हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

हिन्दी भाषा का विकास: आदिकालीन, मध्यकालीन एवं आधुनिक हिन्दी

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प्रारंभिक हिन्दी

परिचय:

हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। सामान्यत: प्राकृत की अन्तिम अवस्था अपभ्रंश से ही हिन्दी साहित्य का अविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही ‘पद्य’ रचना प्रारम्भ हो गयी थी। हिन्दी भाषा व साहित्य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्था ‘अवहट्ठ’ से हिन्दी का उद्भव स्वीकार करते हैं। ‘चन्द्रधर शर्मा गुलेरी’ ने अवहट्ठ को ‘पुरानी हिन्दी’ नाम दिया।

         विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश की प्रधानता रही और वह प्रारंभिक हिन्दी (पुरानी हिन्दी) में परिणत हो गई। उत्तरकालीन अपभ्रंश को प्रारंभिक हिन्दी (पुरानी हिन्दी) की संज्ञा दी गई; जबकि अपभ्रंश के दो स्वीकृत रूप सामने थे- पुरानी अपभ्रंश (प्रारंभिक अपभ्रंश) और पिछली अपभ्रंश (बाद की अपभ्रंश)। इनमें से पिछली अपभ्रंश यानी उत्तरकालिन अपभ्रंश का मुख-मुखौटा प्रारंभिक हिन्दी (पुरानी हिन्दी) से साम्य रखता था। यही स्थल प्रारंभिक हिन्दी का उद्गम स्थल है। इस प्रकार प्रारंभिक हिन्दी (पुरानी हिन्दी) अपभ्रंश से भिन्न ठहरती है। प्रारंभिक हिन्दी से खड़ी बोली हिन्दी ध्वनित होती है। ‘प्राकृतपैंगलम’ और ‘राउलवेल’ में प्रारंभिक हिन्दी (पुरानी हिन्दी) के उदाहरणों का रसास्वादन किया जा सकता है।

         पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का मत सही जान पड़ता है कि 11वीं शताब्दी की परवर्ती अपभ्रंश (अर्थात् अवहट्ठ) से पुरानी हिन्दी का उदय माना जा सकता है। परन्तु कठिनाई यह है कि उस संक्रांति-काल की सामग्री इतनी कम है कि उससे किसी भाषा के ध्वनिगत और व्याकरणिक लक्षणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती। सनेहय रासक (संदेश रासक), प्राकृत पैंगलम, प्राकृत व्याकरण, पुरातन प्रबंध संग्रह, उक्ति व्यक्ति प्रकरण, वर्णरत्नाकर और कीर्तिलता सब में प्रमुख भाषा अवहट्ठ है और छाँटने पर किसी से दो-चार पदबंध अवधी के किसे से ब्रजभाषा के, किसी से खड़ी बोली के और किसी से बिहारी बोली के मिल जाते हैं। किसी-किसी ग्रन्थ में तीन-चार बोलियों के उद्धरण भी पाये जाते हैं। कोई भाषा कहीं से पूटकर नहीं निकल पड़ती। उसके बीज पूर्ववर्ती भाषा में विद्यमान रहते हैं। यह कहना तो ठीक है कि अवहट्ठ से प्रारंभिक या पुरानी हिन्दी जन्म ले रही थी, परन्तु इन ग्रन्थों से लिये गए उद्धरणों से स्पष्ट है कि उसका जन्म नहीं हुआ था। उसके थोड़े से तत्त्व अवश्य मिल जाते हैं, यानि शुरूआत वहाँ से माना जा सकता है।

         अवधी हो चाहे खड़ी बोली और चाहे दक्खिनी किसी का एकभाषी ग्रंथ 1250 ई. से पहले का उपलब्ध नहीं है और यही तीन भाषाएँ ऐसी हैं जिनकी परम्परा आगे चली है। यही हिन्दी है। डिंगल या पिंगल में रचित किसी काव्य की भाषा प्रामाणिक नहीं मानी गई। अत: डॉ. माताप्रसाद गुप्त और डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया के विचार सही जान पड़ते हैं कि रोज कविकृत ‘राउल वेली’ एकमात्र ऐसी कृति है जिसमें एक भाषा के लक्षण मिलते हैं। इसी के आधार पर हिन्दी का पूर्वरूप निर्धारित किया जा सकता है।

मध्यकालीन हिन्दी

साहित्यिक भाषा या काव्य भाषा के रूप में अवधी का विकास

 भाषा के रूप में अवधी का प्रथम स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की ‘खालिक बारी’ में मिलता है। निश्चत ही अवधी का अस्तित्व अमीर खुसरो से बहुत पहले रहा होगा। ‘राउलवेल’ में अवधी के साहित्यिक प्रयोग का छिटपुट उदाहरण मिलता है, इस शिलांकित सरस काव्य रचना में उत्तर भारत के छ: विभिन्न भू-भागों की युवतियों के वर्णन हैं, जिनकी भाषा अलग-अलग है। इनमें से एक नाभिका कन्नौज की है, जिसके वर्णन की भाषा की पहचान अवधी के रूप में की गई है-

आँखिहि काजल तरलउ दीजइ।

         अवधी के प्रयोग का दुसरा प्राचीन उदाहरण दामोदर पंडित रचित -‘उचित व्यक्ति प्रकरण’ में उपलब्ध है, इसमें बोलचाल की अवधी है। काव्य भाषा के रूप में अवधी के दो साहित्यिक रूप मिलते हैं- (i) ठेठ अवधी (ii) साहित्यिक अवधी।

         ठेठ अवधी में सूफियों की काव्यधारा प्रवाहित हुई। इस काव्यधारा में अधिकांशत: मुस्लिम कवि थे, जो प्रेम-मार्गी शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। अवधी को काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रथम श्रेय अवध क्षेत्र के डलमऊ नगर के निवासी मुल्दा दाउद को है, उनकी रचना चन्दायन (1379 ई.) है, इसमें दोहा-चौपाई शैली में लोर और चन्दा की प्रेम कथा का वर्णन है-

उत्तर देई लोर मुँह जोवा।

साप डंसी किस लहरई सोवा।।

         ‘चंदायन’ में मसनवी शैली का प्रयोग है- ईश्वर वंदना, पैगम्बर वंदना, गुरु वंदना, तत्कालीन राजा की प्रशंसा। चंदायन की भाषा में सहजता, सरसता और चित्रात्मकता है। चंदायन में उपलब्ध आवहिं, चढ़ावहिं, कहहीं, करहीं आदि क्रिया रूप जायसी कृत पद्मावत और तुलसीकृत रामचरितमानस में भी मिलते हैं, व्याकरणिक रूपों से यही लगता है कि चंदायन में विकसित अवधी के कुछ लक्षण पाये जाते हैं-

सर्वनाम मइँ, हउँ, तू, तुम्ह, जो, कवन आदि।

परसर्ग कहँ, लागि, सउँ, का, केर, कइ आदि।

सहायक क्रिया अछै, अहही, भवा, आछहिं आदि।

         मुसलमान होने के कारण कवि अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग बेहिचक करता है, पर ये शब्द ऐसे हैं जो उस काल की बोलचाल की भाषा में घुल मिल गये थे। मौलाना दाउद का सबसे अधिक महत्त्व इस बात में है कि, उन्होंने एक बोलचाल की भाषा को अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा से श्रेष्ठ काव्य भाषा का रूप दे दिया, उन्होंने जो काव्य रूप अपनाए, हल्के, पुलके परिवर्तनों के साथ वही काव्य रूप बाद के प्रबन्ध काव्यों में भी अपनाए गये। अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी के चरित काव्यों और  शृंगार रसों की व्यंजना के लिए जिस प्रकार की शब्द योजना, अलंकार योजना, गुण और रीति योजना की गयी है, उसका सर्जनात्मक अनुकरण दाउद ने भी किया। चंदायन का प्रमुख रस  शृंगार है और इसके दोनों पक्षों- संयोग और विप्रलंभ का मनोरम रूप प्रस्तुत करने में दाउद को उल्लेखनीय सफलता मिली है। नायिका के सौंदर्य वर्णन में कवि नये-नये और लोक जीवन में सुपरिचित उपमानों की योजना करता है- अम्ब थर जनु मोतिंह भरे, ते लइ भौंह कै तट धरै।।

