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प्रगतिवाद: परिवेश और प्रवृत्तियाँ

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प्रगतिवाद : सामान्य परिचय  

जिस प्रकार द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, उपदेशात्मकता और स्थूलता के प्रति विद्रोह में छायावाद का जन्म हुआ उसी प्रकार छायावाद की सूक्ष्मता, कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता की प्रतिक्रिया में एक नई साहित्यिक काव्यधारा का जन्म हुआ। इस धारा ने कविता को कल्पना-लोक से निकाल कर जीवन के वास्तविक धरातल पर खड़ा करने का प्रयत्न किया। जीवन का यथार्थ और वस्तुवादी दृष्टिकोण इस कविता का आधार बना। मनुष्य की वास्तविक समस्याओं का चित्रण इस काव्य-धारा का विषय बना । यह धारा साहित्य में ‘प्रगतिवाद’ के नाम से प्रतिष्ठित हुई। 

          ‘प्रगति’ का सामान्य अर्थ है- ‘आगे बढ़ना’ और ‘वाद’ का अर्थ है ‘सिद्धांत’। इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है ‘आगे बढ़ने का सिद्धांत’ । लेकिन प्रगतिवाद में इस आगे बढ़ने का एक विशेष ढंग है, विशेष दिशा है जो उसे विशिष्ट परिभाषा देता है। इस अर्थ में प्राचीन से नवीन की ओर, आदर्श से यथार्थ की ओर, पुंजीवाद से समाजवाद की ओर, रूढ़ियों से स्वछंद जीवन की ओर, उच्चवर्ग से निम्नवर्ग की ओर तथा शांति से क्रांति की ओर बढ़ना ही प्रगतिवाद है। 

          परंतु हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद विशेष अर्थ में रूढ़ हो चुका है। जिसके अनुसार प्रगतिवाद को मार्क्सवाद का साहित्यिक रूप कहा जाता है। जो विचारधारा राजनीति में साम्यवाद है, दर्शन में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है, वहीं साहित्य में प्रगतिवाद है। 

          मार्क्सवादी विचारधारा का हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद के रूप में उदय हुआ। यह समाज को शोषक और शोषित के रूप में देखता है। प्रगतिवाद शोषक वर्ग के खिलाफ शोषित वर्ग में चेतना लाने तथा उसे संगठित कर शोषणमुक्त समाज की स्थापना की कोशिशों का समर्थन करता है। यह पूँजीवाद, सामंतवाद, धार्मिक संस्थाओं को शोषक के रूप में चिन्हित कर उन्हें उखाड़ फेंकने की बात करता है। 

          हिन्दी साहित्य में प्रगतिवाद का आरंभ सन् 1936 से माना जाता है। इसी वर्ष लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की। इसके बाद साहित्य की विभिन्न विधाओं में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित रचनाएँ हुई। छायावाद ने जहाँ काव्य में ही स्थान बनाया वहाँ प्रगतिवाद ने साहित्य की अन्य विधाओं यथा उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि के क्षेत्र में भी जगह बनाई। प्रगतिवादी साहित्यकारों में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि प्रमुख हैं। 

          काव्य में अपने रूढ़ अर्थ में प्रगतिवाद 1936 से 1943 तथा शिखर पर रहा उसके बाद काव्य ने प्रयोगवाद, नई कविता जैसी नई धाराओं को विकसित किया। 

प्रगतिवादी काव्यधारा :

जिस प्रकार से किसानों, दलितों शोषितों की मार्मिक स्थिति का चित्रण का चित्रण प्रगतिवाद का मुहावरा बना उसी प्रकार प्रगतिवाद में भोगे हुए सच को भी महत्त्व दिया गया। 1936 के बाद ऐसा बहुत सारा लेखन हुआ जिनमें प्रगतिवादी नारे तो बहुत जोर-शोर से उछाले गये लेकिन रचना क्रमशः निरस्त होती चली गयी, इसलिए प्रगतिवादी साहित्य को किसी हद तक प्रचारात्मक साहित्य माना जाने लगा। 

          1942 के पहले काव्य रचना के लिए प्रगतिवाद नाम अस्तित्व में नहीं आया लेकिन 1936-1943 के बीच जो प्रगतिशील लेखन होता रहा उसी के आलोचकीय दृष्टि से प्रगतिवादी साहित्य माना गया, जिसमें छायावादियों को शामिल नहीं किया गया। इस धारा में नरेश मेहता, भारत भूषण अग्रवाल, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, प्रभाकर माचवे, शमशेर बहादुर, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री का उल्लेख किया जाता है। 

