हिन्दी उपन्यास का उद्भव और विकास

भारतेन्दु युग में ही हिंदी उपन्यास-लेखन की परम्परा का श्रीगणेश हुआ। तब से बराबर उन्नति करती हुई उप्नयास विधा समकालीन हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण गद्य–विद्या के रूप में प्रतिष्ठित है। भारतेन्दु से लेकर आज तक के हिन्दी उपन्यास के समूचे विकास को विवेचन की सुविधा के लिए निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जाता है:
(क) आरंभिक हिन्दी उपन्यास या प्रेमचंदपूर्व हिंदी उपन्यास
(ख) प्रेमचंदयुगीन हिन्दी उपन्यास
(ग) प्रेमचंदोत्तर हिन्दी उपन्यास
(घ) स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास
(ङ) समकालीन हिन्दी उपन्यास
(क) आरंभिक हिन्दी उपन्यास या प्रेमचंदपूर्व हिंदी उपन्यास
आरंभिक हिन्दी उपन्यास या प्रेमचंदपूर्व हिन्दी उपन्यास का समय सन् 1877 से 1918 ई. तक माना जा सकता है। सन् 1977 में श्रद्धाराम फुल्लौरी ने ‘भाग्यवती’ नामक सामाजिक उपन्यास लिखा था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस उपन्यास की काफी प्रशंसा की थी। यह भले ही अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास न हो किन्तु विषयवस्तु की नवीनता के आधार पर इसे हिन्दी का प्रथम आधुनिक उपन्यास कहा जाता है। इसमें तत्कालीन हिन्दु समाज की अनेक कुरीतियों का आलोचनात्मक एवं यथार्थवादी रीति से चित्रण हुआ है और स्त्रियों के लिए अनेक सदपदेश दिए गए हैं। 1918 ई. में प्रेमचंद का ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ। यहीं से हिन्दी उपन्यास की दिशा और गति में ऐसा परिवर्तन आ जाता है कि प्रेमचंद और उनके समय के उपन्यासों को प्रेमचंद-पूर्व उपन्यासों से अलग करके समझना आवश्यक हो जाता है।
19वीं शताब्दी के आठवें दशक में लिखी गई शिक्षाप्रद पुस्तकों को कथातमकता के बावजूद उपन्यास की कोटी में नहीं रखा जा सकता है। पं. गौरीदत्त की रचना ‘देवरानी जेठानी’ भी एक शिक्षा-प्रधान उपदेशात्मक रचना है। दरअसल लाला श्रीनिवास दास का अंग्रेजी ढंग का नावेल ‘परीक्षा गुरु’ और श्रद्धाराम फुल्लौरी का ‘भाग्यवती’ ही हिन्दी के अभिन्न उपन्यासों के रूप में रेखांकित किये जा सकते हैं। भाग्यवती’ की रचना सन् 1877 में और ‘परीक्षा गुरु’ का प्रकाशन सन् 1882 में हुआ था। ‘भाग्यवती’ उपन्यास का प्रकाशन उसके रचना-काल के दस वर्ष बाद सन् 1887 में हुआ।
प्रेमचंदपूर्व लिखे गए मौलिक उपन्यासों को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- (i) सामाजिक उपन्यास, (ii) ऐयारी-तिलिस्मी उपन्यास, (iii) जासूसी उपन्यास, (iv) ऐतिहासिक उपन्यास, (v) भावप्रधान उपन्यास।
(i) सामाजिक उपन्यास
विवेच्य काल राष्ट्रीय एवं सामाजिक चेतना की दृष्टि से जागृति एवं सुधार का काल रहा है। सामाजिक समस्याओं और परिस्थितियों को केन्द्र में रखकर साहित्य रचना करने वाले दो प्रकार के साहित्यकार थे- एक वर्ग तो नवीन शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, सुधार आन्दोलन के प्रकाश में धार्मिक बाह्याडम्बरों एवं सामाजिक विकृतियों को समाप्त करके अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता था, दूसरे वर्ग का लेखक सनातनी परम्परा से जुड़ा हुआ था। वह आर्य समाज आदि के द्वारा किये जाने वाले सुधारों का विरोधी था। पहले वर्ग के लेखकों में श्रद्धाराम फुल्लौरी, लाला श्रीनिवास दास, बालकृष्ण भट्ट तथा लज्जाराम मेहता और दूसरे वर्ग के लेखकों में गोपालराम गहमरी और किशोरी लाल गोस्वामी के नाम उल्लेखनीय हैं। इन दोनों वर्गों के लेखकों ने अधिकतर नीति-उपदेश-प्रधान उपन्यासों की ही रचना की। इनके उपन्यासों के विषय हैं- आदर्श विद्यार्थी, आदर्श हिन्दू, आदर्श गृहिणी, चरित्र–बाल, सत्य-निष्ठा आदि का महत्त्व तथा जुआ, मद्यपान, कुसंगति आदि से होने वाली हानियाँ और उनका निवारण। लाला श्रीनिवास दास (परिक्षा गुरु), बालकृष्ण भट्ट (नूतन ब्रह्मचारी, सो अजान एक सुजान) लोचन प्रदास पाण्डेय (दो मित्र), लज्जाराम शर्मा (आदर्श दम्पत्ति, बिगड़े का सुधार), गोपालराम गहमरी (नये बाबू, डबल बीबी, सास-पतोह) आदि के उपन्यास उपर्युक्त प्रवृत्तियों की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं।
इन सामाजिक उपन्यासों के बीच प्रेम-रोमांस वाले ऐसे उपन्यासों की भी रचना हुई है जिनमें रीतिकालीन नायिका-भेद वाले विलासात्मक प्रेम को प्रधानता दी गई है, कुछ उपन्यासों में शोखी, शराटत और चुहल भी दिखाई पड़ती है। ‘अँगूठी का नगीना’ (किशोरीलाल गोस्वामी), ‘प्रणयी माधव’ (मोटेश्वर पोतदार), शीला (हरिप्रसाद जिंजल), “शयामा स्वप्न’ (ठाकुर जगमोहन सिंह) आदि प्रेम प्रधान उपन्यास है।
इस युग के सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार हैं किशोरीलाल गोस्वामी, जिन्होंने लगभग 65 उपन्यासों की रचना की है। इनके विचार सनातन हिन्दू धर्म के अनुकूल है। इनके सामाजिक उपन्यासों में “त्रिवेणी व सौभाग्य श्रेणी’, ‘लीलावती व आदर्श शती’, ‘राजकुमारी’, ‘चपला व नव्य समाज’ आदि उल्लेखनीय हैं। गोस्वामी जी के प्रायः सभी उपन्यास स्त्रीपात–प्रधान हैं और उनमें प्रेम के विविध रूपों का चित्रण हुआ है। उन्होंने यदि एक ओर सती-साध्वी देवियों के आदर्श प्रेम का चित्रण किया है तो दूसरी ओर साली-बहनोई के अवैध-प्रेम, विधवाओं के व्यभिचार, वेश्याओं के कुत्सित जीवन आदि का भी सजीव वर्णन किया है। बनते हुए नए समाज को इन्होंने संदेह की नजर से देखा है।
(ii) तिलस्मी-ऐयारी उपन्यास
