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छायावाद क्या है: अर्थ, परिवेश एवं प्रवृत्तियाँ

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छायावाद : सामान्य परिचय 

          द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी साहित्य में जो कविता धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। छायावाद की कालावधि सन् 1918 से 1936 तक मानी गई है। वस्तुतः इस कालावधि में छायावाद की इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को छायावादी युग कहा जाने लगा। 

          छायावाद के स्वरूप को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है, जिसने उसे जन्म दिया। साहित्य के क्षेत्र में प्रायः एक नियम देखा जाता है कि पूर्ववर्ती युग के अभावों को दूर करने के लिए परवर्ती युग का जन्म होता है। छायावाद के मूल में भी यही नियम काम कर रहा था। इससे पूर्व द्विवेदी युग में हिन्दी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में निरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इसके लिए उसने प्रकृति को माध्यम बनाया प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा, तभी छायावाद का जन्म हुआ और कविता इतिवृत्तात्मकता को छोड़कर कल्पना लोक में विचरण करने लगी। 

विभिन्न विद्वानों द्वारा छायावाद की परिभाषा: 

          छायावाद अपने युग की अत्यंत व्यापक प्रकृति रही है। फिर भी यह देख कर आश्चर्य होता है कि उसकी परिभाषा के संबंध में विचारकों और समालोचकों में एक मत नहीं हो सका। विभिन्न विद्वानों ने छायावाद की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ की हैं। 

  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : शुक्ल जी ने छायावाद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- “छायावाद का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए एक तो रहस्यवाद के अर्थ में जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है। छायावाद एक शैली विशेष है, जो लाक्षणिक प्रयोगों, अप्रस्तुत विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।” दूसरे अर्थ में उन्होंने छायावाद के चित्र-भाषा-शैली कहा है। 
  • महादेवी वर्मा : महादेवी वर्मा ने छायावाद का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि “छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को मिलाकर पूर्णता पाता है।” अन्यत्र वे लिखती है कि छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्गीथ है। 
  • डॉ. रामकुमार वर्मा : डॉ. रामकुमार वर्मा ने छायावाद और रहस्यवाद में कोई अंतर नहीं माना है। छायावाद के विषय में उनके शब्द है- “आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है।” एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं- “छायावाद या रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक सत्ता से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता है। परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा पर। यही छायावाद है।” 
  • आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी : आचार्य नंददुलारे वाजपेयी शुक्ल जी के बाद छायावाद की व्याख्या करने वाले पहले महत्त्वपूर्ण विद्वान हैं, जिन्होंने बेहद सूक्ष्म व सुचिंतित तर्कों के माध्यम से छायावाद की सकारात्मक व्याख्या की। वाजपेयी जी के अनुसार- “मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भाव मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। छायावाद की व्यक्तिगत विशेषता दो रूपों में दीख पड़ती है एक सूक्ष्म और काल्पनिक अनुभूति के प्रकाश में और दूसरी लाक्षणिक और प्रतिकात्मक शब्दों के प्रयोग में। और इस आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि छायावाद आधुनिक हिन्दी कविता की वह शैली है जिसमें सूक्ष्म और काल्पनिक सहानुभूति को लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक ढंग पर प्रकाशित करते हैं।” 
  • आचार्य शांतिप्रिय द्विवेदी : आचार्य शुक्ल जी की व्याख्या के विरुद्ध पहली महत्त्वपूर्ण व्याख्या आचार्य शांतिप्रिय द्विवेदी ने की और दावा किया कि छायावादी काव्य गांधीवाद का साहित्यिक संस्करण है। द्विवेदी जी का तर्क है कि छायावादी काव्य गाँधीवाद की स्थूल नहीं, सूक्ष्म अभिव्यक्ति है, इसलिए इसमें गांधीवादी आंदोलन की घटनाएँ नहीं, मूल्य उपस्थित है। उनके तर्क के अनुसार “गाँधी आध्यात्मवादी दार्शनिक थे और मानते थे कि सम्पूर्ण आर्थिक, राजनीतिक विकास का लक्ष्य आध्यात्मिक तथा आत्मिक विकास है। छायावाद की आध्यात्मिकता भी इसी संदर्भ में है। यह आध्यात्मिक लौकिक चिंताओं के विरुद्ध नहीं बल्कि उसका चरम उद्देश्य है। इस तर्क के बावजूद द्विवेदी जी का मत पूर्णतः उचित नहीं है कि छायावाद गांधीवाद का साहित्यिक संस्करण है क्योंकि छायावाद के रहस्यवाद और शक्ति काव्य जैसे प्रसंगों को गांधीवाद से सीधे जोड़ना संभव नहीं है। यह मत इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि इसने पहली बार छायावाद की सकारात्मक व्याख्या की। 
  • डॉ. नगेन्द्र : डॉ. नगेन्द्र छायावाद को ‘स्थूल के प्रति विद्रोह’ मानते हैं। इस मत में निहित तर्क को दो आधारों पर समझा जा सकता है। संवेदना तथा शिल्प। संवेदना के स्तर पर स्थूल का तात्पर्य है- द्विवेदी युगीन सामाजिकता। 