         चन्दायन के 124 वर्ष बाद ‘कुतुबन’ ने ‘मृगावती’ की रचना की। यह भी ठेठ अवधी में रचित है, पर मृगावती में अनेक शब्द प्रयोग हैं जो अपभ्रंश काव्य-परम्परा का स्मरण दिलाते हैं-

कांगं उड़ावन धनि खरी आइ संदेसु भरक्कि,

आधी बरखा काग गलि, गड आधी गई तरक्कि।

         अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग उन्होंने न के बराबर किया है, कुतुबन ने साहित्यिक का भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग कुशलता से किया है। इनकी भाषा में ठेठ अवधी का माधुर्य है-

मनु दामिनि कौधा लौकाई।

चले धार हैं परेउ भुलाई।।

         अवधी को साहित्यिक भाषा की दृष्टि से समृद्ध और सम्पन्न बनाने का सबसे अधिक श्रेय मलिक मुहम्मद जायसी को जाता है। जायसी की काव्य प्रितिभा अत्यन्त उर्वर और आध्यात्मिक साधना सम्पन्न थी। इन्होंने चौदह ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें पद्मावत, अखरावत, चित्ररेखा, कहरनामा, आखिरी कलाम, कन्हावत सम्पादित प्रकाशित हो चुके हैं। इन सभी ग्रन्थों की भाषा अवधी है, इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण पद्मावत है, जिसकी रचना 1527 से 40 के बीच हुई। प्रबन्धकाव्य है, जिसमें काव्य रूप की लगभग वही प्रविधि अपनायी गयी है, जिसका आविष्कार दाउद ने किया था। पद्मावत की शब्द-सम्पदा तत्कालीन अवधी क्षेत्र में प्रचलित बोलचाल की भाषा से गृहीत है, इनमें कुछ ऐसे भी शब्द है जो प्राकृत और अपभ्रंश काव्य-परम्परा की याद दिलाते हैं- दिनिअर, ससहर, झरक्कि, दरक्कि, खग्गि आदि। जायसी की भाषा बोलचाल की और सीधी-सादी है, कहीं-कहीं पर उन्होंने फारसी की रीति पर विपरीत क्रम से दो पदों के समासों की योजना भी की है- लीक-परवान पुरुष कर बोला।

         उनकी भाषा देसी साँचे में ढली हुई घरेलु भावों से परिपूर्ण है, मधुर और हृदयग्राहिणी है-

नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए फिरि कीन्ह पेरा।।

         बहुत कम स्थानों पर जायसी ने तत्सम शब्दों के प्रयोग में रुचि दिखाई है।

  • जायसी के यहाँ संज्ञा रूपों के प्रयोग में कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं आ पायी थी।
  • पुल्लिंग संज्ञा की सामान्य पहचान उकारान्त शब्दों से, स्त्रीलिंग इकारान्त शब्दों से होती थी।
  • बहुवचन के अन्त में न, नि, न्हि मिलता है।

सर्वनाममइ, मैं, हैं, हम्ह, तू, तुइं, तै, तुम्ह, तुम्हारा, वह, ओइ, ते, जो, जेई, जेहिं, से, तहिं, आपु, को, कौन आदि।

परसर्गका, के, कै, केट, लागि, मँह, मोहि आदि।

         जायसी के उत्तरवर्ती समकालीन कवि ‘मंझन’ की ‘मधुमालती’ 1545 ई. में रची गई। प्रकृति वर्णन और विरह वर्णन में मंझन को विशेष सफलता मिली। मधुमालती की भाषा अधिक सरल और प्रसादगुण युक्त है-

कठिन विरह दुखजान कोइ। विरह विधा दहुँ कैसी होई।।

         यद्यपि सर्जनात्मक क्षमता की दृष्टि से मंझन जायसी से पीछे हैं, किन्तु उनकी भाषा में लोक भाषा का माधुर्य और सहजता अधिक है-

दुखिया कर दुख जानै जेहि दुख होइ सरीर।।

         अब तक अवधी को काव्य रचना का माध्यम, बनाने वाले मुसलमान कवि थे, जिन्हें कदाचित अपभ्रंश और फऱसी काव्य परम्परा का ज्ञान तो था पर जो संस्कृत काव्य परम्परा से अनभिज्ञ थे। गोस्वामी तुलसीदास के रूप में अवधी को एक ऐसा कवि मिला जिसको संस्कृत का पूर्ण ज्ञान था और जो अपने पूर्ववर्ती कवियों की अपेक्षाकृत कहीं अधिक प्रतिभाशाली था। सन् 1574 ई. में गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना आरम्भ की और 2 वर्ष 7 माह में पूर्ण किया, उन्होंने सूफियों की भाषा को ज्याें का त्यों नहीं ग्रहण कर लिया, बल्कि अवधी भाषा का सर्वर्था नये ढंग से संस्कार किया। उनकी भाषा की दो ध्रुवान्त विशेषताएँ देखने को मिलती है-

1.      ठेठ बोलचाल की अवधी का प्रयोग,

2.      तत्सम शब्दों का पुष्कल (अधिक) प्रयोग।

         अवधी भाषा तुलसी के यहाँ जितना सर्जनात्मक वैविध्य के लिए है, उतना अन्य कवि के यहाँ नहीं।

गोस्वामी तुलसीदास की तीन छोटी काव्य कृतियाँ पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामलाल नेहछू पूरबी अवधि में लिखी गयी है। रामचरितमानस में अवधी के पूरबी और पछाही दोनों रूपों का मिश्रण है। मानस में जहाँ भी घरेलू या सामान्य जनों से सम्बद्ध प्रसंग आये हैं, वहाँ की भाषा ठेठ अवधी है-

तुम्ह पूँछहु मैं कहत डेराऊँ। धरेहु मोर घर फोरी नाऊँ।

         केवट प्रसंग और राम के वन जानते समय, ग्रामवासियों के प्रसंग में ठेठ अवधी का माधुर्य देखते बनता है, पर मानस में प्रमुखता उस भाषा की है, जिसमें संस्कृत की कोमलकान्त पदावली अवधी को समृद्ध बनाती है-

मानस सलिल सुधा प्रतिपाली, जिअइ कि लवन पयोधि मराली।

नव रसाल बन बिहरनसीला, सोह कि कोकिल विपिन करीला।।

         गोस्वामी जी तत्सम शब्दों को अवधी उच्चारण के अनुरूप ढालते चलते हैं। तत्सम शब्दों के प्रचुर प्रयोग से भाषा में ध्वनि सौन्दर्य का अनोखापन देखते ही बनता है-

अमिय मूरिमय चूरन चारु। समन सकल भव रूज परिवारू।।

         जायसी की पहुँच अवध में प्रचलित लोक भाषा के भीतर बहते हुए माधुर्य स्रोत तक ही थी, पर गोस्वामी जी की पहुँच दीर्घ संस्कृत कवि-परम्परा द्वारा परिपक्व चाशनी के भंउारागार तक भी पूरी-पूरी थी। उनके वाक्यों में कहीं भी शैथिल्य नहीं है, भाषा नितान्त गठ हुई और सुव्यवस्थित है, रामचरितमानस ही अवधी का चरम शिखर है।

