भाषा और समाज का अंतर्संबंध

भाषा किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए ही अनिवार्य नहीं है बल्कि वह उस समाज के लिए भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जिस समाज विशेष में वह व्यक्ति रहता है। हमारा विश्व कई समाज विशेष से मिलकर बना है और इन समाज विशेष की पहचान वह भाषा ही होती है। जब हम किसी व्यक्ति की बात करते हैं तो कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष रूप से समाज भी उससे जुड़ा ही होता है। क्योंकि रहना उस व्यक्ति को समाज में ही है। कोई भी भाषा, समाज के बिना अधूरी है क्योंकि भाषा के प्रचार और प्रसार का कार्य तो समाज द्वारा होता है यही कारण है कि भाषा बहते नीर की भांति कुछ समय पश्चात् अपने में परिवर्तन करती रहती है। इसी प्रकार यदि भाषा ही न हो तो समाज का विकास अवरूद्ध हो जाएगा। भाषा समाज में रहकर केवल अपना विकास ही नहीं करती बल्कि वह उस समाज का विकास भी करती है। इस समाज से ही भाषा नए संदर्भों से जुड़ती है इसी प्रकार भाषा समाज में रहने के कारण ही अनुशासित तथा व्यवस्थित रहती है।
भाषा और समाज के पारस्परिक संबंध का उल्लेख करते हुए डेलहाइम्स और फिशमैन ने सामञ्जस्यवादी दृष्टिकोण उपस्थित किया। उनके अनुसार भाषा – विवेचन में केवल भाषा संरचना पर ही विचार नहीं करता है, अपितु समाज – संरचना को भी उसके अंतर्गत सम्मिलित करने की अपेक्षा है।
गम्पर्ज और फर्ग्युसन ने इस तथ्य को स्पष्ट किया कि भाषा प्रयोग समाज-व्यवस्था से अनुशासित रहता है। अतः भाषा विश्लेषण में समाज की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
भाषा और समाज का अन्योन्याश्रय संबंध है। व्यक्ति जिस समाज में रहता है वह उसी समाज के अनुसार भाषा सीखता है और उसका प्रयोग भी करता है । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति ब्रज भाषा-भाषी समाज में रहता है तो वह व्यक्ति स्वयं ही उस समाज की भाषा सीख जाता है जबकि अगर कोई व्यक्ति अवधी भाषा क्षेत्र में पैदा हुआ है और वहीं पला बढ़ा है तो वह व्यक्ति स्वयं ही अवधी भाषा सीख जाता है।
इसी प्रकार हमारे समाज में आर्थिक स्थिति के आधार पर, शैक्षिक योग् के आधार पर जाति/समुदाय के आधार पर, व्यवसाय के आधार पर कई स्तर – भेद पाए जाते हैं। जिसका प्रभाव हमारी भाषा पर भी पड़ता है। इसके स्तर-भेद अतिरिक्त भौगोलिकता के आधार पर भी भाषा में अन्तर पाया जाता है।
भाषा का अधिग्रहण व उसकी व्यवहार- क्षमता समाज में रहकर ही सम्भव हो सकती है। इसकी सामाजिकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि बच्चा जिस प्रकार के भाषिक समाज के बीच रहता है वह उसी प्रकार की भाषा का अधि ग्रहण करता है। समाज से पृथक पोषित मानव-शिशु किसी भी भाषा में अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर सकता । यहाँ तक कि हम जिसे मातृभाषा कहते हैं वह भी उस समाज की भाषा होती है जिसका वह सदस्य होता है।
