हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

प्रियप्रवास (priyapravas) : अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध”

0 131

‘प्रियप्रवास’ (priyapravas) 1909-1913 के बीच रचित एक सशक्त विप्रलम्भ काव्य है जिसकी रचना प्रेम और शृंगार के विभिन्न पक्षों को लेकर की गई है। इस ग्रन्थ का विषय श्रीकृष्ण की मथुरा-यात्रा है, इसी कारण इसका नाम ‘प्रियप्रवास’ है। कथा-सूत्र से मथुरा-यात्रा के अतिरिक्त उनकी और ब्रज लीलाएँ भी यथास्थान इसमें लिखी गई हैं।

श्रीकृष्ण को इस ग्रन्थ में एक महापुरुष की भाँति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं।…जो महापुरुष हैं, उनका अवतार होना निश्चित है। भगवान श्रीकृष्ण का जो चरित्र प्रस्तुत किया है, उस चरित्र का अनुसन्‍धान करके आप स्वयं विचार करें कि वे क्या थे।

कवि ने अपनी इस कृति में कृष्ण-कथा के मार्मिक यक्ष क्रो किंचित् मौलिकता और एक नूतन दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। कविता नीचे दि है।

मालिनी छंद

प्रमुदित मथुरा के मानवों को बना के।
सकुशल रह के औ’ विघ्न बाधा बचा के।
निजप्रिय सुत दोनों साथ लेके सुखी हो।
जिस दिन पलटेंगे गेह स्वामी हमारे॥४६॥

प्रभु दिवस उसी मैं सत्विकी रीति द्वारा।
परम शुचि बड़े ही दिव्य आयोजनों से।
विधिसहित करूँगी मंजु पादाब्ज – पूजा।
उपकृत अति होके आपकी सत्कृपा से॥४७॥

द्रुतविलंबित छंद

यह प्रलोभन है न कृपानिधे।
यह अकोर प्रदान न है प्रभो।
वरन है यह कातर–चित्त की।
परम – शांतिमयी – अवतारणा॥४८॥

कलुष – नाशिनि दुष्ट – निकंदिनी।
जगत की जननी भव–वल्लभे।
जननि के जिय की सकला व्यथा।
जननि ही जिय है कुछ जानता॥४९॥

अवनि में ललना जन जन्म को।
विफल है करती अनपत्यता।
सहज जीवन को उसके सदा।
वह सकंटक है करती नहीं॥५०॥

उपजती पर जो उर व्याधि है।
सतत संतति संकट – शोच से।
वह सकंटक ही करती नहीं।
वरन जीवन है करती वृथा॥५१॥

बहुत चिंतित थी पद-सेविका।
प्रथम भी यक संतति के लिए।
पर निरंतर संतति – कष्ट से।
हृदय है अब जर्जर हो रहा॥५२॥

जननि जो उपजी उर में दया।
जरठता अवलोक – स्वदास की।
बन गई यदि मैं बड़भागिनी।
तब कृपाबल पाकर पुत्र को॥५३॥

priyapravas

Leave A Reply

Your email address will not be published.