हिन्दी आलोचना का उद्भव और विकास
सामान्य परिचय :
हिन्दी की विभिन्न विधाओं की तरह आलोचना का विकास भी प्रमुख रूप से आधुनिक काल की देन है। किसी भी साहित्य के आलोचना के विकास की दो प्रमुख शर्तो हैं- पहली कि आलोचना रचनात्मक साहित्य से जुड़ी हो। हिन्दी आलोचना अपने प्रस्थान बिंदु से ही इन दोनों कसौटियों पर खरी उतरती है। ‘आलोचना’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘सम्यक् निरीक्षण’ अर्थात् मूल्यांकन करना। आलोचना रचनात्मक साहित्य का एक प्रमुख अंग है। ‘आलोचना’ शब्द ‘लुच्’ धातु से बना है। ‘लुच’ का अर्थ है ‘देखना’ । देखना से अभिप्राय है उसकी व्याख्या करना एवं सम्यक् मूल्यांकन करना। अर्थात् किसी वस्तु या कृति का सम्यक् मूल्यांकन आलोचना कहलाता है। इस मूल्यांकन प्रक्रिया में रसास्वादा, विवेचन, परीक्षण, विश्लेषण आदि का योगदान होता है। आलोचना, रचना और पाठक या सहृदय के बीच सेतु का कार्य करती है। यह रचना के मूल्य और सौंदर्य को उद्घाटित करती है, पाठक की समझ का विस्तार करती है और कृति को जाँचने-परखने के लिए उसे आलोचनात्मक दृष्टि देती है। रचना के गुण-दोष विवेचन से लेकर उसमें अंतर्निहित सौंदर्य और मूल्य के उद्घाटन तक की यात्रा करने वाली आलोचना की भी अनेक पद्धतियाँ हैं जैसे निर्णयात्मक आलोचना, तुलनात्मक आलोचना, ऐतिहासिक आलोचना, सैद्धांतिक आलोचना, व्यावहारिक आलोचना आदि ।
वस्तुतः हिन्दी में ‘आलोचना’ शब्द अंग्रेजी के “क्रिटिसिज्म’ के पर्यायरूप में प्रयुक्त होता है। हिन्दी में ‘आलोचना’ शब्द के लिए समालोचना, समीक्षा शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। आलोचना शब्द अपने आप में पूर्णतः व्यापक है जिसके माध्यम से एक प्रतिभासम्पन्न आलोचना, किसी रचना में निहित लेखक की अनुभूतियों का तथा उन अनुभूतियों का पाठक एवं श्रोतावर्ग पर क्या प्रभाव पड़ता है? उन सभी विषयों का ऐसा मूल्यांकन प्रस्तुत करता है, जिससे रचना में विद्यमान गुण-दोषों की स्पष्ट पहचान की जा सके और उस रचना के पीछे कवि-लेखक का प्रमुख उद्देश्य क्या है? इसका भी पता चल सके।
हिंदी में आलोचना का उद्भव और विकास आधुनिक काल में ही हुआ है। यहाँ हम हिन्दी आलोचना के क्रमिक विकास का अध्ययन करेंगे यह जानने के लिए कि जो हिंदी आलोचना प्रारंभ में पुस्तक परिचय और सामान्य गुण-दोष विवेचन तक ही सीमित थी, बाद में उसमें अनेक आलोचना पद्धतियों का विकास हुआ और गद्य की यह विद्या इतनी समर्थ और सशक्त हुई कि इसने रचना के समानान्तर अपने को प्रतिष्ठित कर लिया। अनेक आलोचकों की उत्कृष्ट आलोचनाओं ने यह प्रमाणित किया कि आलोचना रचना की अनुवर्ती नहीं है बल्कि उसकी भी एक स्वतंत्र सत्ता है और रचना की तरह वह भी एक सृजन है। सर्वप्रथम यहाँ संक्षेप में आधुनिक काल से पहले की हिन्दी आलोचना पर दृष्टिपात किया जाए।
1. आधुनिक काल से पहले की हिंदी आलोचना
हिंदी साहित्य के आदिकाल और भक्तिकाल में आलोचना का कार्य नहीं हुआ। इस काल के कवि संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों से प्रेरणा लेकर काव्य रचना करते रहे और अपनी रचनाओं में यत्र-तत्र अपने काव्यादर्शों का भी उल्लेख करते रहे, किंतु उनके समय में न तो उनके उल्लेखों के आधार पर काव्य-सिद्धान्तों की सृष्टि हुई, न ही उनकी रचनाओं के मूल्यांकन-परीक्षण की प्रक्रिया आरंभ हुई।
रीतिकाल में संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों से प्रेरणा लेकर केशवदास, चिन्तामणि, मतिराम, कुलपति मिश्र, भिखारीदास आदि अनेक आचार्य-कवियों ने रस, छंद, अलंकार, रीति, शब्दशक्ति और नायक-नायिका भेद से संबंधित अनेक लक्षण-ग्रन्थों की रचना की किंतु इनसे सिद्धांत-निरूपण से आगे बढ़कर व्यावहारिक समीक्षा का मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण यह था कि उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था। सारी बातें पद्य में लिखी जाती थीं। पद्य में किसी बात पर तर्क-वितर्क करना, उसका सम्यक् मूल्यांकन और विश्लेषण करना संभव नहीं था, इसलिए व्यावहारिक आलोचना का मार्ग अवरुद्ध रहा। डॉ. रामचन्द्र तिवारी का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि लगभग दो सौ वर्षों तक निरंतर सिद्धांत-निरूपण में लीन रहने पर भी हिंदी के आचार्य न तो किसी मौलिक सिद्धांत की स्थापना कर सके और न संस्कृत के सिद्धांतों को ही विकसित कर सके। रीतिकाल में व्यावहारिक आलोचना का रूप संस्कृत की सूत्र-शैली के रूप में ही प्रचलित रहा- वह भी पद्य में ही। इस काल में कवियों की विशेषताओं को सूत्र-रूप में व्यक्त करने की पद्धति क्षीण रूप में प्रचलित थी। जैसे बिहारी के दोषों से संबंधित यह उक्ति-
सतसइया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।।
कभी-कभी कवियों की पारस्परिक तुलना भी की गई-
सूर-सूर तुलसी रासी, उडगन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम जहाँ तहँ करत प्रकास ।।
आलोचना का यह स्फुट रूप, गहन चिन्तन, मनन और विश्लेषण से शून्य था। इसमें प्रभावात्मक अभिव्यक्ति और प्रशंसात्मक मूल्यांकन की प्रधानता थी। खंडन-मंडन की इस शैली से साहित्य का न तो मूल्यांकन संभव था, न उसका रसास्वादन।
2. भारतेंदु युगीन हिंदी आलोचना : आधुनिक हिंदी आलोचना का सूत्रपात
