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सम्प्रेषण की प्रक्रिया।  

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सम्प्रेषण प्रक्रिया: सम्प्रेषण एक प्रक्रिया या गतिविधि है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सारा मानव समुदाय सम्मिलित है। सम्प्रेषण प्रक्रिया में कम से कम तीन मूलभूत तत्व होते हैं-

  1. स्रोत
  2. संकेतीकरण
  3. सन्देश
  4. संचार माध्यम
  5. शोर
  6. संकेतवाचक
  7. प्रात्पकर्त्ता
  1. स्रोत: स्रोत वह बिन्दु है जहाँ से सन्देश प्रारम्भ होता है या जन्म लेता है। इसे हम संचार प्रक्रिया का प्रारम्भिक बिन्दु कहते हैं। स्रोत एक व्यक्ति भी हो सकता है जो कि बोलने, लिखने, चित्र या शारीरिक हाव-भाव के द्वारा सन्देश को प्रसारित करता है अथवा सम्प्रेषण संस्थान जैसे- प्रकाशक, समाचार पत्र, दूरदर्शन स्टेशन, चलचित्र स्टूडियो आदि।
  2. संकेतीकरण: इसका कार्य विचारों या भावों के शब्दों, प्रतीकों आदि के रूप में अनुवादित या परिवर्तित करना है।
  3. सन्देश: सन्देश लिखित अथवा मुद्रित, ध्वनि, प्रकाश, वायु तरंग या किसी अन्य रूप में भी हो सकता है । यह अर्थयुक्त होता है। यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि सन्देश उद्देश्यपूर्ण हो, उसमें सुसंगति, सत्यता और जिस समूह को भेजा जा रहा है उसकी आवश्यकता के अनुरूप हो।
  4. संचार माध्यम: सम्प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता के बीच यह एक कड़ी का काम करता है। माध्यम वह है जिसके द्वारा सन्देश भेजा जाता है। इसे ही हम Channel कहते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि यह एक transmission media है जिसमें स्रोत से मंजिल तक सन्देश यात्रा करता है। मौखिक सम्प्रेषण में वक्ता एवं श्रोता के चारों ओर फैली हुई वायु ही माध्मय है और लिखित सम्प्रेषण में पेन और पेपर संचार माध्यम है। आकाशवाणी प्रसारण में रेडियो तरंगे संचार माध्यम हैं। Electro- magnetic channel को Bounded media and free space में वर्गीकृत किया जा सकता है। Bounded media में शामिल हैं: twisted pair of wires, coaxial cable, optical fibre आदि। free space का उपयोग Antennas or radar sources and sensors के मध्य संचार के लिए किया जाता है।
    पुस्तकालय एवं सूचना संस्थाओं में सम्प्रेषण प्रक्रिया के अन्तर्गत मुद्रित एवं अमुदित माध्यम आते हैं। सम्प्रेषण के मुद्रित साधन पुस्तक एवं पत्रिकाएँ हैं और अमुद्रित माध्यमों में Microforms, audio video cassettes से लेकर CD- Rom database तक हो सकते हैं।
  5. शोर: आज कई कारणों से संचार प्रक्रिया बाधित होती हैं या यूँ कहें कि सन्देश जब किसी अवरोध के कारण प्राप्तकर्ता तक नहीं पहुँचता है तो उसे संचार बाधा या रुकावट कहते हैं। आज सभी सम्प्रेषण प्रक्रियाओं या प्रणालियों में यह अवांछित तत्व अवरोध उत्पन्न करता है जो कि Signal का हिस्सा न होते हुए भी उसे बाधित करने के साथ-साथ विकृत या स्तरहीन कर देता है।
  6. संकेतवाचक: प्राप्तकर्ता द्वारा सूचना अथवा सन्देश के रूपान्तरण की प्रक्रिया संकेतवचान के नाम से जानी जाती है। संकेतवाचन का कार्य सूचना अथवा सन्देश को रूपान्तरित करना होता है। एक संकेतवाचक मानव, टेलीफोन से लेकर कम्प्यूटर तक हो सकता है। अगर हम सूचना के Electromagnetic transfer की बात करें तो उसमें सन्देश भेजने से पहले Signals के रूप में रूपान्तरित किया जाता है और प्राप्तकर्ता के पास पहुँचने से पहले यह जरूरी है कि उसे मूल स्वरूप में रूपान्तरित किया जाए। यही कार्य Decoder के द्वारा किया जाता है।
  7. प्राप्तकर्त्ता: सन्देश के लक्ष्य को मंजिल / पहुँच कह सकते हैं। पहुँच एक व्यक्ति, समूह या भीड़ हो सकती है। प्राप्तकर्ता सन्देश को पढ़ने, सुनने, देखने आदि के स्वरूप में प्राप्त करता है। हम कह सकते हैं कि सम्प्रेषण प्रक्रिया में मंजिल (Destination) अन्तिम अवस्था है। Destination को प्रापतकर्ता अथवा श्रोता (Audience) भी कहते हैं।

