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समाज भाषा विज्ञान और उसका स्वरूप

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समाज भाषा विज्ञान क्या है?

समाज भाषा विज्ञान तीन शब्दों के योग से बना है समाज, भाषा और विज्ञान समाज अर्थात् व्यक्तियों का समूह, समुदाय भाषा अर्थात् सम्प्रेषण का माध्यम (बोली/जबान) विज्ञान अर्थात् किसी की भी विशेष जानकारी। इस प्रकार समाज भाषा विज्ञान का शाब्दिक अर्थ हुआ भाषा की ऐसी विशिष्ट जानकारी जिसमें भाषा का अध्ययन उसके सामाजिक भेदों के आधार पर किया जाता है। अतः समाज भाषा विज्ञान के अंतर्गत हम उस भाषा का अध्ययन करते हैं जिसका सीधा संबंध समाज से है। इसके अन्तर्गत आने वाले अन्य विवेच्य विषय हैं- समाज में स्तर भेद तथा पाये जाने वाले भाषिक विभेदों का अध्ययन, वाग्यव्यवहार के स्तर पर सम्बोधनपरक व्यवसाय भेद अथवा बन्धुता वाचक शब्दावली के विश्लेषण, समाज विशेष की सांस्कृतिक शब्दावली के विश्लेषण के द्वारा उस समाज के सांस्कृतिक पक्षों का निरूपण अशुभ या वर्जित समझी जाने वाली शब्दावली का विवेचन तथा उन भावों को व्यक्त करने के लिए अपनाई जाने वाली पर्यायांक्तियों का विश्लेषण, उस भाषाई समुदाय के द्वारा विभिन्न पदार्थों व संकल्पनाओं के लिए प्रयुक्त की जाने वाली शब्दावली अथवा उनकी अभिव्यक्ति के प्रकारों में निहित भाषिक समुदाय की सांस्कृतिक एवं सामाजिक धारणाओं का विश्लेषण, समाज के विभिन्न वर्गों तथा प्रत्येक वर्ग के अन्तर्गत उसके विभिन्न सदस्यों के बीच वाग्यव्यवहार की परम्परागत मान्यताओं का विश्लेषण तथा समाज के बदलते हुए संदर्भों में भाषिक परिवर्तनों का अध्ययन।

समाज भाषाविज्ञान को सामान्यतः पाश्चात्य अवधारणा के रूप में परिभाषित किया जाता है लेकिन सीताराम झा ‘श्याम’ सरीखे विद्वान भी हैं जो इसे बिल्कुल नया विषय न मानते हुए भारत के प्राचीन भाषा – शास्त्रीयों के चिंतन में इसकी झलक देखते हैं और वहीं से इसकी शुरूआत भी मानते हैं। भारत के प्राचीन भाषाशास्त्रियों ने भाषा – विवेचन को सदा सामाजिक सन्दर्भों से युक्त रखा। ऋग्वेद, अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वाक्यपदीय आदि ग्रंथों में लोक व्यवहार और भाषा-व्यवहार में घनिष्ठ संबंध बताया गया है। ऋग्वेद एवं वाक्यपदीय में भाषा को क्रमशः ‘संगमनी’ (अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् । ) (ऋग्वेद 10.125-3) तथा ‘निबन्धनी’ (शब्देष्वेवाश्रिता शक्तिविश्वस्यास्य निबन्धनी)। ( वाक्यपदीय – 1. 119) कहा गया है। इन दोनों शब्दों का अर्थ है – ‘ जोड़ने वाली शक्ति’ अर्थात् जो समाज, देश और विश्व से मानव को जोड़ने का काम करे वह भाषा है। वस्तुतः भाषा जन-जीवन में ही जीवित रहती है। ( तां मा देवा व्यदधुः पुरूत्ता भूरिस्यात्रां भूर्यावेशयन्तीम्-ऋग्वेद)।

