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रचनात्मक लेखन के विविध रूप

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कोई भी रचनात्मक लेख किसी एक निर्धारित स्वरूप में लिखा भी जा सकता है और उसका वाचन भी किया जा सकता है। जब हम कोई समाचार सुनते हैं तो वह किसी रचनात्मक लेखन का ही वाचिक अथवा मौखिक रूप होता है। इसी प्रकार जब हम किसी अखबार को पढ़ते हैं तो वह उसी लेख का लिखित रूप है। इसी के साथ ही मौखिक में भी यह कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है और लिखित रूप में भी। हर रूप की अपनी विशेषता और अपने तत्व होते हैं जिनसे उसका निर्धारण किया जाता है। अतः किसी भी रचनात्मक लेख के लिए उसके रूप का चुनाव तथा उस रूप के ढांचे में विभिन्न तत्वों का ध्यान रखते हुए लिखना इस प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस अध्याय में हम रचनात्मक लेखन के विविध रूपों का अध्ययन करेंगे।

रचनात्मक लेखन के रूपों को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. मौखिक रूप

किसी भी भाषा का विकास होने पर सबसे पहले जिस रूप में मनुष्य ने सम्प्रेषण आरंभ किया वह मौखिक रूप ही है। किसी भी बात को श्रव्य रूप से श्रोता तक पहुँचाने का कार्य अनेक स्वरूपों में किया जाता है।

मौखिक में वक्ता की वक्तत्व कला का विशेष महत्त्व होता है। वह श्रोता को प्रभावित भी कर सकती है तथा श्रोता उससे अप्रभावित भी हो सकता है। बातचीत को भी मौखिक रूप के अन्तर्गत ही माना गया है। प्राचीनकाल में अपनी बात को
दूसरों तक पहुँचाने के लिए नगाड़े एवं तुरूही आदि का भी प्रयोग किया जाता था। जिससे सभी श्रोता सूचित किए जा सके और सभी नगाड़े की आवाज से उनके पास आकर सूचना देने वाले की बात को ध्यान से सुन सकें। एक श्रेष्ठ वक्ता अपनी भाषा शैली के द्वारा श्रोताओं पर अपनी अमिट छाप छोड़ सकता है। मौखिक संप्रेषण का अपना एक अलग महत्त्व होता है। पूजा, अर्चन, खेल, तमाशा वे सभी लोक संप्रेषण मौखिक तौर पर ही व्यक्त किया जाते हैं। नृत्य और नाटक तो ऐसी कलाएँ है जो मौखिक रूप से ही अपना प्रभाव प्रदर्शित कर पाती है। ऐसी ही विभिन्न भाव भंगिमाएँ भी मौखिक रूप से अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं। उदाहरण के लिए बच्चों के गाई जानेवाली लोरी मौखिक रूप में ही होती है।

मनुष्य सर्वप्रथम किसी बात को सोचता है और उसके बाद उसे संप्रेषित करता है ये सभी मौखिक रूप पर ही आधारित प्रक्रिया होती है। मनुष्य की समाज में रहते हुए विभिन्न क्रिया, प्रतिक्रियाएँ मौखिक संप्रेषण पर ही आधारित होती है। व्यवहार और कुशलता जैसी आदतें और विशेषताओं को भी मौखिक रूप से ही प्रकट किया जाता है। वास्तव में मौखिक अभिव्यक्ति रूप हर व्यक्ति की विभिन्नताओं को दर्शान में सबसे अधिक सक्षम होता है। कोई भी मनुष्य किस तरह से जनता को अपने व्यवहार से अपना बना लेता है, कैसे वह अपनी कविता से जनसमूह को आकर्षित कर लेता है। यह मौखिक कुशलता द्वारा पता चलता है। हर व्यक्ति एक अच्छा बनता नहीं हो सकता। यह व्यक्ति भले ही वह अच्छा विद्वान हो किन्तु वह अपनी लिखी गई रचनाओं को जनसमूह के सामने अच्छे से प्रकट कर पाए यह आवश्यक नहीं होता।

किसी भी विचार की मौखिक अभिव्यक्ति की कुशलता हेतु निम्नलिखित वातों को ध्यान को रखना आवश्यक होता है।