          मुक्तिबोध तथाकथित प्रगतिवादियों से इस बिंदु पर अलग हो जाते हैं कि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जैसे प्रगतिवादी कवि और किसी हद तक राजनीतिक क्षेत्र में केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की कवितायें प्रगतिवाद का महज खानापूर्ति करती है। केदारनाथ अग्रवाल के शब्दों में कहा जाए तो यह लेखन बन्दकुमार लेखन हैं जिसमें कविता ही नहीं है बाकी सब कुछ है। 

          वैचारिक दृष्टि से मुक्तिबोध के लिए मार्क्सवाद उतना सपाट नहीं दिखाई पड़ा जितना अन्य कवियों के। उनके परिवेश में मार्क्सवाद को अपने अनुभव में रचाने-खपाने की समस्या पैदा होती है। इसी बिन्दु पर वह अन्य प्रगतिवादियों के सपाट शिल्प से अलग हो जाते हैं। वह विचार में तो आद्योपात प्रगतिवादी ही रहते हैं लेकिन संरचना की दृष्टि से नयी कविता के रचाव का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

          प्रगतिवादी काव्यधारा में जिन तीन कवियों को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है वे हैं- नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन। लोक संवेदना को उरेहेने में नागार्जुन सबसे समर्थ रचनाकार है। जैसे मध्यवर्ग और लोक की सामान्य संवेदना की विविध छो अवढ़रदानी निराला के अव्यवस्थित व्यक्तित्व से सहज ही मिल जाते थे वैसे गँवई परिदृश्य का रूप, रंग, गंध, बोल-चाल, पहनावा, वेशभूषा अपने ठेठ देशीपन के साथ अवगढ़ मिजाजी बाबा नाम से प्रसिद्ध नागार्जुन की रचनात्मकता में घुल-मिल जाती है। नागार्जुन कविता की लय को नहीं छोड़ते हैं। कविता ने छन्द बदले, रूप बदले, नये-नये ध्वन्यात्मक प्रभाव पैदा किये लेकिन नागार्जुन की देशी लय वाली कविता वहीं की वहीं रही और मजे की बात यह कि कोई भी आलोचक रूप की दृष्टि से उनकी कविता में पिछड़ेपन की शिकायत नहीं कर सकता। भाव संवेदना की दृष्टि से समृद्धतम ग्राम क्षेत्र से नागार्जुन जो लय उठाते हैं, जो बिंब–प्रतीक उठाते हैं, वे समग्रता में नये होते हैं, यहीं उनकी रचना सामर्थ्य का सबसे बड़ा रहस्य है-

                    याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
                    याद आती लीचियाँ वे आम
                    याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू–भाग। 

          लोक जीवन की एक-एक लय को सजीव पेंटिंग की तरह उभारने वाला रचनाकार हिन्दी में अकेला है- नागार्जुन। लोकजीवन की समस्याओं को पंत से लेकर शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ तक ने अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त किया है लेकिन इन कवियों के यहाँ रचना की मूल पूँजी, अनुभव का ताप ही खो गया है और नागार्जुन में वह स्वभाव से ही मौजुद है। 

                    घुन खाये शहतीरों पर बारह खाड़ी विधाता बाँचे
                    फटी भीत है चूती है आने पर विसतुइया नाचे। 
                    कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
                    कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास । 

          केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिवाद का पंत कहा जाता है। जिस प्रकार से पंत ने छायावादी दौर में सर्जनात्मकता को प्रकृति से गहरे जोड़कर शिखर रचनात्मक निष्पति की, उसी प्रकार केदार उतने ही सहज भाव से आधुनिक संवेदना के परिप्रेक्ष्य में प्रकृति को ग्रहण कर नूतन रंगों का समहार करते थे। केदार के प्रकृति वर्णन में जो समानीपन दिखाई पड़ता है उसमें लोक जीवन की सहज उष्मा है जैसा कि निराला को रूप-रंग-गंध का कवि कहा जाता है, केदार भी रूप-रंग-गंध के कवि थे, लेकिन केदार के यहाँ का रूप-रंग-गंध छायावाद की रूमानी शैली से हटकर प्रगतिवाद की यथार्थ की महक वाली पुख्ता जमीन पा सकी। 