          द्विवेदी युग में समाज के स्तर पर नवजागरण की चेतना व्यापक रूप से दिखाई दे रही थी किंतु व्यक्ति की वैयक्तिकता का हनन हो रहा था। छायावाद में नवजागरण का अगला तथा सूक्ष्मतम रूप व्यक्त होता है तथा नवजागरण की चेतना व्यक्ति और उसके भावों को मूल इकाई के स्तर पर धारण कर लेती है। 

          शिल्प के स्तर पर भी छायावादी काव्य स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है। द्विवेदी युग में शिल्प की जो अभिधात्मक एवं इतिवृत्तात्मक संरचना विकसित हुई थी, वह काफी स्थूल थी। छायावादी कविता अपनी अनुभूतिपरकता एवं तन्मयता के कारण ऐसे शिल्प को धारण नहीं करती। वह बाहरी जगत को स्थान पर व्यक्ति के भितरी जगत को कविता का विषय बनाती है। इसी दृष्टि से इस शिल्प को द्विवेदी युग के अभिधात्मक शिल्प की तुलना में सूक्ष्म कहा जाता है। 

          डॉ. नगेन्द्र यह भी स्वीकार करते हैं कि “छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव पद्धति है। जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने इसकी मूल प्रवृत्ति के विषय में लिखा है कि वास्तव में अंतर्मुखी दृष्टि डालते हुए, उसको वायवी अथवा अतीन्द्रीय रूप देने की प्रवृत्ति ही मूल वृत्ति है।” उनके विचार से, युग की उबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे छायावाद को अतृप्त वासना और मानसिक कुंठाओं का परिणाम स्वीकार करते हैं। 

          उपर्युक्त परिभाषाओं से छायावाद की अनेक परिभाषाएँ स्पष्ट होती है, किन्तु एक सर्वसम्मत एक मत नहीं बन पाया। उपर लिखी परिभाषाओं से यह भी व्यक्त होता है कि छायावाद स्वछंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के काफी समीप स्वछंदतावाद और छायावाद : छायावाद के आगमन और इसकी प्रवृत्तियों के कई विद्वानों ने इसे पश्चिम में विकसित रोमेंटिसिज़्म से प्रभावित माना तथा कुछ ने यह माना कि छायावादी प्रवृत्ति का विकास भारतीय काव्य परंपरा के विकास के विभिन्न चरणों में से एक है। प्रमुख रूप से छायावादी काव्य को यदि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो कुछ ऐसे तत्त्व मिलते हैं जिसे छायावाद के उदय का कारण माना जा सकता है। खासतौर पर रोमेंटिसिज़्म के संदर्भ में देखा जाए तो यह एक तरह की पश्चिमी अवधारणा है। आचार्य शुक्ल ने इसका हिन्दी अनुवाद स्वछंदतावाद के नाम से किया। कालांतर में जब छायावादी कविताओं की तुलना अंग्रेजी रोमैंटिक कवियों के साथ की गयी है तो छायावादी काव्य को पश्चिम के रोमैंटिसिज़्म के साथ जोड़कर देखा गया इस संदर्भ में नामवर सिंह जी कहते हैं कि: 1930 के आसपास हिन्दी छायावादी कविताओं को आलोचना के सिलसिले में अंग्रेजी के रोमैंटिक कवि ‘वर्डसवर्थ’, ‘शेली’, ‘कीट्स’ आदि का नाम लिया जाने लगा और इस तरह छायावाद के साथ रोमैंटिसिज़्म का नाम जुड़ गया। आचार्य शुक्ल ने रोमैटिसिज़्म के लिए हिन्दी में स्वछंदतावाद शब्द चलाया और वह चल भी पड़ा, किंतु उनके स्वछंदतावाद की परिभाषा इतनी सीमित थी कि वह संपूर्ण छायावादी कविताओं को घेर ना सकी, सीमा में केवल श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, गुरुभक्त सिंह, सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, उदयशंकर भट्ट और संभवतः नवीन और माखनलाल चतुर्वेदी ही आ सके। उनके अनुसार “प्रकृति प्रांगण के चर-अचर प्राणियों का सम्पूर्ण परिचय उनकी गतिविधि पर आत्मीयता व्यंजक दृष्टिपात, सुख-दुख में उनके साहचर्य की भावना से सब स्वाभाविक स्वछंदता के पदचिन्ह हैं।” इस प्रकार शुक्ल जी तो स्वछंदतावाद में छायावाद के रहस्यवाद के लिए कोई जगह नहीं थी। फलतः स्वछंदतावाद अंग्रेजी के रोमैंटिसिज़्म का हिन्दी अनुवाद होते हुए भी छायावादी कविता का केवल एक अंग बनकर रह गया और धीरे-धीरे छायावाद संपूर्ण रोमैंटिसिज्म का वाचक बन गया।

