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नयी कविता: परिवेश एवं प्रवृत्तियाँ

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नयी कविता : सामान्य परिचय

आधुनिक हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत जब दूसरा सप्तक (1951) में प्रकाशित हुआ लगभग उसी समय में नयी कविता जैसे प्रयोग होने लगा था। बाद में 1954 में डॉ. रामविलास शर्मा ने इसी नाम को स्वीकृति प्रदान की जो वास्तव में नयी कविता नामक पत्रिका के प्रकाशन के कारण हुआ। तीसरा सप्तक (1959) तक आते-आते स्वयं अज्ञेय भी प्रयोगवाद के स्थान पर नयी कविता लिखना अधिक उपयोगी मानने लगे। प्रयोगवाद को इस प्रकार समाप्त होने को लेकर डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी के विचार महत्त्वपूर्ण हैं- “कुल मिलाकर प्रयोगवाद से अधिक बल कविता के शिल्प तथा विधान पर दिया गया था परंतु जीवन के संदर्भ में उसका अपना कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं था.. इतने लम्बे समय तक प्रयोग की स्थिति बनाये रहना प्रवित्तगत अस्थिरता का द्योतक होता है।”

          नयी कविता शब्द का प्रयोग सबसे पहले संभवतः अज्ञेय जी ने ही 1952 की अपनी एक रेडियो वार्ता में किया था। बाद में उन्होंने बताया था कि वे प्रयोगवाद से आरम्भ से ही सहमत नहीं थे। वह तो प्रगतिवाद की तर्ज पर चल निकला। इस नाम को स्थापित कर देने में जगदीश गुप्त, विजयनारायण शाही, रघुवंश, धर्मवीर भारती, रामस्वरूप चतुर्वेदी और लक्ष्मीकान्त वर्मा जैसे साहित्यकार थे। इन रचनाकारों का यह मानना था कि स्वतंत्रता के बाद भी परिस्थितियाँ असामान्य ही रही है, विकास असंतुलित है मध्यवर्गीय बुद्धि-जीवी निराश और कुण्ठित है तथा राष्ट्रीय स्तर पर हम भीतर और बाहर दोनों रूपों से कमजोर हुए हैं। इस भयानक उहापोह की पृष्ठभूमि में यह कविता प्रकट हुई, वह भी तब तक अस्तित्ववाद जैसे दर्शन को मान्यता मिलने लगी थी और लोग आधुनिकतावाद की चर्चा करने लगे थे। इस दौर में मूल्य और आदर्श अपना आपा खोने लगे थे और पूँजीवादी व्यवस्था ने नयी समस्या खड़ी कर दी थी। ऐसे में वह कविता एक ओर तो अस्तित्ववाद को पकड़े हुए थी, वहीं दूसरी ओर वह मार्क्सवाद का हाथ नहीं छोड़ पायी थी।

नयी कविता स्वरूप-

नयी कविता में व्यक्ति को स्वतन्त्रता का स्वर प्रमुख दिखाई पड़ा है। इन कवियों ने नये मनुष्य की कल्पना की जिसका मध्यवर्गीय होना अनिवार्य माना गया। लक्ष्मीकान्त वर्मा ज से कवि तो व्यक्ति की एकान्त-प्रियता को महत्त्व देते हैं जबकि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एकांकी मनुष्य के द्वन्द को उभारते हैं। इस आधार के विकास में आस्था और अनास्था पर भी पर्याप्त चर्चा हुई। कवि खुल कर यह मानते हैं कि, “अनास्था आज का युग सत्य है यह कविता झूठी रूढ़ियों और आस्थाओं की विरोधी तो है ही किन्तु साथ ही व्यक्ति के निजी विवेक पर उसकी आस्था बनी हुई है।” अपनी रचनाओं में आस्था विहीनता को इस प्रकार प्रकट करते हैं-

                    “यह आत्महत्या होगी प्रतिध्वनित
                    इस पूरी संस्कृति में,
                    दर्शन में, धर्म में, कलाओं में
                    शासन व्यवस्था में
                    आत्मघात होगा बस अन्तिम लक्ष्य मानव का।”

          भारतवर्ष में होने वाले औद्योगिकरण ने समाज के साथ-साथ साहित्य को भी प्रभावित किया। पारिवारिक ढाँचों का बिगड़ना और जीवन मूल्यों में क्रान्तिकारी परिवर्तन होना हमारे लिए अकल्पनीय घटनाएँ थीं, किंतु औद्योगिकता की भरपूर आलोचना भी इस कविता में मिलती है क्योंकि अज्ञेय जैसे कवि का यह मानना है कि यन्त्र व्यक्ति को केवल सुविधाएँ ही नहीं देता, वरन उसकी संवेदन शक्ति को छीन लेता है। कुँवर नारायण की रचना परिवेश हम तुम में यन्त्रों से होने वाली घबराहट इस प्रकार व्यक्त करते हैं-