हिन्दी उपन्यास युग -जीवन के चित्र की जिस प्रवृत्ति को लेकर आरम्भ हुआ था यदि परवर्ती लेखकों ने उस परम्परा का अनुगमन किया होता तो यथार्थपरक समाज-चित्रण की कला प्रेमचंद के पहले ही प्रौढ़ता प्राप्त कर लेती, किन्तु देवकीनन्दन खत्री के ‘चन्द्रकान्ता’ उपन्यास के प्रकाश में आते ही चमत्कारपूर्ण घटना-प्रधान उपन्यासों की ऐसी धूम मची कि कुछ काल के लिए सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने वाली प्रवृत्ति की गति मन्द पड़ गयी।
देवकीनन्दन खत्री पर उर्दू की दास्तान–परम्परा का प्रभाव है। उन्होंने ‘तिलस्में होशरूबा’ से लेकर ‘चन्द्रकान्ता’, ‘चन्द्रकान्ता संतति’, ‘भूतनाथ’, ‘नरेन्द्र मोहिनी’, ‘वीरेन्द्र वीर’, ‘कुसुम कुमारी’ जैसे रहस्य-रोमांच से परिपूर्ण उपन्यासों की रचना की और हिन्दी में एक नया पाठक-समाज तैयार किया- ऐसा पाठक-समाज भी बनाया जो हिन्दी जानता था। उनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए असंख्य लोगों ने हिन्दी सीखी और देवनागरी लिपि का ज्ञान प्राप्त किया। खत्री जी के उपन्यासों का संसार तिलस्मी एवं ऐयारी से भरपूर उर्दू दास्तानों और प्राचीन भारतीय कथाओं के राजकुमार राजकुमारियों की प्रेम-कथाओं से निर्मित ऐसा संसार है जिसमें सब कुछ अताकि, जादुई और चमत्कारपूर्ण है। ‘ऐयार’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है तीव्रग्रामी या चपत व्यक्ति। देवकीनन्दन खत्री के अनुसार “ऐयार उसको कहते हैं जो हर एक फन जानता हो। शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य कार्य है।’ खत्री जी के उपन्यासों में इन्हीं करामात ऐयारों की करामात का रहस्य-रोमांच भरा ऐसा आख्यान है जिसको पढ़ने वाला व्यक्ति अलग-विस्मृति की हद पहुँचकर इतने मनोरंजनपूर्ण संसार में लीन हो जाता है कि वहाँ निकलना उसे प्रीतिकर नहीं लगता। माताप्रसाद गुप्त के अनुसार अतिप्राकृत भावना के आधार पर लिखे गये इन उपन्यासों की लोकप्रियता के लिए मध्ययुगीन विकृत रुचि ही उत्तरदायी है। जो भी हो, इतना अवश्य है कि हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में इन रचनाओं का बहुत बड़ा योगदान है। खत्री के अतिरिक्त हरेकृष्ण जोहर ने ‘कुसुमलता’, ‘भयानक भ्रम’, ‘नारी पिशाच’, ‘मयंक मोहिनी का माया महल’, ‘भयानक खुन’ आदि ऐयारी उपन्यासों की रचना की। किशोरी लाल ने भी ‘शीशमहल’ नामक उपन्यास लिखा। इन लेखकों को खत्री जैसी लोकप्रियता नहीं मिली।
(iii) जासूसी उपन्यास
तिलस्मी ऐयारी उपन्यासों की लोकप्रियता ने गोपाल राम गहमरी को भिन्न ढंग से प्रसिद्ध होने के लिए जासूसी उपन्यासों की रचना में प्रवृत्त होने का अवसर प्रदान किया। जासूसी उपन्यास पूर्णतः योरोप-विशेषतः इंग्लैंड की देन है। 19वीं शती में सर आर्थर कानन डायल के जासूसी उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुए थे। उनके प्रभावस्वरूप बंगला में और बाद में हिन्दी में जासूसी उपन्यास लिखे गए। गोपाल राम गहमरी ने सन् 1900 ई. ‘जासूस’ नामक मासिक पत्र निकाला। इसी में इनके जासूसी उपन्यास प्रकाशित हुए जिनकी संख्या लगभग 200 है। ‘अद्भुत लाश’, ‘गुप्तचर’, ‘बेकसूर को फाँसी’, ‘खुनी कौन’, ‘बेगुनाह का खुन’, ‘जासूस की चोरी’, ‘अद्भुत खून’, ‘डाके पर डाका’, ‘जादुगरनी मनोला’, ‘खुनी का भेद’, ‘खूनी की खोज’, ‘किले में खून’ आदि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं जिनमें चोरी, डकैती, हत्या, ठगी आदि से संबंधित कोई भयंकर काण्ड हो जाता है और जासूस उसके सुराग में लग जाता है।
फिर क्रमशः कथानक एक रहस्य से दूसरे रहस्य में उलझता हुआ घटनाओं के वातचक्र में तब फँसा रहता है जब तक जासूस अपने धैर्य, साहस, बल, बुद्धि और कौशल से उसका रहस्य भेदन नहीं कर लेता। जासूसी उपन्यास की घटनाएँ जीवन की यथार्थ स्थिति के निकट होती हैं। कल्पना से उसमें रहस्य की सृष्टि होती है और इस तरह कथानक जटिल और पेचीदा हो जाती है। इस तरह के उपन्यासों में भी मनोरंजन, कुतुहल, कौतुक का समावेश रहता है किन्तु सत्य का उद्घाटन नैतिकता के स्थान और आदर्शवादी दृष्टि का पोषण भी इनका उद्देश्य रहा है।
गोपाल राम गहमरी के अतिरिक्त रामलाल वर्मा (चालाक चोर), किशोरी लाल गोस्वामी (जिन्दे की लाश), जयराम दास गुप्त (लंगड़ खूनी) ने भी जासूसी उपन्यासों की रचना की रचना की किन्तु गहमरी के अतिरिक्त किसी को विशेष ख्याति नहीं मिली।
(iv) ऐतिहासिक उपन्यास
इस युग में मध्यकालीन भारत के मुगल शासन से संबंधित ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर अनेक उपन्यास लिखे गये। किशोरीलाल गोस्वामी ने ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना में विशेष रुचि दिखाई है। ‘तारा वा क्षात्रकुल कमलिनी’, ‘कनक कुसुम वा मस्तानी’, ‘सुल्ताना रजिया बेगम वा रंगमहल में हलाहल’, ‘लखनऊ की कब्र या शाही महलसरा’, ‘सोना, सुगन्ध वा पन्नाबाई’ आदि उनके प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास हैं। इनके अतिरिक्त गंगा प्रसाद (नूरजहाँ, वीर पत्नी, कुमार सिंह सेनापति, हम्मीर), जयरामदास गुप्त (काशमीर पतन, रंग में भंग, मायारानी, मल्का चाँद बीबी), मथुरा प्रसाद शर्मा (नूरजहाँ बेगम), ब्रजनन्दन सहाय (लाल चीन) आदि ने भी ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं का चित्रण हुआ है, किन्तु इन्हें सच्चे अर्थों में ऐतिहासिक उपन्यास नहीं कहा जा सकता है क्योंकि एक तो इनमें ऐतिहासिक वातावरण का अभाव है, दूसरे ऐतिहासिक घटनाओं और तत्कालीन रीति-नीति, आचार-विचार वेश-भूषा आदि का वर्णन में कालदोष विद्यमान है। दरअसल लेखकों की प्रवृत्ति इतिहास की ओर से हटकर प्रणय-कथाओं, विलास लिलाओं, रहस्यमय प्रसंगों और कुतुहल पूर्ण घटनाओं की कल्पना में अधिक लीन रही है। ऐतिहासिक छानबीन कम की, कल्पना से अधिक काम लिया ऐसा प्रतीत होता है कि तिलिस्मी-ऐयारी और जासूसी उपन्यासों के अतिशय रहस्य-रोमांच के समानांतर अपनी प्रेमकथाओं को प्रमाणिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए इन रचनाकारों ने इतिहास का सहारा ले लिया। इन्हें ऐतिहासिक रोमांस की कथाएँ कहना अधिक समीचीन है।