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का आरंभ भारतेंदु के समय (सन् 1850-85) के साथ ही माना जाता है। इसी कालखंड में भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा। भारतीय जनता में बौद्धिकता, तार्किकता और भौतिकवादी दृष्टिकोण का प्रसार हुआ और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अन्य गद्य रूपों के साथ हिन्दी आलोचना के नए और आधुनिक रूप का जन्म हुआ। भारतेंदु द्वारा सम्पादित ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिचन्द्र मैगजीन’ में समीक्षा के स्तम्भों में पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित होती थीं। ‘हिन्दी प्रदीप’, ‘भारत मित्र’, ‘ब्राह्मण’, ‘आनंद कादम्बिनी’ आदि ने भी पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित करके इस विधा को गति प्रदान की। यद्यपि आरंभ में ये समीक्षाएँ परिचयात्मक एवं साधारण कोटि की थीं लेकिन धीरे-धीरे उनमें निखार और परिष्कार भी आता गया।
इस युग में यदि नाटक प्रमुख साहित्यिक विधा थी तो आलोचना का प्रारंभ भी नाटक के स्वरूप पर सैद्धांतिक विवेचन से हुआ। भारतेंदु ने अपने ‘नाटक’ नामक लेख में नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति, समसामयिक जीवन रुचि, स्वाभाविकता, यथार्थता और प्राचीन नाट्यशास्त्र की उपयोगिता तथा नए नाटकों की आवश्यकता का जो विवेचन किया, उसे हिंदी आलोचना का प्रथम उन्मेष मानना चाहिए और भारतेंदु को हिंदी का प्रथम आलोचक । यद्यपि भारतेंदु व्यवहारिक आलोचना का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सके, वे ज्यादातर सैद्धांतिक विवेचन तक ही सीमित रह गए, किंतु उनके विवेचन में आलोचना दृष्टि का जो उन्मेष हुआ, उसको बालकृष्ण भट्ट और चौधरी बदरी नारायण ‘प्रेमघन’ ने आगे बढ़ाया। आलोचना के अंतर्गत किसी कृति के मूल्यांकन का कार्य इन्हीं दोनों की समीक्षाओं से आरंभ हुआ। प्रेमघन जी ने ‘आनंद कादम्बिनी’ में बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ की जहाँ प्रशंसात्मक समीक्षा की, वहीं बाबू गदाधर सिंह द्वारा लिखे गए ‘बंग विजेता’ नामक बंगला उपन्यास की विस्तृत समीक्षा उपन्यास के तत्त्वों के आधार पर की और स्वाभाविकता, मनोवैज्ञानिकता तथा सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से उपन्यास के गुण-दोषों का उल्लेख किया। लाला श्रीनिवास दास के ‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक की समीक्षा जहाँ प्रेमघन ने ‘आनंद कादम्बिनी’ में बड़े प्रशंसात्मक ढंग से की, की बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिंदी प्रदीप’ में ‘सच्ची समालोचना’ के नाम से उसकी कटु-समीक्षा की। इस तरह भारतेंदु युग में एक ओर परम्परागत साहित्य सिद्धांतों को विकसित करने का प्रयत्न हुआ और दूसरी और व्यावहारिक समीक्षा का सूत्रपात हुआ।
3. द्विवेदी युगीन हिंदी आलोचना
भारतेंदु के बाद हिंदी आलोचना ही नहीं, सम्पूर्ण हिंदी साहित्य पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का सबसे अधिक प्रभाव रहा। आचार्य द्विवेदी हिंदी के प्रथम लोकवादी आचार्य थे और युग-बोध एवं नवीनता के पोषक थे। भारतेंदु से प्रवर्तित हुई हिंदी आलोचना में वैज्ञानिकता की परंपरा को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्यामसुन्दरदास ने नवीन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में विकसित किया। आचार्य द्विवेदी ने जहाँ ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन के द्वारा आलोचना की भाषा का रूप सुस्थिर किया, वहीं बाबू श्यामसुन्दरदास ने आलोचना के आवश्यक उपादान एकत्र किये, उन्हें व्यवस्थित और संयोजित किया। इस युग में यद्यपि हिंदी आलोचना का गंभीर एवं तात्विक रूप तो नहीं निखरा किंतु अनेक महत्त्वपूर्ण आलोचना-पद्धतियाँ अवश्य विकसित हुई, जैसे- शास्त्रीय आलोचना, तुलनात्मक, मूल्यांकन एवं निर्णय, परिचयात्मक तथा व्याख्यात्मक, आलोचना, अन्वेषण तथा अनुसंधानपरक समीक्षा आदि । आचार्य द्विवेदी ने साहित्य को ‘ज्ञान राशि के संचित कोष’ के रूप में परिभाषित करते हुए ज्ञान की साधना पर विशेष बल दिया, जिसका रचनात्मक उपयोग साहित्य में तो हुआ ही आलोचना में भी उपयोग किया गया। आचार्य द्विवेदी के ‘कवि और कविता’ और ‘कविता तथा कवि-कर्तव्य’ निबंधों में उनकी काव्य विषयक धारणाएँ दृष्टिगत होती है। वे यथार्थ की काव्य के लिए आवश्यक मानते हैं। द्विवेदी जी काव्य-भाषा के लिए अलंकारिता के विरुद्ध सहज, सरल और जन-साधारण की भाषा का समर्थन करते हैं और बोलचाल की हिंदी भाषा को आधुनिक साहित्य की भाषा घोषित किया।
द्विवेदी-युग में तुलनात्मक समीक्षा में विशेष प्रगति हुई। इस युग में साहित्यकारों का संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं के साहित्य से घनिष्ट परिचय होने के कारण तुलनात्मक एवं निर्णयात्मक समीक्षा की प्रवृत्ति का विकास हुआ। इस क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा, मिश्र बंधु (श्यामबिहारी मिश्र, शुकदेव बिहारी मिश्र, गणेश बिहारी मिश्र), लाला भगवानदीन और कृष्ण बिहारी मिश्र ने विशेष कार्य किया। सबसे पहले पद्मसिंह शर्मा ने ‘बिहारी’ और फारसी के कवि ‘सदी’ की तुलनात्मक आलोचना की, उसके बाद मिश्रबंधुओं ने ‘हिंदी नवरत्न’ नामक ग्रंथ में तुलनात्मक मूल्यांकन के आधार पर हिंदी के नौ कवियों (सूर, तुलसी, देव, बिहारी, केशव, भूषण, सेनापति, चन्द, हरिश्चन्द्र) को श्रेणीबद्ध करके उनकी आलोचना प्रकाशित की। बाद में उनके इस श्रेणी-निर्धारण में परिवर्तन भी होता रहा मिश्र बंधुओं ने देव को बिहारी से ऊँचा कवि माना, इसके उत्तर में पद्मसिंह शर्मा ने ‘बिहारी’ को बड़ा सिद्ध किया। बाद में तुलना के इन अखाड़े में कृष्णबिहारी मिश्र और लाला भगवानदीन भी आ गए। कृष्ण बिहारी ने मिश्र ने ‘बिहारी देव और बिहारी’ पुस्तक लिख कर देव को बड़ा कवि सिद्ध किया, इस पर लाला भगवानदीन ने ‘बिहारी और देव’ पुस्तक लिखकर बिहारी को बड़ा सिद्ध करने का प्रयत्न किया। इस तरह तुलनात्मक समीक्षा का एक ऐसा मार्ग निकाला जिसमें प्राचीन सिद्धांतों के आलोक में हिंदी कवियों की व्यावहारिक समीक्षा की गई। यह शास्त्रीय आलोचना के भीतर जन्म लेने वाली वह व्यावहारिक समीक्षा थी जिसमें गुण-दोषों का विवेचन और बड़ा-छोटा सिद्ध करने की प्रवृत्ति अधिक थी। जीवन और समाज के व्यापक संदर्भो में साहित्य को समझने की यदि कोशिश की गई होती तो इस आलोचना में अधिक व्यापकता आ जाती।