  1. एक कुशल वक्ता को कार्यक्रम की प्रस्तुति को आकर्षक बनाने के लिए कविता की पंक्तियों का सहारा भी लेना चाहिए। इससे जनसमूह की एकाग्रता अर्जित करने में सहायता मिलती है।
  2. स्वागत परिचय के उपरांत भिन्न-भिन्न प्रस्तुतियों की विशेषताओं को भी एक कुशल वक्ता को बताना चाहिए। इससे मंच पर प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों के बारे में जनसमूह को पूर्वसूचना प्राप्त होती है और उसके मंचित होने के समय वह उसे सार्थक ढंग से समझ पाता है। यह जानकारी अति संक्षिप्त होनी चाहिए क्योंकि कार्यक्रम की प्रस्तुति के द्वारा उसका वास्तव आनन्द प्रारंभ किया जाना चाहिए। वक्ता द्वारा जनसमूह की उस कार्यक्रम के प्रति जिज्ञासा को बढ़ाया जा सकता है।
  3. एक अच्छा वक्ता कुछ रटी हुई बातों को ही बोलने में सक्षम नहीं होना चाहिए बल्कि वह इतना सक्षम होना चाहिए कि परिस्थिति के अनुसार अपने वक्तव्य में कुछ अतिरिक्त बातों की अभिवृद्धि भी कर सके। या कार्यक्रम में कुछ बदलाव होने पर उसमें अपने मन से परिवर्तन करने में सक्षम हो।
  4. वक्ता को अपने वक्तत्त्व के अतिरिक्त दर्शकों और श्रोताओं का भी उचित अभिवादन करना चाहिए। क्योंकि वही उस जनसमूह का और उस वक्ता का एकाग्रता से सुनने वाले होते हैं।
  5. अभिव्यक्ति के मौखिक स्तर पर वक्ता को हाजिर जबाब भी होना चाहिए। जिससे अचानक यदि कोई प्रश्न उनके सामने आता है तो वह उसका सही और समझ बूझ से उत्तर दे सके।
  6. वक्ता को अपनी वाक् पटुता के बल पर दर्शकों को शांत रखना और उनसे ताली बजवाने के अनुरोध को विभिन्न प्रकार से कहना आना चाहिए। इसके लिए वह दर्शकों को आदेश नहीं दे सकता है।

सारांशतः अवसर के अनुकूल एक कुशल वक्ता को अपनी शालीनता और विनम्रता का उचित परिचय देना चाहिए।

भाषा की अभिव्यक्ति का मौखिक रूप जीवन में बहुत महत्त्व रखता है। सर्वप्रथम मनुष्य ने बोलना शुरू किया, लिखित स्वरूप बाद में उसी की समझबूझ से प्रारंभ हुआ। मौखिक अभिव्यक्ति में आंगिक प्रतिक्रिया सहायक रूप में काम आती है। कभी कभी ऐसा भी हो सकता है कि मुख से बोले जाने से पूर्व ही कोई बात आँखों और हाथों से समझा दी जाए। उदाहरण के लिए हाँ में सिर का ऊपर नीचे करना और नकार को अगल-बगल करे दिखाना। या फिर गुस्से में भौहों का चढ़ जाना आदि।

लिखित भाषा को भी मौखिक भाषा के द्वारा ध्वनि चिन्हों में परिवर्तित किया जाता है। मौखिक भाषा से लिखित भाषा का सही सही रूप पता चलता है। भारत जैसे देश में जहाँ आज भी कुछ क्षेत्रों के लोग निरक्षर हैं। ऐसी स्थिति में मौखिक भाषा उनके लिए विशिष्ट महत्व रखती है। मौखिक रूप के अंतर्गत भाषा के निम्नलिखित माध्यमों द्वारा हम अपनी बात दूसरों के समक्ष प्रकट करते हैं-

भाषण

भाषण मौखिक रूप से भाव अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त साधन होता है। कोई व्यक्ति अपनी प्रभावशाली वाणी से और तर्कशील बातों से एक बड़े जन समूह को भाषण के द्वारा एकत्रित करने में सक्षम होता है। इसके द्वारा व्यक्ति की प्रत्यक्ष रूप से कमियाँ और खूबियाँ भी जनता के समक्ष आ पाती है। भाषण के द्वारा व्यक्ति की प्रतिक्रियाएं और दृष्टिकोण सीधे-सीधे जनता के सामने आता है। उदाहरण के लिए अच्छे भाषण के माध्यम से ही व्यक्ति के समक्ष पहला लोगों का प्रभाव बनाता है।

