हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

रासो काव्य

0 2,851

रासो काव्य की पृष्ठभूमि

रासो काव्य से हमारा तात्पर्य आदिकालीन साहित्य की वीरगाथात्मक कृतियों से है। आदिकालीन साहित्य में रास ग्रंथ और रासो ग्रंथ दोनों प्रकार की रचनाओं की चर्चा मिलती है। रास साहित्य और रासो साहित्य का मुख्य अंतर भानुभूति को लेकर है। रास साहित्य की संवेदना धार्मिक अनुभूति अथवा लौकिक प्रेम की अनुभूति से जुड़ी हुई है। रास काव्य का प्रसार जैन साहित्य में देखने को मिलता है। आदिकालीन साहित्य में रास काव्य का नाम जैन रचनाकारों द्वारा लिखे गए ग्रंथों और ‘संदेश राक्षक’ जैसे प्रेमानुभूति प्रधान काव्य संवेदना के लिए रूढ़ हो गया है।

अब हम रासो साहित्य को समझने का प्रयास करेंगे। रासो शब्द की व्युत्पत्ति रासक, रासा, राउस आदि शब्दों से मानी जाती है। राजस्थानी में रासो का अर्थ होता है युद्ध या कलह। रासो शब्द का व्यवहार छंद में वैविध्य के लिए भी होता है। आचार्य शुक्ल ने रासो शब्द की व्युत्पत्ति रसायण शब्द से मानी जाती है। वस्तुतः रासो साहित्य की रचना चारणों द्वारा हुई थी। चारणों का साहित्य में आगमन सामंतवादी व्यवस्था के समानांतर होता है। सामंतों के जीवन में दो बातों की प्रधानता की युद्ध और प्रेम। इसलिए रासो साहित्य में इन्हीं दो विषयों की प्रमुखता मिलती है। उस साहित्य में कवियों ने सामान्य मनुष्य की ओर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा। आदिकालीन रासो साहित्य में साहित्य का उद्देश्य सामंतों का मनोरंजन था, इसलिए रासो साहित्य में युद्ध  और शृंगार को प्रमुख विषय बनाया गया। इस शृंगार में भी उत्तेजना है, इसमें प्रेम से अधिक काम का वर्णन है। प्रकृति वर्णन को भी काव्य में काम की उत्तेजना को बढ़ाने का साधन माना गया है। रासो साहित्य को मुख्यतः वीरगाथात्मक साहित्य कहते हैं। वीर गाथात्मक काव्यों में सर्वाधिक विवादास्पद काव्य चन्दबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ है।

प्रमुख रासो काव्य :

1.       पृथ्वीराज रासो : रासो ग्रन्थ में पृथ्वीराज रासो काव्य सौष्ठव एवं वर्ण्य विषय की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है। यह हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। पृथ्वीराज रासो में युद्ध कथा तथा शृंगार कथा साथ-साथ चलती है, जीवन के कठिन कार्य व्यापारों में माधुर्य एवं सौंदर्य का ऐसा रसात्मक प्रवाह अपने आप में अनोखा है। ऋतु वर्णन, नख शिख वर्णन, युद्ध वर्णन, संयोग वर्णन, वियोग वर्णन आदि कथा संदर्भो के साथ-साथ इस महाकाव्य का विकास होता है। वस्तु वर्णन की दृष्टि से इसका वैविध्य काव्य साहित्य के लिए नितान्त स्पृहणीय है- कन्नौज में गंगा के तट पर जल भरती हुई सुन्दरियों का हृदयहारी चित्र दृष्टव्य है-

          दृग चंचल चंचल तरुनि चितवन चित्त हरन्ति ।
          कंचन कलश झकोटि कै सुन्दर नीर भरन्ति ।।

युद्ध वर्णन कवि उसी मार्मिकता से करता है जैसा कि उस सामन्ति युग की मूल प्रवृत्ति थी कि युद्ध को क्षत्रिय लोग नीति, धर्म और चारित्रिक अभिरुचि के रूप में लेते थे-