आलोचना की नवीन व्यावहारिक पद्धति का प्रयोग भारतेंदु युग की पुस्तक परिचय वाली आलोचना में ही प्रकट होने लगा था। किंतु उसका विकास द्विवेदी युग में ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से हुआ। इस युग में पुस्तक परिचय से पुस्तक-समीक्षा और फिर साहित्यिक समालोचना का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस युग में ‘साहित्यालोचन’ की प्रवृत्तियों और आदर्शों पर अनेक लेख ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’, ‘सरस्वती’, ‘समालोचक’, ‘इन्द्र’, ‘माधुरी’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में गंगाप्रसाद अग्निहोत्री ने ‘समालोचना’ नामक लेख प्रकाशित करके समालोचक के गुणों-मूलग्रंथ का ज्ञान, सत्य-प्रीति, शांत स्वभाव और सहृदयता को रेखांकित किया। इस तरह साहित्य-समीक्षा के स्वरूप और अदर्श पर विचार-विमर्श शुरू हुआ।
द्विवेदी जी ने समालोचक का कर्तव्य निर्धारित करते हुए लिखा है “किसी पुस्तक या प्रबंध में क्या लिखा गया है, किस ढंग से लिखा गया है, वह विषय उपयोगी है या नहीं, उससे किसी का मनोरंजन हो सकता है या नहीं, उससे किसी को लाभ पहुँच सकता है या नहीं, लेखक ने काई नई बात लिखी है या नहीं, यही विचारणीय विषय है। समालोचक को प्रधानतः इन्हीं बातों पर विचार करना चाहिए।”
द्विवेदी युग में ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्यावहारिक समीक्षा की व्याख्यात्मक पद्धति विकसित हुई। चूंकि शुक्ल जी की आलोचना कई तरह से हिंदी आलोचना में एक मानक की तरह है और द्विवेदी युग की आलोचना से काफी आगे की है, इसलिए इसकी विशेष चर्चा शुक्ल युगीन हिन्दी आलोचना के अन्तर्गत करेंगे।
द्विवेदी युग में ही अनुसंधानपरक समीक्षा का विकास हुआ। वैसे तो ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में प्रकाशित लेखों से ही इस पद्धति के दर्शन होने लगे थे, किंतु उसका सम्यक् विकास द्विवेदी-युग में 1921 ई. में बाबू श्याम सुंदरदास के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में नियुक्त होने के बाद ही हुआ। शोध या अनुसंधानपरक आलोचना में अनुपलब्ध या अज्ञात तथ्यों का अन्वेषण तथा उपलब्ध तथ्यों का नवीन आख्यान आवश्यक होता है। बाबू श्यामसुंदरदास, राधाकृष्ण दास, जगन्नाथ दास रत्नाकर और सुधाकर द्विवेदी ने द्विवेदी युगीन अनुसंधानपरक आलोचना का स्वरूप विकसित करने में योग दिया है।
इस प्रकार द्विवेदी युग में हिंदी आलोचना विभिन्न पद्धतियों को विकसित करती हुई उत्तरोत्तर शक्ति सम्पन्न हुई। इसी युग में पाश्चात्य साहित्य से परिचित होकर और उसका स्वस्थ प्रभाव ग्रहण कर हिंदी आलोचना ने स्वतंत्र व्यक्तित्व प्राप्त किया और इसमें कवि-विशेष के सामान्य गुण-दोष के विवेचन के साथ ही रचना की गहरी छान–बीन, देश और समाज के परिप्रेक्ष्य में साहित्य की उपयोगिता और मूल्यवता को परखने की प्रवृत्ति विकसित हुई।
4. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना
हिन्दी आलोचना को आलोचना शास्त्र के रूप में व्यवस्थित, गाम्भीर्य और समृद्ध करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को है। आचार्य शुक्ल ने सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय साहित्य चिंतन परंपरा और पाश्चात्य साहित्य परम्परा के समन्वय से समृद्ध किया। द्विवेदी युग की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा को विकसित एवं समृद्ध करने का श्रेय आचार्य शुक्ल को ही जाता है। वे हिन्दी आलोचना के प्रशस्थ पथ पर एक आलोक-स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित है। इस युग की आलोचना को ‘शुक्ल-युगीन आलोचना’ के रूप में देखा जाता है। आचार्य शुक्ल ने निजी पसंद-नापसंद पर आधारित आलोचना को खारिज करके साहित्य के वस्तुवादी दृष्टिकोण का विकास किया। आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि “यद्यपि द्विवेदी-युग में विस्तृत समालोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया था, किंतु वह आलोचना भाषा के गुण-दोष विवेचन, रस, अलंकार आदि की समीचीनता आदि बहिरंग बातों तक ही सीमित थी। उसमें स्थायी साहित्य में परिगणित होने वी समालोचना, जिसमें किसी कवि की अन्तर्वृत्ति का सूक्ष्म व्यवच्छेद होता है, उसकी मानसिक प्रवृत्ति की विशेषताएँ दिखाई जाती है, बहुत ही कम दिखाई पड़ी। समालोचना की यह कमी शुक्लयुगीन हिन्दी आलोचना, विशेषतः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की व्यावहारिक आलोचना से दूर हुई। इस युग में आलोचकों का ध्यान गुण-दोष कथन से आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और उनकी अन्तःवृत्ति की छानबीन की ओर गया। इस प्रकार की समीक्षा का आदर्श शुक्ल जी की सूर, जायसी और तुलसी संबंधी समीक्षाओं में देखा जा सकता है। इन समीक्षाओं में शुक्ल जी के गंभीर अध्ययन, वस्तुनिष्ठ विवेचन, सारग्रहिणी दृष्टि, संवेदनशील हृदय और प्रखर बौद्धिकता का सामंजस्य, प्राचीनता और नवीनता के समूचित समन्वय से प्राप्त प्रगतिशील विचारधारा, रसवादी, नीतिवादी, मर्यादावादी और लोकवादी दृष्टि का सम्यक् परिचय प्राप्त होता है। इन सबके चलते शुक्ल जी ने हिंदी आलोचना में अपना विशिष्ट व्यक्तित्व स्थापित किया और वे एक ऐसे आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित हुए जिसमें सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समीक्षा का उत्कृष्ट रूप दिखाई पड़ता है। हिंदी में ही नहीं, आधुनिक काल की समूची भारतीय आलोचना–परम्परा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का विशिष्ट स्थान और महत्त्व है।