गोष्ठी

गोष्ठी के माध्यम से भी मौखिक रूप से जनसमूह से संपर्क स्थापित किया जाता है। इसमें सभाओं की अपेक्षा कम श्रोता होते हैं। इनमें श्रोताओं के प्रश्नों का अवकाश भी रहता है जिससे उसी समय हम अपने मन की शंकाओं को वक्ता के साथ दूर कर सकते हैं। गोष्ठी में अधिक लोगों का भी प्रबंध किया जा सकता है। ऐसे में यदि दो विरोधी व्यक्तियों का परस्पर सामना होता है तो उनकी सहनशीलता का परिचय व्यक्ति अपने विचार भी प्रकट करता है। और दूसरों को भी बोलने का मौका देता है। ऐसे में उसकी वाक्पटुता और सारगर्भिता का पता लगता है। समय सीमा के कारण लंबे चौड़े अनुभवों का अवकाश गोष्ठी में नहीं मिल पाता है। वक्ता को अपनी बातों को समय के अनुसार दूसरे वक्ता से अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त करना होता है। गोष्ठी में वक्ता को प्रमाणिकता का भी ध्यान रखना होता है। जिस व्यक्ति या दल के विषय में हमें अपने तथ्य प्रकट करने होते हैं वे वक्ता भी साथ में मौजूद होते हैं। ऐसे में अनुमान पर आधारित बातों को कहने से अपने आप पर प्रश्नों की बौछार करवाने जैसा होता है। यहाँ पर वक्ता को चतुराई से दूसरे व्यक्ति के तथ्यों को भी सुनकर उनसे संबंधित अपनी बात कहनी होती है। गोष्ठी में हम साथ वाले वक्ता को नजरअंदाज नहीं कर सकते। हमें गोष्ठी मे तारतम्यता बनाकर रखनी होती है।

लोकगीत और गीत

विभिन्न प्रकार के गीतों, गानों और नृत्यों का प्रस्तुतीकरण मौखिक रूप से ही किया जा सकता है। इनमें लय और तान ही सब कुछ होती है। जो प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त करके ही बताई जा सकती है। भाषा के मौखिक रूप के कारण ही हमारी संस्कृति ओर रीतिरिवाजों को जीवंतता मिल पाई है। अच्छे से अच्छे नृत्य को समझाना और गीतों के बोल लिखना, सभी उनके प्रस्तुतीकरण के द्वारा ही सार्थक हो पाते हैं। मौखिक रूप से गीतों और गानों और नृत्य को अभिव्यक्त करने में एक समय में एक ही कलाकर की दक्षता को पता नहीं लगाया जा सकता अपितु सीमित समय में दो, चार और उससे अधिक कलाकार भी एक ही समय में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने में सक्षम हो सकते हैं।

दिव्यांगों के लिए माध्यम

जो व्यक्ति सुन नहीं सकते या देख नहीं सकते अथवा किसी अन्य दिव्यांगता के कारण अपनी अलग क्षमता रखते हैं उनके लिए मौखिक रूप बहुत महत्वपूर्ण होता है। मौखिक रूप के साधनों के कारण ही वह दृश्य को श्रव्य माध्यम में सुन सकते हैं।

निष्कर्षतः लेखन के मौखिक रूप की अपनी विशेषता है। इसके द्वारा एक उचित दृश्य रूप हमारे सामने आता है। हर लिखित रूप सबसे पहले मौखिक रूप में हमारे सामने होता है बाद में लिखित रूप में उसे प्रस्तुत किया जाता है।

2. लिखित रूप

किसी भी विचार को जब तक लिखित रूप में नहीं लिखा जाता है वह अमूर्त स्थिति में रहता है। साथ ही अलग-अलग श्रव्य क्षमता और अन्य बाधाओं के कारण श्रव्य संदेश का रूप भी परिवर्तित भी हो जाता है। कोई वाक्य एक सिरे से जो निकलता है अक्सर वह कई माध्यमों से गुजरने के बाद एक अलग वाक्य बन सकता है। अतः यहाँ यह आवश्यक है कि वह लिखित रूप में संरक्षित भी हो। अतः उन्हें विभिन्न भाषाओं के अनुसार कुछ द्वाणी चिन्हों में लिखा जाता है। ये ध्वनि चिह्न अथवा लिपि चिह्न सार्थक व्यवस्था में क्रमिक होते हैं। इनकी उचित समायोजन क्षमता मौखिक भाषा को लिखित रूप में प्रकट करने में सक्षम होती है। मौखिक भाषाएं एक निश्चित दूरी तक सीमित हो जाती है किंतु लिखित रूप से स्थान और समय की निश्चितता को पार किया जा सकता है। आज तकनीकी युग है और विभिन्न प्रकार के आविष्कार कारगर साबित नहीं हो पाते उनका लिखित रूप में होना प्रामाणिकता को चिन्हित करता है।