                    “पत्थर के देव और लोहे का दानव
                    अपनी जरूरतों को कोड़ों से पिटवाया।”

          स्वानुभूति नयी कविता का एक विशेष गुण है। क्योंकि ये रचनाकार यह मानते हैं कि प्रत्येक कवि का सौन्दर्यबोध भिन्न होता है। प्रकृतिपरक रचनाएँ भी इस अवधि में खुब लिखीं गयीं। नदी, पहाड़, घास, मैदान सभी चीजों को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत किया गया। केदारनाथ सिंह की कविताओं में प्रकृति के दृश्य चित्र महत्त्वपूर्ण है तो वहीं शमशेर की कविताओं में प्राकृतिक बिम्ब मानसिक प्रतीक जैसे बन जाते हैं-

                    “एक पीली शाम
                    पतझड़ का जरा अटा हुआ पत्ता
                    कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारें कहीं।”

          नयी कविता संबंधी यह विवेचन यह बताता है। इस में कविता का कोई एक निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया है यद्यपि साथ ही यह सत्य है कि यह कविता अपने युग के साथ भली-भाँति जुड़ी हुई है, भले ही अभिव्यक्ति की शैलियाँ पृथक् हो।

प्रयोगवाद और नयी कविता

          नयी कविता आंदोलन का ‘प्रयोगवाद’ से निकट का रिश्ता है किंतु नयी कविता को प्रयोगवाद का पर्याय मानना गलत है। बहुत से लोग नयी कविता की शुरुआत 1943 ई. में अज्ञेय के सम्पादकत्व में निकले ‘तार सप्तक’ से मानते हैं। ऐसे भी विद्वान हैं जो ‘नयी कविता’ का आरंभ पन्त और उनके ‘रूपाभ’ (1938) से जोड़ते हैं और कुछेक ‘निराला’ के काव्य ‘कुकुरमुत्ता’ (1942) के नवीन काव्य-बीजों में नयी कविता के बीज खोजते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि सन् 1942-43 में पन्त, नरेन्द्र, केदार, शमशेर कविता की जिस धारा के कवि हैं, ‘तारसप्तक’ उसमें प्रवाह की एक लहर है, नदी का स्थिर द्वीप नहीं। शायद नयी कविता पचास वर्षों में सर्वाधिक विवादास्पद और विचारोत्तेजक साबित हुई है। कविता संबंधी चिंतन के अधिकांश विवाद के केन्द्र में किसी न किसी रूप में ‘तार सप्तक’ ही है, वर्षों तक ‘तार सप्तक’ के ‘प्रयोग’ और ‘अन्वेषण’ पर करारी बहसें हुई, जिसका इस्तेमाल अज्ञेय ने भूमिका में किया था। प्रयोग से ‘प्रयोगवाद’ नाम चलाया गया और इस नाम पर तूफान खड़ा हो गया। अज्ञेय ने बार-बार कहा कि प्रयोग को कोई वाद नहीं है, इस वादी नहीं है, पर आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने इन प्रयोगशील कवियों की ‘प्रयोगवादी’ कहा और इनका घोर विरोध किया, पर विरोध से अज्ञेय कब डरने वाले थे- अज्ञेय ने दूसरा ‘सप्तक’ की भूमिका में आचार्य श्री के आक्षेपों का उत्तर दिया और पूरी काव्य-स्थिति को नए वैचारिक कोणों से स्पष्ट किया।

          वस्तुतः आगे चलकर प्रयोगवाद और प्रगतिवाद जिस नए काव्य-आंदोलन में घुल-मिल गए- “वह नयी कविता है।” और महीन-भेद उभरने पर दो तरह की  ‘नयी कविता’ हो गई- ‘आधुनिकतावादी नयी कविता’- प्रवर्तक अज्ञेय, दूसरी साम्यवादी-जनवादी-प्रगतिशील नयी कविता-प्रवर्तक मुक्तिबोध।