          गजर सिंह या पुरिष नहिं रूंधै तहँ भुज्जै।
          सामन्त मन जानै नहिं मन्त गहै इक मरन कौ।।

चन्दबरदाई ने आध्यात्मक, राजनीति, योगशास्त्र, सकुन, नगर, सेना, सज्जा, विवाह, युद्ध, संगीत, नृत्य, फल-फूल, पशु-पक्षी, ऋतु, संयोग-वियोग, वसंतोत्सव आदि सभी का वर्णन करते हुए इस ग्रन्थ को महाकाव्य का कलेवर प्रदान किया है।

‘पृथ्वीराज रासो’ में 69 समय (सर्ग) है और इसमें 68 छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छंद निम्न हैं- कवित्त, छप्पय, दूहा (दोहा), तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या । चन्दबरदायी को ‘छप्पय छंद’ का विशेषज्ञ माना जाता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘पृथ्वीराज रासो’ को शुक-शुकी संवाद के रूप में रचित माना है, वहीं डॉ. बच्चन सिंह ने लिखा है- “यह (पृथ्वीराज रासो) एक राजनीतिक महाकाव्य है, दूसरे शब्दों में राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी

‘कयमास बध’ पृथ्वीराज रासो का एक महत्त्वपूर्ण समय (सर्ग) है। प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता के विवाद से परे हटकर यदि इसकी समालोचना की जाए तो काव्य में विविध प्रतिमानों की दृष्टि से यह अनूठा काव्य ठहरता है।

2.       परमाल रासो : जगनिक कृत परमाल रासो को ‘आल्हखण्ड’ भी कहा जाता है। परमाल रासो में 12वीं सदी के लोक प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल की वीरता की गाथा गायी गयी है।

यह ग्रन्थ 1865 ई. में फर्रुखाबाद के डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स इलियट के द्वारा संयुक्त प्रान्त में प्रचलित लोकगाथा शैली की कविता को संकलित कराकर प्रकाशित कराया गया था अर्थात् मूल रूप से यह चारण काव्य है जिसकी रचना 18वीं सदी के पहले की नहीं है। इसकी भाषा ब्रज भाषा है, वाचिक परंपरा में होने के कारण इसमें समय-समय पर संशोधन होता रहा है। परमाल रासो में राजा परमार्दिदेव के दो सामन्तों आल्हा-ऊदल के वीर गाथा का आख्यान मिलता है, इसमें पहले परमाला देव और पृथ्वीराज के बीच युद्ध का वर्णन मिलता है यह अतिश्योक्ति शैली का अत्यन्त सर्वोत्कृष्ट काव्य है। आल्हा की प्रवाहमयी शैली में स्वतः स्फूर्त गीत फूट पड़ते हैं

          बारह बरस लै कूकर जीवै अरू तेरह लै जियै सियार।
          बरस अठारह क्षत्री जीवै आगे जीवन को धिक्कार ।।

3.       हम्मीर रासो : इसका रचयिता शार्ङ्गधर को माना जाता है। स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में यह रचना प्राप्त नहीं है, प्राकृत पैंगलम में इसके 8 छंद प्राप्त होते हैं। ग्रन्थ की भाषा हम्मीर के समय के कुछ बाद की लगती है। अतः भाषा के आधार पर इसे हम्मीर के कुछ बाद का माना जा सकता है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह कृति अप्रमाणिक है।

4.       खुम्माण रासो : दलपति विजय का खुम्माण रासो की जो वर्तमान प्रतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें प्रक्षिप्त अंश का पर्याप्त समावेश है। इस ग्रन्थ में महाराणा प्रताप सिंह तथा उसके बाद राज सिंह तक के कई राजाओं का वर्णन मिलता है अर्थात् इसका वर्तमान स्वरूप 18वीं सदी के अन्त का है। अधिकांश विद्वान ने 9वीं सदी के खुमाण नरेश के समकालीन दलपति विजय को इसका रचयिता माना है।