रचनात्मकता में जब हम लिखित रूप को देखते हैं तब हमें उसके अनेक रूप मिलते हैं-जैसे कविता, कहानी, उपन्यास इत्यादि। कविता और कहानी की तात्विक समीक्षा आगे की इकाइयों में की गई है। उपन्यास लेखन विधि का प्रभावशाली रूप है जिसका विश्लेषण नीचे किया गया है-

गद्य

किसी भी विचार को कहने अथवा लिखने के लिए गद्य सर्वप्रचलित स्वरूप है। इसके माध्यम से ही हम अपने दिनचर्या के अधिकांश कार्यों को करते हैं। इस गद्य को दो भागों में विभाजित करके देखा जा सकता है। पहला कथात्मक रूप और दूसरा कथेतर रूप। जिनके विषय में आगे विस्तार से लिखा गया है।

अभिव्यक्ति के गद्यात्मक रूप को भी अलग-अलग विधाओं के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। इनमें रिपोर्ताज अपनी तरह की एक विशिष्ट गद्य विधा है।

कथात्मक

किसी भी घटना की सबसे रुचिकर अभिव्यक्ति कथा के रूप में ही की जा सकती है। इसके कई रूप हैं जिसमें प्रमुख उपन्यास, कहानी और नाटक आदि हैं। जिनमें से उपन्यास और लघुकथा के विषय में हम निम्नावत जानकारी प्राप्त करेंगे-

लघुकथा

लघुकथा, कहानी का छोटा रूप न होकर अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है। समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं से किसी एक संदेश का प्रमुख रूप से आधार स्वरूप लेकर लघुकथा की रचना की जाती है। अतः यह अपनी संक्षिप्तता में ही जीवन से जुड़ी हुई गहरी सच्चाई को व्यक्त करने वाली रचना होती है। यह पाठक को कम समय में किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हेतु विशेष जागृति तथ्य प्रकट करती जान पड़ती है।

लघुकथा में प्रारंभ से लेकर अंत तक एक ही विचार को प्रमुखता दी जाती है। एक अच्छी लघुकथा के अंतर्गत पात्रों की संख्या सीमित होनी चाहिए। विषय विस्तार का इसमें अवकाश नहीं होना चाहिए। इसमें मुख्यतः व्यंग्यपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया जाता है। व्यंग्य के माध्यम से लेखक कम शब्दों में अधिक प्रभावशाली बात कह जाता है। लघुकथा के अंतर्गत परिवेश में प्रमुख बात को मारक शक्ति के माध्यम से प्रस्तुत कर लघुकथा में लेखक अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। इसमें मात्र घटना के वर्णन पर बल दिया जाता है, परिवेश-वर्णन इसके कलेवर में नहीं आ पाता।

लघुकथा में हर पात्र के चरित्र को व्यक्त करना संभव नहीं हो पाता अतः उन्हें संकेतात्मक पद्धति में दर्शाया जाता है। लेखक का प्रमुख ध्यान लघुकथा द्वारा दशयि जाने वाले उद्देश्य पर रहता है।

उपन्यास

जब किसी के (वास्तविक या काल्पनिक पात्र) जीवन का एक भाग या प्रसंग अथवा कई प्रसंग इतने सशक्त रहते हैं कि वे एक बड़े जनसमूह को नया विचार दे सकते हैं तो उसे लेखक उपन्यास के रूप में लिखता है। इस प्रकार वह किसी जीवन के व्यापक भूमि को व्यक्त करते हुए समाज को सोचने का नया ढंग भी प्रदान करता है। उपन्यास रचनात्मक लेखन की सबसे लोकप्रिय पठित विधाओं में से एक है। जीवन में विभिन्न प्रकार की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमें कुछ सुख से पूर्ण होती हैं तो कुछ दुखात्मक होती हैं। जीवन के विस्तृत फलक को लिखित रूप में पात्रों की सृष्टि के द्वारा अभिव्यक्त करने की विधा का नाम उपन्यास है। यह मानव जीवन का नवीनता के साथ चित्रण करने वाला सशक्त माध्यम होता है।

