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रीतिकालीन काव्य की पृष्ठभूमि, परिवेश और परिस्थितियाँ (ritikal ki paristhitiyan)

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रीतिकाल हिंदी साहित्य (ritikal ki paristhitiyan) के इतिहास में सन् 1643 ईस्वी से 1843 ईस्वी तक का कालखंड है। इस काल की कविता संवेदना और स्वरूप दोनों दृष्टियों से पूर्ववर्ती भक्ति काल से पूर्णतः भिन्न है। रीतिकाल की कविता, जिसे मुख्य रूप से दरबारी और श्रृंगारिक माना जाता है, तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिवेश की प्रत्यक्ष उपज थी। इस कालखंड की परिस्थितियों को समझे बिना इसके काव्य की विशिष्ट प्रवृत्तियों को समझना असंभव है। (ritikal ki paristhitiyan)

यहाँ रीतिकाल की पृष्ठभूमि, परिवेश और परिस्थितियों पर 1000 शब्दों में विस्तृत प्रकाश डाला गया है:

रीतिकाल: पृष्ठभूमि, परिवेश और परिस्थितियों का विस्तृत विश्लेषण

1. राजनीतिक पृष्ठभूमि और मुगल साम्राज्य का पतन (ritikal ki paristhitiyan)

रीतिकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ ही इसकी दरबारी प्रकृति का मूल कारण थीं। यह काल मुगल साम्राज्य के चरम उत्थान (शाहजहाँ का काल) के अंतिम वर्षों से लेकर उसके पूर्ण पतन और अंग्रेजों के उदय तक फैला हुआ है।

– केंद्रीय सत्ता का क्षरण

  • शाहजहाँ और औरंगज़ेब का प्रभाव (प्रारंभिक चरण): रीतिकाल का प्रारंभ शाहजहाँ के विलासितापूर्ण और कला प्रेमी शासन में हुआ, जहाँ ऐश्वर्य और भव्यता चरम पर थी। यद्यपि औरंगज़ेब का शासनकाल कठोर और कला विरोधी था, उसकी मृत्यु (1707 ईस्वी) के बाद मुगल सत्ता में तेजी से पतन और अयोग्यता का दौर शुरू हुआ। (ritikal ki paristhitiyan)
  • अयोग्य उत्तराधिकारी: औरंगज़ेब के बाद के मुगल शासक (जैसे मुहम्मद शाह ‘रंगीला’) भोग-विलास और व्यक्तिगत सुखों में डूबे रहे। वे साम्राज्य की रक्षा या प्रशासन पर ध्यान नहीं दे पाए। इससे केंद्रीय शक्ति पूरी तरह कमजोर हो गई।
  • सामंतवाद और स्थानीय राज्यों का उदय: दिल्ली की केंद्रीय सत्ता कमजोर होते ही, क्षेत्रीय गवर्नरों, जागीरदारों और राजाओं ने खुद को स्वतंत्र शासक घोषित करना शुरू कर दिया। अवध, बुंदेलखंड, रीवा, जयपुर, जोधपुर, और पन्ना जैसे छोटे सामंती राज्यों का उदय हुआ। इन राजाओं के पास अब बड़े युद्धों की चिंता कम थी, और उनका ध्यान अपने स्थानीय वैभव, कलात्मक प्रतिस्पर्धा और निजी मनोरंजन पर केंद्रित हो गया।

– राजनीतिक अस्थिरता का प्रभाव

  • युद्धों का स्वरूप परिवर्तन: बड़े साम्राज्यों के बीच युद्ध की जगह छोटे-छोटे स्थानीय युद्धों और षड्यंत्रों ने ले ली। इन छोटे राज्यों ने युद्ध से अधिक अपने दरबारों को सजाने और मनोरंजन सामग्री जुटाने में धन खर्च किया।
  • कविता का उद्देश्य परिवर्तन: राजनीतिक अस्थिरता और शासकों की अयोग्यता ने कवियों को राष्ट्रप्रेम या शौर्य का काव्य लिखने के लिए प्रेरित नहीं किया, बल्कि उन्हें जीविका के लिए राजाओं की निजी रुचि के अनुरूप श्रृंगार और प्रशंसा का काव्य लिखना पड़ा।

2. सामाजिक परिवेश और दरबारी संस्कृति

रीतिकाल का सामाजिक जीवन दरबार केंद्रित था, और इसी दरबारी संस्कृति ने काव्य को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया।

– दरबारी जीवन का प्रभुत्व

  • विलासिता और ऐश्वर्य: राजदरबार अत्यधिक विलासिता, प्रदर्शन और कलात्मक प्रतिस्पर्धा के केंद्र बन गए थे। राजाओं और रईसों का जीवन नाच-गान, शराब और रंगरेलियाँ मनाने में बीतता था। (ritikal ki paristhitiyan)
  • कवि की स्थिति: कवि की भूमिका एक स्वतंत्र रचनाकार की कम, और आश्रयदाता को प्रसन्न करने वाले दरबारी कर्मचारी की अधिक थी। कवि को अपनी कविता के माध्यम से राजा की श्रृंगारिक भावनाओं को उत्तेजित करना या उनके वीर रस का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करना होता था, जिसके बदले में उन्हें धन, जागीर या सम्मान प्राप्त होता था। इससे काव्य की नैतिकता और व्यापकता सीमित हुई।
  • कलाओं का समन्वय: कविता का विकास अकेले नहीं हुआ, बल्कि वह संगीत, नृत्य (कथक), चित्रकला (किशनगढ़, कांगड़ा शैली) और वास्तुकला के साथ मिलकर दरबारी मनोरंजन का एक समग्र पैकेज बन गई।