यह ग्रन्थ 5000 छन्दों का एक विशाल रासो काव्य है जिसकी हस्तलिखित प्रति पूना संग्रहालय में प्राप्त है, इसमें चौपाई, कवित्त, गाहा आदि छन्दों का प्रयोग है। इसमें वीर और श्रृंगार का समाहार मिलता है।

          पिउ चितौड न आविऊ सावण पहली तीज।
          जोवे बाट बिरहिणी खिण खिण अजवें खीज।।

5.       बीसलदेव रासो : यह रचना पश्चिमी राजस्थान की है। जिसे कवि नरपति नाल्ह ने 1155 ई. में रचा। बीसलदेव रासो विरहमूलक शृंगार काव्य है, इसमें बीसलदेव की पत्नी राजमती का विरह वर्णन बड़े ही अद्भुत तरीके से किया गया है। विरहिणी नायिकाओं में राजमती का व्यक्तित्व परम्परा से अलग हटकर दिखाई देता है-

          फागुण फरहऱ्या कंपिया रूष
          चमकियउ निस नीद न भूख
          दिन राया ऋतु मालती
          म्हाकउँ मूरख राउ न देखै आई।

बीसलदेव रासो का महत्त्व इस बात को लेकर भी है कि इसमें विरहिणी नायिका के व्यक्तित्व का विकास परम्परागत रूढ़ि से हटकर किया गया है।

6.       भट्ट केदार कृत ‘जयचंद प्रकाश’ और कवि मधुकर कृत ‘जयमयंक जसचंद्रिका’ में राजा जयचन्द्र की वीरता का वर्णन है, किन्तु इसके स्वतंत्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं है।

रासो साहित्य की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता

आदिकालीन रासो साहित्य में मुख्य रूप से निम्न रासो ग्रंथ की चर्चा की जाती है- विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, खुम्माण रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो तथा परमाल रासो। इनमें चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता अप्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में सबसे ज्यादा विवाद है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई है, पृथ्वीराज रासो के विभिन्न संस्करणों के बीच से उसके प्रामाणिक और मूल पाठ को तय करना। डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने बृहत्तम, बृहत्, लघु और लघुतम पाठों में से लघुतम पाठ को पृथ्वीराज रासो का मूल रूप बताया है। आचार्य द्विवेदी ने अनुमान लगाया है कि कवि चंद ने रासो की रचना शुक शुकी संवाद के रूप में की होगी। पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में तीन वर्ग बन गया है। प्रथम वर्ग इस काव्य कृति को अप्रामाणिक माना है। इस वर्ग के विद्वानों में डॉ. बूलर, आचार्य शुक्ल, कविराज श्यामलदीन तथा हीराचंद ओझा के नाम प्रमुख हैं। डॉ. श्यामसुंदर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या, मिश्रबंधु, कर्नल टॉड आदि विद्वानों ने नागरी प्रचारिणी सभा वाले पृथ्वीराज रासो के संस्करण को प्रमाणिक माना है। विद्वानों का तीसरा वर्ग जिनमें मुनि जिनविजय, डॉ. सुनिति कुमार चटर्जी, आचार्य द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह का नाम आता है जो इस ग्रंथ के अर्ध प्रामाणिक मानते हैं।