            इस तरह छायावाद एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसने रोमैंटिसिज़्म को अपने में समाहित कर लिया। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जो हिन्दी साहित्य के विकास में द्विवेदी युग तथा प्रगतिवाद के बीच एक कड़ी के रूप में विकसित हुयी।

छायावाद और रहस्यवाद :

छायावादी रहस्यवाद की विवेचना करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इस कथन को कि छायावाद को रहस्यवाद के अर्थ में लेना चाहिए, इस ढंग से देखा जाना चाहिए कि छायावाद पर किस प्रकार रहस्यवादी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। शुक्ल जी ने एक ओर तो छायावाद को मध्ययुगीन रहस्य-भावना का नया संस्करण कहा : “कबीरदास किस प्रकार हमारे यहाँ जानवाद और सूफीवाद के भावात्मक रहस्यवाद को लेकर चले यह हम पहले दिखा आए हैं। उसी भावात्मक रहस्य-परंपरा का यह नूतन भाव-भंगी और लाक्षणिकता के साथ अविर्भाव है। दूसरी ओर उन्होंने छायावाद को वेदांत के प्रतिबिम्बवाद का नया संस्करण माना : “जो ‘छायावाद’ नाम से प्रचलित है वह वेदांत के पुराने ‘प्रतिबिम्बवाद’ का है।” वस्तुतः यह प्रतिबिम्बवाद सूफियों के यहाँ से होता हुआ यूरोप में गया जहाँ कुछ दिनों पिछे ‘प्रतिकवाद’ से संश्लिष्ट होकर धीरे-धीरे बंग साहित्य के एक कोने में आ निकला और नवीनता की धारणा उत्पन्न करने के लिए ‘छायावाद’ कहा जाने लगा। इस तरह यह शब्द काव्य में “रहस्यवाद’ के लिए गृहित दार्शनिक सिद्धांत का द्योतक शब्द है। 

          आचार्य शुक्ल की स्थापनाओं की उपेक्षा करना समकालीन कवियों के लिए संभव नहीं था। शुक्ल जी ने ‘छायावाद’ शब्द का संबंध वेदांत के प्रतिबिम्बवाद से जोड़कर उसे दार्शनिकता प्रदान की पर साथ ही रहस्योन्मुखता को इस काव्यधारा की नीजी विशेषता न माकर बाहरी प्रभाव कहा। उन्होंने छायावाद की पहली सुसम्बद्ध व्याख्या करते हुए छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में माना। उसका एक अर्थ उन्होंने रहस्यवाद लिया जिसका संबंध “काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यंत अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। उनके अनुसार छायावादी कविता मन बुद्धि से परे एक अज्ञात प्रदेश में ले जाता है। 

          छायावाद में रहस्यवादी तत्त्वों की पुनर्व्याख्या का यह क्रम जयशंकर प्रसाद के चिंतन में आगे बढ़ा। उन्होंने भी छायावाद की विचार-पद्धति को रहस्यवाद ही माना पर उसकी व्याख्या शक्ति के रहस्यवाद के रूप में कर दी। शुक्ल जी जिसे मध्ययुगीन संतों के साम्प्रदायिक रहस्यवाद का आधुनिक संस्करण मानते थे, प्रसाद ने उसे ‘सौंदर्य लहरी’ में वर्णित शक्ति के रहस्यावाद से जोड़ दिया। 

          आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी छायावाद में रहस्यवाद का प्रयोग व्यापक अर्थ में स्वीकार करते थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि अंग्रेजी की रोमैंटिक कविता में रहस्यवादी प्रवृत्ति को अत्यंत उदार अर्थ और व्यापक रूप में देखा जाता था। उन कवियों के लिए सत्य और सौंदर्य अभिन्न हो गए थे। इसलिए वहाँ प्रकृति-प्रेम, उसमें आध्यात्मिक सत्ता के भाव आदि को रहस्य-वृत्ति के अंतर्गत ही मान लिया गया था। यह रहस्यवृत्ति साम्प्रदायिक या धार्मिक नहीं थी। वाजपेयी जी का मानना था कि “छायावाद किसी साम्प्रदायिकता या साधना परिपाटी का अनुगमन नहीं करता।” छायावाद की आध्यात्मिकता की विशिष्टता यही है कि वह न किन्हीं सीमा निर्देशों से बँधती है और नही भावना के क्षेत्र में किसी प्रकार का प्रतिबंध स्वीकार करती है। 