भाषाशास्त्र के महापंडित पाणिनी, पतञ्जलि एवं भर्तृहरि ने भाषा को पूर्णत: समाज- सापेक्ष माना है। उनके अनुसार, लोक मान्यता के बिना भाषा प्रयोग सार्थक हो ही नहीं सकता । पाणिनी ने स्पष्टतया कहा है कि प्रत्यय को अर्थात् भाषा के व्याकरण को अर्थ का प्रमाण मानना गलत अर्थ का प्रमाण तो अन्य अर्थात् लोक (समाज) होता है।
उनका सूत्र है– प्रधानप्रत्ययार्थवचनम् अर्थस्यान्यप्रमाणत्वात्ं (अष्टाध्यायी) यहाँ अन्य प्रमाण से तात्पर्य है लोक प्रमाण अर्थात् समाज। तात्पर्य यह है कि अर्थ का प्रमाण लोक होता है, प्रत्यय ( केवल भाषा – संरचना) नहीं। इसी प्रकार, पतञजलि लोक (समाज) को ही भाषा का मुख्य आधार मानते हैं—‘पतीतपदार्थको लोके ध्वनिः शब्दः इत्युच्यते।’महाभाष्य

भर्तृहरि की भी यह मान्यता है कि समाज के सारे व्यवहार मुख्यतः भाषा द्वारा ही संचालित होते हैं। उन्होंने लोक व्यवहार और भाषा-व्यवहार को परस्पर सम्बद्ध माना है-
‘इतिकर्त्तव्यता लोके सर्वा शब्दत्यपाश्रया।’ ( वाक्यपदीय) अतः स्पष्ट है कि भारतीय भाषाशास्त्रीय चिन्तन में आरम्भ से ही समाज और भाषा में अभिन्न संबंध माना गया है।

इसके अतिरिक्त डॉ. रामविलास शर्मा ने भी ‘भाषा और समाज’ में भाषा के विकास को समाज की प्रवृत्ति के साथ जोड़कर भाषा का अध्ययन किया है। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण देन भाषाओं की प्रकृति का प्रतिपादन है।

भाषाविज्ञान में भाषावैज्ञानिक जहाँ भाषा को उसके व्याकरणिक ढाँचे तक ही सीमित रखकर देखते है वहीं समाज भाषावैज्ञानिक समाज के ढाँचे के आधार पर भाषा का अध्ययन करते हैं। वास्तव में समाज निरपेक्ष बनाए जा रहे भाषाविज्ञान को समाज – सापेक्ष बनाने के लिए ही समाज-भाषाविज्ञान का उदय हुआ।

पश्चिम के कतिपय भाषाविज्ञानियों- विशेषतः सस्यूर (Sassure), हैरिस (Harris) और चॉम्स्की (Chomsky) ने भाषिक नियम और सामाजिक नियम में कोई संबंध नहीं माना, तब उनकी स्थापनाओं का खण्डन करते हुए वहीं के कई समाज भाषाविज्ञानियों जैसे बर्नस्टीन (Bernstein), फर्ग्युसन (Fergusion), लेबॉव (Labov), फिशमैन (Fishman) आदि ने समाज भाषाविज्ञान को लेकर अनेक शोधपत्र प्रकाशित किए।

‘समाज भाषाविज्ञान’ नाम 1952 में हेवर सी कूरी (Haver C. Currie) के काम से पहले नहीं दिखाई देता। उनकी खोज भाषा-व्यवहार और सामाजिक स्थिति के बीच संबंध स्थापित करने की और प्रोत्साहित करने में थी। उनका कहना था कि ‘वर्तमान प्रयोजन सुझाव देता है कि… भाषिक तत्वों का सामाजिक कार्य और महत्त्व अनुसंधान के लिए उर्वर क्षेत्र का प्रस्ताव देता है… यह क्षेत्र यहाँ ‘समाज भाषाविज्ञान’ के नाम से मनोनीत है।’ (Currie 1952, quoted in Williamson and Burke 1971, 40) दस साल बाद Sociolingvistika और Social ‘naja Lingvstika नामक शब्द USSR में प्रयोग में आया और 1964 में USA में भी समाज भाषावैज्ञानिक खोज ने व्यापक रूचि ली।

