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मीरा की प्रेम भावना (mira ki prem bhavna)

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मीरा के काव्य का मूल तत्व प्रेम है—ऐसा प्रेम जो सांसारिक नहीं, बल्कि पूर्णत: आध्यात्मिक और आत्मिक है। मीरा का प्रेम ईश्वर-कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति, समर्पण और माधुर्य-भाव से पूर्ण है। उनका काव्य इसी निष्काम, निरावरण और गहन प्रेम की अनुभूतियों को व्यक्त करता है। (mira ki prem bhavna)

सबसे पहले, मीरा के प्रेम की विशेषता है एकनिष्ठता और अनन्यता। वे कृष्ण को अपना सर्वस्व, अपना प्रियतम और अपना जीवनाधार मानती हैं। यह प्रेम केवल भक्ति नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के मिलन की अनुभूति है। उनका प्रसिद्ध पद—
“म्हारे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई”
उनके प्रेम की अंतिम सीमा और अनन्य समर्पण को दर्शाता है। (mira ki prem bhavna)

मीरा के प्रेम में माधुर्य-भाव की प्रधानता है। वे कृष्ण को केवल ईश्वर नहीं, बल्कि सखा, प्रिय, पति और जीवनसाथी के रूप में देखती हैं। इसीलिए उनके पदों में श्रृंगार के दोनों पक्ष—संयोग और विरह—दोनों के सूक्ष्म चित्रण मिलते हैं। सखी-भाव और संवाद शैली के प्रयोग से उनके काव्य में प्रेम की कोमलता और सहजता उभरती है।

विरह-भाव मीरा के काव्य का अत्यंत मार्मिक पक्ष है। प्रिय के दर्शन न होने पर मीरा तड़प उठती हैं, उनके मन में बेचैनी और व्याकुलता भर जाती है। वे कहती हैं—
“मैं तो सांवरियाँ के रंग रह गई”
यह पंक्ति उनके मन के भावात्मक समर्पण, आत्मविस्मृति और प्रिय के रंग में रंग जाने की उत्कट इच्छा को प्रकट करती है। मीरा के लिए विरह कोई दुःख नहीं, बल्कि प्रेम की साधना है, क्योंकि उन्हें विश्वास है कि विरह के ताप से ही प्रेम पूर्ण होता है।

मीरा के प्रेम की अगली विशेषता है उसका अहंकार-रहित और समर्पित होना। वे स्वयं को ‘दासी’, ‘बाँदी’, ‘सखी’ और ‘प्रेमिका’ के विविध रूपों में रखती हैं, किंतु प्रत्येक रूप में वे अहंकार का पूर्ण त्याग करती हैं। उनके लिए प्रेम का अर्थ है—स्व को मिटाकर प्रिय में विलीन हो जाना। (mira ki prem bhavna)

सामाजिक बंधनों और राजदरबार के दबावों के बावजूद मीरा का प्रेम अडिग रहता है। वे कहती हैं—
“लोकलाज त्यागी, मैं तो गोविंद के गुण गाऊँ”
यह पंक्ति प्रकट करती है कि उनका प्रेम बाह्य नियमों से परे, आत्मा की पुकार है, जिसे कोई रोक नहीं सकता।

अंततः, मीरा का प्रेम केवल व्यक्तिगत भाव नहीं, बल्कि आत्मिक उत्कर्ष की राह है। उनके काव्य का प्रेम मनुष्य को भीतर से शुद्ध करता है, भक्ति को गहराई देता है और हृदय को दिव्यता की ओर उन्मुख करता है। इसी कारण मीरा की प्रेम-भावना भक्तिकालीन साहित्य में सबसे पवित्र, उष्ण और शाश्वत प्रेम की अद्वितीय मिसाल मानी जाती है।

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