किसी व्यक्ति की भाषा का मुख्य आधार समाज ही होता है क्योंकि समाज से पृथक भाषा की कोई सार्थकता नहीं होती। हम कौन सी भाषा बोलते हैं. भाषा का प्रयोग किस प्रकार करते हैं, हमें अपने छोटे से किस प्रकार और अपने से बड़े व्यक्ति से किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना चाहिए, भाषा का रूप किस प्रकार अन्य अथवा अलग-अलग संदर्भों में बदल जाता है। भाषा के औपचारिक और अनौपचारिक रूप का प्रयोग कब करना है। ये सभी हमें समाज में रहकर ही पता चलता है। इसलिए किसी भी भाषा के अर्जन कर लेने अथवा ज्ञान हो जाने से मात्र से भाषा का कार्य पूरा नहीं हो जाता बल्कि भाषा का मुख्य कार्य अपनी संस्कृति और समाज को ध्यान में रखते हुए संप्रेषण प्रक्रिया पूर्ण करना है।
ए.डी. एडवर्ड का कहना है- भाषा जहाँ बातचीत की पूरी प्रक्रिया का एक हिस्सा है, वहीं इसका अर्थ इसके प्रसंग से अवियोज्य (न पृथक करने योग्य) है और यह हमें शब्दों के धरातल से अधिक का ज्ञान कराती है। यह इस प्रकार से नमूनों के रूप में प्रकाशित या परिभाषित किया जा सकता है कि वक्ता कौन है? उनके बीच संबंध कैसे हैं, और उस स्थिति को वो कैसे समझते हैं जिसमें वे एक ‘सामाजिक यथार्थवादी भाषिकी’ को बोलते हैं वे उन कारणों को जानने की कोशिश करते हैं जिनमें वे बोलते हैं। एक ‘सामाजिक यथार्थवादी भाषिकी’ इन नमूनों का लेखा रखने की कोशिश करता है। इसका संबद्ध आदर्शवादी वक्ताओं से नहीं बल्कि सामाजिक संसार में रहने वाले व्यक्तियों से है जो जानता है ‘कब बोलना है, कब नहीं, किसके बारे में, किससे, कब, कहाँ और किस ढंग से बात करनी है।
पीटर टुडगिल भी भाषा को केवल संदेश देने का माध्यम न मानकर बल्कि संबंध स्थापित करने का साधन भी मानते हैं।
वे कहते हैं कि भाषा का साधारण अर्थ मौसम के बारे में या किसी अन्य विषय के बारे में संदेश देना भर ही नहीं है। इसका एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध बनाना व स्थापित करना भी है। यहाँ तक कि एक भौतिक वातावरण किस प्रकार हमारे समाज और हमारी भाषा पर प्रभाव डालता है कि चर्चा करते हुए वे कहते हैं – अंग्रेजी में बर्फ के लिए स्नो (snow) शब्द है और यदि हम दूसरा शब्द भी शामिल कर ले तो ‘स्लीट’ (sleet) जबकि ऐस्किमो (eskimo) के पास उनके स्थानीय वातावरण के कारण स्नो (snow) के लिए भी कई शब्द है।
वास्तव में भाषा हमारे व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है एक गूंगे व्यक्ति को देखकर उसकी वेशभूषा के अनुसार हम कुछ-कुछ अनुमान तो लगा लेते हैं कि वह व्यक्ति शायद उस क्षेत्र का हो पर क्योंकि वेशभूषा आदमी बदल भी सकता है पर भाषा का जुड़ाव या कह सकते हैं कि भाषा का असर हमारी जबान पर रहता ही है तो भाषा से ही व्यक्ति को सही पहचान की जा सकती है। साधारणतः हमारी भाषा ही दूसरे व्यक्ति को बताती है कि हम देश के किस क्षेत्र से है। यहाँ तक कि हमारे परिवेश और व्यवहार का ज्ञान भी दूसरे व्यक्ति को हमारी भाषा से ही मिलता है।
आर. के. अग्निहोत्री (R. K. Agnihotri) कहते हैं- भाषा केवल शब्द ही नहीं है और न ही सिर्फ शब्दों की व्यवस्था है। यह हमारी पहचान (identify) का एक भाग है, ऐसी पहचान जो प्राय: बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक हो सकती है। आगे वे कहते हैं- भाषा सबसे पहले एक डिस्कोर्स (discourse) है जो व्यक्ति और उसकी सामाजिक पहचान से जुड़ा है। न तो कोई कोश और न ही व्याकरण उन नए शब्दों को पैदा कर सकता है जिन्हें हम प्रत्येक दिन एक-दूसरे के लिए पैदा करते हैं। प्रत्येक दिन हम एक-दूसरे को अपनी भाषा के द्वारा दोबारा सृजन (resconstruct) करते हैं और इस प्रक्रिया से हम अपनी भाषा का भीं दोबारा सृजन करते हैं। एक जीवित भाषा के पास हमेशा नियम और शब्द होते हैं जो किसी व्याकरण या कोश में नहीं पाए जाते हैं।