          शुक्ल जी ने छायावाद में साम्प्रदायिक रहस्यवाद की बात कहकर बाद के आलोचकों को इस शब्द-मात्र के प्रति इतना आशंकित कर दिया कि वे छायावाद में प्राकृतिक रहस्य-भावना को स्वीकार करके भी रहस्यवाद से उसका भेद निरूपित करते रहे। रहस्यानुभूति आध्यात्मिक होते हुए भी लौकिक हो सकती है। छायावाद रहस्योन्मुख होते हुए भी इसी धरातल की आध्यात्मिक अनुभूति है, यह न कहकर, छायावाद और रहस्यवाद के बीच भेद करके चलने की प्रवृत्ति ही अधिक लोकप्रिय हुई। यह सही है कि छायावाद बहुमुखी काव्य-सृष्टि है और उसका केन्द्रीय भाव रहस्यवाद नहीं है। परंतु रहस्योन्मुखी वृत्ति छायावाद की विशेषताओं में से एक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। 

          समग्रतः छायावाद व रहस्यवाद के सम्बन्धों के विषयों में यही कहा जा सकता है कि छायावादी कविता का एक अंश ही रहस्यवादी है, न कि संपूर्ण छायावाद । जो अंश रहस्यवादी है, उसका एक पक्ष अलौकिक रहस्यवाद का है किन्तु वह मध्ययुगीन रहस्यवाद की अन्य विशेषताओं को धारण नहीं करता। जो शेष अंश है, वह अपनी विषयवस्तु व चेतना दोनों स्तरों पर आधुनिक है और उसका जन्म या तो अतिशय जिज्ञासा से हुआ है या सामाजिक दबावों से। 

छायावाद की मूल प्रवृत्तियाँ 

          छायावादी काव्य का विश्लेषण करने पर हम उसमें निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ पाते हैं : 

(i)      वैयक्तिकता : छायावादी काव्य में वैयक्तिकता का प्राधान्य है। कविता चिंतन और अनुभूति की परिधि में सीमित होने के कारण अंतर्मुखी हो गई, कवि के अहम् भाव में निबद्ध हो गई। कवियों ने काव्य में अपने सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव, आशा-निराशा की अभिव्यक्ति खुल कर की। उसने समग्र वस्तुजगत को अपनी भावनाओं में रंग कर देखा। जयशंकर प्रसाद का ‘आंसू तथा सुमित्रानंदन पंत के उच्छावास व्यक्तिवादी अभिव्यक्ति के सुंदर निदर्शन हैं। इसके व्यक्ति के स्व में सर्व सन्निहित है। डॉ. शिवदान सिंह चौहान इस संबंध में लिखते हैं कि “कवि का मैं प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का मैं था, इस कारण कवि ने विषयगत दृष्टि से अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लाक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत रचना शैली अपनाई, उसके संकेत और प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज प्रेषणीय बन सके।” छायावादी कवियों की भावनाएँ यदि उनके विशिष्ट वैयक्तिक दुःखों के रोने-धोने तक ही सीमित रहती, उनके भाव यदि केवल आत्मकेंद्रित ही होते तो उनमें इतनी व्यापक प्रेषणीयता कदापि ना आ पाती। निराला ने लिखा है- 

                    मैंने मैं शैली अपनाई, 
                    देखा एक दुःखी
                    निज भाई 
                    दुख की छाया पड़ी हृदय में 
                    झट उमड़ वेदना आई। 

          इससे स्पष्ट है कि व्यक्तिगत सुख-दुःख की अपेक्षा अपने से अन्य के सुख-दुःख की अनुभूति ने ही नए कवियों के भाव-प्रवण और कल्पनाशील हृदयों को स्वछंतावाद की ओर प्रवृत्त किया। 

(ii)     विषयिनिष्ठता : वैयक्तिकता के कारण छायावादी काव्य में विषय के स्थान पर विषयी की प्रधानता हुई। छायावाद को जब द्विवेदी युगीन कविता की इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया कहा गया तो उसका अर्थ था कि उसमें वस्तुनिष्ठता के स्थान पर व्यक्तिनिष्ठता और विषयनिष्ठता की जगह विषयिनिष्ठता का आग्रह था। छायावाद को स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह कहने का भी एक अभिप्राय यही था। इसी विषयिनिष्ठता के कारण छायावाद की ‘छाया’ के विरोध में ‘प्रकाशवाद’ के नाम से एक विनोदपूर्ण वाद भी प्रस्तुत किया गया। छायावाद की विषयिनिष्ठता को लक्ष्य करके अज्ञेय ने लिखा था “विषयीप्रधान दृष्टि ही छायावादी काव्य की प्राणशक्ति है। इस विषयिनिष्ठता का प्रतिफल स्पष्ट रूप से छायावादके प्रकृति-चित्रण में देखा जा सकता है, जिसमें जड़ प्रकृति पर चेतना के आरोप की ही नहीं, बल्कि मानवीकरण की व्यापक प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है। 