– स्त्री का स्थान

  • भोग्या और विलास की वस्तु : रीतिकाल की कविता में स्त्री का चित्रण सामान्यतः यौन आकर्षण और विलास की वस्तु के रूप में हुआ। काव्य में चित्रित नायिकाएँ वास्तविक लोक जीवन की स्त्रियाँ नहीं थीं, बल्कि कामशास्त्र (विशेष रूप से ‘रस मंजरी’ जैसी ग्रंथों) में वर्णित खंडिता, परकीया, वासकसज्जा आदि नायिकाओं के भेदों पर आधारित थीं।
  • देह-सौंदर्य का चित्रण : इस काव्य में मानसिक प्रेम या आध्यात्मिक भक्ति के स्थान पर स्त्री के अंग-प्रत्यंगों (नख-शिख) के अत्यधिक सूक्ष्म और मादक चित्रण पर बल दिया गया, जो तत्कालीन दरबारी दृष्टिकोण का परिणाम था।

3. सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियाँ

रीतिकाल की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों ने भी श्रृंगारिकता और रीति-निरूपण को बढ़ावा दिया।

– भक्ति आंदोलन का क्षीण होना

  • नैतिकता का ह्रास: भक्ति काल की पवित्रता, त्याग और लोक-कल्याण की भावना रीतिकाल आते-आते क्षीण हो गई। तुलसी और कबीर की गहन नैतिक चेतना का स्थान क्षणिक और लौकिक सुखों की चाह ने ले लिया।
  • राधा-कृष्ण का लौकिकीकरण: भक्ति काल के आराध्य देव राधा और कृष्ण अब कविता में केवल प्रेम और श्रृंगार के लौकिक नायक-नायिका बनकर रह गए। कृष्ण का लोकरक्षक स्वरूप धूमिल हुआ और उनके प्रेम-क्रीड़ाओं, मादक रूप-सौंदर्य और अश्लील प्रसंगों पर आधारित काव्य अधिक लिखा जाने लगा। धर्म यहाँ श्रृंगार रस के पोषण का साधन बन गया। (ritikal ki paristhitiyan)

– संस्कृत काव्यशास्त्र का पुनरुत्थान

  • रीति-ग्रंथों का निर्माण: इस काल के कवियों पर संस्कृत काव्यशास्त्र (भरत मुनि, भामह, दण्डी, मम्मट, विश्वनाथ आदि) का गहन प्रभाव था। राजाओं को संतुष्ट करने और अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए कवियों ने काव्य लक्षण, रस, अलंकार, नायिका भेद आदि पर आधारित ग्रंथ लिखने शुरू किए।
  • पांडित्य प्रदर्शन: कविता का उद्देश्य केवल भावों की अभिव्यक्ति नहीं रहा, बल्कि रीति (सिद्धांत) का निरूपण करना और पांडित्य का प्रदर्शन करना भी हो गया। यही कारण है कि इस काल को रीतिकाल कहा जाता है, जहाँ कवि पहले आचार्य बनते थे और फिर अपनी ही रीति के आधार पर उदाहरण (कविता) प्रस्तुत करते थे। केशव, चिंतामणि, मतिराम, देव जैसे कवि इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

रीतिकाल का काव्य अपने समय की राजनीतिक शून्यता और सामाजिक विलासिता का सीधा प्रतिबिंब है। अस्थिर राजनीतिक वातावरण में उभरे सामंती दरबारों ने कविता को लोक-जीवन से काटकर एक संकुचित, श्रृंगारिक और पांडित्य-पूर्ण दायरे में कैद कर दिया। (ritikal ki paristhitiyan)

  • परिणामस्वरूप, रीतिकाल की कविता में कला पक्ष (अलंकार, छंद, भाषा का चमत्कार) भाव पक्ष (मानव जीवन की गहरी अनुभूति) की तुलना में अधिक सशक्त हो गया। यह काल भारतीय इतिहास का वह संक्रमण काल था, जहाँ एक ओर मुगल सत्ता का अंतिम क्षरण हो रहा था, और दूसरी ओर कविता राजाश्रय में विलासिता के स्वर्णजाल में उलझकर रह गई थी।
  • इस प्रकार, रीतिकाल को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि इस कविता का मूल कारण राजाओं का संरक्षण और उनकी श्रृंगारिक रुचि थी, न कि कवि की नैसर्गिक सृजनात्मकता। (ritikal ki paristhitiyan)
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