लगभग सन् 1950 ई. से समाजविज्ञान के क्षेत्र में कई नए कार्य हुए हैं। फर्थ (John R. Firth) ने 1950 ई. में ही पर्सनैलिटी एण्ड लैंग्वेज इन सोसाइटी नामक निबन्ध लिखा था। एम. टी. इमेन्यु (M.B. Emeneau) ने सन् 1956 ई. में ‘इंडिया ऐज अ लिंग्विस्टिक एरिया’ तथा सन् 1962 ई. में बाई लिंग्वालिज्म एण्ड स्ट्रक्चरल बॉरोइंट की रचना की। सन् 1959 ई. में फर्ग्युसन (Charlse A. Ferguson ) ने ‘भाषा-स्तर भिन्नता’ (Diglossia) विषय पर काम किया और पी. एल. गार्वियर (P.L. Garvier) ने मानक भाषा (The Standard Language Problems) पर। जे. जे. गंम्पर्ज (J.J. Gumperz) ने 1960 ई. से कई वर्षों तक समाज भाषाविज्ञान के विभिन्न पक्षों पर अनेक शोधपरक निबंध लिखे हैं। उनके शोध-पत्रों में ‘फॉरमल एन्ड इनफॉर्मल स्टैंडर्डस इन हिंदी लैंग्वेज एरिया’, कॉनवर्सेशनल हिंदी उर्दू, हिंदी पंजाबी कोड स्विचिंग इन डेलही, द स्पीच कम्युनिटी, कम्युनिकेशन इन मल्टी लिंग्वल सोसाइटीज आदि अधिक चर्चित हुए।

जिन विद्वानों ने समाज भाषाविज्ञान के अध्ययन का क्षेत्र प्रशस्त किया है. उनमें बर्नस्टीन (Basis B. Bernstein) ‘लैंग्वेज एण्ड सोशल क्लास’ (1960) ‘सोशल क्लास’, ‘लैंग्वेज एण्ड सोशियोलाइजेशन’ (1972), विलियम लेबॉर (1966), द लॉजिक ऑफ ननस्टैंडर्ड इंगलिश, जे. फिशमैन (Joshua A. Fishman) ‘लैंग्वेज सोसायटी इन द यूनाइटेड स्टेट्स’, सोशियोलिंग्विस्टिक्स : द ब्रिफ इंट्रोडक्शन कम्युनिकेशन इन द डेवलपिंग नेशन्स ( 1971), द सोशियोलॉजी ऑफ लैंग्वेज (1972), जे. बी. प्राइड और जे. होम्स (J. B. Pride and H. Homes ) सोशियोलिंग्विस्टिक्स (1972) आदि विशेष रूप से उल्लेख है। लेबॉव ने सामाजिक विकल्पन और भाषा – विकल्पन के विश्लेषण द्वारा समाज भाषा विज्ञान के अध्ययन को अत्यंत महत्वपूर्ण बनाया।

अंत में, यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि वास्तव में समाज भाषाविज्ञान पर, समाज भाषाविज्ञान नाम से पहली संगोष्ठी 1964 में केलिफोरनिया यूनिवर्सिटी में लोस एंडोल्स (Los Angles) में हुई। इस संगोष्ठी में समाजभाषावैज्ञानिक
अनुसंधान के सात चमकते सूत्रबद्ध आयाम दिखाई दिए-

(1) वक्ता की सामाजिक पहचान
(2) जो श्रोता की संप्रेषण प्रक्रिया में शामिल हो
(3) सामाजिक वातावरण जिसमें भाषिक विषय स्थान ले सके
(4) सामाजिक बोलियों का वर्णनात्मक एवं ऐतिहासिक विश्लेषण
(5) वक्ता द्वारा बोले जाने वाले भाषिक व्यावहारिक रूपों का भिन्न सामाजिक मूल्यांकन
(6) भाषिक विकल्पन की कोटि
(7) समाज भाषा वैज्ञानिक अनुसंधान का व्यावहारिक उपयोग

समाज भाषा विज्ञान को विभिन्न पाश्चात्य विद्वानों के अलावा भारतीय विद्वानों ने भी विभिन्न मत देकर पारिभाषित किया है जो इस प्रकार है-

डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं-पिछले कुछ वर्षों में भाषा विज्ञान की एक नई शाखा का उद्भव और विकास हुआ है। इसे ‘सोशियो लिंग्विस्टिक्स’ अथवा समाजी भाषाविज्ञान नाम दिया गया है। चोमस्की से आरम्भ होकर जो भाववादी विश्लेषण पद्धति आगे बढ़ी थी, इसे उसकी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है…. विलियम ब्राइट ने ‘सोशियोलिंग्विस्टिक्स’ (मूटों, हेग, 1971) में इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि पुराना भाषाविज्ञान भाषा की संरचना को समरूपी मानकर चलता था। किसी भी भाषा के बोलने वाले समाज में जो व्यवहारगत अनेक भेद दिखाई देते हैं, उन्हें अवांछनीय समझकर एक ओर हटा दिया जाता था। समाजी भाषा-विज्ञान ने दावा किया कि ये भेद अकारण नहीं है, वरन् समाजगत भेदों से उनका संबंध है और इस तरह के संबंध का विश्लेषण करके उसे नियमबद्ध किया जा सकता है। समाजी भाषाविज्ञान ने समरूपता के स्थान पर विषमरूपता पर जोर दिया।