          केदार नागार्जुन की तरह लय के तो कवि नहीं हैं लेकिन देशी जीवन की जो महक प्रकृति के समूचे अनगढ़ उभार के साथ केदार के यहाँ दृष्टिगत होती हैं वह अन्य किसी कवि के यहाँ नहीं। 

          नागार्जुन की राजनीतिक सजगता के ही अनुपात में केदार की भी राजनैतिक कवितायें मुखर दिखाई पड़ती है। लेकिन नागार्जुन जिस प्रकार अपने समय का चित्र खिंचते चलते हैं किंचित केदार वैसा नहीं कर सके हैं। केदार की राजनीतिक कवितायें एक सीमा के बाद पोस्टर कविताओं में परिणत हो गयी हैं। बन्दूकगार लेखन का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले केदार राजनीतिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से मुक्तिबोध की भाँति अपनी जगह नहीं बना पाते हैं। डॉ. नामवर सिंह ने अपने आलोचकीय वक्तव्यों में जिस सहज भाव से मुक्तिबोध को महत्त्व दिया है उसी सहज भाव से साठोत्तर परिदृश्य में त्रिलोचन शास्त्री को भी महत्त्व दिया है। त्रिलोचन प्रगतिवादी दौर से लेकर समकालीन परिदृश्य तक अपनी संवेदना में प्रगतिवादी हैं लेकिन नागार्जुन और केदार मार्क्सवादी प्रतिबद्धता उनके यहाँ नहीं दिखाई पड़ती है। 

          वह प्रगतिवादी इन अर्थों में हैं कि लोक जीवन की एक-एक बारीक लय को अपनी कविताओं में बिंब और प्रतिक के आडम्बर के बिना ही बड़े सहज स्वीकारी भाव से चित्रित करते हैं। त्रिलोचन को अंग्रेजी Sonnet की लय पर हिन्दी में छंद निर्माण का श्रेय दिया जाता है। छन्दोभंग त्रिलोचन की प्रत्येक कविता में दिखाई पड़ती है। 

          त्रिलोचन की कविता में मनुष्य की अदम्य जिजीविषा, उसकी घुटन और उसके विरोध की ताकत सदा उजागर हुई है। उनके यहाँ प्रगतिशील वस्तु संवेदना के इर्द-गिर्द जीवन और प्रकृति के बीच जो सहज सामान्य रिश्ता दिखाई पड़ता है वह अपने आप में अनोखा है।

            निष्कर्षतः प्रगतिवादी काव्यधारा भले ही 10-12 वर्षों की अवधि में सिमट आता हो लेकिन संवेदना की दृष्टि से वह आज तक के लेखन में अपना प्रभाव  अंकित किए हुए हैं। प्रगतिवादी दौर में मार्क्सवाद से ही प्रतिबद्धता के रूप में नहीं बल्कि जनता और लोक की पक्षधरता के रूप में प्रगतिशीलता की आँच बराबर बनी रही। 

प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ :

प्रगतिशील कविता के सामने हमेशा एक केन्द्रीय मुद्दा रहा है, वह है देश की बहुसंख्यक शोषित-उत्पीड़ित जनता की वास्तविक मुक्ति। अतः हिन्दी प्रगतिवादी कविता की अन्यान्य प्रवृत्तियों में उसका केन्द्रीय मुद्दा अनुस्यूत रहा है। चाहे राष्ट्रीय स्वाधीनता का प्रश्न हो, चाहे शोषित-उत्पीड़ित जन-जीवन के प्रति प्रेम हो या शोषक-उत्पीड़क वर्ग के प्रति आक्रोश, चाहे रूढ़िवाद और जातीय भेदभाव का विरोध हो या सांप्रदायिक सद्भाव सर्वत्र हो, यह केंद्रीय मुद्दा उसके सामने रहा है। केवल कविता की अंतर्वस्तु ही नहीं, वरन् उसके शिल्प और कलात्मक सौंदर्य के प्रतिमानों के ग्रहण और परित्याग में भी यह केन्द्रीय मुद्दा उसके सामने दिखाई देता है। 

1.  राष्ट्रीयता की भावना और अभिव्यक्ति : प्रगतिवाद में राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति एक प्रमुख विशेषता रही है। यह वह दौर था जब देश अंग्रेजी राजसत्ता के अधीन था और उससे मुक्ति का संघर्ष दिन-ब-दिन तेज होता जा रहा था। इस संघर्ष में जनता के व्यापक हिस्से शामिल होते जा रहे थे। प्रगतिवाद से जुड़े राहुल सांस्कृत्यायन, नागार्जुन, यशपाल, शिव वर्मा आदि कई साहित्यकार राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए। 