(iii)    अनुभूति की प्रतिष्ठा : छायावादी कवियों का दावा है कि कविता विचारों या तथ्यों से नहीं वरन् अनुभूति से होती है। विषयी की प्रधानता के कारण स्वभावतः छायावाद में अनुभूति के महत्त्व की प्रतिष्ठा हुई। प्रसाद जी ने तो कविता की परिभाषा ही ‘आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति’ के रूप में की और छायावाद की अन्य विशेषताओं के बीच ‘स्वानुभूति की विकृति’ पर विशेष बल दिया। 

          हिन्दी कविता को छायावाद की वह महत्त्वपूर्ण देन है कि उसने कविता में कोरे वस्तु वर्णन के स्थान पर अनुभूति का महत्त्व प्रतिष्ठित किया। यह बात अलग है कि इस प्रयास में छायावाद कभी-कभी भावोच्छवास और कोरी भावुकता की रसवर्जिनी सीमा तक चला गया। बाद में छायावाद के पतन के अनेक कारणों में भावों की यह अधिव्यक्ति भी एक कारण बनी। 

(iv)    वेदना की निवृत्ति : छायावादी कविता में वेदना की अभिव्यक्ति करुणा और निराशा के रूप में हुई है। हर्ष-शोक, हास-रुदन, जन्म-मरण, विरह-मिलन आदि में उत्पन्न विषमताओं से घिरे हुए मानव-जीवन को देखकर कवि हृदय में वेदना और करुणा उमड़ पड़ती है। जीवन में मानव-मन की आकांक्षाओं और अभिलाषाओं की असफलता पर कवि-हृदय क्रन्दन करने लगता है। छायावादी कवि सौंदर्य प्रेमी होता है, किंतु सौंदर्य की क्षणभंगुरता को देख उसका हृदय आकुल हो उठता है। हृदयगत भावों की अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अभिलाषाओं की विफलता, सौंदर्य की नश्वरता, प्रेयसी की निष्ठुरता, मानवीय दुर्बलताओं के प्रति संवेदनशीलता और प्रकृति की रहस्यमयता आदि अनेक कारणों से छायावादी कवि के काव्य में वेदना और करुणा की अधिकता पाई जाती है। प्रसाद ने ‘आसू’ में वेदना को साकार रूप दिया है। पंत तो काव्य की उत्पत्ति ही वेदना को मानते हैं- 

                    वियोगी होगा पहला कवि, 
                    आह से निकला होगा गान।
                    उमड़ कर आँखों से चुपचाप,
                    वही होगी कविता अनजान ।। 

          संसार में दुःख और वेदना को देखकर छायावादी कवि पलायवादी भी हुआ। वह इस संसार में ऊब चुका है और कहीं और चला जाना चाहता है। 

          इसका मुख्य कारण यह है कि वह इस संसार में दुःख ही दुःख देखता है, यहाँ सर्वत्र सुख का अभाव दृष्टिगोचर होता है। इस विषय में कवि पंत की अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है- 

                    यहाँ सुख सरसों, शोक सुमेरु
                    अरे जग है जग का कंकाल
                    वृधा रे, यह अरण्य चीत्कार 
                    शांति, सुख है उस पार 

(v)     प्रेमानुभूति : छायावाद को आधुनिक काल की सबसे सशक्त प्रेम कविता कहा जाता है। आचार्य शुक्ल ने आरंभ में ही इस प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुए छायावादी कविता को अधिकतर प्रेम गीतात्मक’ कहा था। यह सही है कि छायावाद में जीवन के अन्य क्रियाव्यापारों एवं समस्याओं का समावेश करते हुए भी प्रेम को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। छायावाद में प्रेमानुभूति की अधिकता से कहीं अधिक ध्यान आकर्षित करने वाली विशेषता प्रेम के प्रति इन कवियों का दृष्टिकोण है। छायावाद के आलोचकों में इस बारे में व्यापक सहमति है कि छायावाद का प्रेम प्रायः अशरीरी है और उसमें रीतिकालीन भोगवादी दृष्टि के स्थान पर मानसिक रागात्मकता की प्रतिष्ठा की गई है। रीतिकालीन शृंगारिकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया तो द्विवेदीयुगीन काव्य में भी दिखाई पड़ी थी, परंतु अपने नैतिक-शुद्धवादी आग्रहों के कारण जहाँ द्विवेदी युग का काव्य शृंगार के लगभग बहिष्कार की सीमा का स्पर्श करने लगा था, वहाँ छायावाद ने वैसा निषेधपरक कट्टर दृष्टिकोण नहीं अपनाया। शुद्धतावाद के स्थान पर छायावाद ने आदर्शवाद का रास्ता अपनाया और प्रेम का उन्नयन करने का प्रयास किया। 