सम्प्रेषण प्रतिरूप:

विभिन्न सम्प्रेषण प्रतिरूपों का वर्णन इस प्रकार है:

(अ) एक आयाम पर आधारित सम्प्रेषण प्रतिरूप:
1. अरस्तू का संचार प्रतिरूप: ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने संचार का प्रतिरूप इस प्रकार प्रस्तुत किया था। उनके संचार प्रतिरूप में मुख्य पाँच तत्व थे।
वक्ता → संदेश → श्रोता → अवसंर → प्रभाव
यह एक प्रकार से रेखाकार एकलमार्गी संप्रेषण (Linear one way communication) था।
2. लासवेल का संचार प्रतिरूप: लासवेल ने 1948 में एक प्रतिरूप प्रस्तुत किया। इस प्रतिरूप में मुख्य पाँच तत्व हैं:
कौन सम्प्रेषक, क्या कहता है, किस माध्यम से, किससे, किस प्रभाव से
लासवेल के प्रतिरूप को सम्प्रेषण के क्षेत्र में काफी महत्व दिया गया।
3. बर्लोज का संचार प्रतिरूप: डेविड के बलज ने 1960 में एक संचार प्रतिरूप विकसित किया यह भी एक तरह से रेखाकार प्रतिरूप था । इसके प्रतिरूप में निम्न तत्वों का उल्लेख है:
(स्रोत) → (सन्देश) → (संचार मार्ग) → (श्रोता)

रेखाकार एकलमार्गी संचार प्रतिरूप की सीमाएँ:

  1. यह प्रतिरूप रेखीय संचार को प्रस्तुत करता है।
  2. ये प्रतिरूप द्विमार्गीय सम्प्रेषण रहित होते हैं। इनमें सन्देश प्रदाता एवं प्राप्तकर्ता के मध्य संवाद का कोई स्थान नहीं होता है। अर्थात् इन प्रतिरूपों में 1 एकपक्षीय संचार होता है।

(ब) वृत्ताकार सम्प्रेषण प्रतिरूप:
दूसरे प्रकार का सम्प्रेषण 19वीं शताब्दी में यूरेपियन और अमेरिकन सन्दर्भ ग्रंथालयियों के समुदाय में प्रचलित था। इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं: “ज्ञान उत्पन्न हुआ क्योंकि कोई इसे चाहता था जबकि दूसरों को इसकी आवश्यकता थी। परन्तु माँगा नहीं था क्योंकि उन्हें ज्ञान नहीं था।”
सन्दर्भ ग्रंथावली ने इसे जाना और दोनों उपर्युक्त श्रेणियों को उपलब्ध कराया और जन-समुदाय इसे किसी प्रसंग व किसी परिणाम हेतु उपयोग करते हैं।
इसी प्रतिरूप पर आधारित जार्ज गवर्नर ने 1958 में संचार प्रतिरूप का विकास किया जो कि इस प्रकार था:

  1. कुछ घटना
  2. किसी घटना का अवबोधन करके
  3. यह प्रतिक्रिया करता है
  4. यह स्थिति में
  5. किसी साधन द्वारा
  6. सामग्री की उपलब्धता
  7. किसी रूप में
  8. किसी प्रसंग में
  9. प्रेषण योग्य सन्देश
  10. किसी निष्कर्ष के साथ

गवर्नर का प्रतिरूप एक तरह से सम्प्रेषण में मुक्त प्रणाली का सुझाव देता है और यह मानता है कि यह व्यक्तिपरक, चयनित परिवर्तनीय यहाँ तक की अनुमेय होता है।

