1976), ‘छोटे सैयद बड़े सैयद’, ‘एक दूनी तक’ (1987), ‘कैद-ए-हयात’ (1993) जैसे अन्य कई नाटकों द्वारा एक सार्थक हस्तक्षेप करते हुए नाटककार सुरेन्द्र वर्मा ने न केवल हिंदी नाट्य-साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि उसे एक नयी रंग चेतना से भी समृद्ध किया।
निष्कर्षतः
हिन्दी नाट्य साहित्य का आरंभ लगभग 19वीं शताब्दी में हुआ। संपूर्ण हिंदी नाट्य साहित्य को अध्ययन के सुविधा के लिए विविध युगों में विभाजित किया गया है। हिंदी नाटक के मंच पर प्रसाद के आर्विभाव से एक नया अध्याय जुड़ा उन्होंने हिन्दी नाट्यसृजन को एक नयी शैली दी। आगे चलकर हिन्दी नाटकों में जो वस्तुगत तथा शैली-शिल्पगत प्रयोग किए गए उन सभी विषयों पर हमने विस्तारपूर्व चर्चा की।