सीताराम झा ‘श्याम’ समाज भाषा विज्ञान के उदय होने के कारण के विषय में कहते हैं- ‘अस्तु’ अतिसंरचनावादी भाषाशास्त्रियों द्वारा विवेचन के सिद्धांतों को अपूर्ण तथा अमान्य सिद्ध करने के लिए भाषाविज्ञान के पहले ‘समाज’ शब्द का प्रयोग इतना अधिक किया गया कि समाज भाषाविज्ञान का प्रचलन हो गया। वस्तुतः समाज-निरपेक्ष बनाए जा रहे भाषाविज्ञान को समाज सापेक्ष प्रमाणित करने के लिए समाज भाषाविज्ञान (Sociolingquistics) का नामकरण हुआ, जो विशेष संदर्भ में सार्थक प्रतीत होता है।

रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने फिशमैन, गिगलिओली, हड्सन, हाइम्स, प्राइड और होम्स, शुई, टुडगिल के विचारों को ध्यान में रखते हुए समाज भाषाविज्ञान की जो परिभाषा दी है। वह इस प्रकार हैं- समाज भाषाविज्ञान भाषावैज्ञानिक अध्ययन का वह क्षेत्र है जो भाषा और समाज के बीच पाए जाने वाले हर प्रकार के संबंधों का अध्ययन विश्लेषण करता है। वह भाषा की संरचना और प्रयोग के उन सभी पक्षों एवं संदर्भों का अध्ययन करता है।

डॉ. भोलानाथ तिवारी समाज भाषाविज्ञान की दिशा में कार्य करने का बीज फ्राइज, शट्जमान और स्ट्रास में देखते हैं। उनका मानना है कि भाषा और समाज-संस्कृति के इस अनूठे संबंध ने बहुत से समाज शास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और भाषाविदों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । इस दृष्टि से भाषाविज्ञान के क्षेत्र में बेसिल बर्नस्टीन का काम प्रारंभिक होते हुए भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने लंदन के मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय बच्चों की भाषा में वाक्य संरचन और अर्थ के स्तर पर पाए जाने वाले अंतरों का समाज भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया है। उनसे पहले इसी दिशा में फ्राइज तथा शाट्जमान एवं स्ट्रॉस ने भी कुछ अध्ययन किए थे।

सम्प्रेषण प्रकार्य और सामाजिक प्रयोग के आधार पर स्टीवर्ट ने भाषा के सात प्रयोजन सिद्ध रूप में माने हैं। वे इस प्रकार हैं-

(1) राजभाषा
(2) वर्ग भाषा
(3) शैक्षिक भाषा
(4) सम्पर्क भाषा
(5) साहित्यिक भाषा
(6) धार्मिक भाषा
(7) तकनीकी भाषा

उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट होता है कि समाज भाषाविज्ञान मुख्य रूप से पश्चिम से आई हुई संकल्पना है। भले ही सीताराम झा समाज भाषाविज्ञान के उद्भव बिंदु को भारतीय विद्वानों के चिंतन में देखतें हैं परंतु समाज भाषाविज्ञान नाम से भाषा पर जो प्रथम शोध कार्य प्रारंभ हुआ उसका उद्भव पश्चिम से ही हुआ है। आज समाज भाषा विज्ञान का विकास क्रम निरंतर जारी है और हम कह सकते हैं कि समाज भाषा विज्ञान पर उल्लेखनीय कार्य भी हो रहे हैं। ये बात और है कि अन्य भाषाओं (अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं) की तुलना में अभी हिंदी भाषा के अंतर्गत इस प्रकार के शोध कार्य कम ही दिखलाई पड़ते – हैं आज तो समाज भाषाविज्ञान की अपनी एक अलग शब्दावली भी निर्मित और प्रचलित हो चुकी है।

