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मॉडल प्रश्न उत्तर, हिन्दी कविता सेमेस्टर-2, इकाई-4 घनानंद

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निम्नलिखित मॉडल प्रश्नोत्तर बी.ए.(ऑनर्स) हिन्दी के सेमेस्टर-2 के पेपर हिन्दी कविता: सगुण भक्तिकाव्य एवं रीतिकालीन काव्य के हैं।

इकाई-4: घनानंद

प्रश्न-1. घनानन्द की ‘प्रेम व्यंजना’ का वर्णन कीजिए।

उत्तर- रीतिमुक्त स्वच्छन्द काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट स्वच्छंद प्रेमी कवि है। इनकी कविता प्रमोद्गारों की अक्षय निधि है और हिन्दी काव्य की चिर स्थायी सम्पत्ति है। घनानन्द का प्रेम विशुद्ध लौकिक प्रेम था। वे मुहम्मद शाह रंगीला के दरबार में रहने वाली सुजान नामक नर्तकी से प्रेम करते थे, किन्तु उसके छलकपट पूर्ण व्यवहार से के भीतर तक व्यतित हो गए। उनका हृदय ‘चाह के रंग’ में भीगा था। प्रिय भले ही निष्ठुर एवं निर्मम हो, किन्तु घनानन्द एकनिष्ठ एवं अनन्य प्रेमी है। भले ही प्रिय ने उनके साथ विश्वासघात किया किन्तु वे जीवन-पर्यन्त सुजान से प्रेम करते रहे। सुजान से प्रेम करने वाले घनानन्द की सम्पूर्ण काव्य साधना प्रेमोद्गारों की अक्षय निधि है।         

इनकी प्रेम पद्धति वियोग व्यथा से ओत-प्रोत है, वैयक्तिता से जुड़ी हुई है तथा उसमें अलौकिकता, नवीनता, मार्मिकता, कष्ट, सहिष्णुता जैसे गुण विद्यमान है। उनकी कविा में प्रेम का सरल, सहज एवं स्वच्छंद रूप दिखाई पड़ता है, जिसमें उदांतता विद्यमान है। घनानंद प्रेम की पीर के कवि हैं। प्रेम विभोर चित्रण घनानन्द न किया हो। इसलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं- “प्रेम की गूढ़ अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा इनमें है, वैसा हिंदी के किसी अन्य शृंगारी कवि में नहीं।”         

घनानन्द का मानना था कि प्रेममार्ग तो सरल-सीधा, निश्छल होता हैख् जहाँ चतुराई और कपट के लिए इंचमात्र भी स्थान नहीं है-

“अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलै तजि आपुनपो झिझकै कपटी जे निसाँक नहीं।।”
“घन आनन्द प्यारे सुजान सुनौ इत एक ले दूसरों आँक नहीं।
तुम कौन घौ पाटी पढ़ै हौ लाला मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।”         

घनानंद के प्रेम में उपालंभ भावना दिखाई देती है। उन्हें प्रिय से यह शिकायत है कि यदि तुम्हें ऐसे ही निष्ठुर एवं निर्मम व्यवहार करना था, तो पहले अपने रूप जाल में मेरे मन को क्यों बाँध लिया तथा अमृत सने वचन बोलकर मेरे मन में काम भाव क्यों उत्पन्न किया-

“क्यों हँसि हेरि हर्यो, हियरा अरु क्यों हित कै चित चाह बढ़ाई।
काहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन निसेन चड़ाई।”         

घनानन्द के प्रेम की एक अन्य विशेषता है- नैसर्गिकता एवं अक्रविनम्रता। वे स्वच्छंद प्रेम के कवि है। अतः उनका प्रेम चित्रण बंधी-बधाई परिपाटी में न होकर नैसर्गिक है। प्रिय भले ही निष्ठुर हो पर वे तो चकोर की भाँति उस चंद्रमा की ओर ही अमृत वर्षा के लिए टकटकी लगाए रहेंगे। प्रेमामर्ग पर घनानन्द बहादुरी से डटे हुए हैं। इसलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनके संबंध में लिखा है- “प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबांदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।” घनानंद के प्रेम का मूल आधार ‘सौन्दर्य’ है। उनकी प्रेयसी सुजान अनिंध सुंदरी थी। उसका सौन्दर्य घनानन्द के रोम-रोम में बसा है। वे उसके इस सौन्दर्य का चित्रण बड़े मनोयोग से करते हैं। यह सौन्दर्य चिर नवीन है-

“रावरे रूप की रीति अनूप, नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिए।
त्यों इन आँखिन बानि अनोखी, अधानि कहूँ नहिंआन तिहारिए।।”         

इतना ही नहीं घनानन्द के प्रेम में कष्ट सहिष्णुता का भी गुण विद्यमान है। वे हर प्रकार का कष्ट सहन करने को तैयार है। उन्होंने अप8ेक प्रकार के कष्टों में तपते हुए प्रिय के निष्ठुर हृदय में दया उत्पन्न करने का प्रण किया हुआ हैं। वे आशा की रस्सी से विश्वास के पत्थर को हृदय पर बांधकर प्रेम के समुद्र में डूबने को तत्पर हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य है कि वह अपने कष्टमय जीवन को दिखाकर प्रिय के निष्ठुर हृदय में दया उत्पन्न करें-

“आसागुन बाँधि के भरोसो सिल धरि दृष्टि,
पूरे पन सिन्धु में बूदत सकाय हौं।
ऐसे घन आनन्द गाही है टेक मन माँहि,
ए रे निरदई तोहि दया उपजाय हौ।।”         

घनानन्द विरह में तपे हुए थे। उनके हृदय में पिरह का अथाह सागर हिलोरे ले रहा था। उनके विरह से बाहरी उछल-कूद, शारीरिक ताप की अधिकता या विरह जन्म कृशता का उल्लेख नहीं है, अपितु उसमें हृदय की तड़प, वेदना की अतिशयता एवं विरहाकुलता है। विरह ही उनके प्रेम की कसौटी है। वे चिरंतन वेदना से मुक्त ऐसे प्रेमी है, जिनके प्राण रात-दिन इस विरह वेदना से घुट-घुटकर जलते रहते हैं। आँखों में अश्रु प्रवाहित होते रहते हैं-

“रैन दिना घुटिबो करैं प्रान, झरैं आँखियाँ दुखिया झरना सी।
प्रीतम की सुधि अन्तर में कसकै सखिज्यौं पँसरीन में माँसी।।”

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