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Kar Kamal Ho Gaye कर कमल हो गए : हरिशंकर परसाई

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‘कर कमल हो गए’ (kar kamal ho gaye by harishankar parsai) हिन्दी साहित्य के मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई द्वारा रचित एक व्यंग्यात्मक निबंध है जिसका पाठ नीचे दिया गया है।

पिछले महीने से अपने हाथ भी कमल हो गये हैं। मेरे पास तीन कॉलिजों के समारोहों के निमन्त्रण-पत्र रखे हैं, जिनमें श्रीमान और श्रीमतीजी से कहा गया है कि उद्घाटन इस नकिचन के कर कमलों से होगा। यह मैं कर भी आया। चरण-कमलों से मंच पर चढ़ा, कमल-नयनों से लोगों को देखा, कर-कमलों से फीता काटा और मुख-कमल से भाषण दे डाला। उन लोगों ने सिर्फ हाथों को कमल कहा था, मैंने शरीर भर को कमल बना लिया। ऐसा देवताओं का होता था। राम के तो नाखून तक कमल के थे। देवताओं का एक काम तो मैं भी करता हूँ। आकाशवाणी करता हूँ। रेडियो से बोलता हूँ और रेडियो का हिन्दी नाम आकाशवाणी है। यों में विनोबा भावे से ज्यादा गांधीजी के रास्ते पर चलता है। जिस रास्ते से रोज निकलता हूँ, उसका नाम ही महात्मा गांधी मार्ग है। नाम से आदमी तर जाता है, उल्टे नाम तक से तर जाता है। कोई ‘मरा-मरा’ चिल्ला रहा था तो राम ने उसे सीधा स्वर्ग भेज दिया। बड़े आदमी छोटा एहसान करके ‘प्रोपेगेण्डा स्टष्ट’ साधते हैं, वैष्णव इस स्टण्ट को समझे ही नहीं और स्तुति गाने लगे। (kar kamal ho gaye by harishankar parsai)

मेरे एक दोस्त के कर भी कमल हो गये हैं। मुझसे कुछ बेहतर क्वालिटी के। क्योंकि वे पाँच उद्घाटन इस मौसम में कर चुके हैं। वे मेरे हाथ उलट-पुलटकर देखते हैं, और मैं उनके देखता हूँ। वे कहते हैं, “यार, दोनों के हाय एकाएक कमल जैसे हो गये? यह बात क्या है ?” सचमुच यह बात क्या है?

मैंने भरसक कोशिश की है कि हाथ कमल न हो जायें। हथेली पर मैंने काँटे बोये हैं। मगर न जाने क्या हुआ कि कर एकाएक कमल हो गये। अब मैं परेशान हूँ। जिनके हाथ मुझसे पहले कमल हो गये थे, उनकी दुर्दशा में देख रहा हूँ। वे कर-कमलों से उ‌द्घाटन करने जाते हैं, और मुख-कमल खोलते हैं, तो माइक की तबीयत चांटा जड़ बेने की होती है। अभी वह जब्त किये है, पर एक वक्त ऐसा आयेगा, जब माइक मुख-कमल में घुसकर टेटरी बन्द कर देगा। कर-कमलवाले मुँह खोलते हैं कि लड़के चिल्लाते हैं, ‘भाषण नहीं नौकरी दो !’ वे संभलकर कहते हैं, ‘यह देश तुम युवकों का है।’ लड़के बिल्लाते है, ‘बकवास बन्द करो।’ वे कहते हैं, ‘इस देश का तुम्हें निर्माण करना है।’ लड़के कहते हैं, ‘चुप रह वे !’ वे कहते हैं, ‘हमें तुमसे बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं।’ लड़के चिल्लाते हैं, ‘शटप ! ‘फिर घेराव, नारे, जूता फेंक और कभी पिटाई भी। (kar kamal ho gaye by harishankar parsai)

ये कमल अब कालेजों में जाने से डरने लगे हैं। उद्घाटन करनेवालों का टोटा पड़ने लगा था। जूता मारने को कमल तो चाहिए ही। अब मुझ जैसे लोगों के कर कमल बना दिये गये हैं। सार्वजनिक जिन्दगी में एक ऐसा वक्त आता है जब आदमी कमल हो जाता है। फिर ऐसा वक्त आता है, जब कमल पर जूते पड़ते हैं !

अखबार में यह जिनका चित्र है उनके हाथ पिछले पन्द्रह सालों से कमल हैं।

सैकड़ों निमन्त्रण-पत्र इसके प्रमाण हैं। कल ही एक विश्वविद्यालय में अच्छी-अच्छी बातें कहते हुए वे पिट गये। आजकल देख रहा हूँ कि अच्छी बातें कहनेवाले ज्यादा पिट रहे हैं। अब अच्छी बातें कहने का हक हर किसी को लोग देना नहीं चाहते। जिस देश में अच्छी बातें कहने से आदमी पिट जाये, उसमें अच्छी बातें कहनेवालों ने क्या गजब न किया होगा ?

कल मुख-कमल से अच्छी बातें कहते हुए जो पिट गये थे, वे इस चित्र में मुस्कराते हुए पालम हवाई अड्डे पर विदेशी अतिथि का स्वागत कर रहे हैं। विदेशी राज-अतिथि की मुस्कान इतनी अच्छी है कि लगता है, वे भी अपने देश में पिटकर हवाई जहाज में बैठे होंगे। बिना पिटे ऐसी अच्छी मुस्कान नहीं आ सकती, यह हमारा पिटकर मुस्करानेवाला बता रहा है। इस देश में यह बड़ी अजब बात है कि जो जितना पिटता है, वह उतना ही अच्छा मुस्कराता है।

विदेशी राज-अतिथि से अपना यह कमलवाला क्या कह रहा है। वह जो कहता है अखबारों में नहीं छपता। वह कहता है, “साहब, हमारी शर्म जब बीस-बाईस साल की जवान लड़की हो गयी है। मगर वह नंगी रहती है। जब अरप आते हैं, तो आपकी मुस्कान की रेशमी साड़ी अपनी नंगी शर्म को पहनाकर आपके सामने पेश करते हैं। आप इससे शादी कर लीजिए, यह पूर्ण शीलवती है। हमने हर चीज का शील भंग हो जाने दिया है, पर सकलन का उद्घाटन करने के लिए मुझे बुला लिया गया था। मैंने देखा, वैसा ही सुनहला निमन्त्रण पत्र उसमें वही ‘उपस्थिति से शोभा बढ़ाने की बात, पुस्तक पर रंगीन कागज और उस पर बंधा वही रेशमी पीला फीता। इसमें विद्रोही पीढ़ीपन कहाँ है? मैंने माइक हाथ में लेते ही कहा, “विद्रोही पीढ़ी का उ‌द्घाटन समारोह नहीं, ‘विस्फोटन’ समारोह होना बाहिए। निमन्त्रण-पत्र पर होना चाहिए हमारे काव्य-संकलनों का विस्फोटन अमुक वक्त पर होगा। तुम्हें आना हो तो आओ वरना ऐसी-तैसी कराओ।” यह बात तरुणों को अच्छी लगी। बात अच्छी नहीं, नहीं है न!

सफल कमल होने की मैं पूरी कोशिश करूंगा। सारे हथकण्डे सीखूंगा। गुरुओं की कमी नहीं है। एक गुरु को मैंने पिछले साल पा लिया। वे मेरे शहर में एक समारोह का उद्घाटन कर रहे थे। बहुत भाव-विभोर होकर बोले, “बहा, जबलपुर ! पुण्यभूमि है। यहाँ की मिट्टी में इतिहास बिखरा पड़ा है। यहाँ की धूल चन्दन है। मैं उसे मस्तक में लगाता हूँ।” उन्होंने जेब से धूल की एक पुड़िया निकाली और कपाल पर लगा ली। साहब, पूरा हाल मुग्ध हो गया और उन्होंने घण्टे भर भाषण खींच दिया।

मैं उनके पीछे लग गया। सागर में एक समारोह का उद्घाटन करते हुए उन्होंने फिर कहा, “अहा, सागर! यह पुण्यभूमि है। यहाँ की मिट्टी में इतिहास बिखरा पड़ा है। यहाँ की धूल चन्दन है। मैं इसे मस्तक से लगाता हूँ।” उन्होंने फिर जेब से पुड़िया निकाली और कपाल पर धूल लगा ली। सागरवाले भी मुग्ध होकर उन्हें सुनते रहे।

फिर वे बरेली पहुंचे। वहाँ वे बोले, “अहा, बरेली! यह पुण्यभूमि है। यहाँ की मिट्टी में इतिहास बिखरा पड़ा है। यहाँ की धूल चन्दन है। मैं इसे मस्तक पर लगाता हूँ।” पुड़िया निकालकर फिर उन्होंने धूल लगा ली। वे घर से धूल की पुड़िया जेब में डालकर चलते हैं। (kar kamal ho gaye by harishankar parsai)

यह गुर अच्छा है। मगर यह गुरु के नगर में फेल हो जाता है। शिवकुमार बताता है, कि मैं उन्हीं गुरु के शहर गया हुआ था। समारोह की अध्यक्षता वही कर रहे थे। मैंने भावुकता से कहा, “अहा, यह नगरी पुष्य-भूमि है। इसकी मिट्टी में इतिहास बिखरा पड़ा है।” लोग हँसने लगे। मैं पुढ़िया निकालकर कपाल पर धूल लगा ही नहीं सका।

तरकीबें कई हैं। एक तरकीब हर मौके पर काम नहीं करती। तरकीबें मुझे भी बहुत आती हैं। पर मेरे मित्र फिर कहते हैं, “अपने हाथ एकाएक कमल कैसे हो गये ? आखिर यह क्या हो गया ?”

वे ही सोचकर जबाब देते हैं, “हम लोग बुद्धिजीवी हैं। बुद्धिजीवी का रुतबा बढ़ रहा है।”

हाँ, बढ़ तो रहा है। इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं। पर वे सियारों की बारात में बैण्ड बजाते हैं !

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