शुक्ल जी ने सूर, तुलसी, जायसी आदि मध्यकालीन कवियों और छायावादी काव्यधारा का गंभीर मूल्यांकन करके जहाँ व्यावहारिक आलोचना का आदर्श प्रस्तुत किया और हिन्दी आलोचना को उन्नति के शिखर तक पहुँचाया, वहीं ‘चिंतामणि’ और ‘रसमीमांसा’ जैसे ग्रंथों से सैद्धांतिक आलोचना को नई गरिमा और ऊँचाई प्रदान की। ‘कविता क्या है?’, ‘काव्य में रहस्यवाद, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’, ‘रसात्मक बोध के विविध रूप’ आदि निबंधों में शुक्ल जी ने अपनी काव्यशास्त्रीय मेधा और स्वतंत्र चिंतन-शक्ति के साथ-साथ भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्र के विशद एवं गंभीर ज्ञान तथा व्यापक लोकानुभव और गहरी लोकसंस्कृति का जो परिचय दिया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
आचार्य शुक्ल ने अपनी व्यावहारिक समीक्षा में जिस तरह के सूत्रात्मक निष्कर्ष और आलोचना के नए मानदंड प्रस्तुत किए हैं, वे उनकी समीक्षा-शक्ति और साहित्य में गहरी पेठ के प्रमाण हैं उनकी शास्त्रीय समीक्षा में उनका पाण्डित्य, मौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग-पग पर दिखाई पड़ता है। हिंदी की सैद्धांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से उठाकर गंभीर मूल्यांकन और व्यवहारिक सिद्धांत प्रतिपादन की उच्चभूमि पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को हैं। सूर, तुलसी, जायसी संबंधी उनकी आलोचनाएँ व्यावहारिक आलोचना का प्रतिमान बनी हुई है। आचार्य शुक्ल लोकवादी समीक्षक है। लोकमंगल, लोकधर्म, लोक मर्यादा आदि को केंद्र में रखकर ही वे साहित्य की श्रेष्ठता और उत्कृष्टता का निदर्शन करते
5. शुक्ल युगीन अन्य आलोचना
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साथ-साथ हिंदी आलोचना को समर्थ और गतिशील बनाने वाले आलोचकों में पं. कृष्णशंकर शुक्ल, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, गुलाब राय, लक्ष्मीनारायण ‘सुधांशु’ के नाम उल्लेखनीय है। कृष्णशंकर ने ‘केशव की काव्यकला’ और ‘कविकार रत्नाकर’ नामक कृतियों में केशवदास और जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ की जीवनी और उनके काव्य के विभिन्न पक्षों पर सहृदयतापूर्वक प्रकाश डाला है। इन दोनों पुस्तकों की प्रशंसा करते हुएआचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास-ग्रंथ में लिखा है- ‘केशव की काव्यकला’ भी कवि की विशेषताओं को मार्मिक ढंग से सामने रखता है। कृष्णशंकर शुक्ल ने आचार्य शुक्ल की केशवदास संबंधी स्थापनाओं का मुखर विरोध न करते हुए भी केशवदास की सहृदयता और काव्यकला की जिस रूप में मीमांसा और समीक्षा की है, वह सारगर्भित और महत्त्वपूर्ण है। ‘केशवदास की काव्यकला’ में उनकी तत्त्वान्वेषिणी दृष्टि और पुष्ट एवं गंभीर शैली के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने भी ‘हिंदी साहित्य का अतीत’ और ‘बिहारी की वाग्विभूति’ जैसे ग्रंथों में उत्कृष्ट आलोचना-प्रतिभा का परिचय दिया है। इन्होंने रीतिकाल के महत्त्वपूर्ण कवियों, बिहारी, केशव, घनानंद, भूषण, रसखान आदि की विस्तृत समीक्षा करके अपनी सिद्धांतनिष्ठ, अनुसंधानपरक और सारग्राही आलोचना-पद्धति से हिंदी आलोचना को काफी शक्ति प्रदान की है।
लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने ‘काव्य में अभिव्यंजनावाद’ में क्रोचे के अभिव्यंजनावाद और उसके प्रकाश में भारतीय काव्यशास्त्र और हिंदी के नवीन काव्य पर विचार करते हुए अपनी सहृदयता, विद्वत्ता और गर्मग्राहिता का परिचय दिया है। बाबू गुलाबराय ने ‘सिद्धांत और अध्ययन’, ‘काव्य के रूप’ और ‘नवरस’ जैसे ग्रंथों के माध्यम से हिंदी की सैद्धांतिक आलोचना को पुष्ट किया। उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ही तरह भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के समन्वय से नवीन आलोचना-सिद्धांतों को विकसित करने का कार्य किया। गुलाबराय ने स्वयं लिखा है- “सिद्धांत और अध्ययन’ और ‘काव्य के रूप’ में परिभाषाएँ देने में मैंने देशी-विदेशी विद्वानों के मतों का समन्वय करके ही अपनी परिभाषाएँ दी हैं।” पाश्चात्य एवं भारतीय काव्यशास्त्रों की मान्यताओं का गंभीर अध्ययन विश्लेषण करके अपनी समन्वय बुद्धि द्वारा आचार्य शुक्ल ने भी हिंदी के एक नए आलोचना-शास्त्र के निर्माण का कार्य किया। इस संदर्भ में डॉ. नागेन्द्र का यह कथन उल्लेखनीय है- “शुक्ल जी ने संस्कृत काव्यशास्त्र का पुनराख्यान कर और पाश्चात्य आलोचना-सिद्धांतों को अपने अनुरूप ढालकर हिंदी के लिए नए आलोचना-शास्त्र का निर्माण किया।” शुक्लानुवर्ती आलोचकों ने उनके इस कार्य में योग दिया, यह दूसरी बात है कि वे आचार्य शुक्ल की गहराई, व्यापकता और ऊँचाई का परिचय नहीं दे सके फिर भी उनके योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता है।
6. शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष थे लेकिन शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना का विकास शुक्ल जी मान्यताओं के साथ टकराहट के साथ शुरू हुआ। टकराहट का प्रमुख कारण था और टकराने वालों में छायावाद के प्रति सहानुभूति पूर्ण रूख रखने वाले रचनाकार और समीक्षक थे। शुक्ल जी के समकालीन कवियों में प्रसाद, पन्त और निराला प्रमुख थे जिन्होंने छायावादी काव्य रचना के साथ ही छायावाद के संदर्भ में शुक्ल जी मान्यताओं और प्राचीन शास्त्रवादी साहित्य मूल्यों का प्रतिवाद करते हुए छायावादी काव्यरचना को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान की। पन्त के ‘पल्लव’ को छायावदी आलोचना के नए प्रतिमानों का पहला घोषणापत्र कहा जाता है। इन कवि आलोचकों ने छायावादी साहित्य की काव्यभाषा, यथार्थ निरूपण, अर्थ मीमांसा, छंद मुक्ति, शिल्प-बोध आदि के एक नए साहित्य शास्त्र द्वारा काव्य बोध कराने का मार्ग प्रशस्त किया। पन्त का काव्यभाषा विश्लेषण निराला छंद संबंधी विचार और महादेवी के गीत-विधा विवेचन का हिंदी आलोचना में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही नहीं, निराला ने हिंदी आलोचना में पहली बार कविता के आवयविक सिद्धांत की व्याख्या की और प्रसाद ने हिंदी आलोचना के दार्शनिक धरातल प्रदान किया। हिंदी आलोचना को जो प्रौढ़ता और सुव्यवस्था आचार्य शुक्ल ने प्रदान किया था, उसे आगे ले जाने का चुनौतीपूर्ण कार्य नन्ददुलाने वाजपेयी, हजारीप्रसाद द्विवेदी और डॉ. नागेन्द्र की महान त्रयी ने किया। ये तीनों अलग-अलग विषयों पर शुक्ल जी से टकराये भी। नन्ददुलारे वाजपेयी का शुक्ल जी से मतभेद केवल छायावादी काव्य को लेकर था और उनका हिन्दी आलोचना में सबसे महान योगदान छायावाद को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करना है और उन्होंने सिद्ध किया छायावाद की मूल प्रेरणा धार्मिक न होकर मानवीय और सांस्कृतिक है। वाजपेयी जी ने काव्य-सौष्ठव को सर्वोपरी महत्त्व दिया।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का शुक्ल जी से मतभेद इतिहास बोध को लेकर था। उन्होंने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में हिंदी साहित्य को एक समवेत, भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रयास और प्रस्ताव किया। काव्य-रूढ़ियों और कवि-प्रसिद्धियों के माध्यम से काव्य के अध्ययन का प्रस्ताव भी हिंदी आलोचना को एक महत्त्वपूर्ण देन है। इस आधार पर ही द्विवेदी जी पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर विचार किया। साहित्य और जन जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से मानवतावादी था जो शुक्ल जी के लोकमंगलवाद से काफी दूर तक मेल खाता है। डॉ. नागेन्द्र ने फ्रायडीय प्रभाव के तहत मनोविश्लेषणात्मक व्याख्याएँ की और शास्त्र विवेचन करते हुए भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र के समानांतर सिद्धांतों की तुलना कर दोनों के बीच समान तत्त्वों की खोज की। शुक्लोत्तर आलोचकों में डॉ. देवराज का स्वर कुछ अलग था। उन्होंने शुक्ल जी के सूत्रों और कुछ नयी प्रवृत्तियों के आधार पर छायावाद की दुर्बलताओं की सोदाहरण व्याख्या करते हुए छायावाद के पतन की घोषणा कर दी और सांस्कृतिक-बोध को साहित्य के प्रतिमान के रूप में स्थापित किया।
प्रगतिवादी आलोचना :
शुक्लोत्तर युग में हिंदी आलोचना का विकास अनेक दिशाओं में हुआ। इनमें प्रगतिवादी, मनोविश्लेषणवादी, दार्शनिक और शैली वैज्ञानिक आलोचना प्रवृत्तियाँ प्रमुख है। प्रगतिवादी आलोचना का आधार मार्क्सवादी आलोचना थी। शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव और नामवर सिंह प्रमुख प्रगतिवादी आलोचक रहे हैं। रामविलास शर्मा ने हिंदी साहित्य को वैचारिक कठमुल्लेपन से बाहर निकाला और मार्क्सवादी दृष्टिकोण से हिंदी साहित्य की पुनर्व्याख्या की। आदि काव्य से लेकर समकालीन साहित्य हिंदी की ठेठ जातीय परम्परा को स्थापित किया, जिसका प्रतिनिधि उन्होंने भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला को माना है। लेकिन उन्होंने कोई नया सिद्धांत विवेचन नहीं किया। अपने समकालीन मार्क्सवादी आलोचकों के आचार्य शुक्ल विरोधी दृष्टिकोण का प्रतिवाद करते हुए उन्होंने शुक्ल जी की विरासत और लोकवादी परंपरा का विकास किया और कहा कि आचार्य शुक्ल ने आलोचना के माध्यम से उसी सामंती संस्कृति का विरोध किया जिसका उपन्यास और कविता के माध्यम से प्रेमचंद और निराला ने किया। शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त और रांगेय राधव ने मूलतः मार्क्सवादी सिद्धांतों का पक्ष-पोषण किया और उसे व्यावहारिक रूप देने का प्रयास किया। मुक्तिबोध ने साहित्य के अध्ययन को अन्ततः मानव सत्ता के अध्ययन के रूप में स्वीकृति और रचना प्रक्रिया के विश्लेषण पर जोर देते हुए ‘कामायनी’ का पुनर्मूल्यांकन करते हैं। नामवर सिंह के यहाँ मार्क्सवादी आलोचना का रचनात्मक और परिष्कृत रूप सामने आया। नामवर सिंह ने छायावादी काव्य के उपनिवेश विरोधी और रूढ़िवाद विरोधी चरित्र का उद्घाटन किया और काव्य के नए प्रतिमानों का प्रश्न ‘कविता के नए प्रतिमान’ में उठाया जिस पर पश्चिम की रूपवादी आलोचना का गहरा प्रभाव है। मुक्तिबोध की रचनाओं पर गंभीर विवेचन भी सबसे पहले इसी पुस्तक में किया गया है। नामवर सिंह के बाद विश्वंभर नाथ उपाध्याय, रमेश कुंतल मेघ, शिवकुमार मिश्र और मैनेजर पाण्डेय ने मार्क्सवादी सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में कुछ साफ-सुथरी व्यावहारिक आलोचना के विकास में अहम योगदान किया है।
मनोविश्लेषणात्मक आलोचना :