          प्रगतिवादी कवियों ने एक ओर देशभक्ति की भावना को क्रांतिकारी धार दी, तो दूसरी ओर उन्होंने उसे सामाजिक मुक्ति के सवाल से भी जोड़ा। उन्होंने इतना ही कहना पर्याप्त नहीं समझा कि देश को विदेशी दासता से मुक्त होना चाहिए बल्कि यह भी कि आजाद भारत किस तरह का होगा और राजसत्ता पर किसका शासन होगा। उन्होंने गाँधी युग के हिंसा और अहिंसा के सवाल को भी अप्रासंगिक ठहराकर अस्वीकार कर दिया। प्रगतिवादी कवियों ने साहित्य और कला को राजनीति से निरपेक्ष रखने की धारणा को भी अस्वीकार किया। उन्होंने 1947 में प्राप्त हुई आजादी के चरित्र को लेकर सवाल उठाए। कवियों ने यह सवाल उठाया कि क्या आजादी के बाद कुछ भी बदला है। आजादी के बाद की निराशाजनक तस्वीर ने प्रगतिशील रचनाकारों को उस समय की राष्ट्रीय सरकार की आलोचना करने को प्रेरित किया। 

2.  वामपंथी विचारधारा और राजनीति का प्रभाव : प्रगतिवाद पर मार्क्सवाद के प्रभाव का कारण सन् 1930 के बाद की परिस्थितियाँ हैं। 1917 में रूस की बोल्शेविक क्रांति और सोवियत संघ के अस्तित्व में आने से दुनियाभर के कलाकारों और बुद्धिजीवियों को प्रभावित और प्रेरित किया था। इसका असर भारत के लेखकों और बुद्धिजीवियों पर भी पड़ना स्वाभाविक था। मैथिलीशरण गुप्त से लेकर सुमित्रानंदन पंत ने मार्क्स और मार्क्सवाद के प्रति कविताओं के माध्यम से अपने श्रद्धाभाव का इजहार किया। जब हिटकर की सेना सोवियत संघ में मास्को तक पहुँच गई और बाद में उसे बर्लिन तक खदेड़ा गया तो इस ऐतिहासिक संघर्ष को लेकर हिन्दी कवियों ने ढ़ेरों कविताएँ लिखीं। मास्को-मुक्ति पर मुक्तिबोध ने ‘लाल सलाम’ कविता लिखी, शमशेर ने ‘वाम वाम वाम दिशा’ कविता द्वारा वामपंथ की अपरिहार्यता को रेखांकित किया- 

                    भारत का
                    भूत-वर्तमान औ भविष्य का वितान लिये
                    काल-मान-विज्ञ मार्क्स-मान में तुला हुआ
                    वाम वाम वाम दिशा;
                    समय साम्यवादी। 

3.       सामाजिक यथार्थवाद : इस काव्यधारा के कवियों ने समाज और उसकी समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया। समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक विषमता के कारण दीन-दरिद्र वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि के प्रसारण को इस काव्यधारा के कवियों ने प्रमुख स्थान दिया और मजदूर, कच्चे घर, मटमैले बच्चों को अपने काव्य का विषय चुना। 

सड़े घूर की गोबर की बदबू से दबकर 

महक जिंदगी के गुलाब की मर जाती है। 

                    ओ मजदूर! ओ मजदूर!
                    तू सब चीजों का कर्ता,
                    तू ही सब चीजों से दूर 
                    ओ मजदूर! ओ मजदूर! 

4. शोषित-उत्पीड़ित जनता से जुड़ाव : प्रगतिशील कविता में पहली बार किसान-मजदूरों के प्रति गहरी सहानुभूति और लगाव की अभिव्यक्ति हुई और शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के सामूहिक प्रयासों की जरूरत को रेखांकित ही नहीं किया बल्कि यह भी बताया कि जन क्रांति इसका एकमात्र रास्ता है। मुक्तिबोध ने इस संदर्भ में यह भी प्रश्न उठाया कि मध्यवर्ग को यह तय करना होगा कि वे इस संघर्ष में किस ओर हैं। 