          अंग्रेजी कविता में टी.एस. इलियट और एजरा पाउण्ड “एण्टी रोमांटिक” उठान लेकर आए। यहाँ तक की पुरा “न्यू क्रिटिसिज्म” या नयी समीक्षा का आंदोलन रोमांटिक काव्य-मूल्यों के निषेध की पुकार लगता आया। कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति हिंदी काव्य में भी दिखाई देती है- पूरा प्रयोगवाद और नयी कविता आन्दोलन रोमांटिक मूल्यों के निषेध पर बल देता है। ‘तारसप्तक’ के वक्तव्य अपनी गहराई में बिंबवादी ह्यूम, एजरा पाउण्ड और टी.एच. इलियट के काव्य-सिद्धांतों की ध्वनियाँ लिये हुए दिखायी देते हैं। प्रश्न उठता है कि प्रयोगवाह में ‘राहों के अन्वेषण’ का क्या अर्थ है? इसका संभव उत्तर यही है कि कठिन होते कवि-कर्म की समस्या से जुझते हुए “संप्रेषणीयता” के मार्गों का अन्वेषण अन्वेषण यह कि राह शब्दों-बिंबों-प्रतीकों-लयों के बोध से निकाली जा सकती थी। इसीलिए ये सभी कवि शिल्प या रूप-विधान की ओर बढ़ते गए। इन कवियों की प्रयोगात्मक वृत्ति ने उन तमाम रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष किया जो आधुनिक जीवन की गहन जटिल मन:स्थितियों- अनुभूतियों को मूर्त करने में बाधक हो रही थीं। शिल्प पर ज्यादा बल देने के कारण ही प्रयोगवाद को रूपवादी (फार्मलिस्ट) कहा जाता है। पर नयी कविता ने प्रयोगवाद के इस रूपवादी-चमत्कारी मोह से विद्रोह किया है। इस दृष्टि से प्रयोगवाद तथा नयी कविता पर्याय नहीं है- दो भिन्न दृष्टि के काव्य-आंदोलन हैं। प्रयोगवाद और नयी कविता के वस्तु और रूप का नया काव्य-मुहावरा सन् 1960 तक पहुँचते-पहुँचते अपना आकर्षण खोने लगा।

          अस्तित्ववाद, आधुनिकतावाद, क्षणवाद से भी पाठक उबने लगे। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध ने नेहरू युग का जंजाल समाप्त कर दिया। अकविता, भूखी पीढ़ी की कविता, पोस्टर कविता, युयुत्सावादी कविताओं के नारे उठे। युवा कवियों ने नई तरह की कविता, नए युग-यथार्थ को लेकर लिखी, जिसे बाद में किसी अन्य सही नाम के अभाव में “समसामयिक कविता” कह दिया गया। नयी कविता ने व्यंग्य-वक्रोक्ति की प्रवृत्ति को निर्भयता से अपनाया और उसे व्यवस्था या सत्ता-विरोध की ताकत दी। नयी कविता की उपलब्धियाँ अर्थ-भूमि के विस्तार में देखी जा सकती है और सीमाएँ रूपवादी-कलावादी रूझानों में झाँकती मिलती हैं। कुछ भी हो, प्रयोगवाद और नयी कविता ने पुरानी सौंदर्याभिरुचियों को बदलने-परिष्कृत करने के साथ हिंदी पाठक की चेतना को जीवन-जगत् के नए सत्यों से जोड़े रखा है।

नयी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

          प्रगतिवाद और नयी कविता एक ओर तो द्वितीय विश्व युद्ध की भयावह चेतना से दूसरी और स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद के परिवेश से प्रभावित और आंदोलित रही है। अस्तीत्ववाद-आधुनिकतावाद मार्क्सवाद और गांधी-लोहियावाद के विचारों ने इन रचनाकारों ने एक ऐसी अंतर्दष्टि उत्पन्न की है जो जीवन जगत् के गतिशील और जटिल यथार्थ को नए कोणों से अभिव्यक्ति देती है।

          मनोविश्लेषणशास्त्र और अस्तित्ववाद के प्रभाव-दबाव ने मानव की निराशा-पराजय-मृत्युबोध को रचना में ढाला। मध्य वर्ग की आकांक्षाओं-आशाओं ने काव्य-सृजन में शहरीकरण से उत्पन्न समस्याओं के साथ संस्कृति तथा परम्परा के भीतर से निकली आधुनिकता-बोध की प्रक्रिया और व्यक्ति के आत्म-निर्वासन की पीड़ा को तीव्र किया है। पुराने मूल्यों के मोह-भंग ने इस कविता में राजनीति और व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र को व्यंग्य-वक्रोक्ति, विसंगति और विडम्बना की काव्य-भाषा में इस ढंग से उजागर किया है कि पूरे परिवेश की समझ पैदा होती है। इस काव्य-धारा की प्रमुख विशेषताओं या प्रवृत्तियों को इस प्रकार निरूपित किया जा सकता है