(v) भावप्रधान उपन्यास
इस युग में कुछ ऐसे भी उपन्यास लिखे गए जिनमें न घटना की प्रधानता है, न चरित्र की। इनमें भावतत्त्व की प्रधानता है जैसे ठाकुर जगमोहन सिंह का ‘श्यामा स्वप्न’, बजनन्दन सहाय के ‘सौन्दर्योपासक’, ‘राधाकांत’, ‘राजेन्द्र मालती’ आदि उपन्यास। इन उपन्यासों में कथा-तत्त्व सर्वथा क्षीण है। आचार्य शुक्ल ने इन्हें ‘काव्यकोटि में आने वाले भावप्रधान उपन्यास’ कहा है। घटना-परिस्थिति की क्षीणता के कारण इन उपन्यासों में कोई गति भी प्रायः नहीं है।
(ख) प्रेमचन्द युगीन हिन्दी उपन्यास
प्रेमचंद का ‘सेवासदन’ उपन्यास सन् 1918 में प्रकाशित हुआ। इसी उपन्यास के प्रकाशन के साथ हिन्दी उपन्यास के नये युग का आरंभ होता है जिसे “प्रेमचंद युग’ और हिन्दी उपन्यास के विकास युग के नाम से जाना जाता है। इस युग की समय-सीमा सन् 1918 से 1936 ई. तक मानी जा सकती है क्योंकि इसी अवधि में प्रेमचंद का उपन्यास-लेखन सम्पन्न हुआ। अ और इसी समय सीमा में प्रेमचंद से प्रेरित-प्रभावित अनेक उपन्यासकारों ने अपनी रचनात्मक प्रतिभा प्रदर्शित की।
सन् 1918 से 1936 ई. तक का समय भारतीय स्वाधीनता संघर्ष और समाज सुधार संबंधी आंदोलनों की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अंग्रेजी शासन, शिक्षा एवं सभ्यता के प्रभाव से तथा हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों, मत-मतान्तरों एवं धार्मिक आडम्बरों के प्रति बौद्धिक विद्रोह से, हमारे भीतर अपने धर्म, शिक्षा, संस्कृति एवं आचार-विचार विषयक जो हीनता आ गई थी उसके उन्मूलन के लिए चले आ रहे प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दू समाज में एक नवीन चेतना और गौरव की भावना का उदय हो रहा था। महात्मा गाँधी भारतीय राजनीतिक मंच पर सूर्य की तरह उदित हो रहे थे। उनके सत्य, अहिंसा, सदाचार, सत्याग्रह, अस्पृश्यता विरोध, स्त्रियों की उन्नति ग्राम सुधार, अछूतोद्धार, स्वदेशी आदि से संबंधित विचारधारा का जनता पर व्यापक प्रभाव पडत्रने लगा था। अन्याय-उत्पीड़न के खिलाफ विरोध की नई शक्ति का उदय, उत्पीड़क समाज, सामन्त वर्ग, सरकारी अधिकारी, पूँजीपति आदि से टक्कर लेने का साहस, रूस की नवजागृति, विज्ञान के अभूतपूर्व आविष्कार आदि का हमारे जन-जागरण पर जो प्रभाव पड़ा उससे समाज यथार्थोन्मुख और वर्गीय समझ से भी सम्पन्न हुआ। अतः कल्पना, रोमांच एवं चमत्कार-प्रदर्शन के इन्द्रजाल से मुक्ति लेकर हिन्दी उपन्यासकार यथार्थ की कठोरभूमि पर खड़े होकर समाजोपयोगी साहित्य की रचना में प्रवृत्त हुआ। इस नयी रचना-दृष्टि के संवाहक थे मुंशी प्रेमचन्द जिन्होंने पहले के उपन्यासकारों पर यह मार्मिक टिप्पणी की थी- “जिन्हें जगत् गति नहीं व्यापती, वे जासूसी, तिलस्मी चीजें लिखा करते हैं। यह कहकर प्रेमचन्द ने अपना प्रस्थान भेद और रचना संबंधी दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया था। प्रेमचंद ने अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ को अपने अनेक उपन्यासों में बड़ी गंभीरता एवं मार्मिकता के साथ चित्रित किया है। ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ जैसे उपन्यासों से प्रेमचंद ने हिंदी भाषी जनता का मानसिक संस्कार किया है और युगीन सामाजिक-राजनीतिक गतिविधि का पूर्ण चित्र भी अंकित किया है। अनेक उपन्यासों में मानवीय आदर्श, कर्तव्य प्रेम, करुणा, समाज-सुधार, देश-भक्ति, सत्याग्रह, अहिंसा, स्त्री-व्यथा, मध्यवर्गीय मनुष्य की त्रासदी, कृषक जीवन की समस्याएँ मेहनतकश जनता का संघर्ष आदि अनेक जीवन-संदर्भो का व्यापक एवं प्रभावोत्पादक चित्रण हुआ है। प्रेमचंद के उपन्यासों में आदर्श और यथार्थवाद का अद्भुत मेल है। उनके आरंभिक उपन्यासों में जहाँ आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अभिव्यक्ति हुई है, वही ‘गोदान’ में उनका आदर्शवाद पूरी तरह बिखर गया है और उसका स्थान ले लिया है क्रूर यथार्थ ने। यहाँ तक बाते-आते गाँधी के प्रभाव से हृदय परिवर्तन का भी सिद्धान्त पूरी तरह निष्फल हो गया है।
प्रेमचंद ने जहाँ गाँधीवादी विचारों और आदर्शों से प्रभावित होकर उपन्यास-रचना की, वहीं अपने चिन्तन, जीवनानुभव और ज्ञानार्जन से यथार्थवादी चेतना का भी विकास किया। प्रेमचदं के उपन्यास साहित्य की एक प्रमुख विशेषता है, दलितों के प्रति सहानुभूति और करुण तथा उनके जीवन संघर्ष की प्रामाणिक एवं मार्मिक अभिव्यकित। हिंदी साहित्य में जनचेतना और जनपक्षधरता का इतना बड़ा कोई दूसरा उपन्यासकार नहीं दिखाई पड़ता।
प्रेमचंद युग में ही जयशंकर प्रसाद ने ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’ जैसे उपन्यासों से अपनी उपन्यास-कला का भी परिचय दिया। उन्होंने ‘कंकाल’ में सामाजिक यथार्थ का चित्रण करके यह प्रमाणित कर दिया कि वे अतीत में ही रमे रहने वाले रचनाकार नहीं थे, वरन् उन्हें अपने समय के सामाजिक यथार्थ की भी गहरी जानकारी थी। इसी समय निराला ने ‘अप्सरा’, ‘प्रभावती’, ‘निरूपमा’, ‘चोटी की पकड़’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘कुल्लीभाट’ जैसे उपन्यासों से प्रेमचंदयुगीन सामाजिक चेतना को एक नया आयाम दिया। ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ हास्य-व्यंग्य की सरसता और तीक्ष्णता से युक्त ऐसे उपन्यास हैं जिनसे निराला की प्रगतिशील चेतना शास्त्री, वृन्दावन लाल वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ आदि ने भी प्रेमचंदयुग में ही लिखना आरंभ किया। इनकी प्रवृत्ति, दृष्टि और शैली उस युग से भिन्नता लिए हुए हैं और इनकी कला का निखार भी प्रेमचंदोत्तर काल में ही दिखाई पड़ा अतः इनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन प्रेमचंदोत्तर काल में ही करना अधिक समीचीन है।