          प्रगतिवादी दौर में ऐसी बहुत सी कविताएँ लिखी गई जिनमें जनता के वेदना की ही अभिव्यक्ति ही नहीं थी बल्कि उनकी संघर्ष क्षमता को भी वाणी दी गई थी। कवियों ने इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया था कि एक रचनाकार के लिए मुक्ति का रास्ता जनता के साथ जुड़ने में ही है। 

          नागार्जुन, केदार आदि कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से जनता की अदग्य मुक्ति आकांक्षा को व्यक्त किया। उन्होंने उन ताकतों पर जमकर प्रहार किया जो जनता की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। प्रगतिवादी कविता की यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसान और धरती के प्रति अपने अनुराग की बार-बार अभिव्यक्ति की है। मेहनतकश जनता के प्रति इसी अनुराग के कारण त्रिलोचन जैसे कवि यह कह सके कि- 

                    जिस समाज का तू सपना है
                    जिस समाज का तू अपना है
                    मैं भी उसी समाज का जन हूँ। 

          इसी भावना ने कवियों को ग्रामिण जीवन के चित्रण की ओर खास तौर पर आकर्षित किया। 

5.  ग्राम जीवन के प्रति लगाव : हिन्दी के अधिकांश प्रगतिशील कवियों का संबंध गाँवों से था इसलिए यह स्वाभाविक था कि उनकी कविता में ग्राम्य जीवन के चित्रण पर अधिक बल होता था। नरेंद्र शर्मा, केदारनाथ, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, त्रिलोचन आदि की कविताओं में ग्राम्य जीवन की प्रमुखता का यही कारण था। प्रगतिवाद से पूर्व के काव्य में ग्राम्य जीवन की अभिव्यक्ति आमतौर पर रूमानी किस्म की थी। परंतु ग्राम्य जीवन में व्याप्त विषमताओं, विडंबनाओं और संघर्षों का जैसा चित्रण प्रगतिवाद कवियों ने ग्राम प्रकृति और ग्राम परिवेश के भी बहुरंगी चित्र अपनी कविताओं में अंकित किए हैं। नागार्जुन की कविता में मिथिलांचल, केदार के यहाँ बुंदेलखंड और त्रिलोचन की कविता में अवध जनपद का सौंदर्य जैसे मूर्तिमान हो उठा है। ये कवि प्रकृति का चित्रण करते हुए भी कभी भी वहाँ के लोगों और वहाँ के सामाजिक जीवन को नहीं भूलते। 

                    धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने
                    मैके में आयी बेटी की तरह मगन है
                    फूली सरसों की छाती से लिपट गयी है
                    जैसे दो हमजोली सखियाँ गले मिली हैं
                    भैया की बहनों से छूटी भौजायी-सी
                    लहंगे की लहराती लचती हवा चली है। 

6.  शोषक सत्ता का विरोध : प्रगतिवादी कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति यह रही है कि इसमें पूँजीवादी, सामंतवादी और साम्राज्यवादी शोषण सत्ता का विरोध लगातार दिखाई देता है। जब प्रगतिवादी कवि मेहनतकश जनता के समर्थन में खड़े होते हैं और उनका शोषण-उत्पीड़न करने वाले वर्गों का विरोध करते हैं तो जाहिर है कि वे पूँजीवाद, सामंतवाद और साम्राज्यवादी का विरोध करेंगें। 

          सामंतवाद का विरोध नवजागरण के दौर से ही हिन्दी साहित्य का एक ज्वलंत विषय रहा है। हम पाते हैं कि छायावाद तक सामंतवाद का विरोध करते हुए लोकतंत्र धर्म निरपेक्षता और समानता के आधुनिक जीवन मूल्यों की तरफ बढ़ रही थी, लेकिन प्रगतिवाद से पूर्व की कविताओं में सामंतवादी जीवन मूल्यों से पूरी तरह मुक्ति भी नहीं मिल पाई थी। लेकिन प्रगतिवादी आंदोलन ने सामंतवाद और पूँजीवाद के प्रति संघर्ष को मुख्य मुद्दा बनाया जिसकी अभिव्यक्ति निराला जैसे कवियों के यहाँ भी मिलता है। निराला की ‘बादल राग’ कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है जो प्रगतिवाद से पूर्व ही लिखी जा चुकी थी। निराला के यहाँ प्रगतिशील काव्यांदोलन के दौर में तो इस तरह की कविताएँ मुख्य स्वर बन गई। बाद में, नागार्जुन, केदार, शील आदि की कविताओं में सामंतवादी शोषण के विभिन्न रूपों पर तीखा प्रहार किया गया है। प्रगतिवादी कवियों ने सामंतवाद के साथ-साथ पूँजीवादी शोषण के प्रति भी  अपना गहरा आक्रोश व्यक्त किया। पूँजीवाद के शोषक-मारक रूप की विकरालता का चित्रण करते हुए कवियों ने इस बात का आह्वान किया था कि इसका नारा ही इससे मुक्ति का मार्ग है। 