1.   काव्य संबंधी पुरानी अवधारणा में बदलाव- इन रचनाकारों ने काव्य से संबंधित पुरानी अवधारणा से असहमती व्यक्त करते हुए नए काव्य-चिंतन की प्रवृत्ति को खुलकर बढ़ावा दिया। अज्ञेय ने कहा कि युग-परिवर्तन के साथ हमारे रागात्मक संबंध बदल गए हैं। जीवन-जगत् को देखने की दृष्टि के बदलाव ने राग-बोध को परिवर्तित कर दिया है। आज की कविता “मूलतः अपने को अपनी अनुभूति से पृथक् करने का प्रयत्न है, अपने ही भावों के निर्वैयक्तीकरण की चेष्टा।” आत्मभिव्यक्ति नहीं है, आत्म से पलायन है। नकेनवादी मानते थे कि कविता जटिल अनुभूतियों-संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। अनुभूति के जटिलता और भाव-सम्प्रेषण की समस्या ओ नयी कविता के सभी कवियों ने बार-बार उठाया। केदारनाथ सिंह ने कविता को एक विचार-एक अनुभूति- एक दृश्य और इन सबका कलात्मक संगठन मानकर बिंब-सिद्धान्त का संकेत दिया। अंत में विजय देवनारायण साही ने काव्य-संवेदना की बदलती हुई प्रवृत्ति के कारण का संकेत देकर कहा कि नयी कविता की बहसों में यह मान्यता अंतर्भूत रही है कि न सिर्फ कविता का कलेवर बदला है बल्कि गहरे स्तर पर काव्यानुभूति की बनावट में ही अंतर आ गया है।

2.  काव्य की अर्थ-भूमि का विस्तार और व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल- छायावाद ने अर्थ का संकोच कर दिया था और प्रगतिवाद काव्य विचार की फार्मूले की तरह आरोपित करने के कारण समग्र जीवन-जगत की चिंताओं से हटकर एकांगी हो गया था। पूरी स्थिति को समझने के बाद प्रयोगवाद और नयी कविता ने समग्र-मानव को सृजन के केन्द्र में स्थापित किया। उनके लिए न कोई विषय वर्जित है- न कोई विषय अछूत। गली के अँधेरे कोने में खड़े छोटे पौधे का सौंदर्य भी कवि को आकृष्ट कर सकता है। सुंदर और कुरूप, पूरा जीवन नयी कविता में काव्य-विषय, काव्य-वस्तु बना है। हर विषय को वस्तु बनाकर इन कवियों ने काव्य-सृजन किया। फलतः अर्थ-भूमि का विस्तार इनकी एक विशिष्ट प्रवृत्ति रही है। नयी कविता ने व्यक्ति-स्वातंत्र्य की चर्चा भी बार-बार की और कहा कि हम मानव की स्वतंत्रता के पक्षधर है। मध्यवर्ग की स्वतंत्रता के नाम पर व्यक्ति की आस्था और अनास्थाओं की सजग अभिव्यक्ति की गई। अकेला पीड़ित मानव और समूह मानव दोनों पर विवाद भी कम नहीं हुआ। अज्ञेय-मण्डल के रचनाकारों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य पर बल दिया। उनका तर्क था कि स्वाधीन मानव ही स्वाधीन चिंतन कर सकता है- किसी तरह का पराधीनता का शिकार मानव स्वाधीन व्यक्तित्व का निर्माण नहीं कर सकता।