‘विजयपाल रासो’ के रचयिता नल्लसिंह भाट थे। इस काव्य में राजा पंग और विजयपाल के बीच युद्ध का वर्णन है। मिश्र बन्धुओं ने इस काव्य-कृति का रचनाकाल 14वीं शती माना है। काव्य-कृति की भाषा-शैली पर विचार करने पर यह रचना परवर्ती जान पड़ती है। यह रचना प्रामाणिक रूप में उपलब्ध नहीं है। हम्मीर रासो’ शार्ङ्गधर कवि-कृत बताई जाती है, परंतु इस ग्रंथ की सूचना मात्र ही उपलब्ध है। प्राकृत पैंगलम में कुछ छंदों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने इस कृति के अस्तित्व को स्वीकारा है। हम्मीर रासो की कोई भी प्रति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। ‘खुम्माण रासो’ की एक अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई है। ‘खुम्माण रासो’ मूल रूप में 9वीं-10वीं शताब्दी की रचना है, परंतु जो काव्य-प्रति प्राप्त हुई है, वह 17वीं शताब्दी की रचना मालूम पड़ती है। ‘बीसलदेव रासो’ के रचयिता नरपित नाल्ह थे। ‘बीसलदेव रासो’ यद्यपि माता प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हो चुकी है, परंतु इस ग्रंथ के रचनाकार के विषय में मतभेद बना हुआ है। कुछ लोग इसका रचनाकाल 13वीं शताब्दी बताते हैं और कुछ लोग 16वीं शताब्दी मानते हैं।

विद्यापति

विद्यापति का रचनाकाल 14वीं शताब्दी था। उस काल की देशभाषा को अपभ्रंश में मिलाकर रचने की प्रवृत्ति प्रचलित थी। विद्यापति ने भी इन रूढ़ियों का पालन किया परंतु उनके काव्य में देशभाषा का स्वतंत्र विकास भी देखने को मिलता है। अपभ्रंश मिश्रित लोकभाषा जिसे विद्यापति ने अवहट्ठ कहा है तथा मिथलांचल प्रदेश में प्रचलित लोकभाषा मैथिली दोनों ही भाषाओं में विद्यापति ने रचना की। विद्यापति की स्पष्ट मान्यता थी।

देसिल अबना सब जन मिट्ठा। ते तैसन जपओ अवहट्ठा।

विद्यापति दो भाषाओं को स्वीकार करते हुए भी देशभाषा को प्रमुख मानते हैं। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि वह कौन-सी जरूरत थी जिसके कारण विद्यापति को अवहट्ठ में रचना करनी पड़ रही थी। वस्तुतः राज-दरबार के अभिजात्य के बीच अपभ्रंश भाषा का प्रचलन था। विद्यापति राजाश्रय में रचना कर रहे थे। वे कीर्ति सिंह के दरबार में रहते थे। अतः उन्हें दरबार की भाषा भी रचना के लिए अपनाना पड़ा। ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ उनकी इसी विलशता का प्रतिफल है। विद्यापति की भाषा में लोक-अनुभूति और लोक अनुभव का आधार इतना गहरा था कि उनकी अवहट्ठ रचनाएँ भी प्रभावित हुई। उस अपभ्रंश की विशेषता यह है कि उसमें देशभाषा का कुछ अधिक प्रभाव है। यह प्रभाव शब्द के साथ-साथ लय और टोन में अभिव्यंजित होता है

धारि आनय बाभन बरूआ। मथा चढ़ावउ गाय का चरूआ।
हिन्दू बोले दूरहि निकार। छोटउ तुरूका भभकी मार।।

