हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास

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आधुनिक भारतीय भाषाओं का सामान्य परिचय

‘हिन्दी’ वस्तुतः फारसी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है- हिन्दी का या हिंद से सम्बन्धित। ‘हिन्दी’ शब्द की निष्पत्ति सिन्धु-सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में ‘स’ को ‘ह’ बोला जाता है। इस प्रकार ‘हिन्दी’ शब्द वास्तव में ‘सिन्धु’ शब्द का प्रतिरूप है। कालान्तर में ‘हिंद’ शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा। इसी ‘हिंद’ से ‘हिन्दी’ शब्द बना।

आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते हैं, वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है, जो साहित्य की परिनिष्ठित भाषा थी। वैदिक भाषा में वेद, संहिता एवं उपनिषदों-वेदान्त का सृजन हुआ है। वैदिक भाषा के साथ-साथ ही बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, जिसे लौकिक संस्कृत भी कहा जाता है। संस्कृत का विकास उत्तरी भारत में बोली जाने वाली वैदिककालीन भाषाओं से माना जाता है। अनुमानत: 8 वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा था। संस्कृत भाषा में ही रामायण तथा महाभारत जैसे ग्रंथ रचे ग् । वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, अश्वघोष, भारवी, माघ, भवभूति, विशाख, दण्डी तथा श्रीहर्ष आदि संस्कृत की महान विभूतियां हैं। इसका साहित्य विश्व के समृद्ध साहित्य में से एक है।

संस्कृतकालीन आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते ईसा पूर्व पांचवी सदी तक काफी बदल गई, जिसे ‘पालि’ कहा गया। महात्मा बुद्ध के समय में पालि लोकभाषा थी और उन्होंने पालि के द्वारा ही अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार किया। संभवतः यह भाषा ईसा की प्रथम ईस्वी तक रही। पहली ईस्वी तक आते- आते पालि भाषा और परिवर्तित हुई, तब इसे ‘प्राकृत’ की संज्ञा दी गई। इसका काल पहली ईस्वी से 500 ईस्वी तक है। पालि की विभाषाओं के रूप में प्राकृत भाषाएं- पश्चिमी, पूर्वी, पश्चिमोत्तरी तथा मध्य देशी, अब साहित्यिक भाषाओं के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी, जिन्हें मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची, ब्राचड़ तथा अर्धमागधी भी कहा जा सकता है।

आगे चलकर प्राकृत भाषाओं के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषाएं प्रतिष्ठित हुईं। इनका समय सन् 500 ईस्वी से सन् 1000 ईस्वी तक माना जाता है। अपभ्रंश भाषा साहित्य के मुख्यतः दो रूप मिलते हैं-पश्चिमी और पूर्वी । अनुमानतः सन् 1000 ईस्वी के आसपास अपभ्रंश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ। अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ। आधुनिक आर्यभाषाओं में, जिनमें हिन्दी भी है, का जन्म सन् 1000 ईस्वी के आसपास ही हुआ था, किन्तु उसमें साहित्य रचना का कार्य सन् 1150 ईस्वी या इसके बाद प्रारम्भ हुआ। अनुमानतः तेरहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का रूप मानते हैं। आधुनिक आर्यभाषाओं का जन्म अपभ्रंशों के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों से इस प्रकार माना जा सकता है-

अपभ्रंश – आधुनिक आर्यभाषा और उपभाषा
पैशाची – लहंदा और पंजाबी
ब्राचड़ – सिन्धी
महाराष्ट्री – मराठी
अर्द्ध मागधी – पूर्वी हिन्दी
मागधी – बिहारी, बंगला, उड़िया, असमिया
शौरसेनी – पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव अपभ्रंश के अर्धमागधी, शौरसेनी और मागधी रूपों से हुआ है।

हिन्दी का उद्भव : सामान्य परिचय

दुनिया का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। ऋग्वेद से पहले भी सम्भव है कोई भाषा विद्यमान रही हो परन्तु आज तक उसका कोई लिखित रूप नहीं प्राप्त हो पाया। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि सम्भवतः आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा ऋग्वेद की भाषा यानि वैदिक संस्कृत ही थी । विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की भी एक काल अथवा एक स्थान पर रचना नहीं हुई। इसके कुछ मंत्रों की रचना कंधार में, कुछ की सिन्धु तट पर, कुछ की विपाशा-शत के संभेद (हरि के पत्तन) पर ‘और कुछ मंत्रों की यमुना एवं गंगा के तट पर हुई। इस अनुमान का आधार यह है कि इन मंत्रों में कहीं कंधार के राजा दिवोदास का वर्णन है, तो कहीं सिन्धु नरेश सुदाम का। इन दोनों राजाओं के शासन काल के बीच शताब्दिनों का अन्तर है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद की रचना सैकड़ों वर्षों में जाकर पूर्ण हुई और बाद में इसे संहित- (संग्रह) -बद्ध किया गया।

ऋग्वेद के उपरान्त ब्राह्मण ग्रंथों तथा सूत्र ग्रंथों का सृजन हुआ। इनकी भाषा ऋग्वेद की भाषा से कई अंशों में भिन्न लौकिक या क्लासिकल संस्कृत है। सूत्र ग्रंथों के रचना काल में भाषा का साहित्यिक रूप व्याकरण के नियमों में आबद्ध हो गया था। तब यह भाषा संस्कृत कहलाई । तब छंदस् वेद तथा लोकभाषा (लौकिक) में पर्याप्त अन्तर स्पष्ट रूप में प्रकट हुआ। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मत है कि पतंजलि (पाणिनी की ‘व्याकरण अष्टाध्यायी’ के महाभाष्यकार) के समय में व्याकरण शास्त्र जाननेवाले विद्वान ही केवल शुद्ध संस्कृत बोलते थे, अन्य लोग अशुद्ध संस्कृत बोलते थे तथा साधारण लोग स्वाभाविक बोली बोलते थे, जो कालान्तर में प्राकृत कहलाई।