          छायावाद की कविता प्रेम की अनुभूति को नए रूप-रंगों में प्रस्तुत करने के कारण तो ध्यान आकर्षित करती ही है, इससे अधिक इस बात के कारण महत्त्वपूर्ण है कि उसमें प्रेम एक गंभीर जीवन-दर्शन के रूप में प्रकट हुआ। 

(vi)    सौंदर्यबोध : सौंदर्य की अभिव्यक्ति कविता की सामान्य विशेषता मानी जाती है पर छायावादी कविता का सौंदर्यबोध अपनी सामान्यता में नहीं, विशिष्टता में ध्यान आकर्षित करता है। छायावादी कवियों की दृष्टि निश्चित रूप से सौंदर्यवादी थी, इसमें संदेह नहीं। इतना ही नहीं छायावादी कवियों की दृष्टि अखिल विश्व से सौंदर्य चयन की ओर थी, बल्कि वे जीवन को भी सुंदर बनाने के अभिलाषी थे। छायावाद के विषय में, कलावाद के जिस प्रभाव की चर्चा प्रायः की गई है, वह और किसी रूप में हो न हो, सौंदर्यवाद के रूप में अवश्य प्रतिफलित हुआ है। छायावादी कवि क्रमशः प्रकृति-सौंदर्य से चलकर मानव-सौंदर्य तक पहुँचते हैं। पंत के शब्दों में- 

                    सुंदर है विहग सुमन सुंदर,
                    मानव तुम सबसे सुंदरतम। 

          छायावाद की सौंदर्य दृष्टि में जहाँ एक ओर स्वप्न-लोक का कुहासा है वहाँ दूसरी ओर चेतना की उज्ज्वलता। सौंदर्य उनके यहाँ एक प्रकार के रहस्य से मंडित है। इन क वियों ने सौंदर्य को उदारता, भव्यता, दिव्यता आदि गुणों से विभूषित करके उसे काव्य में एक नए मूल के रूप में प्रतिष्ठित किया। 

(vii)   प्रकृतिचित्रण : हिन्दी काव्य-परंपरा में प्रकृति की भूमिका आरंभ से ही रही है, किंतु उसे जो स्थान छायावाद में मिला, वह अभूतपूर्व है। छायावादी कवि का मन प्रकृति-चित्रण में खुब रमा और प्रकृति के सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना छायावादी कविता की एक प्रमुख विशेषता रही। छायावादी कवियों ने प्रकृति को काव्य में सजीव बना दिया। प्रकृति सौंदर्य और प्रेम की व्यंजना के कारण ही डॉ. देवराज ने छायावादी काव्य को ‘प्रकृति-काव्य’ कहा है। छायावादी काव्य में प्रकृति सौंदर्य के अनेक चित्रण मिलते हैं: जैसे- (1) आलम्बन रूप में प्रकृति-चित्रण। (2) उद्दीपन रूप में प्रकृति-चित्रण। (3) प्रकृति का मानवीकरण । (4) नारी रूप में प्रकृति का वर्णन। (5) आलंकारिक चित्रण। (6) प्रकृति का वातावरण और पृष्ठभूमि के रूप में चित्रण। (7) रहस्यात्मक अभिव्यक्ति के साधन के रूप में चित्रण। 

          प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी आदि छायावाद के सभी प्रमुख कवियों ने प्रकृति का नारी रूप में चित्रण किया और सौंदर्य व प्रेम की अभिव्यक्ति की पंत की कविता से एक उदाहरण- 

                    बांसों का झुरमुट
                    संध्या का झुटपुट
                    हैं चहक रहीं चिड़ियां
                    टीवी टी टुट् टुट्। 

          अधिकांश छायावादी कवियों ने प्रकृति के कोमल रूप का चित्रण किया है, परंतु कहीं-कहीं उसके उग्र रूप का चित्रण भी हुआ है। 

(viii) राष्ट्रीय चेतना, लोकमंगल और मानव करुणा : छायावादी कवियों पर बहुत दिनों तक यह आरोप लगाया जाता रहा कि जिस समय देश, औपनिवेशिक शक्तियों के विरुद्ध अपनी स्वाधीनता के संग्राम में संलग्न था, ये कवि राष्ट्रीय प्रश्नों से उदासीन और विरत होकर क्षितिज के पार ताक-झाँक करते रहे। यह वस्तुतः छायावादी काव्य को एकांगी दृष्टि से देखने का परिणाम है, वरना इन कवियों ने ओजस्वी स्वर में जागरण-गीत भी कम नहीं लिखे। प्रसाद जी की ‘हिमालय के आंगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार’ और ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ जैसे गीत, निराला की ‘भारति जय विजय करे’ और ‘महाराजा शिवाजी के नाम पत्र’ जैसी रचनाएँ इसका प्रमाण हैं। 