         कालान्तर में अवधी में सूफी रचनाएँ होती रहीं- उस्मानकृत- चित्रावली, ज्ञानदीप- शेखनवी। न्यामतखाँ- कनकावली, कामलता आदि। हुसेन अली- पुहुपावली, काशिमशाह- हंस जवाहिर, नूर मोहम्मद- इन्द्रावती, शेख निसार- यूसुफ जुलेखा।

         सूफी कवियों द्वारा रचित अवधी काव्य परम्परा 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक खिंचती आयी है। इन सभी कवियों की भाषा पर तुलसी की अवधी का विशेष प्रभाव पड़ा, यही कारण है कि ये कवि अपनी भाषा में तत्सम शब्दों के प्रयोग पर विशेष बल देते हैं।

         राम भक्ति काव्यधारा में स्वामी अग्रदास और नाभादास की कृतियों में भी तुलसी की भाषा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। व्याकरणिक रूप में तुलसी की भाषा प्राचीनता से पूर्णतया नहीं कटी।

सर्वनाम मैं, हम, तु, तुम्ह, सो, वह, ते, जो, को, कौन, कोई, किछू।

संज्ञासर्वनाम के परसर्गका, कहँ, लागि, हित, सई, सो, ते, के, केर, केरा, की, पर, मैं, माहि।

         क्रिया के रूप सरल हो गए। आटैं-बाटैं का प्रयोग बहुत ही क्षीण हो गया। सहायक क्रिया में अछ धातु नहीं रही। सामान्यतया है, अहै, हैं, अहैं, यथा, भवा, भये का रूप प्रचलित हुए। कालान्तर की कृतियों में तुलसी की सी साहित्यिकता नहीं रही, कारण है कवियों में सर्जनात्मक प्रतिभा का अभाव।

         निष्कर्षत: अवधी के साहित्यिक विकास की दो दिशाएँ दिखाई पड़ती है-

(1) ठेठ अवधी, जिसका प्रयोग सूफी काव्यों में मिलता है।
(2) संस्कृतनिष्ठ अवधी, जिसका विकास राम भक्ति काव्य में मिलता है, जिसके पुरस्कर्ता  गोस्वामी तुलसीदास हैं और जिसका चरम विकास भी उन्हीं के यहाँ दिखाई पड़ता है। आज अवधी हिन्दी साहित्य की गौड़ धारा बन गयी है। बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस, वंशीधर शुक्ल, रमई काका आदि बीसवीं सदी के अवधी कवि हैं पर इनके यहाँ अवधी का वह ललित स्वरूप नहीं दिखाई पड़ता है, जो मध्यकाल में दृष्टिगत होता है।          

साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रजभाषा का विकास

 हिन्दी-परिवार की जिस भाषा को हम ब्रजभाषा नाम से जानते हैं, वह भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर प्रदेश के मथुरा, आगरा, बुलन्दशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूँ तथा बरेली आदि जिलों, हरियाणा के गुड़गाँव जिले की पूर्वी पट्टी, राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर के पूर्वी भाग और मध्य प्रदेश में ग्वालियर के पश्चिमी भाग में बोली जाती है। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा कन्नौजी को भी ब्रजभाषा के अन्तर्गत रखते हैं, जिससे उसका क्षेत्र और विस्तृत हो जाता है। इस भाषा का ब्रजभाषा नामकरण 18वीं शताब्दी में हुआ, रीतिकालीन कवियों- भिखारीदास, कुलपति मिश्र, घनानंद आदि कवियों के यहाँ ब्रजभाषा शब्द का प्रयोग मिलता है- भाषा ब्रजभाषा रूचिर कहै सुमति सब कोय। (भिखारीदास)

         एक हजार ईस्वी के आस-पास शौरसेनी अपभ्रंश की जन्मभूमि में ब्रजभाषा का उदय हुआ। उस समय उस पर शौरसेनी अपभ्रंश का प्रभाव था। पश्चिमी अपभ्रंश (शौरसेनी) को एक प्रकार से ब्रजभाषा और हिन्दुस्तानी की पूर्वज कहना उचित होगा। ब्रजभाषा के शब्दों, विभक्तियों, क्रिया रूपों आदि की दृष्टि से काफी कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। हेमचन्द्र की देशीनाम माला में भी ब्रजभाषा के अनेक शब्द हैं- काहरो (कहार), गगरी, घग्घर (घाघरा) आदि। हेमचन्द्र के दोहों (अपभ्रंश) की भाषिक संरचना भी ब्रज के अधिक निकट-

अंगहिं अंग न मिलिउ (अपभ्रंश)।

अंगहिं अंक न मिल्यो (ब्रज)।

         सूरदास (1483-1563 ई.) के पूर्व ब्रजभाषा में किसी गीति काव्य परम्परा का निश्चित पता तो नहीं चलता है, पर ब्रजभाषा में काव्य रचना के छिटपुट प्रयास अवश्य उपलब्ध होते हैं। डॉ० शिवप्रसाद सिंह के अनुसार महाराष्ट्र में रचित ब्रजभाषा काव्य का कुछ संकेत चालुक्य नरेश सोमोश्वर के मानसोल्लास नामक ग्रन्थ में मिलता है। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार पृथ्वीराज रासो मध्यकालीन ब्रजभाषा में ही लिखा गया है। साहित्यिक भाषा या काव्य भाषा के रूप में शुद्ध ब्रजभाषा के प्रथम प्रयोग का श्रेय अमीर खुसरो (1253-1320 ई.) को दिया जा सकता है-

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग।।

         ब्रजभाषा में गेय पदों का प्रचलन 12वीं-13वीं शताब्दी से प्रारम्भ हो गया था, जो आज तक विद्यमान है। महाराष्ट्र के सन्त नामदेव ने भी ब्रजभाषा में कुछ पदों की रचना की थी। स्वामी रामानन्द (14वीं शताब्दी) के भी कुछ पद ब्रजभाषा में प्राप्त है, उनके शिष्य कबीरदास (1399-1518) ने भी अपने अनेक गेय पदों (रमैनी और सबद) की रचना ब्रजभाषा में की है-

हौ बलि देखौंगे तोहि।

अहनिस आतुर दरसन कारनि ऐसी व्यापी मोहि।

         रैदास के पद भी ब्रजभाषा से प्रभावित है। हिन्दू कवियों ने अपने प्रेमाख्यान काव्यों में ब्रजभाषा का प्रयोग किया। 1500 ई. में चतुर्भुजदास ने मधुमालती वार्ता नामक प्रेमकाव्य की रचना ब्रजभाषा में की।

         निष्कर्षत: आरम्भिक काल में ब्रजभाषा के दो रूप थे- एक वह जो प्राकृत पैगलम, रणमल छंद, रासोग्रन्थों और कुछ पिंगल कृतियों में मिलता है और दूसरा वह जो व्यक्ति प्रकरण, बालावबोध, उक्ति रत्नाकर आदि में सुरक्षित है। प्राचीन ब्रजभाषा में अक्खर, अग्गे, अग्नि, अज्जु आदि शब्दों के द्वित्व व्यंजन बादर में आखर, आगे, आग, आगु में सरल हो गए। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ब्रजभाषा में निरंतर और स्वतंत्र साहित्य मिलने लगते हैं। आज तक जो ग्रन्थ मिले हैं, उनमें सबसे पुराना सुधीर अग्रवाल का प्रद्युमन चरित (1354 ई.) है- 

की मई पुरषि बिछोही नारि। की दव धाली वणह मझारि।।

         जाखू मणयार का हरिचंद, पुराण राज हरिश्चन्द की कथा पर आधारित है। इसमें विकसित होती हुई ब्रजभाषा के लक्षण दिख्राइ पड़ते हैं, जो लोक भाषा के अधिक निकट है। विप्र पूँचि वर भीतर जइ। रानी अकली परी बिलखाई।