डॉ. चंद्रबली पांडेय का मत है कि भाषा के इन दोनों वर्षों का श्रेष्ठतम उदाहरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है, जबकि अशोक वाटिका में पवन पुत्र हनुमान ने सीता से ‘द्विजी’ (संस्कृत) भाषा में बात न करके ‘मानुषी’ (प्राकृत) भाषा में बातचीत की। लेकिन डॉ. भोलानाथ तिवारी ने तत्कालीन भाषा को पश्चिमोत्तरी, मध्य देशी तथा पूर्वी नाम से अभिहित किया है। परन्तु डॉ. रामविलास शर्मा आदि कुछ विद्वान प्राकृत को जनसाधारण की लोकभाषा न मानकर उसे एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि प्राकृत ने संस्कृत शब्दों को हठात् त्रिकृत करने का नियम हीन प्रयत्न किया। डॉ. श्यामसुन्दर दास का मत है- ‘वेदकालीन कथित भाषा से ही संस्कृत उत्पन्न हुई और अनार्यों के सम्पर्क का सहारा पाकर अन्य प्रान्तीय बोलियाँ विकसित हुईं। संस्कृत ने केवल चुने हुए प्रचुर प्रयुक्त, व्यवस्थित, व्यापक शब्दों से ही अपना भण्डार भरा, पर औरों ने वैदिक भाषा की प्रकृति स्वच्छंदता को भरपेट अपनाया। यही उनके प्राकृत कहलाने का कारण है।’

व्याकरण के विधि निषेध नियमों से संस्कारित भाषा शीघ्र ही सभ्य समाज की श्रेष्ठ भाषा हो गई तथा यही क्रम कई शताब्दियों तक जारी रहा। यद्यपि गौतम बुद्ध के समय संस्कृत की गति कुछ शिथिल पड़ गई, परन्तु गुप्त काल में उसका विकास पुनः तीव्र वेग से हुआ। दीर्घकाल तक संस्कृत ही राष्ट्रीय भाषा के रूप में सम्मानित रही।

जनसाधारण अल्प शिक्षित वर्ष के लिए संस्कृत के नियमों का अनुसरण कठिन था, अतः वे लोकभाषा का ही प्रयोग करते थे। इसीलिए महावीर स्वामी ने जैन मत के तथा महात्मा बुद्ध ने बौद्ध मत के प्रसार के लिए लोकभाषा को ही अपनी वाणी का माध्यम बनाया। इससे लोकभाषा को ऐसी प्रतिष्ठा का पद प्राप्त हुआ, जो उससे पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुआ था। फिर भी संस्कृत भाषा का महत्त्व कभी कम नहीं हुआ। भास, कालिदास आदि के नाटकों में सुशिक्षित व्यक्ति तो संस्कृत बोलते हैं, परन्तु अशिक्षित पात्र-जैसे विदूषक तथा दास-दासियां आदि प्राकृत में बात करते हैं। परन्तु ये सब जिन प्रश्नों के उत्तर प्राकृत में देते हुए दिखाए गए हैं, उन प्रश्नों को संस्कृत में ही पूछा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि जनसाधारण भी संस्कृत को अच्छी तरह समझ लेते थे, भले ही बोलने में उन्हें कठिनाई प्रतीत होती हो।

‘पंचतंत्र’ में विष्णु शर्मा ने संस्कृत भाषा में ही राजकुमारों को शिक्षा प्रदान की थी। डॉ. आर. के. मुकर्जी ने कहा है कि ब्राह्मण काल एवं उसके पश्चात भी निःसंदेह संस्कृत सामान्य जनता के धार्मिक कृत्यों पारिवारिक संस्कारों तथा शिक्षा एवं विज्ञान की भाषा थी। के.एम. पणिक्कर ने कहा है कि संस्कृत विश्व की संस्कृति और सभ्यता की भाषा है जो भारत की सीमाओं के पार दूर-दूर तक फैली हुई थी।

हिन्दी का निर्माण-काल

अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। पहली ईस्वी के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएं साहित्यिक सन्दर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएं बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रूप था वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ। अपभ्रंश के सम्बन्ध में ‘देशी’ शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है।

वास्तव में ‘देशी’ से देशी शब्द एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है। प्रश्न यह कि देशीय शब्द किस भाषा के थे? भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में उन शब्दों को ‘देशी’ कहा है ‘जो संस्कृत के तत्सम एवं तद्भव रूपों से भिन्न हैं।’ ये ‘देशी’ शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द थे, जो स्वभावतया अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परन्तु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है, प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढांचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड़ में न आ सके, उनको देशी संज्ञा दी गई। प्राचीन काल से बोलचाल की भाषा को देशी भाषा अथवा ‘भाषा’ कहा जाता रहा। पाणिनि के समय में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। अतः पाणिनी ने इसको ‘भाषा’ कहा है। पतंजलि के समय तक संस्कृत केवल शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा रह गई थी और प्रकृत ने बोलचाल की भाषा का स्थान ले लिया था।

हिन्दी भाषा का इतिहास

हिन्दी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य रचना प्रारम्भ हो गयी थी। हिन्दी भाषा व साहित्य के जानकार अपभ्रंश की अन्तिम अवस्था अवहट्ट से हिन्दी का उद्भव स्वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसी अवहट्ट को ‘पुरानी हिन्दी’ नाम दिया।

साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएं मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, श्रृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने ‘देसी भाषा’ कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य ‘ भारतीय भाषा’ का था।

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