मनोविश्लेषणवादी आलोचना का संबंध फ्रायड के अन्तश्चेतनावादी कला-सिद्धांत से है जो यह मानता है कि साहित्य और कलाएँ मनुष्य की दमित वासनाओं की अभिव्यक्ति है। उसका मानना है कि मनुष्य की दमित वासनाओं का उदात्तीकृत रूप ही साहित्य या कला में व्यक्त होता है। दमित वासनाएँ काममूला होती है। मनोवैज्ञानिक आलोचक कवि के व्यक्तिगत जीवन के आधार पर उसकी वासनाओं का विश्लेषण करता है और उसके साहित्य में उनकी अभिव्यक्ति को रेखांकित करता है। मनोविश्लेषणवादी साहित्य-दृष्टि के अनुसार साहित्य-निर्माण की प्रेरणा मनुष्य की चेतना से नहीं, अवचेतन में दमित वासनाओं में मिलती है।
मनोविश्लेषणात्मक आलोचना में प्रमुख लक्ष्य लेखक एवं पाठक के मनःस्थिति पर पड़ने वाले साहित्य के प्रभाव का मूल्यांकन करना होता है। इस समीक्षा प्रणाली में प्रमुख रूप से रचना के उस पक्ष का मूल्यांकन किया जाता है जिसका प्रभाव पाठक अथवा लेखक के मन पर पड़ता है अर्थात् इस मूल्यांकन प्रणाली में एक ओर तो लेखक के मानसिक मनोगति का वर्णन किया जाता है और दूसरी ओर पाठक की मनःस्थिति का विश्लेषण किया जाता है। रचना निर्माण के पीछे पाठक तथा लेखक की मानसिक चेतना में किस प्रकार का परिवर्तन होता है, और उसे ही स्पष्ट करना, इस आलोचना का प्रमुख उद्देश्य होता है।
“मनोविश्लेषणात्मक, व्यवहारवादी मनोविज्ञान, बाल-मनोविज्ञान, जेस्टाल्ट मनोविज्ञान के ज्ञान ने मानव चिंतन को नई दिशा दी है। साहित्य के क्षेत्र में इस ज्ञान ने नानाविध अप्रत्याक्षित परिवर्तनों को उत्पन्न किया है। सृजनात्मक साहित्य में काव्य-रूपों, विषय-वस्तु के चयन, संगठन, चरित्र-चित्रण, शिल्प, प्रभृति क्षेत्रों में साहित्यकारों ने नवीन प्रयोग किये है। ऐसी कृतियों के कारण और चिन्तन की एक नई दिशा से प्राप्त प्रेरणा के कारण आलोचना के क्षेत्र में भी इस ज्ञान का प्रयोग कृतिकार की मानसिक संरचना की व्याख्या के लिए किया जाने लगा।”
इस प्रकार वह समीक्षा जिसमें मन के विश्लेषण को प्रमुखता देते हुए काव्य-साहित्य की उत्कृष्टता के निष्कर्ष का मूल्यांकन किया जाता है, उसे मनोविश्लेषणात्मक अथवा मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा कहते हैं।
सामान्यतः मनोविश्लेषणवादी आलोचक यह मानकर चलता है कि काव्य में जिन भावनाओं को कवि ने अभिव्यक्त किया है, उन्हें वह स्वयं यथार्थ जीवन में भोग चुका है। इसलिए आलाचेक कवि की व्यक्तिगत परिस्थितयों का अध्ययन-विश्लेषण करके उसकी रचनाओं में इसके प्रभाव को खोजने का प्रयत्न करता है। इस विचारधार का प्रभाव हिन्दी के विचारकों पर भी पड़ा और उन्होंने काव्य और काव्य-प्रक्रिया को मूलतः इसी दृष्टि से देखना प्रारम्भ किया। अज्ञेय, इलाचन्द्र, डॉ. नागेन्द्र आदि विचारकों के साहित्य में इस प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं का दिग्दर्शन होता है। आत्मनेपद’ के द्वारा ‘अज्ञेय’ जी मनोविश्लेषणवादी समीक्षा का रूप हमारे सामने आता है। इलाचन्द्र जोशी ने अपनी अनेक समीक्षात्मक रचनाओं जिनमें- ‘साहित्य-सर्जन’, ‘विवेचना’, ‘साहित्य-संतरण’, ‘विश्लेषण’, ‘साहित्य-चिन्तन’ आदि में मनोविश्लेषणात्मक समीक्षा का रूप प्रस्तुत किया है। मनोविश्लेषण के प्रवेश से लेखक और समालोचना के क्षेत्र में परिवर्तन घटित होता है। लेखक में सूक्ष्मता और आंतरिकता आयी तथा परीक्षण में फ्रायड, एडलर तथा जुंग का सिद्धांत साहित्य में समाहित हो गये। आलोचना सूक्ष्मता तथा विश्लेषणात्मक क्षमता–शक्ति से प्रोद्भासित हो गयी।
नयी समीक्षा :
1954 ई. में ‘नयी कविता’ पत्रिका के साथ ही ‘नयी कविता’ की पूर्व प्रतिष्ठा हुई। इसी के साथ हिंदी में ‘नयी समीक्षा’ का स्वर मुखरित हुआ। 1953 ई. में ही विजयदेवनारायण साही नयी कविता को कुत्सित समाजशास्त्रीय व्याख्या से मुक्त करने और नए लेखकों को एक ऐसी भावभूमि पर लाने का आह्वान कर चुके थे जहाँ लेखक अपनी वैयक्तिकता को सुरक्षित रखते हुए सामाजिकता को आत्मसात कर सकते थे। स्पष्ट है कि इस समय तक हिंदी कविता की दो धाराएँ हो गयी थी- एक धारा आधुनिकतावादियों की थी और दूसरी उन यथार्थवादियों की जो मार्क्सवाद को केंद्र में रखकर दलितों-शोषितों को सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति दिलाने में ही साहित्य कर्म की सार्थकता मानते थे। कविता की इन दो धाराओं के अनुसार हिंदी समीक्षा की भी दो धाराएँ स्पष्ट रूप से प्रचलित हुई- एक आधुनिकतावादी धारा- जिसे नयी समीक्षा’ रूप में जाना पहचाना गया, दूसरी मार्क्सवादी समीक्षा जिसकी परंपरा पहले से ही चली आ रही थी। इस समय की नयी समीक्षा के केन्द्र में थे अज्ञेय और मार्क्सवादी समीक्षा के केन्द्र में मुक्तिबोध ।
हिन्दी आलोचकों ने जटिल भावबोध और तदनुकूल जटिल कलात्मक उपादानों- शब्द-संकेतों, बिंबों, प्रतीकों, उपमानों आदि से युक्त संश्लिष्ट काव्यभाषा वाली नयी कविता की समीक्षा के लिए एक सर्वथा भिन्न समीक्षा-दृष्टि एवं शैली की आवश्यकता का अनुभव किया जिसके फलस्वरूप हिंदी में ‘नयी समीक्षा’ का प्रसार हुआ। आधुनिक भावबोध को केंद्र में रखकर समीक्षा-कर्म में प्रवृत्त होने वाले समीक्षकों में अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, रघुवंश, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजयदेवनारायण सही, जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी, अशोक वाजपेयी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन समीक्षकों ने युगीन परिवेश में व्याप्त “विसंगति’, ‘विडम्बना’, ‘असहायता’, ‘निरूद्देश्यता’, ‘एकाकीपन’, ‘अजनबीपन’, ‘ऊब’, ‘संत्रास’, ‘कुंठा’ आदि का विश्लेषण करते हुए ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ‘व्यक्तित्व की अद्वितीयता’ को रेखांकित किया और ‘अस्मिता के संकट’ से गुजरते हुए मनुष्य की मुक्ति की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ ही रचना को भाषिक सर्जना मानकर काव्य-भाषा की विश्लेषण को समीक्षा का मुख्य विषय बनाया। नयी समीक्षा की विशेषताओं को उद्घाटित एवं स्थपित करने वाली तथा इस दृष्टि से नयी कविता और कवियों की समीक्षा करने वाली रचनाओं में ‘भवंती’, ‘आत्मनेपद’, ‘आलवाल’, ‘अद्यतन’ (अज्ञेय), ‘नयी कविता के प्रतिमान’ (लक्ष्मीकांत वर्मा), ‘हिन्दी नवलेखन’, ‘काव्यधारा के तीन निबंध’, ‘भाषा और संवेदना’ (रामस्वरूप चतुर्वेदी), ‘साहित्य का ना परिप्रेक्ष्य’ (रघुवंश), ‘नयी कविता : सीमाएँ और संभावनाएँ’ (गिरिजाकुमार माथुर), ‘नयी कविता : स्वरूप और समस्याएँ’ (जगदीश गुप्त), ‘फिलहाल’ (अशोक वाजपेयी) आदि उल्लेखनीय हैं।
7. आलोचना के बढ़ते आयाम
छठे और सातवें दशक में हिंदी आलोचना कविता के आभा-मंडल से युक्त होते हुए भी कथा साहित्य, नाटक और अन्य विधाओं को लेकर स्वतंत्र आलोचनात्मक प्रतिमानों और सिद्धांतों की नवीन आधारभूमि की तलाश की ओर अग्रसर हुई और आज़ादी के साहित्य रचना और सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव को देखते हुए इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही थी। इस दिशा में विजयदेवनारायण साही की भूमिका प्रमुख है। आलोचकों के आलोचक के रूप में विख्यात साही ने तत्कालीन आलोचनात्मक विवादों में सजग हस्तक्षेप किया और न केवल पश्चिम और पूर्व के काव्यान्दोलनों के बुनियादी अंतर को रेखांकित किया। उन्होंने ‘जायसी’ में आग्रह किया जायसी को ‘सूफी’ के बजाय ‘कवि के रूप में देखा जाना चाहिए। आधुनिक आलोचकों में साही के अलावा डॉ. रघुवंश ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने शमशेरबहादुर सिंह और विपिन कुमार अग्रवार की समग्र समीक्षा करते हुए आधुनिक साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट किया और प्राचीन काव्यशास्त्र की आधुनिक साहित्य से संगति स्थापित किया।
कथा समीक्षा के प्रति बढ़ता आग्रहः
आलोचना की नयी दिशा की तलाश में दूसरा महत्त्वपूर्ण नाम देवीशंकर अवस्थी का है, जिन्होंने अपने अल्प-जीवन में “विवेक के रंग’ और ‘नई कहानी : संदर्भ और प्रकृति’ की भूमिकाओं में किसी भी कृति की समीक्षा ‘मूल्य–साँचे’ अर्थात् साहित्यिक मूल्यों के आधार पर करने का आग्रह किया। अवस्थी जी ने सबसे पहले कहानी की समीक्षा के लिए काव्य-प्रतिमानों को लागू करने के खतरों से आगाह करते हुए उनसे इत्तर कुछ आलोचनात्मक बीज शब्दों का संकेत किया। बाद में नामवर सिंह ने ‘कहानी, नयी कहानी’ में काव्य प्रतिमानों के आधार पर कथा समीक्षा की एक नयी सैद्धांतिकी विकसित करने की कोशिश की। उपन्यास आलोचना के प्रतिमानों और सूत्रों को व्यवस्थित करने में नेमिचंद जैन और डॉ. गोपाल राय का प्रमुख योगदान रहा है। हिंदी उपन्यास की आलोचना में सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान नेमिचंद्र जैन और उनके ‘अधूरे साक्षात्कार’ का है। इसमें उन्होंने हिंदी उपन्यास की मानवीय और कलात्मक सार्थकता की खोज की और अपने बहुस्तरीय अनुशीलन के द्वारा हिंदी उपन्यास के सामान्य स्वरूप और उसकी विविधता पर प्रकाश डाला।
नाट्य समीक्षा का बदलता स्वरूपः इस दौर में नाट्य समीक्षा में नेमिचंद जैन द्वारा संपादित नाटक केंद्रिय ‘नटरंग’ की अहम भूमिका रही है। आजादी के पहले से ही नाटक साहित्यिक विधा से रंगमंचीय विधा के रूप में परिवर्तित होने लगा था। रंगमंच के अनुकूल नाटक की भाषा के सवाल उठाने का श्रेय विपिन कुमार अग्रवाल को है।
8. समकालीन आलोचना का परिदृश्य
सातवें दशक के बाद की आलोचना में काफी वैविध्य है। लेकिन आलोचकों के अपने आग्रह, विचार और विविधता के बावजूद यह कोशिश दिखाई देती है कि अंतर्वस्तु और रचना शिल्प की दृष्टि से एक समावेशी और समेकित आलोचना दृष्टि का विकास किया जा सके। इस दौर के आलोचकों में मलयज, बच्चन सिंह, निर्मला जैन, विश्वनाथ त्रिपाठी, परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर आचार्य, प्रभाकर श्रोतिय, अशोक वाजपेयी और मैनेजर पाण्डेय आदि प्रमुख हैं। इनमें से अधिकांश छायावाद को अपनी आलोचना का प्रस्थान बिंदु मानकर समकालीन कविता की ‘कुंजी’ उसी कृति के भीतर तलाश पर जोर देते हैं। वे आलोचना में निर्मम तटस्थता’ को अनिवार्य शर्त मानते हैं और स्वयं निर्ममता से अनुपालन भी करते हैं। निर्मला जैन आलोचना के लिए अनुसंधान, पांडित्य, सिद्धांत-निरूपण और इतिहास आदि को आलोचना के लिए उपयोगी मानते हुए वे ठेठ आलोचना को इनसे अलगाने पर जोर देती हैं। वे वैचारिक आग्रहों से मुक्त रहते हुए छायावाद को ‘स्वछंदता का स्वाभाविक पथ’ घोषित करती है। उन्होंने ‘कुरू कुरू स्वाहा’, “जिंदगीनामा’ और ‘जहाज का पंछी’ उपन्यासों के मूल्यांकन में वे उपन्यास की रचना प्रक्रिया को समझने पर जोर देती हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी एक ओर ‘लोकवादी तुलसीदास’ और ‘मीरा का काव्य’ में प्रगतिवादी आलोचना की एकांगिकता से बचते हुए भक्तिकाव्य की लोकवादी-जनवादी मूल्य दृष्टि का अन्वेषण करते हैं, तो दूसरी ओर देश के इस दौर में परसाई की व्यंग्य दृष्टि की सार्थकता की खोज करते हुए उनके विचार-चित्रों की समानता मुक्तिबोध के काव्य-बिम्बों से स्थापित करते हैं। परमानन्द श्रीवास्तव मुख्यतः नई कविता के आलोचक हैं और वे कविता में सामाजिक-राजनीतिक संदर्भो और संरचना के स्तर पर आए बदलाव को सजगता से परखते हैं। रमेश चन्द्र शाह सर्जनात्मक समीक्षा पर जोर देते हैं और रचनाकार की सृजन प्रक्रिया का आत्मीय विश्लेषण आवश्यक मानते हैं। लेकिन उनकी आलोचना भाषा की दुरूहता उनकी आलोचना दृष्टि को बाधित करती है। मैनेजर पाण्डेय का आलोचनात्मक प्रखर है। उन्होंने यद्यपि आलोचना की कोई सैद्धांतिकी या पद्धति तो निर्मित नहीं की लेकिन उनके समीक्षात्मक लेखों और टिप्पणियों में एक ओर “कला की स्वायत्तता’ और ‘आलोचना के जनतंत्र’ जैसे मूल्य निरपेक्ष कलावादी मान्यताओं का विरोध करते हैं तो दूसरी ओर वे आधुनिकतावादी और उत्तर संरचनावादी आलोचना दृष्टि और पद्धति का भी विरोध करते हैं।