कथावस्तु : विभिन्न घटनाओं में एक तारतम्यता होनी चाहिए। जिससे उपन्यास में स्वाभाविकता आती है। इसी प्रकार कथानक के अन्दर रोचकता का समावेश भी आवश्यक होता है। एक कुशल उपन्यासकार को उसके कथानक के आकार और सुसंगठन की अपेक्षा अपनी कलात्मकता से उसमें उत्सुकता और रोचकता को विशिष्ट रूप से व्यक्त करना चाहिए। जैनेन्द्र के उपन्यास इसका उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उनके ‘सुनीता’ ‘त्यागपत्र’ आदि उपन्यास कथा के अनुसार अधिक विस्तृत नहीं है। न ही इनमें पत्रों की संख्या अधिक है, फिर भी इनमें पाठकों को अद्भूत रसात्मकता मिलती है।

उपन्यास का कथानक जीवन के विभिन्न पक्षों को व्यक्त करने वाला होता है अतः उसमें उस उपन्यास की मूल संवेदना को विशेष रूप से प्रकट किया जाना चाहिए। उपन्यास के कथानक के माध्यम से उपन्यासकार अपने जीवन के विभिन्न अनुभवों को व्यक्त करता है। लेखक को इसके कथानक में अपने अनुभव तथा उपन्यास के पात्रों द्वारा बताई जा रही कथा में उचित सामांजस्य रखना चाहिए। अतः कथानक में सूत्रबद्धता का ध्यान रखना आवश्यक होता है। इसमें घटनाओं का सृजन उपन्यास के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही किया जाना चाहिए। प्रभाव शून्य तथा महत्त्वहीन घटनाओं के सृजन से उपन्यास का स्तर घटता है। अतः उपन्यासकार को इनसे बचना चाहिए। कथानक के संगठन में विभिन्न घटनाओं में समय तत्त्व का संतुलन होना चाहिए।

इसके साथ ही कथावस्तु का प्रारंभ, मध्य और अंत में एकरूपता होनी आवश्यक होती है। जीवन के किसी भी क्षेत्र से लिया गया कथावस्तु का विषय, लेखक को अपने कौशल से एक विलक्षण और रोचक रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।

पात्र एवं चरित्र-चित्रण : उपन्यास की कथा का विकास उसके विभिन्न पात्रों के माध्यम से ही होता है। उपन्यास के नायक के साथ-साथ अन्य गौण एवं सांकेतिक पात्रों का सृजन भी किया जाता है। किंतु वास्तविक उद्देश्य की प्राप्ति का माध्यम नायक को ही बनाया जाना चाहिए, जिससे उपन्यास में सार्थकता उत्पन्न की जा सके।

संवाद : उपन्यास में पात्रों के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाले संवादों का प्रयोग किया जाना चाहिए। प्रसंग के अनुकूल संवादों की योजना से उपन्यास की कथावस्तु में प्रवाह उत्पन्न होता है। विभिन्न घटनाओं को गतिशीलता और अन्तिम रूप भी उचित संवादों के द्वारा हो पाता है। संवाद एक पात्र से दूसरे पात्र में अंतर करते हुए उनके चारित्रिक गुणों और अवगुणों पर प्रकाश डालते हैं।

परिवेश : उपन्यास में परिवेश का चित्रण एक विस्तृत धरातल पर सांस्कृतिक विरासत को व्यक्त करने वाला साबित हो पाता है। उपन्यास का कलेवर बड़ा होता है अतः उसमें विभिन्न रीति रिवाजों और त्यौहारों को वास्तविक रूप से जीवंतता प्रदान की जा सकती है। परंतु अब इसके कुछ अपवाद भी मिलते हैं। उदाहरण- ‘अपने-अपने अजनवी’।

भाषा-शैली : भाषा शैली के स्तर पर उपन्यास में सरल, जटिल और व्यंग्यपूर्ण हर प्रकार की भाषा के प्रयोग की गुंजाइश रहती है। पात्रों द्वारा किसी प्रतिनायक के विषय में कहे गए कटु शब्द और फिर प्रतिनायक द्वारा दिए गए प्रत्युत्तर को लेखक विशिष्ट शब्दावली में उपन्यास में प्रयोग कर सकता है।

उद्देश्य : उपन्यास का उद्देश्य प्रमुख रूप से एक और उसको पूर्ण करते हुए अन्य उद्देश्य की पूर्ति भी होनी चाहिए। उदाहरण के लिए मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ टूटते परिवार के बीच फंसे बच्चे की मनोदशा का वर्णन बहुत मार्मिक तरीके से करता है।

लघुकथा

जब हमारे सामने यह शब्द आता है तो इससे यह अर्थ लगाया जाता है कि यह कहानी की छोटी विधा है जो कि गलत है। यह स्वयं में एक स्वतंत्र विधा है।