3.   अनुभूति की ईमानदारी और प्रामाणिकता- प्रयोगवाद और नयी कविता के सृजन दौर में अनुभूति की ईमानदारी और प्रामाणिकता पर सर्वाधिक ध्यान मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर ने दिया। ‘दूसरा सप्तक’ की समीक्षा करते हुए प्रभाकर माचवे ने “कवि-कर्म की ईमानदारी” को काव्य-मूल्य के रूप में घोषित कर दिया। अनुभूति की ईमानदारी का दावा नयी कविता से पहले के कवि भी कम नहीं करते हैं, फिर भी नयी कविता में “ईमानदारी का क्या अर्थ? छायावाद और प्रगतिवाद के कवियों की ईमानदारी पर प्रयोगवाद और नयी कविता ने संदेह व्यक्त किया और कहा कि छायावादी कवि में ‘करुणा’ और प्रगतिवादी कवियों का ‘जन-वेदना’ का नारा झूठा था- कोरी ‘बौद्धिक सहानुभूति’ मात्र छलना है। रघुवीर सहाय ने कहा कि काव्य-सृजन का “ईमानदारी एक मौलिक गुण है और उस बौद्धिक स्तर का पर्याय है जिस पर आकर हमारा तर्क, पूर्वाग्रह और व्यक्तिगत रुचि के ऊपर उठ जाता है और जिस पर आकर हममें वस्तुओं की वास्तविकता का सही अनुभव होता है। वह उस चेतना के पहले की चीजें हैं जो ज्ञान को क्षेत्रों में विभाजित करती है। जैसे ज्ञान एक है वैसे ही ईमानदारी भी समस्त एक है।” अनुभूति यदि अखण्ड और सच्ची है तो वह वस्तुओं के भीतर से निकलती है मात्र छू कर नहीं छोड़ जाती। नयी कविता पर जब लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘नयी कविता के प्रतिमान’ पुस्तक लिखी तब उन्होंने ‘अनुभूति’ के साथ ‘प्रामाणिकता’ का प्रश्न उठानाया। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्तर पर मुक्तिबोध ने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी पर दो किस्तों में चर्चा की। उनके विचार से व्यक्तिगत ईमानदारी का एक अर्थ है, जिस अनुपात में, जिस मात्रा में जो भावना या विचार उठा है उसको उसी मात्रा में प्रस्तुत करना। उनके अनुसार सच्ची ईमानदारी का अर्थ है- “वस्तु का वस्तुमूलक आकलन करते हुए लेखक उस आकलन के आधार पर वस्तु-तत्त्व के प्रति सही-सही मानसिक प्रतिक्रिया व्यक्त करे।” नयी कविता के ज्यादातर कवि ईमानदार अनुभूति की राह पर चले। श्रीकांत वर्मा ने लिखा-

                    “मैं गौर से सुनता हूँ
                    औरों के रोने को
                    कोशिश की, नहीं हुआ”

4.  कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता- नयी कविता में जीवन के प्रति आस्था है। जीवन को इसके पूर्ण रूप में स्वीकार करके उसे भोगने के लालसा है। नयी कविता ने जीवन के रूप में देखा, इसमें कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की। नई कविता किसी बाद में बंध कर नहीं चलती। इसलिए अपने कथ्य और दृष्टि में विस्तार पाती है। नयी कविता का धरातल पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं से व्यापक है, इसलिए उसमें विषयों की विविधता है। एक अर्थ में वह पुराने मूल्यों और प्रतिमानों के प्रति विद्रोही प्रतीत होती है और इनसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल रहती है। नयी कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है। यदि ये मात्र फारमूले हैं, मात्र ओढ़े हुए हैं और जीवन की नवीन अनुभूति, जीवन चिंतन, नवीन गति मार्ग में आते हैं। इनमान्य फारमूलों को, मूल्यों की विद्यातक असंगतियों को अनावृत करना सर्जनात्कता से असंबद्ध नहीं है, वरन् सर्जन की आकुलता ही है। नयी कविता के कवियों में से अधिकांश प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के खेमों में रह चुके थे। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद अपेक्षा अधिक व्यापक मानवीय संदर्भ, उसकी समस्याएँ और विज्ञान के नए आयाम से जुड़ कर नयी कविता ने अपना विषय विस्तार किया। आम आदमी जिस पीड़ा को झेलता है, औसत आदमी (मध्य-वर्गीय) जिस जीवन को जीता है, वही लघु मानव इस कविता का नायक बनता है। उसे इतिहास ने अब तक अपने से अलग ही रखा है। इसलिए नयी कविता उसकी पीड़ा अभाव और तनाव झेलती है।

                    “तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे
                    और न उस कराह का
                    जो तुमने उस रात सुनी
                    क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है।”

          मनुष्य के भीतर मानवता काअंश शहर-दंश से कैसे नष्ट हो जाता है और  वह स्वार्थ के संकीर्ण संसार में जीवित रहने के लिए कैसे विवश कर दिया जाता है, अज्ञेय ने इसी पीड़ा को कविता में यूं कहा किया है “बड़े शहर के ढंग और है, हम गोते है यहाँ दाँव गहरे हैं उस चोपड़ के।”

5.  विसंगतियों का बोध- नयी कविता मानव-नियति को लेकर उसकी विसंगतियों के प्रति जागरूक रहती है। भारतीय राजनीति में निरंतर जो विसंगतियाँ उभरी है, सामाजिक और आर्थिक धरातल पर जो विरोधाभास आया है, उसे यह कविता मोह भंग की स्थिति में उजागर करती है। यही कारण है इसमें आक्रोश, नाराजगी, घृणा और विद्रोह उभर आता है। आक्रोश के साथ निषेध के तेवर भी इसमें देखे गए हैं-

                     “आदमी को तोड़ती नहीं हैं
                     लोकतांत्रिक पद्धतियाँ
                    बना लेती है।”