स्वाधीनता के बाद दलित चेतना का विकास भारतीय समाज की एक बड़ी परिघटना है। हिंदी साहित्य और आलोचना में नेमिषराय, तुलसीराम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डॉ. धर्मवीर, कँवल भारती और श्योराज सिंह ‘बेचैन’ आदि ने दलित चिंतन की सैद्धांतिकी और सौन्दर्यशास्त्रीय विकास की दिशा में पर्याप्त कार्य किया है।
9. आलोचना के प्रकार
आलोचना के दो प्रकार होते हैं- सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक आलोचना
(i) सैद्धांतिक आलोचना : साहित्य संबंधी सामान्य सिद्धांतों पर विचार किया जाता है। ये सिद्धांत शास्त्रीय भी हो सकते और ऐतिहासिक थी। शास्त्रीय सिद्धांतों का स्वरूप स्थिर और अपरिवर्तनशील होता है। ऐतिहासिक सिद्धांतों का स्वरूप परिवर्तनशील और विकासात्मक होता है।
सैद्धांतिक आलोचना समीक्षा का, उसकी प्रक्रिया-पद्धति के आधार पर किया गया, एक महत्त्वपूर्ण प्रकार या भेद है। इसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इसमें समस्त काव्यंग, काव्य-तत्त्व, काव्य हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य-भेद, काव्य-लक्षण, काव्य-स्वरूप, काव्य-प्रक्रिया, काव्य–त्रिकोण (कवि, समीक्षक, पाठक), काव्य-पद्धतियाँ, काव्य-शिल्प आदि का अध्ययन समाविष्ट रहता है।
साहित्यादर्श, जीवन मूल्य एवं मूलभूत सिद्धांतों के अभाव में रचनात्मक साहित्य का असंरक्षण भी सैद्धांतिक आलोचना की उपादेयता को सिद्ध करता है। आचार्य भरत मुनि कृत ‘नाट्यशास्त्र’ सैद्धांतिक आलोचना का प्राचीनतम ग्रन्थ है। हिन्दी में रीतिकाल के लक्षणग्रन्थ, भारतेंदु हरिश्चन्द्र का ‘नाटक’ डॉ. श्यामसुन्दर दास कृत ‘साहित्यालोचन’ रामदहिन मिश्र कृत ‘काव्यालोचन’ आदि सैद्धांतिक समीक्षा के श्रेष्ठतम उदाहरण हैं। साहित्य के सिद्धांतों और मूल्यांकन के निष्कर्ष अथवा मानदंडों को निश्चित करने वाली इस पद्धति को शास्त्रीय समीक्षा भी कहते हैं। “साहित्य विधा’ अथवा ‘साहित्यशास्त्र’ के रूप में भी इसका प्रचलन है।
जिस प्रकार भाषा-विकास के पश्चात् व्याकरण का उदय होता है, उसी प्रकार उत्कृष्ट साहित्य सर्जन के बाद उसका विश्लेषण, व्याख्या एवं सिद्धांतों निरूपण आदि जैसे स्वतः स्फूर्त हो जाते हैं- यही सैद्धांतिक आलोचना है। सैद्धांतिक आलोचना के अंतर्गत हम कुछ प्रमुख कवियों एवं उनकी कृतियों को ले सकते हैं। जिनमें उन्होंने सैद्धांतिक समीक्षा पद्धति को अपने समीक्षा का आधार बनाया है। जो इस प्रकार हैं- श्री बाबूराम विथारिता कृत ‘हिन्दी काव्य में नवरस’, लाल भगवानदीन कृत ‘अलंकार मंजूषा’, जगन्नाथप्रसाद ‘भानु’ कृत ‘छन्द प्रभाकर’, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ कृत ‘रसकलस’, डॉ. श्यामसुन्दर दास कृत ‘रूपक रहस्य’, डॉ. रसाल कृत ‘हिन्दी काव्य-शास्त्र का विकास’, डॉ. नागेन्द्र कृत ‘रीतिकाव्य की भूमिका’, डॉ. भागीरथ कृत ‘हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास’, डॉ. आनन्द प्रकाश दीक्षित कृत ‘रस–स्वरूप सिद्धांत और विश्लेषण’, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कृत ‘काव्य में रहस्यवाद’, ‘चिन्तामणि’, ‘रस मीमांसा’, डॉ. गुलाबराय कृत ‘सिद्धांत और अध्ययन’, ‘काव्य के रूप’ आदि कवियों एवं समीक्षकों के समीक्षात्मक लेखों में सैद्धांतिक आलोचना की एक विशिष्ट परम्परा देखने को मिलती है।
(ii) व्यावहारिक आलोचनाः आलोचना की इस प्रणाली के अन्तर्गत सैद्धांतिक आलोचना द्वारा निश्चित किये गये सिद्धांतों की कसौटी कृतिविशेष अथवा साहित्य की प्रवृत्ति विशेष का विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाता है। साहित्यिक आलोचना के आधारभूत तत्त्वों-प्रभाव ग्रहण, व्याख्या तथा निर्णय के आधार पर इस आलोचना के तीन भेद किये जा सकते हैं- प्रभावात्मक आलोचना, व्याख्यात्मक आलोचना और निर्णयात्मक आलोचना। इन आलोचना प्रणालियों की अपनी-अपनी प्रमुख आधारकृत विशेषताएँ होती हैं। जिनमें कहीं-कहीं एकरूपता भी दृष्टिगोचर होती है।
व्यावहारिक आलोचना का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है। सिद्धांतों को कृतियों पर लागू करके अथवा स्वतंत्र कला-विवेक से जब कृतियों की आलोचना की जाती है तब व्यावहारिक आलोचना का रूप खड़ा होता है। इस आलोचना के अन्तर्गत रचना-प्रक्रिया व काव्य (स्रष्टा, समीक्षक व पाठक-वाचक वर्ग) की व्यावहारिक व्याख्या तो हो ही सकती है, साथ ही युग एवं समाज, रचनाकार के निजी जीवन-परिवेश और उसकी मनःस्थिति, समसामयिक युग की रचनाओं अथवा ऐतिहासिक अनुक्रम में रखकर पूर्वयुगीन रचनाओं से तुलना, प्रभाव-निरूपण, गुण-दोषों की विस्तृत व्याख्या, आगमन या निगमन पद्धति से विषय के सोदाहरण विश्लेषण–विवेचन से इस प्रकार की आलोचना का सजीव तथा परिपूर्ण व्यक्तित्व निर्मित होता है। इस आलोचना के अंतर्गत प्रभाववादी, निर्णयात्मक-व्याख्यात्मक, मार्क्सवादी या प्रगतिवादी, मनोविश्लेषणात्मक, तुलनात्मक, शैली वैज्ञानिक आदि आलोचनाएँ आती है।