7.  सामाजिक परिवर्तन पर बल : प्रगतिवादी कविता की एक अन्य प्रवृत्ति रही है सामाजिक यथार्थ के चित्रण पर बल। इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह की यह खास तौर पर उल्लेखनीय है। उनका कहना है, “जिस तरह कल्पनाव्रत अंतर्दृष्टि छायावाद की विशेषता है और अंतर्मुखी बौद्धिक दृष्टि प्रयोगवाद की; उसी तरह सामाजिक यथार्थ दृष्टि प्रगतिवाद की विशेषता है।” इसी सामाजिक यथार्थ दृष्टि के कारण वे समाज में व्याप्त कई ऐसी विकृतियों का विरोध करने में सक्षम हो सके जिसके कारण समाज का एक बड़ा हिस्सा नारकीय और पराधीन जीवन जीने के लिए अभिशप्त था। नारी की पराधीनता, दलितों का उत्पीड़न तथा शोषण और सांप्रदायिक विद्वेष के खिलाफ प्रगतिशील कवियों ने लगातार आवाज उठाई। वे यह जानते थे कि ये चीजें सिर्फ पूँजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ जहर उगलने से ही समाप्त नहीं होंगी और सांप्रदायिक विद्वेष के खिलाफ प्रगतिशील कवियों ने लगातार आवाज उठाई। वे यह जानते थे कि ये चीजें सिर्फ पूँजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ जहर उगलने से ही समाप्त नहीं होंगी और न ही राजनीतिक परिवर्तनों से ही जातिवाद, सांप्रदायिकता और नारी मुक्ति के प्रश्न एक बारगी हल हो सकते हैं। इसके लिए जनता की चेतना को बदलने की भी जरूरत है। यही कारण है कि प्रगतिशील कविता में इन विषयों पर अत्यंत मार्मिक कविताएँ लिखी गई जिनका मकसद यही था कि जनता में जाति, धर्म, लिंग और भाषा कि भिन्नताओं के बावजूद व्यापक एकता कायम हो सकी। प्रगतिशील कवियों ने ऐसी सामाजिक विषमाताओं, रूढ़ियों और बंधनों का भी विरोध किया जिनके कारण लोगों में नरक से निकलने की इच्छा शक्ति भी समाप्त हो जाती है। वे अपने जीवन में आने वाली सारी मुश्किलों को ईश्वर और भाग्य का खेल समझकर चुपचाप झेलते रहते हैं। प्रगतिशील कविता ने सामाजिक यथार्थ के कुछ अनछुए और स्वस्थ चित्र भी प्रस्तुत किए हैं, खासतौर पर पति-पत्नी के संबंध, पिता-पुत्र के संबंध और इसी तरह के आत्मीय संबंधों के चित्र उनकी कविता को आत्मीय भावबोध से भर देते हैं। 

          प्रगतिशील कविता के बारे में आमतौर पर यह धारणा फैली हुई है कि वह राजनीतिक कविता है और जिसका काम प्रचार करना है। लेकिन यह सच नहीं है। सच्चाई यह है कि प्रगतिवाद जीवन के व्यापक और विराट सत्य को अभिव्यक्त करता है। जीवन और जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो प्रगतिशील कविता के बार है। हाँ हर कविता में उनकी मुख्य प्रतिज्ञा जनता के प्रति गहरी आस्था और उसकी मुक्ति की कामना है। 