6.   द्वंद्व और संघर्ष- नयी कविता का आत्मसंघर्ष काव्यात्मक बनावट में सामाजिक बुनियादी बुद्दों को उठाता है। आज की व्यवस्था में और उस व्यवस्था से जुड़े हुए प्रश्नों में कविता संघर्ष का मार्ग ढूँढ़ती है। उसका धरातल भी व्यापक है। यह संघर्ष आत्मीय प्रसंगों में भी उभरता है। उसमें सामाजिक और मानवीय व्यापार संदर्भ उभरते हैं। ये कविताएँ विषमता से जुझती है और नया रास्ता सूझाने का प्रयासकरती है। परिस्थितियों को बदलने और उनसे बाहर निकालने की छटपटाहट इनमें देखी जाती है। वह समस्याओं को पहचानती है-

                    “जब भी मैंने उनसे कहा है कि देश शासन और
                    राशन… उन्होंने मुझे रोक दिया है
                    वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
                    उंगली रखने से मना करते हैं।”

7.   व्यंग्य के तेवर- नयी कविता ने व्यंग्य के तेवर को अधिक पैना और धारदार बनाया। समस्याओं को समझकर उसने इस पर व्याख्यान करने की अपेक्षा उसे कसे हुए सीधे शब्दों में प्रकट किया। यह व्यंग्य भी विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति पाता है और इसका क्षेत्र भी व्यापक हो जाता है। किसी भी क्षेत्र में हो रहे शोषण फिर चाहे वह राजनीतिक हो या धार्मिक व्यक्ति अथवा समाज आदर्श हो या यथार्थ सब पर व्यंग्य की पैनी चाल चली है-

                    “बड़े-बड़े आदर्श वाक्यों को
                    स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर
                    अर्ध्य दो।”

8. सौंदर्यबोध- नयी कविता का सौंदर्य-शास्त्र और उसका सौंदर्यबोध निश्चय ही अनेक संदर्भो में व्यापक हुआ है। उसमें सच्चाई-टकराव और मोहभंग की स्थिति नई चेतना के रूप में आई है। यह कविता आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों से भी अब परहेज नहीं करती। इसमें फिर से पेड़-पौधे, पक्षी, बच्चे, माँ, गाँव, शहर, वतन, रोमांस, प्रेम, प्रकृति-चित्रण आदि का समावेश हुआ। इससे अनुभूति को नए पंख लगे और उसने काव्य में नए रूप धरे।

9.  काव्यरूप- इन सभी कवियों ने सभी प्रचलित काव्य-रूपों में या तो सुधार किया है या फिर सर्वथा नूतन काव्य-रूपों का खुलकर प्रयोग किया है। पुराने प्रबंध-काव्य के “अखण्ड कथात्मकता और अखण्ड रसात्मकता वाले रूढ़ ढाँचे को तोड़कर एक नवीन प्रबंध-चेतना को विकसित किया। धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ और कुँवर नारायण की ‘आत्मजयी’ को पुराने ढंग का प्रबंध काव्य नहीं कहा जा सकता। इस दौरमें प्रबंध का स्थानापन्न ‘नयी लम्बी कविताओं’ को बनाया गया। मुक्तिबोध तो लम्बी नाटकीय कविताओं के सफल कवि के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। ‘ब्रह्म राक्षस’ तथा ‘अँधेरे में’ जैसी कविताएँ फैण्टेसी काव्य-रूप का ऐसा एकाग्र और सार्थक उपयोग करती है कि विचार- शृंखला के विस्तार में एक गहरी अंतर्योजना की प्रतीति होती है। इस दौर के सभी कवियों ने विचार-केंद्रित लम्बी कविताएँ लिखी है। दूसरी ओर नयी कविता में छोटी, कसी कविताओं का काव्य-रूप ‘हीरे के क्रिस्टल’ की तरह है जिसमें कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ भरा गया है। शमशेर, अज्ञेय, भवानी भाई, रघुवीर सहाय आदि ने जापानी काव्य-रूप हाइकू, अंग्रेजी की “ड्रेमिटिक पोयट्री” तथा गाँव में मौजूद कजली-लावनी-आल्हा के काव्य-रूपों को नए साँचे में ढाला है। काव्य-रूपों का नया प्रयोग इस सर्जनात्मकता की अपनी शक्ति बना है। फलतः गजल-नवगीत, काव्य-नाटक के नए रूप नयी कविता की सर्जनात्मकता को नया परिप्रेक्ष्य देते हैं।