(ग) प्रेमचंदोत्तर उपन्यास
प्रेमचंदोत्तर उपन्यास को ऐतिहासिक दृष्टि से दो वर्गों में रखा जा सकता है। प्रथम वर्ग प्रेमचंद के निधन (सन् 1936 ई.) के बाद से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति (सन् 1947) तक के उपन्यासों और दूसरे वर्ग में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज तक के उपन्यासों का अध्ययन-मूल्यांकन किया जा सकता है। पहले स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व के उपन्यासों पर चर्चा करते हैं।
प्रेमचंद के निधन के बाद हिन्दी उपन्यास में अनेक प्रवृत्तियों का विकास हुआ जैसे सामाजिक एवं मानवतावादी, स्वच्छंदतावादी, प्रकृतवादी, मनोविश्लेषणवादी, सामाजिक यथार्थवादी और ऐतिहासिक-पौराणिक । सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यास परम्परा मूलत 5 प्रेमचंद की ही परम्परा है। जिसमें सामाजिक यथार्थ के चित्रण और मनुष्य के चतुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल दिया गया है। इस परम्परा को समृद्ध करने वाले उपन्यासकार है- ‘विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक’, “सियाराम शरण गुप्त’, ‘प्रतापनारायण श्रीवास्तव’, ‘अमृतलाल नागर’, ‘विष्णु प्रभाकर’, ‘उदयशंकर भट्य’ । प्रेमचंद-युग में गांधीवादी विचारधारा की प्रमुखता रही है। जिसमें मानवतावाद की व्यापक प्रतिष्ठा भी हुई है। सियाराम शरण गुप्त, प्रतापनारायण श्रीवास्तव जैसे लेखकों पर गांधीवाद का गहरा प्रभाव रहा है। सियाराम शरण गुप्त के ‘गोद’, ‘अंतिम इच्छा’ और ‘नारी’ में प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘विजय’, ‘विकास’, ‘बयालीस’ और ‘विसर्जन’ जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। वे आध्यात्मिक स्तर पर गांधीवादी, हृदय परिवर्तन और आत्मपीड़न के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं। स्वच्छंदतावादी उपन्यासों की रचना में वृन्दावन लाल शर्मा (गढ़ कुण्डार, विराट का पद्मिनी), जयशंकर प्रसाद (तितली), निराला (अप्सरा, अलका, प्रभावती), भगवती चरण वर्मा (तीन वर्ष, चित्रलेखा) और उषादेवी मित्रा (प्रिया) का योगदान उल्लेखनीय है। हालाँकि प्रेमचंदोत्तर काल में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ह्रास हो गया था लेकिन यह ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी मर नहीं सकती।
प्रेमचंद-युग में ही प्रकृतवादी उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात हो गया था। प्रकृतवाद अपने में एक विशिष्ट जीवन-दर्शन है जो मानव-जीवन को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकृत रूप में (नेचुरल) देखने और चित्रित करने में विश्वास रखता है। इस दृष्टि के अनुसार जीवन में जिसे विद्रुप और कुत्सित कहा जाता है, वह सहज और वैज्ञानिक भी हे। चतुरसेन शास्त्री (हृदय की परख, व्यभिचार, अमर, आत्मदाह), पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (दिल्ली का दलाल, चाकलेट, बुधुआ की बेटी, शराबी, सरकार तुम्हारी आँखों में) और ऋषभचरण जैन (वैश्यापुत्र, मास्टर साहब, सत्याग्रह, चाँदनी रात, दिल्ली का व्यभिचार) ने हिन्दी में प्रकृतवादी उपन्यासों की रचना की और यथार्थ के नाम पर मानव जीवन की विकृतियों का खुलकर वर्णन-चित्रण किया। प्रकृतवादी उपन्यासों के जनक जोला (ZOLA) की मान्यता है कि लेखकों का धर्म है कि वे जीवन के गंदे और कुरूप से कुरूप चित्र खींचे। हिन्दी के प्रकृतवादी उपन्यासकारों ने इस धारणा के तहत जीवन का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिसे पढ़कर वितृष्णा पैदा होती है और महसूस होता है कि जीवन में सब कुछ विद्रुप, कुत्सित और वीभत्स है। इस प्रवृत्ति को अधिक प्रश्रय नहीं मिला। प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में व्यक्तिवादी चेतना का भी प्रधान्य रहा। व्यक्तिवादी व्यक्ति की सत्ता और अस्तित्व को समाज से पहले स्वीकार करता है। उसकी दृष्टि में समाज-व्यवस्था महज एक माध्यम होती है, लक्ष्य व्यक्ति होता है। अपने योग-क्षेम का निर्णायक व्यक्ति होता है। वह अपने प्रति स्वयं उत्तरदायी होता है। इसमें व्यक्ति का अहं प्रबल होता है। भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, तीन वर्ष, टेढ़े-मेढ़े रास्ते), उपेन्द्रनाथ अश्क’ (एक रात का नरक, सितारों का खेल, गिरती दीवारें), भगवती प्रसाद वाजपेयी (पतिता की साधना, चलते-चलते, टूटते बंधन) और उषा देवी मित्रा (वचन का मोल, जीवन का मुस्कान, पथचारी) ने व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से उपन्यासों की रचना की है। इन उपन्यासकारों ने सामाजिक शक्तियों के स्थान पर व्यक्ति की चेतना और उसके व्यक्तित्व को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। यहाँ व्यक्ति का विद्रोह भी सामाजिक संदर्भ से रहित व्यक्तिगत ही है।
प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों की एक ऐसी पंक्ति तैयार हुई जिसने हिन्दी को अनेक श्रेष्ठ उपन्यासों से समृद्ध किया। जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और अज्ञेय इस परम्परा के अग्रणी रचनाकार हैं। फ्रायड, एडलर और युंग की मनोविश्लेषण-संबंधी मान्यताओं का इन लेखकों पर गहरा प्रभाव है। मनुष्य के अन्तर्जगत की सूक्ष्म एवं गहन पड़ताल करके उसके अन्तःसत्य को उद्घाटित करना इन लेखकों का उद्देश्य है। इन उपन्यासकारों पर फ्रायड के सिद्धान्तों का अधिक प्रभाव है। उसके कुंठावाद के आधार पर लेखकों ने मनुष्य की दमित वासनाओं, कुंठाओं, काम-प्रवृत्तियों, अहं, दंभ और हीनभावना आदि ग्रंथियों का चित्रण करके हिन्दी उपन्यास में व्यक्ति का ऐसा रूप प्रस्तुत किया जिसमें वह अपनी आन्तरिक छवि देख सकता है। मनोवैज्ञानिक उपन्यासकारों ने यह माना कि बाह्य सत्य की अपेक्षा अन्तःसत्य ही प्रामाणिक एवं विश्वसनीय है। अतः उसे ही मानना महत्त्वपूर्ण है। जैनेन्द्र के ‘परख’, ‘सुनीता’, ‘त्यागपत्र’, ‘कल्याणी’, इलाचन्द्र जोशी के ‘संन्यासी’, ‘पर्दे की रानी’, ‘प्रेम और छाया’ और अज्ञेय के ‘शेखर : एक जीवनी’, ‘नदी के द्वीप’ जैसे उपन्यासों से यह कथा-परम्परा समृद्ध हुई।