          छायावादी काव्य की अभिव्यक्ति व्यक्ति स्वातंत्र्य से आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता की आकांक्षा के रूप में होती है, यह स्वाभाविक था। किंतु छायावाद की राष्ट्रीय चेतना केवल राष्ट्रगीतों तक ही सीमित नहीं रही बल्कि अपनी सूक्ष्म और सांकेतिक प्रकृति के अनुरूप अन्य कविताओं में भी व्यक्त होती रही। उदाहरण के लिए निराला के ‘तुलसीदास’ में देश को पराधीनता से मुक्त कराने का संकल्प है और ‘राम की शक्तिपूजा’ के पौराणिक प्रतीक भी देश के उद्धार के लिए नैतिक शक्ति की साधना का संदेश देते हैं। 

          छायावाद के कवियों ने स्वातंत्र्य-भावना समाज में व्याप्त विषमताओं के विरुद्ध लोक-मंगल और मानव-करुणा के रूप में भी व्यक्त हुई है। यह भावना सामान्यतः सभी छायावादी कवियों में न्यूनाधिक रूप में मिलती है किंतु इसकी सबसे अधिक मुखर अभिव्यक्ति निराला के काव्य में हुई है। छायावादी काव्य में, मानव-करुणा और लोक-मंगल से प्रेरित सामाजिक-चेतना भी परिलक्षित होती है। यह कविता जीवन-विमुख नहीं जीवनोन्मुखी कविता है। 

शिल्पगत विशेषताएँ 

(i)   काव्य रूप : छायावादी कविता भावना प्रधान है, इसलिए प्रकृति में प्रगीतात्मक है। छायावाद में प्रगितों की रचना हुई जिनमें निराला के प्रगीत अग्रणी है। महादेवी ने गीत लिखे। निराला, पंत व प्रसाद ने लम्बी कविताएँ भी लिखीं। लम्बी कविताओं में अन्तर्वस्तु प्रबन्धात्मक एवं विस्तृत होती है पर बाहरी विधान प्रबन्ध के नियम के अनुकूल नहीं होता। कामायनी इस समय का एकमात्र महाकाव्य है। 

(ii)   भाषा : छायावाद के सम्मुख पहला प्रश्न अपने काव्य के अनुकूल भाषा का नई संवेदना नए मुहावरे का था। इस समस्या का उसने धैर्य और साहस के साथ सामना किया। द्विवेदी युग में खड़ी बोली काव्य-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी परंतु कर्कश कही जाने वाली खड़ी बोली में कोमल भावों को प्रस्तुत करने का कार्य छायावाद में हुआ। जो शब्द काव्य में पहले कभी साथ-साथ नहीं देखे गए थे वे छायावाद में पहली बार नियोजित हुए और इस प्रकार नियोजित हुए कि उनसे एक नया अर्थ ध्वनित होने लगा। छायावादी कवियों ने नए-नए शब्दों की रचना भी कि जैसे- स्वर्णिम, अरुणिम, स्वप्निल आदि। 

(iii)   बिम्ब : छायावाद ने भाषा की अभिव्यंजना-क्षमता बढ़ाने के लिए बिम्ब-विधान का भी आश्रय लिया जिसे शुक्ल जी ने ‘लाक्षणिक मूर्तिमत्ता’ तथा पंत जी ने ‘चित्रभाषा’ कहा है। बिम्ब रचना में छायावादी कवियों का सबसे बड़ा साधन सृष्टि विधायनी कल्पना थी। इसलिए उनके बिम्बों में मौलिकता और ताज़गी है। 

(iv) प्रतीक : प्रतीकात्मकता छायावादियों के काव्य की कला पक्ष की प्रमुख विशेषता है। प्रकृति पर सर्वत्र मानवीय भावनाओं का आरोप किया गया और उसका संवेदनात्मक रूप में चित्रण किया गया, इससे यह स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व से विहिन हो गयी और उसमें प्रतीकात्मकता का व्यवहार किया गया। उदाहरणार्थ- फुल सुख के अर्थ में, शूल दुख के अर्थ में, उषा प्रफुल्लता के अर्थ में, संध्या उदासी के अर्थ में, नीरद माला नाना भावनाओं के अर्थ में प्रयुक्त हुए। दार्शनिक अनुभूतियों की व्यंजना एवं प्रेम की सूक्ष्मातिसूक्ष्म दशाओं के आंकन में भी इस प्रतीकात्मकता को देखा जा सकता है। 

(v)  अलंकार-विधान : अलंकार योजना में प्राचीन अलंकारों के अतिरिक्त अंग्रेजी साहित्य के दो नवीन अलंकारों- मानवीकरण तथा विशेषणविपर्यय का भी अच्छा उपयोग किया गया है। छायावादी कवि ने अमूर्त को मूर्त और मूर्त को अमूर्त रूप में चित्रित करने के लिए अनेक नवीन उपमाओं की उद्भावना की है; जैसे- ‘कीर्ति किरण सी नाच रही है’ तथा ‘बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल।’ इसके अतिरिक्त उपमा, रूपक, उल्लेख, संदेह, विरोधाभास, रूपकातिश्योति तथा त्यतिरेक आदि अलंकारों का भी सुंदर प्रयोग किया गया है 