         इसके बाद कवि विष्णु दास का नाम आता है। इनकी कृतियाँ महाभारत कथा, स्वर्गारोहण, रुक्मिणी मंगल और स्नेह लीला में ब्रज का सुथरा (स्वच्छ) रूप दिखाई पड़ता है-

मोहन महलन करत विलास

कनक मंदिर में केलि करत हैं और कोउ नाहिं पास।

         गुरु अर्जुन देव ने अपनी वाणी और अपने से पूर्व चार गुरुओं- नानक, अंगद, रामदास और अमरदास के अतिरिक्त नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, बेनी, रामानंद, धन्ना, पीपा सेन, रैदास आदि भाक्तों की वाणियों का संग्रह किया, जिसमें ब्रजभाषा का तत्कालीन रूप मिलता है।

सूर पूर्व ब्रज काव्य की सामान्य व्याकरिणक विशेषताएँ-

  • स्वरों में अनुनासिकता दिखाई पड़ती है- कहँ, महँ, अँधार, उपासहिं, करिहँ।
  • बहुत से शब्दों में ण पाया जाता है, बाद में या तो ण का लोप हो गया, या णकान हो गया- वयण, नयण, जाणिये, वयन, नयन आदि।
  • अइ, अउ, ओ का बाहुल्य मिलता है- चाल्यउ, करउ, धरइ, गयो, मिल्यो, बप्पो।
  • अपभ्रंश- अवहट्ठ के प्रभाव के कारण द्वित्व व्यंजन का प्रयोग चल रहा था।
  • सर्वनामों में हउँ, हौ, मैं, मोहि, मेरो, हमारो, तू, तुम, तेरो, सो, वह, को, कवण आदि के प्रयोग दृष्टिगोचर होता है।

         ब्रजभाषा के साहित्यिक स्वरूप के पुरोधा महाकवि सूरदास ब्रजभाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूरदास को है। आचार्य शुक्ल के अनुसार- ‘‘भक्तवर सूरदास ब्रज की चलती भाषा को लोक व्यवहार के मेल में लाए। ‘सूरसागर’ को ध्यानपूर्वक देखने से उसमें क्रियाओं के कुछ पुराने रूप, कुछ सर्वनाम (जासु, तासु, जेहि, तेहि) तथा कुछ प्राकृत शब्द पाए जाएंगे।’’ वह परम्परागत काव्य भाषा को बिल्कुल अलग करके एक बारगी नयी चलती बोली लेकर नहीं चले। भाषा का एक शिष्ट- सामान्य रूप उन्होंने रखा, जिसका व्यवहार आगे चलकर बराबर कविता में होता आया। सूर की भाषा ब्रज की चलती बोली होने पर भी एक साहित्यिक भाषा के रूप में मिलती है, वह अनेक प्रान्तों के कुछ प्रचलित शब्दों और प्रत्ययों के साथ ही साथ पुरानी काव्य भाषा अपभ्रंश के शब्दों को लिए हुए हैं। जाकों, तासों, वाकों चलती ब्रजभाषा के इन रूपों से समान जेहि-तेहि आदि पुराने रूपों का प्रयोग बराबर मिलता है, जो अवध के बोलचाल में तो अब तक है पर ब्रज की बोलचाल में सूर के समय में भी नहीं थे। सूरदास ने काव्य भाषा के समस्त शैलीय उपकरणों का प्रयोग करके ब्रजभाषा की सर्जनात्मकता को द्विगुणित कर दिया, उन्होंने शब्दों में चित्र निर्माण (बिम्ब) की अद्भुत क्षमता भरी। कथा-भंगिमा के अनेक उदाहरण सूर के पदों में भरे पढ़े हैं। सूरदास अपनी भाषा को सुर और लय के सौन्दर्य और माधुर्य से भर देते हैं। उनकी भाषा की महत्त्वपूर्ण विशेषता है- वाग्विदिग्धता। कथन की विदग्धता और वचनवक्रता के कारण भ्रमरगीत अद्भुत उपालम्भ काव्य बन गया- वरु वै कुज्जा भलो कियो। सूर ने ब्रजभाषा को शैलीगत वैविध्य से भी अत्यन्त समृद्ध किया, उनकी भाषा का अधिकांश भावमूलक, अनोखी व्यंजनाशक्ति से परिपूर्ण, संगीत परक तथा व्यावहारिक जीवन से सम्बद्ध है। कहीं-कहीं उनकी भाषा समास युक्त और अलंकृत हो गयी दृष्टिकूट के पदों में क्लिष्ट अलंकृत काव्यभाषा का प्रयोग है। अवसरानुसार अरबी, फारसी, पंजाबी, राजस्थानी, अवधी शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं।

निसिदिन वरसत नयन हमारे

सदा रहत पावस ऋतु इन पैं, जब ते श्याम सिधारे।

रीतिकाल में ब्रजभाषा का साहित्यिक विकास:

केशव की काव्य भाषा में उक्ति वैचित्र्य और अलंकार-योजना की प्रधानता है, भाषा की स्वाभाविक सम्प्रेषण शक्ति का अभाव है। सेनापति चूँकि मूलतया प्रकृति प्रेमी है, इसलिए उनकी भाषा में स्वाभाविक माधुर्य का पाया जाना स्वाभाविक ही है। रीतिकाल में ब्रजभाषा का विकास  शृंगार के ढर्रे पर हुआ। इस काल के अधिकतर कवि ब्रजभाषा क्षेत्र के बाहर के थे। व्यवहार के स्तर पर कोई परिनिष्ठ अखिल भारतीय भाषा उभर कर सामने हनीं आयी थी। सरकारी कार्यालयों की भाषा फारसी थी। खड़ी बोली अधिकतर उर्दू के रूप में (रेख्ता) उत्तर भारत के नगरों में प्रचलित हो रही थी। इस काल के कवियों ने ब्रजभाषा को काव्य भाषा के रूप में स्वीकार करते हुए मुक्तभाव से उसमें अपनी भाषाओं का मिश्रण किया। इसे आचार्य शुक्ल ने भाषा की गड़बड़ी कहा।

         आचार्य शुक्ल भाषा के उक्त मिश्रण को बहुत अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। उनका कहना है कि ‘‘भाषा सम्बन्धी मीमांसा न होने के कारण कवियों ने अपने को अन्य बोलियों के शब्दों तक ही परिमित नहीं रखा, उनके कारक चिह्नों और क्रिया के रूपों का भी वे मनमाना व्यवहार करते रहे। ऐसा वे केवल सौंदर्य की दृष्टि से करते थे, किसी सिद्धान्त के अनुसार नहीं। करना के भूतकाल के लिए आवश्यकतानुसार वे कियो, कीना, कर्यो, करियो, कीन, किय का व्यवहार करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि भाषा को वह स्थिरता न प्राप्त हो सकी, जो किसी साहित्यिक भाषा के लिए आवश्यक है।’’

         शुक्ल जी ब्रजभाषा के मानक साहित्यिक स्वरूप के लिए उसमें अन्य स्थानीय भाषाओं के शब्दों के मेल के विरोधी हैं, पर भाषा के सम्बन्ध में शुद्धतावादी दृष्टिकोण बहुत दूर तक नहीं चलता है, भाषा कवियों के चेरी होती है, स्वामिनी नहीं। रीतिकाल के जिन कवियों ने ब्रजभाषा के स्वाभाविक, बोलचाल के निकट वाले रूप की रक्षा करते हुए उसे काव्यभाषा की विविध भंगिमाओं और विशिष्टताओं से मंडित किया, उसमें चिन्तामणि, बेनी, बिहारी, मतिराम, आलम, घनानंद, भिखारीदास, पद्माकर, ठाकुर, बोधा, देव आदि उल्लेखनीय है।

आधुनिक हिन्दी

19वीं शताब्दी में खड़ी बोली का विकास

प्रस्तावना:

खड़ी बोली का आरंभिक स्वरूप यद्यपि पुरानी हिन्दी के बाद से लगातार दिखता है किन्तु यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि इसके विकास का अनवरत और सतत क्रम उपलब्ध नहीं होता है। पन्द्रहवीं शताब्दी वेु बाद इस भाषा का प्रयोग बहुत सीमित संख्या में दिखता है। दक्खिनी हिन्दी को छोड़ दें तो उत्तरी भारत में यह प्रयोग प्राय: नगण्य ही है। इसके बाद 19वीं शताब्दी में यह बोली अचानक तेजी से महत्त्वपूर्ण होने लगी तथा देखते ही देखते पूरे हिन्दी प्रदेश की संपर्व भाषा के रूप में स्थापित हो जाती है।

         हिन्दी भाषा के इतिहास में जिस गति से 19वीं शताब्दी में खड़ी बोली का विकास हुआ है, उतनी गति से किसी दूसरी भाषा या बोली के विकास का उदाहरण उपलब्ध नहीं होता। इसलिए यह समझना आवश्यकता हो जाता है कि उस काल में ऐसे कौन से प्रेरक तत्त्व विद्यमान थे जिनके कारण खड़ी बोली का इतना तीव्र विकास हुआ।

(i)     ब्रजभाषा का युग समाप्त हो रहा था। काव्य में इसका प्रयोग तो रहा, परन्तु उसमें कोई जान नहीं रह गई थी। प्राय: कवि ब्रजमंडल के बाहर के थे। चलती भाषा से इनका कोई सम्पर्व नहीं था। इनकी भाषा में क्षेत्रीय शब्द ही नहीं, क्रियारूप और वाक्य-योजना भी अन्य बोलियों से आ गए थे। इन लोगों का कहना था कि ‘भाव अनूठा चाहिए भाषा कैसिहू होय।’ ब्रजभाषा ह्रासोन्मुख थी।

(ii)    ब्रजभाषा का अभिव्यक्ति-क्षेत्र अत्यंत सीमित और संकुचित था-  शृंगार ही  शृंगार के कोमल मधुर भाव मिलते थे। नवजागरण के साथ अनेक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनैतिक समस्याएँ खड़ी हो गईं, जिनकी अभिव्यक्ति की ब्रजभाषा में कोई परम्परा नहीं थी।

(iii)   ब्रजभाषा में गद्य साहित्य की बहुत कमी रही है। इधर खड़ी बोली की उर्दू शैली में और दक्खिनी हिन्दी में काफी गद्य रचनाएँ प्रकाश में आने लगी और उधर ‘अंग्रेजी में गद्य साहित्य की एक लम्बी परम्परा सामने आई।’ इनमें हिन्दी लेखकों को भी प्रेरणा मिली। परिवार, समाज, राजनीति, देश-विदेश की चर्चा, दैनिक जीवन की घटनाएँ पद्य में तो लिखी नहीं जा सकती थी, अत: खड़ी बोली को उबरने का अवसर मिल गया।

(iv)    प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना ने गद्य साहित्य को पनपने में उत्साहित किया। धर्म, दर्शन, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, संबंधी पुस्तवें और पत्र-पत्रिकाएँ छपने लगीं। खड़ी बोली हिन्दी बड़े वेगपूर्ण और व्यापक ढंग से बढ़ चली।

(v)    यह काल हिन्दी प्रदेश में अंग्रेजी राज्य के विस्तार का काल का अंग्रेज़ शासक नित्य के व्यवहार की भाषा ‘खड़ी बोली’ से परिचित हुए ब्रजभाषा से नहीं। अत: उन्होंने खड़ी बोली को ही प्रोत्साहित किया। नवागन्तुक प्रशासकों को हिन्दी भाषा की शिक्षा देने के लिए कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई जिसके प्रिंसिपल जॉन गिलक्रिस्ट की अध्यक्षता में खड़ी बोली गद्य की अनेक शैलियों की नींव रखी गई। गिलक्रिस्ट मानते थे कि खड़ी बोली सारे भारत में समझी जाने वाली भाषा है।

(vi)    खड़ी बोली के उत्थान में ईसाई मिशनरियों का योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा है। उन्होंने बाइबल का प्रचार करने के लिए उसका हिन्दी में अनुवाद किया और अनेक धार्मिक पुस्तवें प्रकाशित की। उन्हें भी लगा की खड़ी बोली ही धर्मप्रचार का सशक्त माध्यम है।

(vii)   ईसाई प्रचारकों के बढ़ते हुए अभियान की प्रतिक्रिया में भारतीय जनता की चेतना को जगाने और उनमें उत्साह भरने के लिए आर्य समाज (प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती), ब्रह्म समाज (संस्थापक राजा राममोहन राय) और हिन्दू धर्म सभा (प्रवर्तक श्रद्धाराम फिल्लौरी) की स्थापना हुई, जिन्होेंने अपना-अपना प्रचारात्मक साहित्य खड़ी बोली में प्रसारित किया।

         इस प्रकार से ये कुछ प्रमुख कारक रहे। जिनके कारण खड़ी बोली का  िवकास 19वीं शताब्दी में तीव्र गति से हुआ।

  •     साहित्यिक खड़ी बोली का विकास

         साहित्यिक खड़ी बोली के विकास की दिशाएँ उन्नीसवीं शताब्दी के दो खण्डों में देखी जा सकती है- पूर्व हरिश्चन्द्र काल में और हरिश्चन्द्र काल में।

  • पूर्व हरिश्चन्द्र युग: 10 जुलाई सन् 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता की स्थापना हुई। इसके आचार्य जॉन गिलक्रिस्ट ने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासकों को हिन्दी सिखाने के लिए उन्होंने एक व्याकरण और एक शब्दोश का निर्माण किया। वे इस भाषा को हिन्दुस्तानी कहना अधिक उचित समझते थे। कम्पनी की यही नीति थी। उनकी हिन्दुस्तानी लिखी तो जाती थी देवनागरी अक्षरों में, परन्तु उसमें उर्दू के प्रयोग बहुलता से किए जाते थे। गिलक्रिस्ट की अध्यक्षता में अनेक पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित हुए, मौलिक रचनाएँ भी प्रकाश में आईं। इस कार्य में उनके चार सहायक थे- इंशा उल्लाह खाँ, लल्लू लाल, सदल मिश्र और सदासुख लाल। इनके योगदान का मूल्यांकन महत्त्वपूर्ण है।

इंशा उल्ला खाँ खाँ साहब की रचना ‘रानी केतकी’ की कहानी ठेठ बोलचाल की भाषा में लिखी गई। उन्होंने ध्यान रखा की हिन्दी को छुट किसी बाहर की बोली का पुट न मिले। उन्होंने यह भी ख्याल रखा कि भाषा गँवारी न हो। वास्तव में इंशा ने उस रूप की स्थापना करनी चाहि जिसे ‘हिन्दुस्तानी’ कहा गया। जनमानस को लुभाने के लिए काव्यमयता और लयात्मकता लाने की चेष्टा बाद के गद्यकारों में भी पाई जाती है। परन्तु यह शैली चली नहीं; कुछ लेखकों का विलास मात्र बनकर रह गई। इंशा उल्ला की भाषा में स्त्रीलिंग विशेषणों और कृदन्तीय पदों का बहुवचन रूप दक्खिनी हिन्दी के समान विशेषत: द्रष्टव्य हैं। जैसे- रामजनियाँ धूमे मचातियाँ, अंगड़ाइयाँ जम्हाइयाँ लेतियाँ, उंगलियाँ नचातियाँ दुली पड़तियाँ थीं। ऐसे प्रयोग उन्हीं के साथ समाप्त हो गए।

लल्लू लाल इनकी 14 रचनाएँ बताईं जाती है। उनमें कुछ अनुवाद है, कुछ के वे सह-लेखक हैं। ‘प्रेमसागर’ उनकी प्रसिद्ध कृति है। अन्य रचनाओं में ‘सिहासन बत्तीसी’, ‘बैताल पच्चीसी’, ‘शकुन्तला नाटक’ और ‘लतायपे हिन्दी’ उल्लेखनीय है। इनकी रचनाओं में उस युग की सब विशेषताएँ दिखायी पड़ती हैं- गद्य के पदबंधों में लयात्मकता और तुकबंदी, अलंकारों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा का  शृंगार, नाना बोलियों का सम्मिश्रण, दक्खिनी हिन्दी के आतियाँ, जातियाँ जैसे प्रयोग इत्यादि। लल्लू लाल संस्कृत के पीछे पण्डित थे। उनकी भाषा में तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ। उनकी अपनी बोली ब्रजभाषा का स्वभावत: अधिक प्रयोग पाया जाता है। उन्होंने प्राय: विदेशी शब्दों का बहिष्कार किया। कुल मिलाकर लल्लू लाल की खड़ी बोली मिश्रित भाषा थी जो थोड़े-बहुत हेर-पेर से 19वीं शती के पूवार्ध की साहित्यिक भाषा नहीं है। ऐसी ही भाषा भारतेन्दु युग तक बराबर चलती रही।

सदल मिश्रइनकी तीन कृतियों ‘नासिकेतोपाख्यान’, ‘अध्यात्म रामायण’ और ‘रामचरित्र’ के आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी शैली भी अपने ढंग की थी। वे बिहार के रहने वाले थे, इससे उनकी खड़ी बोली में पूर्वी प्रयोग कुछ अधिक हैं, जैसे गर्भ भया, गिरे-लोक, अरू, मनभावत, तारन्ह, भरा, मोतिन्ह से, एक बेर। कौरवी के ठेठ प्रयोग है- मुजको, आज्ञा की, विन को, तिस पर, क्यूँ। कुछ पदों से ऐसा लगता है मानो खड़ी बोली से सिखने लगे हैं; जैसे- जीस से, फीरते हैं, झुठाने नहीं सकता। परन्तु ऐसे उदाहरण बहुत कम है। सामान्यत: सदल मिश्र की खड़ी बोली अपने सहयोगियों की अपेक्षा साफ-सुथरी है, अनावश्यक कृत्रिमता, वाग्विलास या तुकबंदी नहीं है; वाक्य सरल हैं, मुहावरे स्वाभाविक ढंग से बनते गए हैं। संस्कृत की और झुकाव होने के कारण भाषा के भावी रूप का संकेत मिलता है।

सदासुखलालयद्यपि यह दिल्ली के रहने वाले थे और उर्दू के अच्छे लेखक और कवि थे, तो भी उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को अपनाया जिसमें पंडिताऊपन और पूर्व-पश्चिम की बोलियों का सम्मिश्रण था। फिर भी अन्य लेखकों की तुलना में उनकी भाषा मानक हिन्दी के अधिक निकट आने लगी थी। उनकी प्रमुख रचना ‘सुखसागर’ है।

         यह सही है कि सदासुखलाल ने अन्य सहयोगियों की तुलना में कम लिखा है, परन्तु अच्छा लिखा है और अच्छी भाषा में लिखा है। किन्तु वे भी खड़ी बोली को ग्रामीण बोलियों के प्रभाव से मुक्त नहीं कर पाए। कुछ प्रयोग द्रष्टव्य है-

तिस पीछे, जब लग, जो सत्य होय, जनम ताई, सब को सुनाय के।

         निष्कर्षत: कह सकते हैं कि फोर्ट विलियम कॉलेज के इन चार लेखकों ने खड़ी बोली के साहित्य क्षेत्र का विस्तार अवश्य किया किन्तु वे भाषा का कोई व्यवहारिक, मानक या प्रतिष्ठित स्वरूप उपस्थित नहीं कर सके।

  •  पत्रपत्रिकाएँभारतेन्दु पूर्व काल में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। हिन्दी का सबसे पहला पत्र ‘उदंत मार्तंड’ 1826 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ, लेकिन थोड़े समय बाद लुप्त हो गया। 1828 में कलकत्ता से ही ‘वंगदूत’ निकला जिसे सरकार ने 1829 में बंद कर दिया। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द का ‘बनारस अखबार’ 1844 से छपने लगा। इसकी भाषा हिन्दुस्तानी थी। इसकी उर्दू शैली के विरोध में ‘सुधार’ प्रकाश में आया। 1854 में कलकत्ता से ‘समाचार सुधावर्षण’ नाम का दैनिक पत्र प्रकाशित हुआ। पंजाब से नवीनचंद्र राय ने ‘ज्ञान प्रकाशिनी’ पत्रिका निकाली।

         इन पत्र-पत्रिकाओं ने खड़ी बोली के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इनमें भाषा का ठेठ, प्रचलित और मिश्रित रूप ही चलता रहा। अधिकतर की भाषा संस्कृत प्रधान थी, यत्र-तत्र निर्जीव भी। व्याकरण की दृष्टि से ब्रजभाषा और पूर्वी प्रयोग अधिक थे, फिर भी खड़ी बोली का स्वरूप स्पष्ट हो रहा था। प्राय: संपादक भाषा को उर्दू से बचाते रहे। ‘बनारस अखबार’ एकमात्र ऐसा पत्र था जो उर्दू का हिमायती था। नवीनचन्द्र राय उर्दू को पास ही न आने देते थे। वे उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहते थे।

         इस प्रकार प्रेस की स्थापना ने 19वीं शताब्दी में पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सम्पूर्ण भारतीय समाज को भीतर तक परिवर्तित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, जिसने खड़ी बोली की पैठ आम जन के भीतर तक पहुँचाई और इसके विकास को एक नया आयाम दिया।

  •  19वीं शती के उत्तरार्ध का आरम्भ: 19वीं शताब्दी के 50 वर्ष बीतने के बाद राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द और राजा लक्ष्मण सिंह ने स्वतंत्र रूप से दो नयी शैलियों का विकास किया। राजा शिवप्रसाद की भाषा में पहले तो हिन्दीपन ही अधिक था। परन्तु जब से वे शिक्षा विभाग के अधिकारी हुए, चाहे जिस कारण से हो, धीरे-धीरे उनकी भाषा में उर्दूपन बढ़ता गया। उनकी रचना उर्दू के ढंग पर होने उलगी। वास्तव में वे हिन्दी को व्यापक बनाने के लिए उसे उर्दू के निकट लाना चाह रहे थे, ताकि दोनों में बहुत अन्तर न रहे। उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए और सरकारी स्कूलों के लिए कई किताबें लिखी। जैसे- राजाभोज का सपना, भूगोल हस्तामलक, हिन्दुस्तान के पुराने राजाओं का इतिहास, मानव धर्मसार, विक्खों का उदय और अस्त। इन पुस्तकों के माध्यम से शिक्षा में खड़ी बोली का प्रवेश हुआ और बच्चों को शुद्ध भाषा सिखाने की चिन्ता में खड़ी बोली का स्वरूप निखरा। भाषा ब्रजभाषा के प्रभाव और पंडिताऊपन से मुक्त हुई। व़, ख़, ज़, फग़़ पाँच अरबी फारसी ध्वनियों के चिह्नों के नीचे बिन्दी लगाने का रिवाज शिवप्रसाद ने ही चलाया।

         राजा साहब की शैली का खूब विरोध भी हुआ। हिन्दी लेखकों का एक समुदाय संस्कृत शब्दों और संस्कृत प्रयोगों की ओर झुका। इसके फलस्वरूप जिस भाषा का प्रयोग होने लगा वह संस्कृत-गर्भित, साधारण बोलचाल से दूर और क्लिष्ट थी। उसमें मुहावरों का प्रयोग नहीं होता था और कहावतों का तो नाम ही नहीं था। बोलचाल के शब्द ग्रामीण समझकर दूर रखे जाते थे। इस भाषा शैली के प्रतिनिधि राजा लक्ष्मण सिंह थे। राजा लक्ष्मण सिंह का लक्ष्य था, विशुद्ध हिन्दी, जिसमें उर्दूपन कतई न हो। ‘शकुन्तला’ नाटक और ‘मेघदूत’ के हिन्दी अनुवाद में उन्होंने ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया। इस धारा को मानकर चलने वालों में स्वामी दयानन्द सरस्वती, पं. भीमसेन शर्मा, अम्बिकादत्त व्यास, प्रसाद आदि अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने आज तक इस शैली को क्रमश: परिष्कृत और परिनिष्ठ किया है।

  •  ईसाई मिशनरी: ईसाई मिशनरी अपना धर्मप्रचार जनता की भाषाओं में कर रहे थे। उन्होंने देख लिया कि इसके लिए उत्तर भारत में न तो ब्रजभाषा से काम चलेगा न उर्दू से। उन्होंने सरल खड़ी बोली को अपना माध्यम बनाया। उन्होंने जनता में नये संस्कार भरने के लिए शिक्षा और पुस्तक-प्रकाशन की योजनाएँ बनाईं। कलकत्ता में श्रीरामपुर, मिर्जापुर, बनारस, इलाहाबाद और आगरा में ‘बुक सोसाइटियों’ की स्थापना की, साथ ही साथ स्कूल और कॉलेज भी खोले। इन सोसाइटियों ने भूगोल,  इतिहास, धर्मशास्त्र, राजनीति, अर्थशास्त्र, साहित्य, व्याकरण, चिकित्सा, विज्ञान आदि नाना विषयों की पाठ्यपुस्तवें तैयार करके प्रकाशित की। एक पाठ्यपुस्तक से तत्कालीन खड़ी बोली का नमूना देखिए-

         ‘इसी जगत में कोटि-कोटि मनुष्य है। उन सबों के लिए ऐसे बहु-खाद्य, द्रव्य प्रस्तुत है कि अभाव होगा ये शंका कभी नहीं है। ’

         पाठ्य-पुस्तकों के अलावा इन्होंने धर्म सम्बन्धी तथा समाज सुधार सम्बन्धी अनेक छोटी-बड़ी पुस्तवें छपवाकर जनता में वितरित की। सन् 1826 ई. में ‘धर्म पुस्तक’ नाम से ओल्ड टेस्टामेंट का खड़ी बोली में अनुवाद प्रकाशित हुआ। अनुवाद होने के कारण मिशनरियों ने अंग्रेजी पुस्तकों में प्राप्त विराम-चिह्नों को अपनाया, जो हिन्दी वेे लिए नए-नए थे; किन्तु आगे चलकर इनका प्रचार बढ़ता गया। इस प्रकार खड़ी बोली के विकास में ईसाई मिशनरियों के प्रचार-प्रसार का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

  • हरिश्चन्द्र युगभारतेन्दु हरश्चिन्द्र (1850-85) ने 1873 में ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ के प्रकाशन के साथ खड़ी बोली का व्यावहारिक रूप लेकर आये। उन्होंने कई नाटक, कहानियाँ, निबन्ध आदि रचनाएँ की। नाटकों में सत्य हरिश्चन्द्र, चन्द्रावली, नेलदेवी, भारत-दुर्दशा, प्रेम-योगिनी, विषस्य विषमौषधम्, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति आदि अनेक मौलिक और अनूदित है। इनमें पद्य की भाषा को तो ब्रजभाषा है और गद्य में ब्रजभाषा मिश्रित खड़ी बोली है जो धीरे-धीरे व्यवहारिक खड़ी बोली बनती गई। उनका उपन्यास पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा मराठी उपन्यास का खड़ी बोली में अनुवाद है। उन्होंने अनेक अनूदित और मौलिक कहानियाँ भी प्रकाशित की। खड़ी बोली के विकास में उनका वास्तविक योगदान ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’, ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ और ‘बालबोधिनी’ पत्रिकाओं के निबन्धों में मिलता है। इन सब में गद्य की भाषा खड़ी बोली ही रही।

         भातरेन्दु ने राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द की अरबी-फारसी प्रधान हिन्दी और राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के बीच का मार्ग निकाला। अर्थात् भाषा में न पंडिताऊपन हो और न मौलवी शैली की दुरूहता। उन्होंने इन भाषाओं के इतने भर शब्द ग्रहण किये जिनसे भाषा का हिन्दीपन बना रहे और उन शास्त्रीय भाषाओं से अनभिज्ञ पाठकों का दुर्बोध न हो। उन्होंने राजा लक्ष्मण सिंह की शैली को और परिष्कृत करके साधु शैली बनाया तथा उसी का प्रचलन किया। उन्होंने खड़ी बोली को पंडिताऊपन और क्लिष्ट प्रयोगों से मुक्त रखना चाहा। सामान्य रूप से भारतेन्दु की भाषा अपने उद्देश्य के अनुकूल रही है और परिमार्जित होकर आधुनिकता की ओर बढ़ती रही है। यह भी सच है कि वे अपने मन्तव्य को पूरी तरह कार्यािन्वित न कर सके। इसका कारण यह है कि वे अल्पायु में ही दिवंगत हो गए। दूसरे तो ब्रज भाषा के कवि थे और ब्रजभाषा का मोह उन्हें खड़ी बोली से पूरी तरह जोड़ नहीं पाता था। भारतेन्दु ने अनेक प्रयोग अवश्य किए परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य ऐसी खड़ी बोली का स्वरूप निश्चित करना था जिसमें प्रचलित भाषा के प्रयोग को ही महत्त्व दिया गया। उनकी आदर्श भाषा सन् 1880 के बाद चार-पाँच वर्षों की कृतियों में देखी जा सकती है जिसके आधार पर निर्धारित किया गया आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का यह मत उद्धरणीय है- ‘‘जब भारतेन्दु अपनी माँझी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाए तो हिन्दी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ी बोली का प्राकृत साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न न रह गया। भाषा का स्वरूप स्थिर हो गया।’’   

  •     अन्य रचनाकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा प्रतिष्ठापित मानदंडों को तत्कालीन बहुधा साहित्यकारों ने अपनाया। प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी, श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी और राधाकृष्ण दास के नाटकों में, देवकीनन्दन खत्री और गोपालराम गहमरी के उपन्यासों और किशोरीलाल गोस्वामी की कहानियों में एव बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी और बालमुकुन्द गुप्त के निबन्धों में ये शैलियाँ बराबर मिलती है, यद्यपि सभी साहित्यकार पूर्णरूपेण भारतेन्दु की भाषा-नीति को कार्यान्वित नहीं कर सके। कुछ ऐसे भी लेखक थे जो भारतेन्दु की नीति से सहमत नहीं थे, अत: वे अपने-अपने प्रयोगों में ही विश्वास रखते थे। वैयक्तिक रुचि-वैचित्र्य, परम्परा निर्वाह की प्रवृत्ति तत्कालीन ऐतिहासिक एवं साहित्यिक वातावरण, लेखकीय निजी बोली और उस पर पड़े प्रभाव और भाषा निर्माण की व्यक्तिगत क्षमता-अक्षमता के फलस्वरूप खड़ी बोली हिन्दी में कई प्रायोगिक धाराऐं प्रस्पुटित हो रही थी। संस्कृत बहुत भाषा प्रयोग रूढ़िगत तथा परम्परागत प्रवृत्ति का पोषण मात्र था। बद्रीनारायण चौधरी और प्रतापनारायण मिश्र की कृतियों में बहुत से नमूने मिल जाते हैं जिनमें पंडिताऊपन का भरपूर प्रदर्शन हुआ किन्तु मिश्र जी की भाषा सम्पूर्ण रचनाओं में ऐसी नहीं है। सामान्य रूप से इस काल में तत्सम शब्दावली बढ़ती ही रही। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, तोताराम वर्मा, लाला श्रीनिवास दास आदि की रचनाओं में तद्भव तथा बोलचाल की शब्दावली बहुत सुन्दर और प्रभावपूर्ण ढंग से प्रयुक्त हुई है। राधाचरण गोस्वामी और राधाकृष्ण दास शुद्ध हिन्दी के पक्ष में थे, फिर भी उनके नाटकों में पात्रानुकूल यथास्थान अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग तत्कालीन कहानीकारों- यथा; लाला श्रीनिवासदास और देवकीनन्दन खत्री की रचनाओं में हुआ। इतना अवश्य है कि इन रचनाओं में ठेठ अथवा कठित फारसी के शब्दों की अनावश्यक अधिकता नहीं है। अंग्रेज़ी शिक्षा के परिणामस्वरूप अंग्रेज़ी शब्द-मिश्रित खड़ी बोली का प्रयोग भी होने लगा था। शिक्षितों के अध्ययनार्थ जिस भाषा का प्रयोग किया गया उसमें अंग्रेज़ी प्रयोग की दो शैलियाँ थी- एक में अंग्रेज़ी शब्द का प्रयोग करके उस शब्द का पर्याय हिन्दी में दे दिया जाता था, जैसे- Instinct (पशुबुद्धि), Nature (प्रकृति), Natural/Gift (ईश्वर की देन) आदि। दूसरी शैली में हिन्दी शब्द देकर उसका पर्याय अंग्रेज़ी में दिया गया; जैसे- विचार Policy, बोध (फल़ंग) इत्यादि।

         भारतेन्दु युग में शब्द-प्रयोग सम्बन्धी अनेकरूपता के साथ ही रचनात्मक तथा व्याकरणिक अनियमितताएँ अधिक थी। यह बात है कि इन लेखकों का मुख्य उद्देश्य रचनाएँ करके हिन्दी भाषा का प्रचार और प्रसार करना था, अत: वे भाषा की व्याकरणिक और वर्तनी की शुद्धता के प्रती सतर्व नहीं थे।  

  •     गद्य और पद्य की हिन्दी: इस बात का उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है कि 19वीं शताब्दी के अन्त तक खड़ी बोली की काव्य में वह स्थान और सम्मान नहीं मिला जो परंपरा से ब्रजभाषा को प्राप्त था। उस युग के लगभग सभी साहित्यकार गद्य तो खड़ी बोली में लिखते थे, परन्तु पद्य ब्रजभाषा में। वे तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर खड़ी बोली में अवश्य काव्य-रचना करते थे, परंतु इससे उन्हें संतोष नहीं होता था। इसे स्वीकार करते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा था कि ‘‘मैंने कई बार परिश्रम किया कि खड़ी बोली में कुछ कविता बनाऊँ पर मेरे चित्तानुसार नहीं बनी, इससे यह निश्चित होता है कि ब्रजभाषा में ही कविता करना उत्तम होता है।’’ इस वक्तव्य के बाद एक विवाद खड़ा हो गया। ब्रजभाषा के लेखकों ने कहा कि खड़ी बोली काव्य के उपयुक्त नहीं है, उसमें लालित्य नहीं है। कुछ ने तो इसके लिए ‘पिशाची’, ‘डाकिनी’ जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग भी किया। खड़ी बोली में कविता करने वालों को उन्होंने दुर्मति, मुर्ख और हठी कहा। परन्तु खड़ी बोली के समर्थक कंकड-पत्थर का जवाब ईंट से नहीं देते थे- वे खड़ी बोली के व्यवहार और संस्कार करने में लगे रहे। उनका कहना केवल इतना था, कि ब्रज प्रदेश के बाहर ब्रजभाषा को जानने-समझने वाले बहुत कम रह गए हैं, यह सीमित क्षेत्र की भाषा है। इसमें  शृंगार ही  शृंगार है और यह अन्य भावों और सामयिक विषयों की अभिव्यक्ति करने में असमर्थ रही है। किसी देश के साहित्य में ऐसा नहीं है कि दो-दो भाषाएँ चलती हों- गद्य की और तथा पद्य की और। भाषा एक होनी चाहिए। खड़ी बोली का क्षेत्र व्यापक है, इसलिए खड़ी बोली को ही पद्य का भी माध्यम होना चाहिए। मज़े की बात यह है कि खड़ी बोली के पक्षधर प्राय: सभी कवि ब्रजभाषा में भी और ब्रजभाषा के समर्थन खड़ी बोली में काव्य-रचना करते रहे। जगन्नाथदास रत्नाकर और राय देवीप्रसाद पूर्ण ब्रजभाषा, केवल ब्रजभाषा, के साथ चिपके रहे। बहस जारी रही, विवाद चलता रहा। बीसवीं शताब्दी के आरंभ से कुछ पहले और द्विवेदी युग के अंत तक लगभग सभी मनीषियों ने इस विवाद में भाग लिया।

निष्कर्ष:

उन्नसवीं शती के उत्तरार्ध की भाषा स्थिति का अवलोकन करने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके युग के साथी खड़ी बोलो की उन्नति के लिए बहुत सक्रिय थे और उन्होंने मौलिक कृतियों तथा अनुवाद द्वारा साहित्य को समृद्ध करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु उनकी भाषा शैली परिमार्जित नहीं हो पाई। भारतेन्दु भाषा-नीति के सम्बन्ध में जागरूक अवश्य थे। उन्होंने राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा-पद्धति में से एक बीच का मार्ग निकाला तो, परन्तु प्राय: लेखकगण अपने-अपने ढंग से चलते रहे। कुछ ने उर्दू-फारसी शब्दावली की भरमार कर दी और कुछ फारसी शब्दों का बहिष्कार करने के पक्ष में थे। कुछ लेखक संस्कृतगर्भित भाषा को और कुछ तद्भव तथा बोलियों के शब्दों का समावेश करके अपनी-अपनी शैली चला रहे थे। किसी-किसी की एक ही रचना में कहीं पर संस्कृत शब्दों की बहुलता है तो कहीं तद्भव शब्दों की और कहीं-कहीं पर मिश्रित भाषा का भी प्रयोग करते थे। ऐसे प्रयोग भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे अग्रणी साहित्यकारों की रचनाओं में यत्र-तत्र मिलते हैं। काव्यभाषा में ब्रजभाषा प्रयोग होने के कारण खड़ी बोली की रचनाओं में भी ब्रजभाषा का पुट अधिक मिलता है। तात्पर्य यह है कि इस युग में खड़ी बोली साहित्य की इस युग में खड़ी बोली साहित्य की वेदी पर प्रतिष्ठित तो हुई परन्तु उसमें एक आदर्श की स्थापना नहीं हो पाई। भाषा के क्षेत्र में अस्थिरता, स्वच्छन्दवादिता और अराजकता बनी रही। इसको दूर करने का श्रेय बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही महावीर प्रसाद द्विवेदी को मिलता है। उन्होंने ही इस भाषा का आदर्शीकरण और स्थिरीकरण किया।

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