सन् 1941 में दो बड़े उपन्यास- अज्ञेय का ‘शेखर : एक जीवनी’ और यशपाल का ‘दादा कामरेड’ एक साथ प्रकाशित हुए। इनमें प्रयोग और प्रगति की दो भिन्न जीवन-दृष्टियाँ स्पष्ट रूप में उभरकर सामने आई। अज्ञेय के उपन्यासों में मनोविश्लेषण, विद्रोहमूलक वैयक्तिक आग्रह, व्यक्ति स्वातंत्र्य और अभिनव रूप-विन्यास की प्रधानता थी तो यशपाल के उपन्यास पर मार्क्सवादी विचारधारा और यथार्थवादी शिल्प का गहरा प्रभाव था। वैसे तो प्रेमचंद के परवर्ती लेखन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा था किन्तु उसको व्यापक प्रतिष्ठा मिली यशपाल आदि समाजवादी-प्रगतिवादी लेखकों के साहित्य में। ‘प्रगतिशील लेखक मंच’ के प्रथम अधिवेशन के अपने भाषण में प्रेमचंद ने अपने वस्तुवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील सौन्दर्य-दृष्टि को भली-भाँति स्पष्ट कर दिया था। आगे चलकर प्रेमचंद की यथार्थवादी परम्परा का ही अनेकायामी विकास हुआ । प्रेमचंद के बाद यशपाल, नागार्जुन, मन्मथनाथ गुप्त, रांगेय राघव आदि उपन्यासकारों ने उस यथार्थवादी परम्परा का समुचित विकास किया।
‘दादा कामरेड’ के बाद यशपाल के तीन उपन्यास– ‘देशद्रोही’, ‘दित्या’ और ‘पार्टी कामरेड’ स्वतंत्रता के पहले प्रकाशित हुए और स्वतंत्रता के बाद ‘मनुष्य के रूप’ और ‘झूठा – सच’ जैसे वृहदकाय उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यशपाल के उपन्यासों में साम्यवादी विचार – दर्शन की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने लेखक और लेखन को सामाजिक उपयोगिता के दर्शन से जोड़ा है। उनका कहना है कि लेखक यदि कलाकार है तो उसके प्रयत्न की सार्थकता समाज के दूसरे श्रमियों की भाँति कुछ उपयोगिता की सृष्टि करने में हैं। यशपाल के उपन्यासों में प्रमुख रूप से भारतीय स्वाधीनता संघर्ष, समाज-संबद्धता, क्रांति और विद्रोह, प्रगतिशील जीवन मूल्यऔर चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। रांगेय राघव के ‘घरौंदे’, ‘विषाद मठ’ और मन्मथनाथ गुप्त के ‘शोले’, ‘मशाल’ में भी प्रगतिशील जीवन-दृष्टि की अभिव्यक्ति हुई है। स्वतंत्रता के बाद इस प्रगतिवादी धारा या समाजवादी धारा का ही विकास हुआ।
ऐतिहासिक–पौराणिक उपन्यास लेखकों में वृन्दावन लाल वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन, हजारीप्रसाद द्विवेदी के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों में भारतीय इतिहास के उन अध्यायों और घअनाओं को चित्रित किया गया है, जिनमें वर्तमान को नयी दिशा और प्रेरणा मिलती है । ऐसे उपन्यासों का उद्देश्य केवल इतिहास के आलोक में सुधारने और सँवारने की चेतना प्रदान करना है, साथ ही वर्तमान को इतिहास में संगुम्फित करने और नये जीवन-मूल्यों को विश्वसनीय और प्रेरणास्पद बनाकर प्रस्तुत करने की दृष्टि भी क्रियाशील है । ऐतिहासिक उपन्यासकारों में वृन्दावन लाल वर्मा को विशेष ख्याति मिली है। उनके ‘गढ़ कुंडार’, ‘विराट की पद्मिनी’, ‘झाँसी की रानी’ जैसे उपन्यास स्वतंत्रता से पहले और ‘कचनार’, ‘मृगनयनी’ ‘अहिल्याबाई’, ‘भुवन विक्रम’, ‘रामगढ़ की रानी’, ‘महारानी दुर्गावती’ आदि उपन्यास स्वतंत्रता के बाद लिखे गये हैं। वर्मा जी ने अपने इतिहास प्रधान उपन्यासों में मध्यकालीन भारत के दबे – बिखरे शौर्य और साहस को बड़ी ममता से संजोया है। उनका मानना है कि इतिहास मनुय के विकास में सहायक होता है। इस धारणा के तहत उन्होंने अपने उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का प्रसार किया । स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ लिखकर एक अभिनव प्रयोग किया। बाणभट्ट के बावजूद यह न तो आत्मकथा है, न जीवनी। इसमें हर्षवर्धन कालीन इतिहास, समाज और संस्कृति के साथ-साथ युगबोध को भी अभिव्यक्ति मिली है। यह कथ्य, शिल्प, भाषा, शैली, संचेतना आदि सी दृष्टियों से एक अनूठा उपन्यास है।
(घ) स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्यापक परिवर्तन उपस्थित हुआ। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान जिस व्यापक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना का अभ्युदय हुआ था, वह धीरे-धीरे हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता की गिरफ्त में आती गई और अंग्रेजों की फूट डालो, राज करो’ की नीति सफल होती गई। इसी के परिणामस्वरूप सन् 1947 ई. में अखण्ड भारत के दो खण्ड हो गये – हिन्दुस्तान और पाकिस्तान। भारत-विभाजन के बाद देश में साम्प्रदायिक दंगे हुए। आजाद भारत के निर्माण और विकास के लिए प्रयत्न हुए । तरह-तरह की योजनाएँ बनीं । उद्योग-धंधों, कार्यालयों और अन्य कर्म–क्षेत्रों का विस्तार हुआ। इस परिदृश्य से सामाजिक–राजनीतिक जीवन में उथल-पुथल हुईं, परिवर्तन, विघटन और निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके अलावा आजादी के भी जो मीठे-कड़वे अनुभव हासिल हुए, उन सबको केन्द्र में रखकर स्वातंत्र्योत्तर काल के उपन्यासकारों ने महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की रचना की । यशपाल का ‘झूठा – सच’ स्वतंत्रतापूर्व और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के यथार्थ को चित्रित करने वाला महाकाव्यात्मक उपन्यास है। यह उपन्यास दो खण्डों में लिखा गया है। पहला खण्ड है— ‘वतन और देश’ और दूसरा है ‘देश का भविष्य’ । ये दोनों शीर्षक काफी व्यंजनापूर्ण हैं और आजादी के पूर्व और आजादी के बाद के भारत की संघर्ष-कथा को बड़ी सजीवता के साथ रूपायित करते हैं। इनमें 1942 से 1952 ई. तक के भारत के राजनीतिक-सामाजिक जीवन का यथार्थवादी चित्रण किया गया है ।