(vi)  छंद : छंद प्रयोग की दृष्टि से भी छायावादी कवियों का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण है। इन कवियों ने द्विवेदी-युगीन अनेक विकल्पों के बीच से खड़ी बोली हिन्दी के प्रकृति के अनुरूप छंदों का चुनाव कर प्रगीत-रचना के लिए उन्हें परिनिष्ठित रूप दिया, साथ ही कविता में संगीतात्मकता की वृद्धि की। इसके अलावा छायावाद को हिन्दी में मुक्त छंद के प्रवर्तन का श्रेय भी दिया जाता है। 

छायावाद के प्रमुख रचनाकार 

          छायावाद युग के चार प्रमुख आधार स्तंभ हैं- जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला’, सुमित्रानंदन पंत एवं कवयित्री महादेवी वर्मा। छायावाद युग के अन्य कवियों में डॉ. रामकुमार वर्मा, जानकी वल्लभ शास्त्री, हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के नाम उल्लेखनीय है। 

(1)  जयशंकर प्रसाद : जयशंकर प्रसाद हिन्दी की छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक है। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई। प्रसाद कवि के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ नाटककार, कथाकार तथा निबन्धकार भी हैं। इतना वैविध्यपूर्ण सृजन छायावाद के अन्य कवियों में नहीं दिखाई देता है। प्रसाद की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं- 

          काव्य- आँसू, झरना, लहर और कामायनी (महाकाव्य)। 
          नाटक- स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी। 
          उपन्यास- कंकाल, तितली एवं इरावती। 

          कुल मिलाकर प्रसाद ऐसे बहुआयामी प्रतिभा के साहित्यकार हैं जो हिन्दी में कम ही मिलेंगे। उन्होंने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से न केवल समृद्ध किया, बल्कि उन सभी विधाओं को बहुत ऊँचे स्थान तक भी पहुँचाया। 

(2)  सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ : निराला जी हिन्दी साहित्य के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में दूसरे स्तंभ माने जाते हैं। इन्होंने अपनी कविताओं में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया तथा यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। निराला जी एक कवि, निबंधकार, उपन्यासकार और कहानीकार भी थे। किन्तु इनकी ख्याति विशेष रूप से कवि के रूप में है। निराला जी की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे प्रायः खड़ी बोली के कवि थे, परन्तु वे ब्रजभाषा एवं अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। इनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व संवेदना, कहीं देश प्रेम का जज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं 

          काव्य- राम की शक्तिपूजा, तुलसीदास, सरोज स्मृति व अनामिका । 
          उपन्यास- अप्सरा, अल्का व प्रभावती। 

(3)  सुमित्रानंदन पंत : हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से पंत तीसरे स्तंभ हैं। छायावादी काव्यधारा को एक नयी गति देने में पंत की भूमिका उल्लेखनीय है। भाव, भाषा एवं शिल्प सभी दृष्टियों से पंत ने छायावाद को सम्पन्न बनाया। अपने लम्बे जीवन काल (1900 से 1977 तक) के लगभग साठ वर्षों में वे निरंतर रचनाशील रहे। उनका संपूर्ण साहित ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा। जहाँ प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और विचारशीलता के। छायावादी कवियों में सर्वाधिक रचना पंत ने ही की है। इनकी प्रमुख कृतियों हैं- उच्छावास, वीणा, पल्लव, गुंजन स्वर्ण धूमि और चिदम्बरा। 

(4)  महादेवी वर्मा : महादेवी वर्मा छायावाद की प्रतिनिधि कवियित्री हैं। हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवियित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। डॉ. नगेन्द्र के मत से तो महादेवी में छायावाद का शुद्ध अमिश्रित रूप मिलता है। महादेवी वर्मा के काव्य की केन्द्रीय संवेदना वेदना है। उनके काव्य में व्यक्त वेदनानुभूति में रहस्यवाद की उपस्थिति भी दिखाई देती है। 

          महादेवी वर्मा का संपूर्ण काव्य-कृतित्व गीति विधा में है। गीति तत्त्व छायावाद का एक प्रमुख तत्त्व है। प्रसाद, पंत, निराला सभी ने गीतों की रचना की है। परंतु महादेवी वर्मा पहली हिन्दी कवियत्री हैं जिनका समग्र काव्य-कृतित्त्व गीतों के रूप में है। महादेवी का काव्य कई संग्रहों में संग्रहित है। नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत और दीपशिखा उनके स्वतंत्र काव्य संग्रह है। 

          समग्रत: महादेवी वर्मा वेदना की गहनता के स्तर पर मीरा के बाद हिन्दी  की सबसे बड़ी कवयित्री के रूप में सामने आती हैं। 

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