10.  काव्य भाषा- नए कवियों ने काव्य-भाषा पर विचार करते हुए भाषा और काव्य-भाषा के अंतर को समझा-समझाना तथा माना कि “भाषा जितनी ही सर्जनात्मक होगी कलाकृति उतनी ही विशुद्ध एवं प्रामाणिक होगी।” अज्ञेय ने नये सौंदर्य-बोध तथा नए सत्यों की अभिव्यक्ति के लिए ‘पुरानी भाषा को अपर्याप्त’ मानकर नया भाषा-संघर्ष शुरू किया। साथ ही, सम्प्रेषण-व्यापार तथा साधारणीकरण का प्रश्न भाषा के संदर्भ में उठाते हुए कहा कि “विशेष ज्ञानों के इस युग में भाषा एक रहते हुए भी उसके मुहावरे अनेक हो गए हैं।” भाषा का बदलता हुआ रूप नए कवि को यह सोचने के लिए विवश्व करता है कि “जरा भाषा के मूल प्रश्न पर शब्द और उसके अर्थ के संबंध पर ध्यान दीजिए। शब्द में अर्थ कहाँ से आता है, कैसे बदलता है, अधिक या कम व्याप्ति पाता है?” भाषा में लगातार प्रयुक्त होने वाले शब्दों को निरंतर बरतने से उनका अर्थ-चमत्कार भर जाता है और चमत्कारिक अर्थ अभिधेय बनता रहता है। यों कहें कि कविता की भाषा निरंतर गद्य की भाषा होती रहती है। इस प्रकार कवि के सामने हमेशा चमत्कार सृष्टि की समस्या बनी रहती है- वह शब्दों को निरंतर नया संस्कार देता चलता है और वे संस्कार क्रमशः सार्वजनिक मानस में पैठ कर फिर ऐसे हो जाते हैं कि उस रूप में कवि के काम के नहीं रहते। “वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है। अपनी शब्द-प्रयोग-शक्ति से कवि उस अर्थ की प्रतिपत्ति करता है जो पुनः रागात्मक संबंध स्थापित कर सके। साधारणीकरण का अर्थ भी यही है। कवि भाषा-प्रयोग विधि की ताकत से नए सत्यों को सम्प्रेक्ष्य बनाकर उनका साधारणीकरण करता है- साधारणीकरण का अर्थ है भाषा का भावमय प्रयोग। किसी भी युग की सृजन क्षमता को हम काव्य-भाषा से ही समझ सकते हैं क्योंकि वही एकमात्र विश्वसनीय माध्यम और आधार है। सभी नए कवियों ने काव्य भाषा की सर्जनात्मकता पर विशेष ध्यान केंद्रित किया। वादों-वायदों से भ्रष्ट भाषा की ओर रघुवीर सहाय ने संकेत देकर कहा कि नए शब्दों को खोजने और रचने का और है कि पूरे अनुभव की वास्तविकता का बोध और सम्प्रेषण। ‘नया शब्द’ शीर्षक उनकी कविता नयी कविता के सभी कवियों की मंशा का प्रतिनिधित्व करती है

                    “शब्द अब भी चाहता हूँ
                    पर वह कि जो जाए वहाँ वहाँ होता हुआ
                    मुझको उठाकर निशब्द दे देता हुआ।”

          अतः नयी कविता में काव्य-भाषा की सर्जनात्मकता ‘जीवन की आग’ में रूपांतरित हो गई है।

11.  प्रतीक- नयी कविता ने नवीन और प्राचीन दोनों तरह के प्रतीक चुने हैं। परम्परागत प्रतीक नए परिवेश में नए अर्थ के साथ प्रयुक्त हुए हैं। नए प्रतीकों में भेड, भेड़िया, अजगर जैसे शब्दों को जनता, सत्ताधारी वर्ग, व्यवस्था आदि के प्रतीक रूप में प्रयोग किए गए हैं। पृथ्वी, पहाड, सूरज, चाँद, किरण, सायं, कमल आदि परम्परागत अर्थ से हटकर नए अर्थों में प्रयुक्त हुए है। मुक्तिबोध के प्रतीक वैज्ञानिक जीवन से लेकर आध्यात्मिक क्षेत्र तक फैले हैं। ओरंग-उटांग तथा ब्रह्मराक्षस जैसे प्रतीक बहुत ही सटीक और समर्थ है। पीपल का वृक्ष भी उनका विशेष प्रिय प्रतीक रहा। मौसम शब्द भी प्रतीक बनकर वर्तमान परिवेश को अर्थ देता है

                    छिनाल मौसम की मुर्दार गुटरगूं”