देश विभाजन के पूर्व और उसके बाद की परिस्थितियों, जीवन-दशाओं, संघर्षों और समस्याओं को चित्रित करने वाले उपन्यासकारों में यशपाल के अतिरिक्त चतुरेसन शास्त्री (धर्मपुत्र), विष्णु प्रभाकर (निशिकांत), मन्मनाथ गुप्त (गृहयुद्ध, तूफान के बादल), भीष्म साहनी ( तमस), कमलेश्वर ( लौटे हुए मुसाफिर), जगदीश चन्द्र ( मुट्ठी भर कंकर), राही मासूम रज़ा (आधा गाँव), बदोउज्जमा (छाके की वापसी), भगवती चरण वर्मा (सीधी सच्ची बातें, प्रश्न और मरीचिका, वह फिर नहीं आई) और कृष्णबदेव वैद्य (गुजरा हुआ जमाना ) के नाम उल्लेखनीय है । देश विभाजन और उसकी त्रासदी से जुड़े उपन्यासों का यह एक ऐसा कथा- संसार है जो उपन्यासकारों की सामाजिक-सांस्कृतिक चिन्ताओं, समाज संबद्धता और जागरूकता का सही पता देता है। इन उपन्यासों को पढ़कर इस शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी (देश विभाजन) के अनेक पहलुओं को जानने समझने में सुविधा होती है ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पिछली पीढ़ी के व्यक्तिवादी, समाजवादी, मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करने वाले उपन्यासकार सक्रिय रहे हैं। सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यासकार अमृतलाल नागर के अनेक महत्त्वपूर्ण उपन्यास स्वतंत्रता के बाद वाले दौर में प्रकाशित हुए । ‘बूँद और समुद्र’, ‘सुहाग के नूपुर’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘अमृत और विष’, ‘बिखरे तिनके’, ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, ‘मानस के हंस’, ‘खंजन नयन’ और ‘करवट’ जैसे उपन्यासों से अमृतलाल नागर को स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा – साहित्य में विशेष प्रतिष्ठा मिली ।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के तीन महत्त्वपूर्ण उपन्यास- ‘चारुचन्द्रलेख’, ‘पुनर्नवा’ और ‘अनामदास का पोथा’ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सातवें और आठवें दशक में प्रकाशित हुए। ये उपन्यास द्विवेदी जी के विशिष्ट रचना–शैली, सांस्कृतिक चेतना, ऐतिहासिक संवेदना और स्वच्छंद-स्वच्छ रोमांटिक भावना के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। हिंदी में इन उपन्यासों की अपनी विशिष्ट पहचान है। भगवती चरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’, ‘सामर्थ्य और सीमा’, ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’, ‘सीधी-सच्ची बातें’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ के ‘गिरती दीवारें’, ‘गर्म राख’, ‘शहर में घूमता आईना’, ‘बांधों न नाव इस ठाँव बन्धु’ जैसे सामाजिक उपन्यास स्वतंत्रता प्राप्ति के बीच पच्चीस वर्षों की अवधि में लिखे गये । मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में इलाचन्द्र जोशी के ‘मुक्तिपथ’, ‘जिप्सी’, ‘जहाज का पंछी’, ‘भूत का भविष्य’, अज्ञेय के ‘नदी के द्वीप’, ‘अपने-अपने अजनबी’, सामाजिक यथार्थवादी उपन्यासकार रांगेय राधव और भैरव प्रसाद गुप्त के अनेक उपन्यास भी स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास की अमूल्य निधि हैं। तात्पर्य यह है कि बदलते हुए सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के बीच पहले रचनाकारों ने अपने समय से कभी प्रभावित होकर और कभी उसे प्रभावित करने की भावना से विविध विषयक उपन्यासों की रचना की और हिन्दी उपन्यास की गति को तीव्र से तीव्रतर किया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी में आंचलिक उपन्यासों की रचना की विशेष प्रवृत्ति का उदय हुआ। इसके शुभारंभ का श्रेय फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को है। बिहार के अंचल विशेष के जीवन-यथार्थ, रहन-सहन, आचार-विचार को पर्याप्त निजता एवं रागात्मकता के साथ चित्रित करते हुए रेणु ने ‘मैला आंचल’ और ‘परति परिकथा’ जैसे उपन्यासों की रचना की। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत में एक अंचल की आत्मपहचान से जुड़ी हुई सृजनात्मकता की एक सहज-स्वाभाविक आकांक्षा का प्रतिफल है। प्रेमचंद के बाद भारतीय ग्रामीण जीवन को बदलते हुए सामाजिक-राजनीतिक संदर्भो में नवोन्मेष के साथ चित्रित करने की यह ललक जितनी स्वतंत्रता की क्रोड़ से पैदा हुई है, शहरी जीवन की कुण्ठा, घुटन, एकरसता और आत्माभिमुखता की ऊब से भी प्रकट हुई है। प्रेमचंद के बाद हिन्दी उपन्यास में जो गाँव गायब हो गया था, उसे रेणु ने नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया। उनके बाद कई लेखकों ने- उदयशंकर भट्ट (कब तक पुकारूँ), रामदरश मिश्र (पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ), राही मासूम रजा (आधा गाँव), शिवप्रसाद सिंह (अलग-अलग वैतरणी), श्रीलाल शुक्ल (रागदरबारी), हिमांशु जोशी (अरण्य), विवेकी राय (बबूल, पुरुष पुराण, लोकऋण, सोना माटी, समर शेष है), शैलेष मटियानी (कबूतर खाना, दो बूंद जल) आदि- आंचलिक उपन्यासों की रचना करके भारत के विभिन्न अंचलों के जीवन यथार्थ, आशा-आकांक्षा, संघर्ष-टूटन, राजनीतिक–सामाजिक पिछड़ेपन-जागृति आदि का चित्रण किया। उपन्यासकारों ने विभिन्न अंचलों की जीवन-दशा को अपनी रचना का विषय बनाकर उनके प्रति अपनी करुणा सहानुभूति