जेनिफर बयेर (Jennifer Bayer)– का कहना है कि इस प्रकार भाषा अपने सामाजिक प्रसंग में एक अन्योन्याश्रित क्रिया है। भाषा का प्रयोग से तात्पर्य केवल इस बात पर जोर देना नहीं है कि भाषा को जाना जाए बल्कि इस बात को जानना है कि परिस्थितियों और प्रसंगों में भाषा का प्रयोग किस प्रकार किया जाए।
अब कुछ भारतीय विद्वानों के मत-
प्रो. दिलीप सिंह कहते हैं- “भाषा के समाजकेंद्रित अध्ययन द्वारा यह संभव हुआ कि “अब नाते-रिश्ते के शब्द, सर्वनाम और संबोधन प्रयोगों में शिष्ट और विनम्र अभिव्यक्तियों के साथ-साथ आशीष देने, विरोध करने, सहमत असहमत होने, यहाँ तक कि गरियाने और अश्लील प्रयोगों तक की समाज की संरचना और उसके लोगों की मनोवैज्ञानिक बनावट के संदर्भ में देखा-परखा जाने लगा। मूल रंग शब्दों की परिकल्पना ने भिन्न समाजों में इनकी प्रतिवक्ता को देखने से अध्ययन की शुरूआत की थी। हिंदी में ही लाल के साथ अनुराग हरे के समाज खुशहाली, पीले के साथ शुभ जैसे सामाजिक अर्थों का जुड़ते चले जाना हमारी लोक-संस्कृति का नहीं, जीवन को देखने की एक खास दृष्टि का भी परिचायक है।”
भाषा समाज में ही बनती है। नाते-रिश्ते के शब्दों की भांति रंग शब्द भी सामाजिक संरचना के अनुसार निर्मित होते हैं। यही कारण है कि एक ही रंग को कहीं जोगिया कहीं भगवा, कहीं केसरिया, कहीं बसंती तो कहीं वासंती कहा जाता है इनमें जोगिया/भगवा का संबंध वैराग्य/संन्यास से है तो केसरिया/बसंती/वासंती का बलिदान और राष्ट्रप्रेम से। इसी प्रकार भाषा और समाज का अन्योन्याश्रय संबंध बताते हुए रंगों के लिए और वचन बदलने को व्याकरण की अपेक्षा लोक व्यवहार पर आधारित दिखाया गया है।… भाषा में विविध प्रकार के विकल्प समाज द्वारा पैदा किए जाते है जैसे दूध से दूधिया, फालसा से फालसाई और किशमिसी रंग शब्द समाज मे बनाए हैं, व्याकरण ने नहीं। यह रंग का सांस्कृतिक संदर्भ ही है कि भारत में मृत्यु पर श्वेत तो पश्चिमी देशों में काले वास्त्र पहने जाते हैं। ईसाई दुल्हन श्वेत परिधान पहनती है और हिंदू विधवा श्वेत वस्त्र । संस्कृति में रंग और भाषा में उनकी अभिव्यक्ति जिस सांस्कृतिक चेतना का दिग्दर्शन कराती है वह लोक जीवन और साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है।
अतः भाषा की मूल प्रकृति में ही सामाजिक तत्व अंतर्निहित रहते हैं। इसलिए भारतीय समाज में जहाँ छोटे-छोटे रिश्तों को भी बहुत महत्त्व दिया जाता है उसी के आधार पर रह एक रिश्ते के लिए अलग शब्द है। कुछ अंग्रेजी और हिंदी शब्दों की तुलना इस प्रकार देखी जा सकती है-
ग्रैंडफादर : दादा, नाना
ग्रैंडमदर : दादी, नानी
ग्रैंडसन : पोता, नाती
ग्रैंडडाटर : पोती, नातिन / नातिनी
ब्रदर-इन-ला : देवर, जेठ, साला, बहनोई
भाषा का निर्माण समाज की संरचना निर्माण के आधार पर भी निर्भर करत है। समाज ने जिस प्रकार की व्यवस्था होती है भाषा का निर्माण भी उसी प्रकार का होता है। हम देख सकते हैं कि हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज रहा है। आज भी स्त्रियाँ पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं कर सकी है। भाषा और समाज के अंतर्संबंध के दृष्टिकोण से यह भी देखा जा सकता है कि हमारे समाज में जितनी भी गालियाँ हैं वे सभी स्त्री / स्त्री यौनिकता के आधार पर बनाई है।