शिल्पगत प्रवृत्तियाँ 

          प्रगतिशील कविता के बारे में उनके आलोचकों का आरोप है कि वे कविता में शिल्प पक्ष की उपेक्षा करते हैं और वस्तु को ही प्रमुखता देते हैं इसके कारण उनकी कविताएँ प्रचारात्मक ज्यादा हो जाती हैं और उनका कलात्मक मूल्य कम हो जाता है। यह बात प्रगतिवाद के आरंभिक दौर के लिए हो सकता है, कुछ हद तक सत्य हो, लेकिन इसे आज नकारने के लिए विशेष प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, मुक्तिबोध और त्रिलोचन ही नहीं दूसरे भी कई प्रगतिशील कवियों की कविताएँ इस बात का प्रमाण है कि प्रगतिशील कविता में रूप और शिल्प की कभी उपेक्षा नहीं हुई। प्रगतिशील कवियों को लेकर डॉ. नामवर सिंह का कथन उल्लेखनीय है : “प्रगतिशील कविता के बारे में अक्सर कहा जाता है कि उसमें कलापक्ष की अवहलेना की जाती है; यदि इसका अर्थ यह है कि प्रगतिशील कवि प्रयोगवादियों की तरह कलापक्ष पर बहुत जोर नहीं देते तो यह ठीक है। बहुत सजाव-सिंगार और पेचीदगी प्रगतिशील कविता में नहीं मिलती। अपनी बात को कितना सुलझाकर उसे कितने सहज ढंग से कह दिया जाए- यही प्रगतिशील कवि का प्रयत्न रहता है। उसके भावों की तरह भाषा भी गाँठ रहित होती है। प्रगतिशील कवि अपना हर शब्द और हर वाक्य चमत्कारपूर्ण बनाने की चेष्टा नहीं करता। लेकिन अपनी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए प्रगतिशील कवि कविता के सभी तरह के उपकरणों का प्रयोग करने से संकोच नहीं करतां छंदबद्ध और छंदमुक्त, देशी और विदेशी, लोक और अभिजात सभी तरह के शिल्प प्रयोग हमें प्रगतिशील कविता में देखने को मिल जाएंगे। भाषा के प्रयोग के प्रति प्रगतिशील कवि बहुत सावधान रहते हैं। वे भाषा के प्रयोग में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी किसी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग वे कर सकते हैं जिनसे कि उनकी बात प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त हो सके। कविता में जितने तरह के बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग प्रगतिशील कवियों ने किया है, वह अनुपम है। यदि नागार्जुन की कविता में व्यंग्य का उत्कर्ष नजर आता है, तो मुक्तिबोध ने फैंटसी जैसे बिल्कुल नये शिल्प विधान का प्रयोग कर हिंदी कविता को ऐसी ऊँचाई दी है, जिसकी बराबरी करना आसान नहीं है। त्रिलोचन ने हिंदी में 

          ‘सानेट’ जैसे विदेशी छंद को लोकछंद का रूप दे दिया है तो शमशेर की कविता के बिंबों के आगे प्रयोगवादियों के बिंब फीके नजर आते हैं। प्रगतिशील कविता ने हिंदी कविता की भाषा को तत्सम शब्दावली के अभिजात कुहासे से निकालकर आम बोलचाल के नजदीक जा दिया। नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि ने तो उसे जनपदीय भाषा से समृद्ध कर नयी प्राणशक्ति प्रदान की। 

सारांश 

          प्रगतिवाद ने आंदोलन का रूप 20वीं सदी के तीसरे दशक में लिया था, जब दुनिया में फासीवाद के उदय के कारण विश्वयुद्ध का आसन्न संकट उपस्थित हो गया था। हमारे यहाँ आज़ादी का आंदोलन भी मध्यवर्ग की सीमाओं से पार जाकर जनता का आंदोलन बन गया था। किसानों और मज़दूरों की भागीदारी ने आंदोलन के चरित्र को बदल डाला था और देश में वामपंथ की ताकतें उभरने लगी थी। 

          प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1936 में लखनऊ में हुई थी जिसका सभापतित्व प्रेमचंद ने किया था। लेकिन लेखक संघ बनाने के प्रयास इससे पहले से शुरू हो गये थे। दुनिया के दूसरे देशों में फासीवाद के विरुद्ध संस्कृति कर्मी संगठित हो रहे थे। भारत में भी उपनिवेशवाद के विरुद्ध लेखक प्रगतिशील लेखक संघ के झंडे तले एकत्र हुए। प्रगतिशील लेखक संघ अखिल भारतीय आंदोलन था। इसमें सभी भारतीय भाषाओं के लेखक शामिल थे। 

          प्रगतिशील साहित्य का उदय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना से पहले ही होने लगा था। इसने साहित्य को गहरे तक प्रभावित किया। प्रगतिशील साहित्य सभी विधाओं में अपने को अभिव्यक्त कर रहा था। 

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