और रागात्मकता ही नहीं प्रदर्शित की है, तथाकथित प्रगति और विकास के दावेदारों की आँखों के सामने उपेक्षित और अलग-थलग पड़े अंचलों के दुःख-दर्द को प्रत्यक्ष करके उनके सारहीन, दिखाऊ और प्रवंचनापूर्ण कृत्यों की पोल भी खोली है। यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है स्वतंत्रता के बाद देश में नयी जीवन-स्थितियाँ पैदा हुईं। पहले उत्साह, ललक और उसके बाद मोहभंग, निराशा, हताशा, कुण्ठा आदि का वातावरण बना। शहरी मध्यवर्ग का विकास और उसके जीवन में तमाम विसंगतियाँ और विडम्बनाएँ पैदा हुईं। जनसंख्या के साथ-साथ मशीनों का उपयोग बढ़ने से भयानक बेकारी, भुखमरी और बेरोजगारी पैदा हुई। इन सबके साथ ही तरह-तरह की राजीनतिक जीवन-यथार्थ के चित्रण के प्रति सजग, संवेदनशील और प्रतिबद्ध किया। रचनाकारों में यथार्थ के प्रति आग्रह बढ़ा, अनुभव का सच कहने और लिखने की प्रेरणा जगी तथा ‘हम जैसे हैं, वैसे ही दिखें’ का यथार्थवादी दृष्टिकोण भी विकसित हुआ। यथार्थ की यह चेतना हिन्दी उपन्यास में कई रूपों में अभिव्यक्त हुई, कभी आधुनिकताबोध के रूप में कभी यथातथ्यवाद के रूप में, कभी मार्क्सवाद और जनवाद के रूप में।
आधुनिकतावाद नगरीकरण की तेज प्रक्रिया, पूँजीवादी लोकतंत्र से मोहभंग, अस्तित्ववादी दर्शन तथा पश्चिमी प्रभाव के फलस्वरूप पैदा हुआ। इसके प्रभावस्वरूप पारंपरिक मूल्य बिखर गये, सामाजिकता की जगह वैयक्तिकता का प्राधान्य हो गया और व्यक्ति अपनी असमर्थताओं-असफलताओं से घिरकर हताश, निराश, कुंठित हो गया। सातवें दशक के हिन्दी उपन्यासों में आधुनिकताबोध की ये सभी प्रवृत्तियाँ परिलक्षित हुई हैं। इस दृष्टि से मोहन राकेश (अंधेरे बंद कमरे, न आने वाला कल), निर्मल वर्मा (वे दिन), राजकमल चौधरी (मरी हुई मछली, शहर था : शहर नहीं था), उषा प्रियंवदा (रूकोगी नहीं राधिका), शिवप्रसाद सिंह (अलग-अलग वैतरणी), गिरिराज किशोर (यात्राएँ), मणि मधुकर (सफेद मेमने), ममता कालिया (बेघर), मन्नू भण्डारी (आपका बंटी) आदि के उपन्यास पठनीय हैं। इन उपन्यासों का व्यक्ति अकेला, ऊबा हुआ, संत्रस्त, व्यर्थताबोध से पीड़ित, अजनबियत से घिरा हुआ, थका-हारा ऐसा व्यक्ति है जिसको कोई भविष्य नहीं दिखाई देता, न कहीं आशा-उत्साह की कोई किरण दिखाई पड़ती है। इनमें निर्मल वर्मा के उपन्यास और भी विशिष्ट हैं। ‘वे दिन’ का परिवेश विदेशी है। इसमें द्वितीय महायुद्धोत्तर काल की योरोपीय युवा पीढ़ी के अर्थहीन यौन-संबंधों, अकेलापन, ऊब, अनास्था, भय, कुण्ठा आदि का चित्रण हुआ है। मोहन राकेश के उपन्यासों में मध्यवर्गी जीवन की त्रासदी चित्रित है और राजकमल चौधरी में ‘मरी हुई मछली’ में अर्थाभाव झेलती हुई स्त्री के देह-गाथा का चित्रण हुआ है। इन उपन्यासों से भिन्न ‘आपका बंटी’ में उच्च मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण हुआ है यहाँ आधुनिकता फैशन के रूप में नहीं, एक वास्तविकता के रूप में चित्रित है। इस उपन्यास में बेटे की वेदना के माध्यम से एक परित्यक्ता और पुनः विवाहिता माँ की मानसिक भावनाओं का चित्रण सशक्त रूप में किया गया है।
आधुनिकतावादी इन उपन्यासों के विपरीत प्रगतिवादी विचारधारा से सम्पन्न आठवें दशक के उपन्यासकारों की वह परंपरा है जिसका गहरा संबंध प्रेमचंद की जनवादी परम्परा से है। इस दृष्टि से श्री लाल शुक्ल (राग दरबारी), बदीउज्जमा (एक चूहे की मौत), जगदीशचन्द्र (धरती धन ना अपना), गिरिराज किशोर (जुगलबंदी), भीष्म साहनी (तमस), रामदरश मिश्र (अपने लोग), राही मासूम रजा (कटराबी आरजू), कृष्णा सोबती (जिन्दगीनामा), मन्नू भंडारी (महाभोज) और मार्कण्डेय (अग्निबीज) के उपन्यास उल्लेखनीय है। आधुनिकतावादी लेखकों ने जिस जीवन को मध्यवर्गीय जीवन के अँधेरे बन्द कमरे’ में घुटने के लिए कैद कर दिया था, उसे इन उपन्यासकारों ने जन-जीवन के बीच उन्मुक्त सांस लेने के लिए फिर अवकाश प्रदान किया। व्यंग्य, फैंटसी, यथार्थ जनता में क्रांति, विद्रोह, आन्दोलन का भाव जगाकर अपनी दुर्दशा-असहायावस्था से मुक्ति पाने का मार्ग भी दिखाया। इन उपन्यासों में राजनीतिक उठापटक, लोकतंत्र की छीछालेदर, ग्रामीण जीवन की रेंगती-घसीटती जिन्दगी, जातिवादी संघर्ष, साम्प्रदायिक विद्वेश, उन्माद और संघर्ष, मुर्दा होते हुए सामाजिक संबंध, युवा-विद्रोह आदि का जीता-जागता चित्र कभी आलोचनात्मक और कभी व्यंग्यात्मक ढंग से, कभी फैंटसी के सहारे उपस्थित किया गया है। ‘रागदरबारी’ की व्यंग्यात्मकता और ‘एक चूहे की मौत’ की फैंटसी इस दौर की उपन्यास कला को एक नया आयाम देती है।
(ङ) समकालीन हिन्दी उपन्यास
नवें दशक में भी पिछले दशक के कई उपन्यासकारों के नये उपन्यास प्रकाश में आये हैं। जैसे– ‘रात का रिपोर्टर’ (निर्मल वर्मा), ‘मय्यादास की माडत्री’ (भीष्म साहनी), ‘बिना दरवाजे के मकान’, ‘दुसरा घर’ (रामदरश मिश्र), ‘नीला चाँद’ (शिवप्रसाद सिंह), ‘बंधन’, ‘अधिकार’, ‘कर्म’, ‘अभिज्ञान’ (नरेन्द्र कोहली), ‘सोना माटी’ (विवेकी राय) आदि । नवें दशक से जिन उपन्यासकारों ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई उनमें मनोहर श्याम जोशी (कुरू कुरू स्वाहा, कसप, हरिया, हरिकुलिस), अब्दुल बिस्मिल्लाह (झीनी-झीनी बीनी चदरिया, दंतकथा, जहरबाद), मंजूर एहतेशाम (सूखा बरगद), संजीव (सर्कस, सावधान नीचे आग है) के नाम उल्लेखनीय है। उसके अगले दशकों में वीरेन्द्र जैन (डूब, पार, पंचनामा), कमलाकान्त त्रिपाठी (पाही घर), पंकज बिष्ट (उस चिड़िया का नाम), प्रियंवदा (वे वहाँ कैद हैं) आदि ने हिन्दी उपन्यास को एक नया जीवन प्रदान किया है। इसकी भाषा-शैली इतनी रोचक और आकर्षक है कि पाठक पूरी तरह इसमें तल्लीन हो जाता है। जनवादी, मार्क्सवादी और क्रान्तिकारी रचनाओं के बीच यह मानवीय भावनाओं का भिन्न स्वाद देने वाली विशिष्ट रचना है।