कथेतर रूप

आधुनिक काल में गद्य साहित्य विशेष रूप से लोकप्रिय रहा है। गद्य साहित्य में कथात्मक रूप के अतिरिक्त कुछ ऐसी गद्य विधाओं का भी आरंभ हुआ जिनमें कथा से हटकर विचारात्मकता एवं उसमें बताई जानेवाली जानकारियाँ दर्शनीय हैं। ये कथेतर विधाएं या तो कथात्मक विधाओं की समीक्षा के रूप में मिलती है, अथवा किसी साक्षात्कार और भेंटवार्ता के रूप में।

रिपोर्ताज

हम किसी भी घटना को हमेशा काल्पनिक कथा के रूप में नहीं दिखा सकते। अतः रिपोर्ताज किसी घटना के कलात्मक प्रस्तुतीकरण को माना जाता है। जब किसी घटना को ज्यों का त्यों विवरणात्मक रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है तो उसे ‘रिपोर्ट’ का नाम दिया जाता है और जब लेखक अपनी रचनात्मकता से उस घटना को प्रभावशाली ढंग से चित्रित करता है तो वही घटना एक मनोरम रूप में पाठकों के समक्ष आती है। रिपोर्ताज के अंतर्गत निम्नलिखित तत्व शामिल किए जाते हैं-

यथार्थ चित्रण : रिपोर्ताज में किसी घटना की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति करनी होती है। रचनाकार किसी उत्सव को, मेले को, बाढ़ को, हर सुख दुख को देखता है और उसका प्रभावशाली ढंग से वर्णन करता है इससे पाठक के मन और आँखों के सामने वह घटना प्रत्यक्ष हो उठती है।

प्रभावशीलता : रिपोर्ताज में लेखक को अपने लेखन कौशल से प्रभावशीलता डालनी पड़ती है अन्यथ वह मात्र घटना का ब्यौरेवार चित्रण रह जाता है। इसमें लेखक चित्रमयी भाषा शैली का ऐसा विशिष्ट संयोजन करता है कि पूरा दृश्य पाठक के सामने साकार हो उठता है।

समसामयिकता : रिपोर्ताज उसी समय के आसपास लिखे जाने चाहिए जिस समय वह घटना घटित हुई हो। इसके बार उस घटना का उतना सजीव प्रभाव नहीं पड़ पाता। क्योंकि आज के समय में त्वरित गति से नवीन घटनाएँ घटती रहती है।

वैयक्तिकता : लेखक घटना से इतना जुड़ जाता है कि वह उसका एक अभिन्न अंग बन जाता है और उसे उसी का एक हिस्सा बनकर कुशलता से वर्णित करता है।

घटना से संबद्ध परिवेश : रिपोर्ताज में विवेचित की गई घटना से संबंधित परिवेश का प्रभावपूर्ण चित्रण करता है। इसमें लेखक असत्य नहीं किंतु कुछ अपने कल्पना कौशल का भी प्रयोग करता है।

इस प्रकार अभिव्यक्ति के गद्य में कई सारे रूप होते हैं जिसमें से एक रिपोर्ताज होता है।

लेख

किसी एक विषय को आधार बनाकर लिखी गई मौलिक गद्यात्मक रचना लेख कहलाती है। लेख के अंतर्गत विषय के अनुरूप शोधपरक कार्य होता है। जिसमे प्रमाणिकता की अपेक्षा भी की जाती है। इसके साथ ही वाक्यों की सरलता एवं संक्षिप्तता इसमें होनी चाहिए। लेख में विचारों की तारतम्यता के साथ नवीनता का होना भी आवश्यक होता है। तथ्यों की पुनरावृत्ति और असंबद्धता लेख में दुरूहता उत्पन्न करती है। अतः इससे बचना चाहिए। लेख में प्रारंभिक प्रस्तावना एवं उपसंहार स्वरूप समग्रता में सावधानी बरतनी चाहिए यह पूरे लेख की मूलभूत विशेषता बनकर आती है। इसके साथ ही अनुच्छेदों में आकार के अनुसार अधिक भावों का समायोजन नहीं किया जाना चाहिए। यदि किसी बात में संदिग्धता हो तो अनुमानतः उसे लेख में नहीं डालना चाहिए। विषयवस्तु के स्पष्टीकरण के लिए लेख में उदाहरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