यह अपभ्रंश भाषा प्राकृत की रूढ़ियों में बंधी हुई प्रतीत नहीं होती। वस्तुतः विद्यापित के सामने कविता की दो धाराएँ थीं- एक प्राचीन मैथिली की और दूसरी उत्तरकालीन अवहट्ठ की। आश्रयदाताओं की प्रशंसा के बावजूद मैथिल-कोकिल ने लोक–अनुभूति के गर्म से अपनी कविता को रचा। मिथिला का कोई पर्व-त्यौहार, विवाह और अन्य लोकोत्सव मैलिल-कोकिल के बीत के बिना अधूरा माना जाता है। लोक-संवेदना में इतने गहरे स्तर तक हिंदी में किसी दूसरे कवि की पैठ नहीं मिलती। इसी अर्थ में डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें मध्यकालीन नवजागरण का अग्रदूत माना है। विद्यापति के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया जाता है कि वे भक्त थे अथवा शृंगारी। इस विवाद को उनकी कविता के आधार पर ही विवेचित किया जा सकता है। विद्यापति के काव्य में मानवीय सौंदर्य का गहरा रंग है। उनके द्वारा रचे गये सौंदर्य के चित्र सघन हैं। राधा और कृष्ण के साथ शिव और पार्वती को भी विद्यापित ने मानवीय बनाकर प्रस्तुत किया है। विद्यापति का काव्य जहाँ जयदेव के शृंगारी काव्य से प्रभावित है, वहीं दूसरी ओर उन पर कालिदास की स्वच्छंद अनुभूति का प्रभाव भी मिलता है। विद्यापति ने कृष्ण अतिरिक्त, शिव को भी शृंगार रस का आलंबन बनाया है। कवि ने शिव और कृष्ण के मिथक का आश्रय इसलिए लिया है कि प्रेम जैसी अनुभूति का तन्मयता से वर्णन हो सके।

विद्यापति के शृंगार वर्णन की बहुत बड़ी विशेषता है कि उन्होंने अपने शृंगार वर्णन को सामंती शृंगार के सौंदर्य के उपभोग पक्ष से अलग रखा है। उनके शृंगारिक मनोभाव में लोकजीवन की सहजता है। उनके काव्य में किशोर और किशोरियों के प्रेम का सहज आकर्षण है, नवयौवन की चंचलता है और भावों की ऊहापोह है। वयः संधि के प्रकरण में विद्यापति अद्वितीय है-

सैसव जौवन दुहु मिलि गेल
सावन का पथ दुहु लोचन लेल
निरजन उरज हेरइ कत वेरि
हंसइ जे अपन पयोधर हेरि।

नवयौवन में किन मनःस्थितियों का विकास होता है, विद्यापति ने उसका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया था। इन मनःस्थितियों के बीच जो प्रतिक्रिया होती है उसका विशद वर्णन विद्यापति के साहित्य में मिलता है। विद्यापति के नायक और नायिका में बेचैनी हैं उनका मनोभाव अशांत है, उसमें भावों की तरलता है और प्रिय से मिलने की आकांक्षा है। प्रेमानुभूति, यौवन और सौंदर्य के अतिरिक्त विद्यापति में सामान्य जीवन का चित्रण भी मिलता है। इनके कई पदों में मिथिला के गरीब लोगों का चित्र सामने आता है, जो अपनी हीन वित्तीय स्थिति के कारण अपनी आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं कर पाते थे। प्रोषितपतिका नायिका अपनी हीन वित्तीय स्थिति के कारण पथिक की विभिन्न भाव-भंगिमा के द्वारा अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा करती है। मिथिला में विद्यापति ने जिस तान को छेड़ा उसका प्रभाव मिथिला में ही नहीं सीमित न होकर असम, बंगाल, उड़ीसा तक जा पहुँचा। वस्तुतः मिथिला पूर्वी संस्कृति का केंद्र था। मिथिला में गीति काव्य और दर्शन की दो धाराएँ एक-साथ प्रवाहित हो रही थीं। विद्यापति का संबंध इन दोनों धाराओं से था। पूरब के लोग मिथिला में पढ़ने-लिखने और कार्य करने आते थे। जब वे अपने प्रदेश लौटते थे तो मिथिला के गीत और भजन भी लेते जाते थे। इसी तरह से विद्यापति की कविताओं का प्रसार असम, बंगाल और उड़ीसा में हुआ। मैथिल-कोकिल की लयात्मक चेतना और गीतात्मक संवेदना से संपूर्ण पूर्वी भारत आनंदित हो उठा।

नंदक नंदन कदम्बक तरु तरे
धीरे-धीरे मुरली बजाय
समय संकेत निकेतन वैसल          
बेरी-बेरी बोलि पठाव।

Leave A Reply

Your email address will not be published.