समाज भाषाविज्ञान : तीन दृष्टिकोण

समाज भाषा विज्ञान का प्रस्फुटन करने वाले विद्वानों ने समाज भाषाविज्ञान के विषय में अपने अलग-अलग विचार प्रस्तुत किए हैं। इनमें से कुछ के विचार तो आपस में मिलते हैं परन्तु कुछ ऐसे विद्वान भी हैं जो एक-दूसरे विद्वानों के विचारों से सहमत नहीं हैं। समाज भाषाविज्ञान की प्रकृति और उसके क्षेत्र के विषय के आधार पर सारांश रूप में जो तीन अवधारणाएँ समाने आती हैं वे इस प्रकार हैं-

भाषा का सामाजिक पक्ष- इस विचारधारा के प्रवर्त्तक जे. फिशमैन और डेलहाइम्स है। इनके अनुसार भाषा और समाज में निरंतर घात-प्रतिघात या क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। यही कारण है कि कौन, किससे, कब और कहाँ बोलता है- इन सामाजिक नियमों का ज्ञान आवश्यक है। डेलहाइम्स की संप्रेषण क्षमता की संकल्पना इसी भाषिक सक्षमता का विस्तृत रूप है। यह विचारधारा यह मानती है कि भाषा में केवल भाषिक संरचना ही नहीं, सामाजिक संरचना भी समाहित होती है। इसकी परिधि में वे सभी सामाजिक विषय आते हैं जो भाषा के प्रयोग से संबद्ध हैं- जैसे भाषा – नियोजन, आधुनिकीकरण, मानकीकरण आदि। इसलिए मूलत: समाज भाषाविज्ञान का संबंध भाषाविज्ञान के अनप्रयुक्त पक्ष से है।

समाजोन्मुख भाषाविज्ञान (Socially Constituted Lingquistics)- गम्पर्ज और फर्ग्यूसन इस दृष्टिकोण के व्याख्याता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सामाजिक विकल्पन या संदर्भ तथा भाषिक विकल्पन या संदर्भ दो अलग-अलग चीजें हैं और चूंकि समाज ही भाषा को बनाता संवारता है, इसलिए भाषिक विकल्पन सामाजिक ही विकल्पनों पर आधारित होते हैं। वर्णनात्मक भाषाविज्ञान ने केवल भाषिक संकेत विज्ञान (Semiotics) को लेकर ही भाषा को परिभाषित किया था किंतु समाज भाषा विज्ञान भाषा को सामाजिक संकेत – विज्ञान के माध्यम से परिभाषित करता है।

समाज भाषाविज्ञान वास्तविक भाषाविज्ञान (Socially Realistics Lingquistics)- लेबॉव द्वारा प्रस्तावित यह दृष्टिकोण सैद्धांतिक भाषाविज्ञान के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया। पिछले दृष्टिकोण ने सामाजिक संदर्भ पर बल देते हुए भाषिक संदर्भ की सत्ता को नकारा नहीं था किंतु यह दृष्टिकोण यह मानता है कि भाषा और समाज एक-दूसरे में इस प्रकार मिले हुए हैं कि दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता । लेबॉव कहते हैं कि भाषा निरंतर गतिशील और परिवर्तनशील है, उसमें निरंतर बदलाव आते रहते हैं, किंतु सैद्धान्तिक भाषाविज्ञान समय के सोपान पर एक बिंदु निर्धारित करके भाषा का एककालिक (Diachronic) अध्ययन करता है और दो बिंदु निर्धारित करके भाषा का ऐतिहासिक (Synchronic) अध्ययन करता है। अपने इस प्रकार में वह भाषा के समय के विशेष बिंदुओं पर स्थिर और गतिहीन कर देता है और इस प्रकार वह भाषा की मौलिक प्रकृति अर्थात् गतिशीलता को नजरअंदाज करके भाषा का अध्ययन करता है। परिवर्तन, गति, विकल्पन यही सब तो भाषा को परिभाषित करने वाले तत्व है। वे कहते हैं कि भाषिक विकल्पन एक ओर तो सामाजिक विकल्पनों से प्रभावित होते हैं, और दूसरी ओर ये समाज के कई पक्षों को भी प्रतिबिंबित करते हैं। साथ ही ये विकल्पन भाषा परिवर्तन में भी भागीदार होते हैं।

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