लेख में विभिन्न भावों का श्रृंखलाबद्ध और रोचक ढंग से विवरण प्रस्तुत किया जाना चाहिए, यदि कहीं आंकड़ों के प्रस्तुतीकरण की अपेक्षा हो तो संक्षेप में उनका भी प्रयोग किया जा सकता है। लेख के अंतर्गत दो विरोधी बातों की चर्चा नहीं करनी चाहिए। लेख में अधिक विस्तार नहीं देना चाहिए, यदि हम अपनी ही बात को कहीं नकार देते हैं तब उसका पुनः स्पष्टीकरण देना लेखक की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न लगाता है।

लेख के आवश्यक तत्त्व :

लेख लिखते समय भी हमें कुछ तत्त्वों का ध्यान रखना होता है जो निम्नलिखित हैं-

सामग्री संकलन :

किसी भी लेख लिखने के लिए आवश्यक और सही सामग्री का संचयन महत्वपूर्ण। एक अच्छे लेख लिखने हेतु लेखक को विभिन्न विशेषज्ञों के अधिक से अधिक विचारों और सुझावों का अध्ययन करना चाहिए। इस सामग्री संकलन से लेखक को नई-नई बातों का पता लगाता है। इसके साथ ही उन्हें आँकड़े इकट्ठे करने तथा प्रामाणिकता देने के सुविधा होती है।

भाषा की विशिष्टता :

लेखक अपनी भाषा में विशिष्ट शैली का प्रयोग करे और उसे प्रकाशन योग्य बनाए। लेख या तो समाचार पत्रों में छपते हैं अथवा पत्रिकाओं में इसके अलावा इनके संकलन को अलग से पुस्तकीय रूप में भी प्रकाशित किया जा सकता है। अतः लेखक को अपने विचारों को उसी के दृष्टिकोण से भी सुबोध भाषा शैली में प्रस्तुत करना चाहिए। इस भाषा में पाठकों की उत्सुकता को भी ध्यान में रखना चाहिए।

चित्रों का प्रयोग :

चित्र किसी भी लेख के प्रति ध्यान आकर्षित करते हैं। लेख दो प्रकार के हो सकते हैं-एक वे लेख होते हैं जिनमें चित्रों का उपयोग लेखक प्रायः नहीं करते और कुछ अन्य लेखों में विषय से संबधित उपयोगी चित्रों का प्रयोग सार्थक रहता है। इन चित्रों के समावेश में से लेख की उपयोगिता में अभिवृद्धि होती है।

आँकड़ों का उचित प्रयोग :

किसी भी लेख में सही आँकड़ों का प्रयोग बहुत जरूरी है। ये आँकड़े अलग-अलग ग्राफिक तस्वीरों के माध्यम से दिखाए जाने चाहिए।

अनुच्छेद प्रयोग :

अनुच्छेदों का प्रयोग विचारों की नवीनता के लिए एक अलग उपयोगी प्रवृत्ति प्रदर्शित करने में सहायक होता है। एक दृष्टिकोण पर विचार कर लेने के उपरांत जब किसी नई बात की शुरूआत करनी होती है तो नए अनुच्छेद का प्रयोग किया जाना चाहिए।

समकालीन विषय :

लेख में कोरी गप्प का कोई ध्यान नहीं होता है। अतः विचारों के संगठन को यदि समकालीन विषयों से जोड़ा जाए तो ज्यादा उपयोगितापरक होता है। इससे उस लेख के पढ़ने वालों की संख्या में भी अभिवृद्धि होती है और उसे दैनिक समाचार पत्रों में छापना भी आसान होता है।

शीर्षक की सर्तकता :

लेख का आधार उसके शीर्षक में छिपा हुआ होता है। पाठक को लेख के शीर्षक से यह अनुमान हो जाता है कि वह किस विषय को आगे प्रसारित करने वाला है। शीर्षक पाठक को यह निर्णय लेने में भी सहयोग देता है। कि उसे समयाभाव में कि लेख को पहले पढ़ना चाहिए।

आगामी समाधान स्वरूप लेख :

लेख में केवल समस्याओं पर विचार करना उसमें रोचक ढंग से उन्हें व्यक्त करना ही शामिल नहीं किया जाना चाहिए। इसके साथ ही लेखक को अपने लेख में समाधान स्वरूप विचार भी लिखने चाहिए। यदि कुछ प्रश्नों को लेखक पाठकों से पूछने का अधिकार रखता है तब उसके संभावित उत्तरों की रचना भी लेख में डालनी चाहिए।

पूरिपूर्णता :