प्रो. रविन्द्र नाथ श्रीवास्तव के अनुसार, भाषा और समाज के अंतर संबंध पर होने वाले कार्यों पर दृष्टि डालने पर उनकी निम्नलिखित तीन प्रवृत्तियों औ विचार- क्षेत्र दिखलाई पड़ते हैं-
- ‘सार्वर्भाम व्याकरण’ की प्रकृति के स्थान पर भाषा को विकल्पनों क उपव्यवस्था के रूप में देखने की प्रवृत्ति,
- भाषा की अमूर्त अभिव्यक्ति और उसके साधारणीकृत सार्वभौम नियम की खोज के स्थान पर उन वास्तविक सामाजिक संदर्भों की खोज की प्रवृति जिनके बीच नियमों का प्रयोग होता है, और
- भाषा को चिंतन एवं सम्प्रेषण का मात्र माध्यम मानने के स्थान पर उसे उस ‘सम्प्रेषण कथ्य’ के रूप में स्वीकार करने की प्रवृत्ति जो व्यक्ति की सामाजिक अस्मिता, उसकी भाषा संबंधी अभिव्यक्ति, भाषा द्वंद्व आदि का – सूचक होता है।
प्रो. दिलीप सिंह भाषा और समाज के अंतर संबंधों को तीन स्तरों पर देखते हैं-
- सामाजिक संरचना, भाषा संरचना या भाषा व्यवहार को प्रभावित करती है। इस रूप में भाषा और समाज के संबंध को देखने का कारण यह है कि समाज में वक्ता श्रोता की आयु (बच्चों का भाषा प्रयोग वयस्कों से भिन्न होता है तथा एक दूसरे के साथ बातचीत में आयु का घटक पर्याप्त भाषा भेद पैदा करता है), क्षेत्र (दिल्ली में रहने वाले की हिंदी पटना में रहने वाले की हिंदी से भिन्न है), सामाजिक वर्ग ( उच्च वर्ग तथा परस्पर भाषा व्यवहार में ये अलग-अलग संप्रेषण युक्ति से बँधे होते है) आदि भेद भाषा प्रयोग में भी भेद लाते हैं।
- भाषाई संरचना, सामाजिक संरचना या सामाजिक व्यवहार को नियंत्रित करती है। उदाहरण के लिए हिंदी में जिन लोगों को हम आदर देते हैं उनके लिए ‘आप’ का प्रयोग करते हैं अर्थात् यहाँ भाषिक संरचना हमारी सामाजिक संरचना को व्यक्त करती है कि ‘तू’ और ‘तुम’ की जगह हमने ‘आप’ का चयन किया क्योंकि ऐसा करना हमारी सामाजिक बाध्यता है जिसके लिए हम ‘आप’ का प्रयोग करते हैं उनके आने पर यदि हम बैठे हुए हों तो खड़े हो जाते हैं अर्थात् यहाँ भाषा संरचना हमारे सामाजिक व्यवहार को भी नियंत्रित कर रही है।
- भाषा-व्यवहार के समय भाषा और समाज एक-दूसरे को प्रभावित करते चलते हैं। उदाहरण के लिए हिंदी में अभिवादन, समाज प्रभावित है- नमस्ते. प्रणाम और चरण स्पर्श के प्रयार्य निर्धारित है। इसी तरह नाते-रिश्ते के प्रयोग भी भाषा प्रभावित है, जैसे पिता के लिए बाबूजी, बाबू, बाऊ, पापा, डैडी । यहाँ यह ध्यान दें कि इन दोनों संदर्भों में भाषा और समाज की प्रमुखता कोटिबद्ध नहीं की जा सकती क्योंकि किन्हीं अन्य संदर्भों में उल्टा भी हो सकता है। उदाहरण के लिए हिंदी में नाते-रिश्ते के शब्दों का जब हम संबोधनवत् प्रयोग करते हैं। तब सामाजिक संदर्भ निर्णायक बन जाता है।
अतः हम देखते हैं कि भाषा और समाज का एक अटूट संबंध है। भाषा न केवल व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है बल्कि उसे एक पहचान भी दिलाती है। वह न केवल पशु और मनुष्य में अंतर करती है। बल्कि उसके समाज / समुदाय के संचालन का माध्यम भी होती है। भाषा की प्रकृति में ही सामाजिक तत्व अंतर्निहित रहते हैं।
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