उपर्युक्त उपन्यासों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि समकालीन हिन्दी उपन्यास में किसी खास प्रवृत्ति या विचारधारा का प्रभाव या दबाव नहीं है। इन उपन्यासों में विषयगत विविधता तो है ही, शिल्पगत नवीनता और प्रयोगशीलता भी विद्यमान है इसलिए ये उपन्यास किसी परम्परा में अन्तर्भुक्त न होकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाते हैं। ‘कुरू कुरू स्वाहा’ की रोमैण्टिक कथा और बम्बइया हिन्दी कथा का अलग रंग है तो ‘कसप’ में उत्तर आधुनिकता की झाँकी विद्यमान है, ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ में बनारस के बुनकरों का जीवन-यथार्थ और संघर्ष उन्हीं की बोली-बानी में है तो ‘सूखा-बरगद’ में हिन्दी-मुस्लिम संबंध, ‘डूब’ में मध्यप्रदेश के पिछड़े अंचल की व्यथा-कथा है तो ‘उस चिड़िया का नाम’ में पहाड़ी जीवन का संघर्ष, ‘मय्यादास की माड़ी’ में पंजाब की तीन पीढ़ियों का इतिवृत है। ‘पाहीघर’ में ब्रिटिश शासन के समय के अवध जनपद की संघर्ष-गाथा अंकित है। अन्य विधाओं के रचनाकारों की अपेक्षा वर्तमान उपन्यासकार वैचारिक कठमुल्लेपन और सीमित जीवनानुभव की बंदिशों से काफी मुक्त है।
स्वातंत्र्योत्तर काल से ही हिन्दी उपन्यास में महिला कथाकारों की एक सशक्त पीढ़ी भी तैयार हुई, जिसने अपने रचना-संसार को विशिष्ट रूप-रंग प्रदान करके उसे एक नयी पहचान दी है। शशिप्रभा शास्त्री, शिवानी, कृष्णा सोबती, दीप्ति खण्डेलवाल, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, निरूपमा सेवती, मेहरून्निसा परवेज, राजी सेठ, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मृणाल पाण्डेय, नासिरा शर्मा, प्रभा खेतान आदि ने उपन्यासकारों के बीच अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है। सातवें दशक में उषा प्रियंवदा (पचपन खंभे लाल दीवारें), मन्नू भंडारी (एक इंच मुस्कान- सहलेखन के तौर पर) और कृष्णा सोबती (मित्रों मरजानी) ने जो सृजन-यात्रा शुरू की, वह उत्तरोत्तर गति पाती गई। मन्नू भंडारी ने ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’, बोल्डनेस के लिए ख्यात कृष्णा सोबती ने ‘सुरजमुखी अंधेरे के’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’ और उषा प्रियंवदा ने ‘रूकोगी नहीं राधिका’ जैसे उपन्यास लिखकर अपने को हिन्दी उपन्यास-जगत् में पूरी तरह प्रतिष्ठित कर लिया। आठवें दशक में मृदुला गर्ग (चितकोबरा), ममता कालिया (नरक दर नरक), मृणाल पाण्डेय (पटरंग पुराण), नवें दशक में राजी सेठ (तत्सम), नासिरा शर्मा (शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, जिन्दा मुहावरे) ने अपनी पहचान बनाई। वर्तमान दशक में प्रभा खेतान (छिन्नमस्ता, तालाबन्दी, अपने-अपने चेहरे) और मैत्रेयी पुष्पा (इदन्नमम) ने अपने को प्रतिष्ठित कर लिया है।
इन उपन्यास-लेखिकाओं ने सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ पर जैसी विचारोत्तेजक कृतियाँ दी हैं, उनसे साफ तौर पर माना जा सकता है कि उनके पास अनुभव-वैविध्य भी है और रचनात्मक दृष्टि भी। ‘आपका बंटी’, ‘महाभोज’, “जिन्दगीनामा’ जैसे उपन्यास समकालीन हिन्दी उपन्यास को प्रत्येक दृष्टि से समृद्ध करने वाले उपन्यास है।
हिन्दी उपन्यास में दलित चेतना
हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य की पृथक धारा का जोर दिखाई पड़ने लगा किन्तु हिन्दी उपन्यास में अभी यह बड़े क्षीण रूप में विद्यमान है। जयप्रकाश कर्दम के ‘छप्पर’ (1994) और प्रेम कपाड़िया के ‘मिट्टी की सौगन्ध’ (1995) से हिन्दी में दलित-उपन्यास की वह परम्परा शुरू हो रही है जिसे दलितों के द्वारा दलितों के जीवन पर लिखा जाने वाला साहित्य कहा जाता है। इन उपन्यासों में दलित जीवन का भोगा हुआ यथार्थ चित्रित हुआ है। यदि ‘दलितों के द्वारा दलितों के जीवन का साहित्य’ की अवधारणा को थोड़ी देर के लिए अलग करके मानवता की व्यापक अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में अभिव्यक्त दलित चेतना की बात करें तो कहना पड़ेगा कि प्रेमचंद से लेकर आज तक अनेक गैरदलित साहित्यकारों ने दलितों के जीवन पर प्रकाश डालने वाले और उनके संघर्ष को शक्ति और दिशा देने वाले अनेक उपन्यासों की रचना की है। प्रेमचंद के ‘कर्मभूमि’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ उपन्यासों में जो दलितों की पीड़ा, दुर्दशा और संघर्ष-कथा वर्णित है वह महज दया या सहानुभूति से नहीं उपजी है, उसके पीछे प्रेमचंद का प्रगतिशील दृष्टिकोण और उस जीवन का मार्मिक साक्षात्कार सक्रिय है। ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ (अमृतलाल नागर), ‘धरती धन न अपना’, ‘नरककुंड में वास’ (जगदीश चन्द्र), ‘एक टुकड़ा इतिहास’ (गोपाल उपाध्याय), ‘परिशिष्ट’ (गिरिराज किशोर), उत्तरगाथा (मधुकर सिंह), ‘दण्ड विधान’ (मुद्राराक्षस), बंधुआ रामदास’ (नीलकांत), ‘महाभोज’ (मन्नू भण्डारी), ‘पाथर घाटी का शोर’ (पुन्नी सिंह) आदि उपन्यासों में दलित जीवन पर जो प्रकाश डाला गया है, वह अनुभूत यथार्थ लिखने वाले दलित लेखकों के साहित्य से किसी भी तरह कम नहीं है। इन उपन्यासों में समाज के सदियों से सताए, उपेक्षित, शोषित और दलितों का जीवन अंकित करते समय न केवल सामाजिक जीवन की जड़ता, क्रूरता और अमानवीयता को रेखांकित किया गया है, बल्कि दलितों में अपने हक के लिए संघर्ष करने और सबके समान जीवन जीने की भावना को प्रेरित किया गया है। यदि दलितों की साहित्य-धारा इस चेतना में येग देकर या उससे जुड़कर विकास का मार्ग तलाशे तो इससे एक स्वस्थ दृष्टिकोण का निर्माण होगा और समाज की वास्तविक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा।