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रीतिकाल: प्रमुख प्रवृत्तियाँ|| रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त, रीतिबद्ध काव्य।

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रीतिबद्ध काव्य 

          रीतिबद्ध काव्य मुख्यतः शास्त्रीय स्वरूप के उद्घाटन में नियोजित था। जिसके परिणाम स्वरूप उसमें विभिन्न काव्यरीतियों का बंधन पाया जाता है। यह काव्यधारा उन कवियों की है जिन्होंने लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर काव्यांगों का लक्षण व उदाहरण देते हुए रीतिग्रंथों की रचना की। इन कवियों ने राजाओं को शास्त्रीय ज्ञान देते हुए काव्य रचना की। इन कवियों में भी एक वर्ग ऐसे कवियों का है, जिनका मुख्य उद्देश्य अपने काव्यशास्त्रीय ज्ञान का परिचय देना था। इन ग्रंथों में रस, छंद, अलंकार आदि काव्यांगों के लक्षण कभी स्वयं की भाषा में और कभी दूसरों द्वारा रचित उदाहरणों की सहायता से दिए जाते थे। आचार्य शुक्ल की मर्यादावाली दृष्टि समग्र जीवन के विविध भावों का पूर्ण उत्कर्ष रीतिकाव्य में न पाकर इसे वासनात्मक और चमत्कार प्रधान एवं रूढ़िग्रस्त मानते हैं, किन्तु शृंगार रस के कोमल, ललित भावों का अपूर्व भंडार भी घोषित करते हैं। वस्तुतः रीतिबद्ध  कविता में शास्त्रीयता और शृंगारिकता का अद्भुत संयोग देखने को मिलता है। इस काव्य प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि में दरबारी मानसिकता कार्यरत थी। सामंत का मनोरंजन कविता का उद्देश्य हो गया। सामंत की रुचि का महत्त्व काव्य-प्रवृत्ति का रूझान बन गया। सामंत की रुचि शृंगार रस से पूर्ण छंद में तथा सामान्य शास्त्रीय जानकारी तक सीमित थी। इसलिए रीतिबद्ध काव्य में चमत्कार की प्रमुखता हो गई। 

          कुछ आचार्यों ने जैसे चिंतामणि, कुलपति, सुरितमिश्र, श्री पति, देव आदि ने काव्य के सभी अंगों-काव्य-लक्षण, काव्य-हेतु, काव्य-प्रयोजन, काव्य-भेद, काव्य की आत्मा, शब्द-शक्ति, गुण, दोष, रीति, अलंकार, ध्वनि, छंद आदि का विवेचन अपने ग्रंथों में किया है। ऐसे आचार्यों ने काव्य के विशिष्ट अंगों पर अपना काव्य लिखा है, इन्हें विशिष्टांगरूपक आचार्य कहा जाता है जैसे मतिराम, भूषण, तोष निधि, पद्माकर, दुलाह आदि । 

          इस प्रकार काव्य-प्रकाश, शृंगार तिलक व चंद्रलोक आदि संस्कृत ग्रंथों पर आधारित रीति निरूपण कि लक्षण उदाहरण शैली हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिबद्ध काव्यधारा के नाम से प्रचलित है। इस वर्ग में आने वाले कुछ प्रमुख कवि-आचार्यों तथा उनके साहित्य का परिचय निम्न हैं 

1.       आचार्य केशवदास (सन् 1555-1617 .) 

          रीतिकाल के कवियों में केशव का नाम विशेष महत्त्व रखता है, इन्हें रीतिकाल के प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है। केशव की काव्य-कृतियों की संख्या 9 स्वीकार की जाती है- रामचंद्रिका, विज्ञानगीता, रतनबावनी, वीर सिंह देवचरित, जहाँगीर जस-चन्द्रिका, कविप्रिया, छन्दमाला, रसिकप्रिया। इन कृतियों में केशवल ने शास्त्र व समाज के विभिन्न पक्षों पर अपनी प्रतिक्रियाएँ प्रस्तुत की है। काव्यशास्त्रीय दृष्टि से केशव की ‘रसिकप्रिया’, ‘नख-शिख’ व ‘कविप्रिया’ प्रसिद्ध है। आध्यात्म दर्शन व राजनीति की अभिव्यक्ति ‘रामचंद्रिका’ व ‘विज्ञानगीता’ में व्यक्त हुई है। रामचंद्रिका एक प्रबंधकाव्य है। ‘छन्दमाल’ एक छंदशास्त्र से संबंधित ग्रन्थ है, जिसमें प्रत्येक छंद का उल्लेख मिलता है। 16 प्रकाशकों में विभक्त ‘रसिकप्रिया’ ग्रन्थ में नायक-नायिका भेद का विवेचन है। कविप्रिया केशव की काव्यशास्त्रीय रचना है, इस ग्रन्थ में काव्यगत धारणाओं व लक्षणों का भरपूर परिचय मिलता है। केशव मुख्यतः अलंकारवादी आचार्य है। इन्होंने अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्त्व स्वीकार करते हुए काव्य की शोभा वृद्धि करने वाला कहा है- 

                    जदपि सुजति सुलक्षणी सुबरन सरस सुवृत,

                    भूषण बिनु न बिराजई कविता वनिता भित्त। 

          अलंकार युक्त कविता को उत्तम कविता मानने के कारण ही केशव वस्तु के चमत्कारपूर्ण वर्णन पर विश्वास करते थे और काव्य में अलंकारों को विशेष महत्त्व देते थे। केशव की विषयवस्तु व शिल्प के स्तर पर चाहे कितनी ही बाते क्यों न हो जाए पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भक्तिमार्ग की धारा को मोड़कर रीतिमार्ग पर लाना न आगे के कवियों के लिए राह प्रशस्त करने में केशल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 

2.       चिंतामणि : आचार्य शुक्ल चिंतामणि को रीतिकाल के आरंभकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं। वस्तुतः रीतिग्रन्थों की जो अविछिन्न धरा बही उसकी शुरुआत चिंतामणि से ही होती है। चिंतामणि के द्वारा लिखे गए ग्रन्थ हैं- रस विलास, छन्द विचार पिंगल, शृंगार मंजरी, कविकुलकल्पतरु, कृष्ण चरित, काव्य विवेक, काव्य प्रकाश, कवित्त विचार, रामायण। इन रचनाओं में काव्यशास्त्र के सभी अंगों का सन्निवेश है। काव्य-भेद, काव्य-लक्षण, काव्य-स्वरूप, दोष-निरूपण, शब्दालंकार, ध्वनि आदि सभी अंगों पर विचार किया गया है। इन ग्रन्थों में कवि की शैली काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिए दोहा-सोरठा छंदों का उदाहरण के लिए कवित्त-सवैया का प्रयोग करने की रही है। 

          विषय की बात करें तो वह संस्कृत लक्षणों का शाब्दिक अनुवाद ही है परन्तु प्रथम ग्रन्थ के रूप में यह सर्वाधिक महत्त्व रखता है, क्योंकि इन्हीं का अनुकरण आगे चलकर अन्य आचार्य कवियों ने की है। 

3.       मतिराम : मतिराम रीतिकाल के विशिष्टांग (रस, अलंकार, छंद) निरूपक आचार्यों में प्रमुख थे। मतिराम ने रस व अलंकार दोनों पर रीतिग्रंथ लिखे हैं। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं- ललित ललाम, रसराज, फुलमंजरी, छन्द्सर पिंगल, सतसई, साहित्यसार, लक्षण शृंगार और अलंकार पंचाशिका। इन ग्रन्थों में अत्यधिक प्रसिद्ध दो ग्रन्थ है ‘ललित ललाम’ व रसराज। ललित ललाम अलंकार ग्रन्थ है और रसराज शृंगार तथा नायिका भेद का ग्रन्थ है। नाम के अनुसार इन्होंने नायिका के भेदों का उदाहरण अत्यंत मनोहर शैली में दिया है। नायिका वर्णन करने वाला इनका सवैया अत्यंत रमणीय है। 

          कुंदन को रंग फीको लगै झलकै अति अंगन चारु बुराई,

          साखिन में अलसानि चितौनी में मंजुविलसन की सरसाई।

          को बिन मोल बिकात नहीं, मतिराम लहै मुस्कानि मिठाई,

          ज्योज्यो निहारिये नेरे हवै नैननि त्यों त्यों खरी निकरै सी निकाई। 

          मतिराम ने नायिका भेद वर्णन पहले की चली आ रही परिपाटी पर ही किया है। इसका मजबूत पक्ष इन लक्षणों के उदाहरण हैं जो अपनी सरसता और सरलता में अनिर्वचनीय है। मतिराम ने अलंकार विषय पर ‘ललित ललाम’ और ‘अलंकार पंचाशिका’ दो पुस्तकें लिखी हैं। ‘ललित ललाम’ का अर्थ है ‘सुन्दर’ व सुकुमार योगी। ललित ललाम में 100 अलंकारों व उसके भेदों का वर्णन है। सभी अलंकारों के लक्षण दोहों में दिए गए हैं। मतिराम की विशेषता उनके कवि रूप के प्रति ईमानदारी है। उनकी भाषा भावों का अत्यंत सरसता के साथ अभिव्यक्त करने में पूर्ण समर्थ रही है। भाषा के माधुर्य के साथ उत्कृष्ट भावों का जुड़ा होना मतिराम के काव्य की उल्लेखनीय विशेषता रही है। 

4.       भूषण : हिन्दी साहित्य के इतिहास में वीर रस के कवियों में भूषण का अत्यंत ऊँचा स्थान है। इस काल में वीर रस की कवितायें अन्य कवियों द्वारा भी लिखी जा रही थी। परन्तु, जितना ओजस्वी स्वर भूषण का है उतना किसी और का नहीं। भूषण शिवाजी महाराज व छत्रसाल के आश्रय में रहने वाले कवि थे, भूषण की लेखनी ने इन्हीं दोनों लोकनायकों के शौर्य का गान किया है। भूषण की 6 रचनाएँ मानी जाती हैं जिनमें से ‘शिवराज भूषण’, ‘शिवा-बावनी’ तथा ‘छत्रसालदशक’ ही प्राप्य हैं। शिवराज भूषण अलंकार निरूपक ग्रन्थ है। इसके 382 छंदों में से 350 में अलंकार के लक्षण तथा उदाहरण हैं। इस ग्रन्थ पर मतिराम के ललित ललाम का व्यापक प्रभाव पड़ा है। 

          भूषण कवि का काव्य वीर रस का है। इस समय में कवि गण अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में अतिश्योक्ति पूर्ण रचनायें कर रहे थे। कवि भूषण जनता के प्रतिनिधि कवि बनकर उभरे। उन्होंने दो इतिहास प्रसिद्ध वीरों, शिवाजी व छत्रशाल की प्रशंसा के गीत गाये। यह उनके माध्यम से समस्त जनता के हृदय की वाणी थी। 

          “शिवबावनी’ के 52 छंदों में शिवाजी के शौर्य का वर्णन किया गया है। कवि भूषण छंद में आवेग और अनुभूति की एकता है। 

                    इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर

                    रावन सदंभ पर रघुकुल राज है।

                    पौन बारिवाह पर संभु रतिनाह पर

                    ज्यों सहसाबाहु पर राम द्विजराज हैं। 

          भूषण की प्रवृत्ति काव्यत्व की ओर अधिक झुकी थी, इसलिए इन्हें आचार्य रूप में नहीं बल्की वीर रस के सफल नायक के रूप में मान्यता प्राप्त 

5.       देव : रीतिकालीन कवियों में देव का नाम विशेष रूप से प्रतिष्ठित है। देव द्वारा 72 ग्रन्थों की रचना की गयी है, इनमें से कुछ ग्रन्थ विशेष रूप से प्रसिद्ध है- भाव विलास, भवानी विलास, अष्टयाम, रस विलास, जाति-विलास, देव चरित, सुजान विनोद, काव्य रसायन, सुख सागर तरंग, राग रत्नाकर, देवशतक, प्रेमचंद्रिका, शब्दरसायन आदि प्रसिद्ध है। भाव विलास में प्रमुखतया अलंकार, भाव-भेद व नायिका भेद का वर्णन है। शब्दरसायन में शब्द शक्ति, नव-रस, नायक-नायिका भेद, रीति, गुण, वृत्ति, अलंकार आदि का विवेचन है। देव के कुछ ग्रन्थों को छोडकर अधिकतर ग्रन्थों में श्रीनगर वर्णन है। देव मूलतः शृंगार के ही कवि हैं, क्योंकि भाव विलास हो या शब्द रसायन दोनों में ही श्रृंगार रस की मनोरम अभिव्यक्ति हुई है- 

                    नव रस के धिति भाव हैं, तिनको बहु विस्तारू।

                    तिनमें रति धिति भावते, उपजत रस शृंगार।। 

          देव ने शृंगार रस की व्याख्या करते हुए शृंगार व प्रेम के स्वरूप का विवेचन किया है और उसके महत्त्व की स्थापना की है- 

                    सब सुखदायक नायिकानायक जुगल अनूप,

                    राधा हरि आधार जस रस सिंगार सरूप। 

          इनकी कवित्त दृष्टि से लिखी गई रचनाएँ अधिक आकर्षक व प्रभावी हैं। इनके भाव-पक्ष को इनकी अभिव्यंजना शैली ने दृढ़ता ही प्रदान की है। प्रत्येक शब्द संधान विचार व विषय के अनुकूल है। कहीं-कहीं कुछ त्रुटियाँ छंद व लय से संबंधित मिल जाती है परन्तु, भाव व भाषा की सुन्दर मेल के कारण उन पर कम ही ध्यान जाता है। कुल मिलाकर इनकी कविता सरस व ग्राह्य है। अपनी तकनीकि विशेषता और भाव की सरसता के कारण देव की कविता रीतियुग की प्रतिनिधि कविता बन जाती है। 

6.       भिखारीदास : भिखारीदास की प्रसिद्धि आचार्य और कवि दोनों रूपों में है। इस काल के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थ में ध्वनि, अलंकार, रस, नायिका आदि के लक्षण, विवेचन प्रस्तुत किए हैं, वहीं उदाहरण स्वरूप इनकी कविता, रीतिकालीन कविता का सुन्दर प्रमाण प्रस्तुत करती है। 

          भिखारीदास के 7 ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है- रस सारांश, काव्य निर्णय, शृंगार निर्णय, छन्दोर्णव पिंगल, शब्दनाम कोश, विष्णु पुराण भाषा और शतरंजशतिका। प्रथम तीन ग्रन्थ काव्यशास्त्र से तथा चौथा छंदशास्त्र से संबंधित है। शब्दनाम कोष को अमरकोष या अमरप्रकाश नाम से जाना जाता है। यह संस्कृत के अमरकोष का भाषानुवाद है। विष्णु पुराण संस्कृत से हिन्दी में पद्यानुवाद है। शतरंजशतिका में शतरंज की चालों का वर्णन है। 

          भिखारीदास की ख्याति का आधार ग्रन्थ है ‘काव्य-निर्णय । इस ग्रन्थ के निर्माण में इन्होंने मम्मट, विश्वनाथ, अपार दीक्षित, जयदेव के ग्रन्थों से सहायता ली है, परन्तु इनके इस ग्रन्थ की निजी विशेषता इसमें प्रस्तुत कुछ मौलिक उद्भावनाओं का संकलित होना है। ‘काव्य-निर्णय’ में ध्वनि का विवेचन प्रधान रूप से किया गया है। उनके द्वारा प्रस्तुत लक्षणों के उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है- 

                    फली सकल मन कामना, लूटेउ अगिनत चैन,

                    आज अन्चई हरि रूप सखि, भये प्रफुल्लित नैन। 

          काव्यांग के निरूपण में भिखारीदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष, शब्द-शक्ति आदि सब विषयों पर गहराई से विश्लेषण किया है। काव्यंग विवेचन के क्रम में इन्होंने बड़े मनोहर उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। भावों के साथ कलात्मकता का संयोग निम्नलिखित पद में देखा जा सकता है। 

                    नैननि को तरसैये कहाँ लौ कहाँ हियो बिरहागि में तैये।

                    एक घरी न कहूँ कल पैये कहाँ लगि आनन को कल पैये। 

7.       पद्माकर : कवि पद्माकर रीतिकाल के विशिष्टांग निरूपक आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। जयपुर नरेश जगतसिंह के आश्रय में इन्होंने ‘जगत विनोद’ नामक नवरस-निरूपक ग्रन्थ की रचना की। इन्होंने ‘हिम्मत बहादुर विरुदावली’ नाम की वीर रस की एक बहुत ही फड़कती हुई ग्रन्थ की रचना की। डॉ. बच्चन सिंह ने इनके रीतिकाव्य ग्रन्थों की सराहना की है पर प्रशस्तिपरक और भक्तिपरक काव्य को ‘काव्याभास’ माना है, क्योंकि इनमें काव्य-रूढ़ियों का निर्वाह अधिक है। किन्तु शुक्ल जी ने समग्रतः पद्माकर की नूतन कल्पना, दृश्य-चित्रण और भाषा की अनेक रूपता की प्रशंसा की है। ‘गंगालहरी’ और ‘प्रबोध पचासा’ काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से सामान्य है। गंगालहरी में कवि ने गंगा का अलंकारों से अद्वितीय अलंकरण किया है। 

          इनका अलंकार ग्रंथ ‘पद्माभरण’ लक्षणों की स्पष्टता और उदाहरणों की सरसता के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने मुक्तक तथा प्रबंध दोनों शैलियों में रचना की। इनकी भाषा में प्रवाहमयता है तथा सरस एवं व्याकरण सम्मत है। 

          पद्माकर की कविता में मुख्य रूप से उल्लास और आनंद का वर्णन है। शृंगारिक भाव की व्यंजना में उन्मुक्तता और खुलापन है। ब्रजमंडल में फाग के दृश्य का उद्भुत वर्णन उन्होंने किया है। फाग पर उनकी एक प्रसिद्ध कविता है-

                    फाग की भीर अभीरन में गहि गोबिदै लै गई भीतर झोरी।

                    माई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की जोरी।

                    छीन पिताम्बर कमर तेसु बिदा दई मीडि कपोलन रोरी।

                    नैन नचाई कही मुस्काई लला फिर आइयौ खेलन होरी।। 

          यहाँ होली में मादक अनुभूति का अत्यंत मनोरम वर्णन है। कविता में भाव, रूप और चेष्टा की अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति है। पद्माकर की अभिव्यक्ति में नाद तत्त्व और चित्रतत्त्व का संयोग है। कल्पना द्वारा उन्होंने रूप, रस, गंध, स्वाद और घ्राण के बिंब को कविता में मूर्त रूप में रख दिया है। 

          निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इन रीतिबद्ध कवियों ने सामान्य पाठकों के लिए काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का ज्ञान कराने और सरस उदाहरणों के द्वारा सहृदय रसिकों का मनोरंजन करने के लिए ही काव्य-रचना की थी। इनसे संस्कृत काव्यशास्त्रियों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक तो दोनों के लक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं, दूसरे, ब्रजभाषा गद्य का ऐसा विकास नहीं हुआ था कि उसमें काव्य-सिद्धांतों की सूक्ष्मताओं का निरूपण किया जा सकता है। 

रीतिसिद्ध काव्य 

रीतिसिद्ध काव्य : रीतिसिद्ध कवियों में उस वर्ग के कवि आते हैं जिन्होंने यद्यपि किसी रीतिग्रन्थ की रचना तो नहीं की तथापि उन्हें रीति की पूरी जानकारी थी जिसका उपयोग उन्होंने अपने काव्य-ग्रन्थों की रचना करते समय पर्याप्त किया है। वस्तुतः मानसिकता के स्तर पर यह रीतिबद्ध कवियों के समान ही है। इस धारा के कवियों ने काव्यशास्त्र के सिद्धांत या लक्षण प्रस्तुत नहीं किये हैं। लक्ष्य ग्रंथ में अभिप्राय है कि इन्होंने संस्कृत के काव्यशास्त्रों को ज्यों का त्यों न लिखकर उन्हें केवल अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। इनके काव्य का उद्देश्य केवल अलंकारों, नायक-नायिका भेद का विवेचन करना ही नहीं था, अपितु अन्य विशेषताओं का उल्लेख करना भी था। इन कवियों ने नीति, भक्ति जैसे विषयों पर भी रचनाएँ की इनमें सर्वप्रथम नाम कविवर बिहारी का आता है। जिनकी रचना ‘सतसई रीतिसिद्ध काव्य की प्रमुख रचना है। बिहारी ने किसी भी प्रकार के लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं की किन्तु फिर भी रीति परिपाटी की सभी विशेषताएँ उनकी बिहारी सतसई में उपलब्ध है। 

          बिहारी के दोहों का अर्थ समझने के लिए अलंकार, रस आदि की जानकारी आवश्यक है। अलंकार के कुछ उदाहरण निम्न है-

1.       सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर,

          मन वै जात अजौं वहै, वह जमुना के तीर। 

2.       चिरजीवी जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर

          को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के वीर। 

          वास्तव में रीतसिद्ध कवियों को आचार्य या कवि-शिक्षक बनने की अभिलाषा नहीं थी। इन्होंने अपने काव्यकौशल के प्रदर्शन पर विशेष ध्यान दिया। इनमें स्वानुभूति की प्रधानता मिलती है जिसे अलंकृत शैली में प्रस्तुत किया गया है। यों तो संपूर्ण रीतिकाव्य मुक्तक शैली में निर्मित हुआ है, किन्तु रीतिसिद्ध कवियों ने संस्कृत, प्राकृतादि की मुक्तक परंपरा से सीधे प्रभाव ग्रहण किया है। रीतिसिद्ध काव्य यद्यपि विलासप्रधान है, फलतः उसके केन्द्र में नारी का रूपाकर्षण प्रमुख है फिर भी उसका श्रेय रीतिबद्ध की अपेक्षा विस्तृत है। इनमें शृंगार के साथ-साथ भक्ति, प्रशस्ति, नीति, ज्ञान वैराग्य और प्रकृति के आलंबन-उद्दीपक रूपों का भी वर्णन प्राप्त होता है। 

बिहारी : बिहारी की एकमात्र रचना ‘बिहारी सतसहि’ है, परन्तु इस एक रचना ने जितनी ख्याति अर्जित की है वह संभवतः किसी अन्य रचना ने नहीं। इनकी ‘सतसई’ मुक्तक काव्य परंपरा की एक प्रतिनिधि रचना है। “इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासों टीकाएँ रची गई। इस प्रकार बिहारी संबंधी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया।” (आचार्य शुक्ल) आगे शुक्ल जी ने लिखा है कि “मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुंचा है।” 

          बिहारी ने दोहा और सोरठा जैसे छोटे छंद में पूर्ण और सजीव चित्र उपस्थित किया है। बिहारी ने मुक्तक काव्य की प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुए अपने दोहों में शृंगार, भक्ति, नीति-वैराग्य, प्रशस्ति, हास्य-व्यंग्य सबका समावेश किया है किन्तु युगानूकुल उनमें शृंगार के विविध रूपों, नायक-नायिका भेद, नख-शिख, षड्ऋतु और बारहमासों का वर्णन अधिक है। इन्होंने प्रकृति का प्रयोग अनेक रूपों में किया है। 

          बिहारी प्रमुख रूप से शृंगारी कवि थे। शृंगार रस का सीधा सम्बन्ध सौन्दर्य व प्रेम से होता है। प्रेम और सौन्दर्य एक-दूसरे के पूरक हैं। सौन्दर्य के प्रति प्रथम आकर्षण ही आगे चलकर प्रेम की सीढ़ी बनाता है। बिहारी भी सौन्दर्य के चितरै कवि थे। उनके सौन्दर्य का प्रतिमान स्थिर नहीं था, वह तो प्रतिपल परिवर्तित होता रहता था। संस्कृत की उक्ति “क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैदि तदैव रूपं रमणीयता” का प्रतिपादन बिहारी ने निम्न दोहार लिखकर किया है- 

                    लिखन बैठि जाकी सबी गहिगहि गरब गुरूर 

                    भए न केते जगत के चतुर चितेरे क्रूर। 

          यहाँ पर जिस सौन्दर्य की बात बिहारी कर रहे हैं वह सौंदर्य न केवल वस्तु में है अपितु दृष्टा की दृष्टि में भी है। बिहारी सतसई में सौंदर्य सम्बन्धी धारणाएँ, अंग शौष्ठव, क्रांति, वर्ण आदि पर आधारित है परन्तु स्थूल शारीरिक सौन्दर्य के साथ आंतरिक सौंदर्य की भी छटा विद्यमान है। 

          चूँकि बिहारी एक शृंगारी कवि हैं उनके काव्य की आत्मा शृंगार ही है। शृंगार के दो पक्षों संयोग व वियोग की अभिव्यक्ति बिहारी सतसई में हुई है। संयोग पक्ष के चित्रण में बिहारी ने विभिन्न हाव-भाव की अभिव्यंजना की है, जिसका सौन्दर्य सीधे हृदय को स्पर्श करता है- 

                    कहत, नटत, रीझत, खीझत, हँसत मिलत लजियात,

                    भरै भौन में करत हैं, नैनह ही सो बात। 

          कवि ने विरह व्यंजन के दोहों की भी रचना की है, परन्तु विरह की अधिक चमत्कार प्रदर्शन प्रवृत्ति के कारण वह अत्यधिक ऊहात्मक बन गये हैं। जैसे- 

                    औधाई सीसी सुलखि विरह वरनि विललात

                    विच ही सुखि गुलाबु गौ छिटौं हुई न गात। 

          जिस युग में बिहारी के दोहे निर्मित हुए वह युग अलंकृति तथा काव्यात्मक बारीकियों के लिए प्रसिद्ध है। ऐसे में बिहारी ने अपनी कल्पना की समाहार शक्ति व बहुलता प्रदर्शन के द्वारा स्वयं की अलग पहचान निर्मित की। अपनी इस समाहार शक्ति के कारण बिहारी दोहों में रूप, भाव, चेष्टा आदि का प्रभावोत्पादक चित्र खड़ा कर देते हैं। 

          बिहारी प्रतिभावान कवि थे, अपनी इन मुक्तकों की रचना में उन्होंने जो अर्थगाम्भीर्य प्रस्तुत किया है वह अतुलनीय है। बिहारी के प्रत्येक दोहे का स्वतंत्र लक्ष्य है, मुक्तक रचना में जितनी विशेषताएँ संभाव्य है उनकी कविता में सब पाई जाती है यही करता है की उनकी मुक्तक रचना के समक्ष किसी अन्य की रचना श्रुति मधुर नहीं लगती। बिहारी की भाषा ब्रजभाषा है। बिहारी की जो नायिका है वह अपने स्वरूप में शास्त्रीय प्रतिमानों से निर्मित नहीं बल्कि उसका स्वरूप ठेठ ब्रज युवती का है। प्रेम व शृंगार आदि मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए बिहारी ने इसी ठेठ ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों की व्यापि इनके दोहों में हुई है। कहीं-कहीं एक ही दोहे में विभिन्न अलंकारों का समावेश कर अद्भूत सौंदर्य का सृजन किया है। इनकी भाषा और भावाव्यंजना की क्षमता ही ऐसी थी कि आचार्य शुक्ल को इन्हें रीतिकाल के अन्य कवियों के वर्ग से हटाकर ‘रीतिकाल के ग्रंथकार’ कवियों में स्थान देना पड़ा। डॉ. बच्चन सिंह ने यद्यपि रीतिमुक्त कवियों में इन्हें परिगणित किया पर स्वच्छंद कवियों में नहीं बल्कि क्लासिकल (अभिजात) वर्ग में। उन्होंने एक मात्र बिहारी को इस वर्ग का प्रतिनिधि कवि स्वीकार किया। 

          कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बिहारी रीतिसिद्ध काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि थे। इसके अतिरिक्त छंद, बेनी, कृष्ण कवि, पसनेज आदि कवि प्रमुख हैं। 

रीतिमुक्त काव्य 

          रीतिमुक्त काव्य : रीतिकाल के कुछ कवियों ने रीति से मुक्त रहकर पूर्णतः स्वच्छंद रूप में काव्य-सृजन किया। रीतिमुक्त या स्वच्छंद धारा के कवि अपने समकालीन रीतिबद्ध कवियों से वर्ण्य विषय और वर्णन प्रणाली में भी भिन्न थे। रीतिबद्ध में शास्त्रीयता ज्यादा थी। उन्होंने प्राचीन काव्य प्रणाली को अपना आदर्श माना, जबकि स्वच्छंद काव्य कत्ता शास्त्रीय चौखटों को अस्वीकार करके आत्मानुभूति के आवेग में रचना करते थे। इनकी रचना में वैयक्तिकता की प्रधानता थी जबकि दूसरे लोग निर्वैयक्तिक अथवा तटस्थतापूर्वक काव्यशास्त्रीय लक्षणों के उदाहरण प्रस्तुत किया करते थे। ये सामाजिक या दरबारी मर्यादा में बंधकर रचना करने वाले नहीं थे। इस धारा के सभी कवि प्रेममार्ग के पथिक थे। इनका प्रेम एकोन्मुख और विषम था। इन कवियों ने संयोग की अपेक्षा वियोग का वर्णन अधिक किया है। रीतिबद्ध कवियों ने प्रायः राधा कृष्ण के शृंगार का वर्णन मुक्तकों में किया है जबकि रीतिमुक्त कवियों ने मुक्तकों और प्रबंधों दोनों विधाओं को अपनाया है। 

          इस धारा के प्रमुख कवि हैं- घनानंद, बोधा, आलम, ठाकुर और द्विजदेव, किन्तु इनमें आनंद घन या घनानंद का स्थान सर्वोपरि है। इनके काव्य में कवि परंपरा द्वारा स्वीकृत रूढ़ियों का पालन नहीं है। इसलिए इनकी कविता ‘जग की कठिनाई’ से भिन्न है। रीतिमुक्त काव्य में न तो नायिकाओं के भेद, उपभेद किए गए और ना ही इनके नख से लेकर शिख तक के स्थूल व मादक चित्रण। इन कवियों का विरह भी सहज-स्वाभाविक था ना कि रीतिकवियों की भाँति बनावटी। रीतिमुक्त कवियों का प्रेम नैसर्गिक है, वह स्वच्छंद प्रेम के कवि हैं अतः उनका प्रेम चित्रण बंधी-बंधायी परिपाटी पर ना होकर नैसर्गिक है। इनकी कविता प्रेम की अनन्यता, निष्ठा व उदातत्ता की प्रतीक है। 

          रीतिमुक्त कवियों का भाव पक्ष जितना सबल था, अभिव्यक्ति पक्ष भी इतना ही सशक्त । भाषा में ब्रजभाषा का प्रयोग व कवित्त, सवैया, दोहा, चौपाई जैसे मुक्त छंदों का प्रयोग इन कवियों ने अपनी रचनाओं में किया है। छंद-योजना, भावानुकूल रागात्मकता, बिम्बात्मकता, उक्ति–वैचित्र्यता आदि कलापक्ष के सभी उपदानों का सार्थक प्रयोग इनके काव्य को पृथक वैशिष्टय प्रदान करता है। एक दृष्टि से विचार किया जाए तो यह काव्य रीतिबद्ध काव्य के विरुद्ध स्वच्छंद वृत्ति के कवियों का विद्रोह दिखाई पड़ता है क्योंकि ठाकुर कवि ने कवि शिक्षा से प्राप्त निर्जीव काव्य प्रणाली के विरोध में ही कहा है 

                    डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,

                    लोगन कबित्त कीबो खेल करि मानो है। 

          इन कवियों ने लोक-जीवन की मर्यादा का तिरस्कार करके सामान्य या वेश्या प्रेम का वर्णन किया। 

1.       घनानंद : घनानंद रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। घनानंद ने अपने काव्य में मानव हृदय के सूक्ष्म भावों को सहज अभिव्यक्ति दी है। घनानंद की रचनाओं की संख्या 39 बताई जाती है, जिनमें प्रमुख हैं सुजानहित, वियोग-वेलि, इश्कलता, ब्रज-विलास, प्रेम-पत्रिका, विरहलीला आदि। स्वच्छंद काव्यधारा के प्रायः सभी गुण जैसे- भावात्मकता, मार्मिकता, व्यक्तिकता, रहस्यात्मकता, लाक्षणिकता आदि इनके काव्य में मिल जाते हैं। इनकी रचनाओं की विषयवस्तु क्रमशः लौकिक एवं भक्ति से संबंधित है। इनकी कविता हृदयगत भावों की अक्षय निधि है। घनानंद का प्रेम एकनिष्ठ है जिसका आलंबन सुजान है। घनानंद सच्चे प्रेमी हैं। उनके प्रेम में निश्छलता व निष्कपटता पायी जाती है। उनके प्रेम में सयानेपन व बांकपन के लिए कोई स्थान नहीं है 

                    अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नैकु सयानपन बाँक नहीं।

                    तहाँ साँचै चलै तजि अपुनापौ, झिझके कपटी जे निसांक नहीं।।

                    घन आनंद प्यारे सुजान सुनो, यहाँ एक ते दूसरौं आँक नहीं।

                    तुम कौन हों पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै दैहु छटांक नहीं।। 

          घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। उनके काव्य का केन्द्रिय स्वर विरह या ‘प्रेम की पीर’ है। आचार्य शुक्ल ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि- ‘प्रेम की पीर’ ही लेकर उनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। घनानंद प्रेम की भावानुभूति, काव्यानुभूति और काव्य भाषा को नए बोध के अनुसार रचते हैं। घनानंद की कविता में जिस प्रेम को अभिव्यंजित किया गया है, वह उनके जीवन की वास्तविकता है। घनानंद के प्रेम में आत्मानुभूति की प्रधानता है। सौन्दर्य और प्रेम उनकी कविता का आधार है। सौन्दर्य और प्रेम के प्रति उनमें समर्पण है। घनानंद की कविता में विलास से परे शुद्ध अनुराग की अनुभूति है। आत्मानुभूति के कारण ही घनानंद की भाषा में लाक्षणिक सौंदर्य है। हृदय की अनुभूति जब काव्य भाषा को रचती है तो भाषा में अनूठी भाव भंगिमा का संचार होता है। घनानंद के काव्य की भाषा बहुत कुछ छायावादी कवियों की तरह है। घनानंद की कविता की भाषा में स्वाभाविक प्रेम की स्निग्धता के साथ-साथ वाग्वैदग्ध्य की उक्तिवक्रता का परिचय भी मिलता है। 

2.       आलम : आलम रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि है। आलम के सम्बन्ध में कुछ भ्रांतियाँ थी। कुछ विद्वान दो अलग-अलग आलम कवियों की कल्पना करते हैं परन्तु अभी तक किसी प्रमाणिक तथ्य के उपलब्ध ना होने पर यह मान्यता खारीज हो जाती है। आलम के चार ग्रंथों का उल्लेख मिलता है माधवानलकामकंदना, आलमकेलि, सुदामा चरित तथा स्याम सनेही। इनमें दो ग्रन्थ (माधवानलकामकंदला और स्याम सनेहीं) प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा व सुदामा चरित कृष्ण भक्ति काव्य परंपरा की प्रबंधात्मक रचनाएँ है। आलम केलि मुक्तक काव्य रचना है। इनकी रचनाओं में भावों की प्रधानता है। इनकी प्रेमानुभूति व्यक्तिगत है। इनका प्रेम चेष्टा प्रधान न होकर आंतरिक है, इनके प्रेम संसार में संयोग के क्षण कम व वियोग के क्षण अधिक है। इस अंतर्मुखी प्रेम की विशेषता है कि इस प्रेम के रोगी को रोग जितना अच्छा लगता है उतनी चिकित्सा नहीं। 

                    औषध हितावै ताहि वेदना न आवै जाहि 

                    मेरे छाडि बिचर बदै पीर मोहि प्यारी है। 

          आचार्य शुक्ल ने आलम के सन्दर्भ में लिखा है कि- “ये प्रेमोन्नत कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार काव्य रचना करते थे। इसी से इनकी रचनाओं में हृदयत्व की प्रधानता है। प्रेम की पीट या इश्क का दर्द इनके एक-एक पद में भर पाया जाता है।” 

          रीतिमुक्त कवि होते हुए भी आलम काव्यशास्त्रीय परंपरा से पूर्णतः विमुक्त नहीं हो पाए थे। हाव, भाव, रूप, गुण आदि पर इनकी उक्तियाँ  पठनीय है। इनका अभिव्यंजना शिल्प भी मंझा हुआ है भाषा में तत्सम शब्दों के साथ अरबी-फारसी का भी प्रयोग मिलता है। अनुभूति को प्रगाद बनाते इनके शब्द योजना, विश्व योजना, उक्ति–वैचित्र्यता का विशिष्ट स्थान है। 

3.       बोध : रीतिमुक्त कवियों में बोधा का नाम भी महत्त्वपूर्ण है। बोधा की दो कृतियाँ ‘विरहवारिस’ और ‘इश्कनामा’ कृतियाँ उपलब्ध हैं। ये माधवानल–कामकंदला की प्रसिद्ध प्रेम कथा पर आधारित है। ‘इश्कनामा’ प्रेम सम्बन्धी मुक्तक रचना है। इनके काव्य में मनोवेगों की बेबाक अभिव्यक्ति है। इनकी प्रसिद्धि प्रेम के लौकिक गायक के रूप में है। इन्होंने प्रेम को एक साथ एक पंथ के रूप में स्वीकार किया है, जिस पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है- 

                    प्रेम को पथ कराल महा तरवारि की धार पर धावनो है।” 

          बोधा मनोवेगों के कवि हैं, उनका स्वयं के हृदय पर नियंत्रण नहीं है। भावों व विचारों की निर्भिक अभिव्यक्ति इनके काव्य में देखने को मिलती है। इन्होंने अपनी व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति उसी रूप में कर दी जिस रूप में उन्होंने सोचा है कृत्रिमता का कही आभास भी आने नहीं दिया है। वह स्पष्ट रूप से कहते हैं 

                    एक सुभान के अनान पै कुबीन जहाँ लागि रूप जहाँ को 

          बोधा का प्रेम पुरे मनोयोग के साथ कविता में उभरकर आता है। उनकी भाषा में स्वाभाविकता है, तद्भव, तत्सम शब्दों के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं जैसे बुन्देली, पंजाबी व फारसी का भी प्रयोग मिलता है। बोधा के यहाँ मुहावरेदार व लोकोक्तियाँ अपने पूरे पैनेपन के साथ मौजूद है और कवि के  भाव को अभिव्यंजित करने में भी समर्थ है। बोधा ने दोहा सवैया कवित्त आदि छंदों का प्रयोग किया है। 

4.       ठाकुर : ठाकुर रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं। इनके दो काव्य-ग्रन्थों का नाम मिलता है- ‘ठाकुर ठसक’ व ‘ठाकुर शतक’ । 

          ठाकुर ने शृंगार वर्णन के लिए स्वच्छंद मार्ग का वर्णन किया है। उनके काव्य में उनके आराध्य राधा थी, जिनको आधार बनाकर ठाकुर ने अपनी रचना की। भक्ति व शृंगार का मेल इनकी कविताओं में देखने को मिलता है। ठाकुर प्रेम के कवि थे उनके काव्य में विशुद्ध प्रेम के अतिरिक्त कुछ अन्य की प्राप्ति की आशा निरर्थक है। इसी को लक्ष्य करते हुए आचार्य शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है- “ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे, उनमें कृत्रिमता का लेश नहीं है न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडम्बर है न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष । भावों को यह कवि स्वाभाविक भाषा में उतार देता है। बोलचाल की चलती भाषा में भावों को ज्यों का त्यों सामने रख देना इस कवि का लक्ष्य रहा है। ब्रजभाषा की शृंगारी कविता प्रायः सभी पात्रों के ही मुख की वाणी होती है। अतः स्थान-स्थान पर लोकोक्तियों का जो सुन्दर विधान इस कवि ने किया है उससे उक्तियों में और भी स्वाभाविकता आ गयी है।” 

          ठाकुर अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों में ये सहज, स्वाभाविक हैं। भाषा का प्रवाह सहज व सरल है। बोलचाल की भाषा में स्वच्छंद प्रवाह है। ठाकुर ने मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। ठाकुर की कविता की प्रमुख विशेषता उनके काव्य में वर्णित लोक जीवन की झलक है। 

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