(स) सम्प्रेषण में ज्ञानात्मक अभिरुचि प्रतिरूप:
प्रो. ए. पी. श्रीवास्तव के अनुसार तीसरी अवस्था में सम्प्रेषण के लिए प्रतिरूप के विकास में इसे विशिष्ट, सामाजिक, सांस्कृतिक प्रसंग में आपसी अर्थ के द्वारा पारस्परिक क्रिया बना दिया गया और इस क्षेत्र में ज्ञान मीमांसक तत्व प्रविष्ट हुए तथा जब यह पूछा गया – “ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है तथा इसका प्रसरण एवं उपयोग कैसे होता है और विभिन्न प्रकार के सम्प्रेषक एवं प्रयोक्ताओं के मध्य सामाजिक ढाँचे की क्या भूमिका है।” तीसरी अवस्था में पूर्व ज्ञान उत्पत्ति आदान-प्रदान एवं उपयोग में Transportational frarmwork का आधिपत्य था जिसमें अ से ब तक ज्ञान भेजा जा रहा था जबकि तीसरी अवस्था इस बात से सम्बन्धित है कि अ और ब दोनों अर्थ की उत्पत्ति के लिए संयुक्त उपक्रम में कैसे संलग्न हैं।”
Juger Hebermas (1971) ने इस प्रक्रिया में ज्ञानात्मक अभिरुचि के मूल्य का प्रस्ताव किया और कहा कि- “ज्ञान और मानवीय अभिरुचियाँ अविमोचनीय ढंग से एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।” (“Knowledge and human intersts are inextricably intertwined”) इसके बाद में Michal Foucault भी जुड़ गए और उनका जोर इस बात पर था कि- “ज्ञान आदर्श और अमूर्त नहीं है बल्कि यह पदार्थ एवं स्थूल है। इसे हम तब तक अच्छी तरह से नहीं समझ सकते जब तक कि हम पूरे समाज की कार्यप्रणाली की शक्ति को ध्यान में नहीं रख लेते हैं।

सूचना सम्प्रेषण प्रणाली-घटक:

एस. पार्थसारथी ने सम्प्रेषण प्रणाली के आवश्यक तत्वों का वर्णन इस प्रकार किया है:

  1. सम्प्रेषक
  2. सन्देश
  3. भाषा
  4. माध्यम
  5. प्राप्तकर्ता
  1. सम्प्रेषक: सम्प्रेषक से आशय सूचना के जनक से है। लेखक अपने द्वारा सृजित ज्ञान अथवा सूचना को तत् सम्बन्धित विषय विशेषज्ञों के द्वारा मूल्यांकन करने के लिए प्रसारित किया है। वह चाहता है कि उसके सृजन को अधिकाधिक लोग पढ़ें।
  2. सन्देश: यहाँ सन्देश से आशय सूचना से है जिसे लेखक अथवा सृजक दूसरों तक पहुँचाना चाहता है । सन्देश को सत्यापनीय और मानक स्वरूप में होना चाहिए।
  3. भाषा: भाषा वह साधन अथवा माध्यम है जिसमें सन्देश अथवा सूचना को प्रस्तुत किया जाता है। प्रेषक को ध्यान यह रखना चाहिए कि वह अपना सन्देश एवं सूचना सरल एवं सुबोध रूप से समझ सकने वाली भाषा में दे जिससे कि पाठक अथव’ प्राप्तकर्ता आसानी से समझ सके। सूचना सम्प्रेषण में प्रभावकारी सम्प्रेषण के लिए स्तरीय भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए। श्रोता अथवा पाठक के बोधगम्य स्तर के अनुसार भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
  4. माध्यम: माध्यम वह स्वरूप है जिसके द्वारा सूचना अथवा सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है। माध्यम मौखिक अथवा लिखित अथवा इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप अर्थात कुछ भी हो सकता है। मौखिक माध्यम का प्रयोग आमने-सामने बातचीत करने अथवा सम्मेलन और कॉन्फ्रेंस आयोजनों में किया जाता है। इसी तरह लिखित स्वरूप का प्रयोग सम्प्रेषण के लिए ग्रन्थ, पत्रिकाएँ, प्रतिवेदन, शोध-प्रबंध आदि के द्वारा किया जाता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से सीडी, डीवीडी, कम्प्यूटर नेटवर्क आदि की सहायता से किया जाता है। दृश्य-श्रव्य माध्यम जैसे ग्रामोफोन रिकार्ड, आडियो-वीडियो उपकरण आदि माध्यमों का भी सम्प्रेषण में उपयोग किया जाता है।
  5. प्राप्तकर्ता: सूचना का प्राप्तकर्ता कोई भी हो सकता है। वह एक सामान्य श्रोता से वैज्ञानिक, नीति-निर्माता, शोधार्थी, छात्र, शिक्षक कोई भी हो सकता है। ये लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार सूचना का उपयोग करते हैं।
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