12.  बिंब- नयी कविता में बिंब कविता की मूल छवि बन गए हैं, अपनी अंतर्लयता के लिए इसमें बिंब बहुलता हो गई है। कवियों ने इन बिंबों को जीवन के बीच से चुना है। व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों तरह के बिंब इस कविता में है। पौराणिक और ऐतिहासिक बिंब नए अर्थ और संदर्भ में लोक-संपृक्ति के साथ उदित हुए हैं। शहरी कवि के बिंब विशेषतया नागरिक जीवन के और ग्रामीण जीवन के संस्कारों से युक्त कवि बिंब विशेषतया गाँव के होते हैं। जीवन के नए संदर्भो में उभरने वाली अनुभूतियों, सौंदर्य-प्रतीतियों और चिंतन आयामों से संपृक्त बिंब नई कविता ग्रहण करती है-

                    “शाखों पर जमें धूप के फाहे
                    गिरते पत्तों से पल ऊब गये
                    हकाँ दी खुलपेन ने फिर मुझको
                    लहरों के डाक कहीं डूब गये।” – केदारनाथ सिंह

                    “बँधी लीक पर रेले लादे माल
                    चिहुँकती और रंफाती अफराये डगर सी” – अज्ञेय

13.  उपमान- नयी कविता में जहाँ अलंकारों का बहिष्कार हुआ, वहीं उपमान के नए प्रयोग से उसका शिल्प नव्य चेतना को यथार्थ अभिव्यक्ति देने में समर्थ हो गया। ‘लुकमान अली’ और ‘मोचीराम’ जैसे लंबी कविताओं के शीर्षक ही उपमान बनकर आते हैं और आदमी की व्यथा का इतिहास प्रकट करते हैं। नयी कविता में आटे की खाली कनस्तर जैसी चीजें भी उपमान बनती है।

                    “प्यार इश्क खाते हैं ठोकर
                    आटे के खाली कनस्तर से।”

14.  छंद और लय- नये कवियों का प्रयोजन छंदशास्त्र का निर्माण नहीं, बल्कि रचनागत कविताओं में छंद प्रयोगों का पक्ष सामने लाना है। इन सभी की दृष्टि मुक्तिकामी कविताओं में छंद के रूपगत प्रयोग की रही है छंद की रूढ़ प्रणालियों में इनका विश्वास नहीं है। निराला मुक्त छंद का ये सभी समर्थन करते हैं और उसी राह को आगे बढ़ाते हैं। अज्ञेय के अनुसार विज्ञान और टेक्नॉलाजी के विकास ने कविता को ‘वपाचिक परम्परा’ से मुक्ति दे दी है। नतीजा यह हुआ कि कविता ‘सुनने’ से ज्यादा ‘पढ़ने’ की चीज हो गई। ज्यादातर नये कवियों ने परम्परागत छंदों में नए प्रयोग से नया संस्कार किया। परम्परागत छंदों का ज्ञान ज्यादातर नए कवियों को है। कोई कवित्त-सवैया-दोहा, रोला तोड़कर नए छंद बनाता है और कोई उर्दू-अंग्रेजी के प्रचलित छंद तोड़कर। मुक्तिबोध जैसा विद्रोही कवि भी पारम्परिक छंद की लय की सुरक्षा का ध्यान रखता है। लय को नयी कविता नहीं छोड़ती चाहे वह कितनी ही गद्यात्मक क्यों न हो। लय से ‘प्रोज पोयम’ में भी मुक्त होने का अर्थ है कवि का कविता से हाथ धो बैठना। मुक्तिबोध कहते हैं “इसका अर्थ यह नहीं है कि इस काव्य प्रवृत्ति में छंदों का निषेध है। इस धारा के अंतर्गत अनेक कविताएँ छंदोबद्ध हैं।”

          नयी कविता की प्रत्येक कविता का अपना निजी और विशिष्ट छंद है जो उसमें व्यक्त अनुभूतियों की अनिवार्यता से उसी के साथ जन्मा है जैसे जीवधारी की देह जनमती है। मुक्त छंद भी नए कवि का शौक नहीं है- अनिवार्यता है। निष्कप्रतः नए कवियों ने छंद-लय के अनेक प्रयोग किए हैं और मुक्त छंद तो नयी कविता का पर्याय ही हो गया।

निष्कर्ष

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की विडम्बना, घुटन और विसंगति को नयी कविता में देखा जा सकता है। अस्तित्ववाद की धीमी लहर को भी नयी कविता में रेखांकित किया जा सकता है। तमाम सीमाओं के बावजूद नयी कविता ने अनुभूति की ईमानदारी को प्रमाणिक रूप से रचने का संकल्प नहीं छोड़ा। शिल्प के धरातल पर जितने प्रकार के प्रयोग नयी कविता में हुए हैं शायद ही किसी साहित्यिक आंदोलन में हुए होंगे।

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