लेख अपने आप में परिपूर्णता लिए हुए होना चाहिए। उसे पढ़कर पाठक को लगना चाहिए कि जिस विचार की श्रृंखला को उन्होंने पढ़ा है वह अपने आप में एक पूर्ण लेख था। उसमें किसी अधूरेपन अथवा किसी आशागत प्रश्न पर लेख को समाप्त नहीं कर देना चाहिए। जहाँ तक संभव हो जिस प्रकार लेख का प्रारंभ पाठक को आगे तक तो जाने की उत्सुकता बढ़ाने वाला होता है वैसे ही उसका अंत भी संतोषप्रद होना चाहिए।

समीक्षा

किसी घटना, पुस्तक इत्यादि का निष्पक्ष रूप से विश्लेषण करना समीक्षा कहलाता है। हालाँकि यह बहुत दुष्कर कार्य है कि लेखक अपने पूर्वाग्रहों से स्वतंत्र हो सकें अतः नकारात्मक पक्ष के लिए समीक्षक के पास उचित प्रमाणिक तर्क होने चाहिए और उनके स्पष्टीकरण की उचित क्षमता होनी चाहिए। एक समीक्षक उदाहरण को भी अपनी समीक्षा में प्रयोग कर सकता है। उसकी भाषा शैली में जटिलता नहीं होनी चाहिए। किसी अन्य लेखक की पुस्तक की समीक्षा को स्पष्ट रूप से एक-एक विचार का क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

समाचार

कथेतर विधाओं में समाचार भी एक रूप के अंतर्गत लिया जा सकता है। समाचार लेखक सूचना को उचित शीर्षक के साथ समसामयिक घटनाओं के रूप में उसे प्रस्तुत करता है। इनमें नवीनता और संक्षिप्तता का होना आवश्यक होता है।

डायरी

किसी व्यक्ति द्वारा अपने नित्य जीवन के अनुभवों और घटनाओं को तिथियों का उल्लेख करते हुए लिखे जाना डायरी लेखन के रूप में जाना जाता है। इनमें वह। घटनाएं शामिल होती हैं जो उसके जीवन में घटित होती हैं या फिर किस घटना पर। वह अपने नजरिए को लिखता है। डायरी हालाकि अंग्रेजी शब्द है जो लैटिन के ‘डायस’ शब्द से उद्भूत हुआ है। हिन्दी में अनेक शब्द जैसे ‘दैनदिनी’, ‘दिनचर्या’।

‘वासुरी’ ‘वासुरिका’ और ‘दैनिकी’ शब्दों का प्रयोग किया जाता है। हिन्दी साहित्य में यह एक आधुनिक विधा के रूप में जाना जाता है। डायरी किसी भी लेखक के जीवन के विषय में सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है। डायरी लेखन का उद्देश्य सामान्यतः यह नहीं होता है कि इसे प्रकाशित किया जाए। यह आत्मकथा कर बहुत नजदीक विधा होती है। अनेक लेखकों ने डायरी विद्या के रूप में उपन्यास भी लिखे और आत्मकथा भी। परंतु शुद्ध रूप से डायरी विधा उसी को माना जाता है जिसमें लेखक तारीख के साथ घटनाओं को या विचारों को लिखता है। वास्तव में यह एक व्यक्तिगत विघा और दस्तावेज है। इसमें लिखे गए विचार लेखक के अत्यंत निजी भी हो सकते हैं। इसके माध्यम से किसी लेखक को आंतरिक और बाह्य दोनों रूपों में समझा जा सकता है।

“डायरी सीमित अर्थ में तो कॉपी नोटबुक या पुस्तिका है, जिसमें हर रोज की घटनाओं का या दिन भर में किए गए कार्यों का लेखा रखा जाए पर प्रचलित अर्थ में डायरी दैनिक व्यापारों या घटनाओं का ब्यौरा है। डायरी में लोग अपने कुछ या सब अनुभवों तथा निरीक्षणों का दैनिक विवरण रखते हैं।” (हिंदी साहित्य कोश, भाग-1)

हर व्यक्ति अपने प्रतिदिन की छोटी-बड़ी घटनाओं को समाज के सामने नहीं लाना चाहता। डायरी में उसकी ‘निजी’ बातें होती है। यही कारण है कि डायरी प्रायः अपने मूल में प्रकाशित न होकर संपादित रूप में प्रकाशित होती रही है।

डायरी लेखन के अंतर्मन को प्रदर्शित करती है अतः इसमें संबद्धता, संगति, शिल्पगत कतात्मकता आदि का विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत आत्मीयता होती है। इसमें लेखक के जीवन से जुड़ी संवेदनाएँ होती हैं। कभी-कभी व्यक्ति जब अपने जीवन में कुछ असफलताओं का सामना करता है तथा भावनात्मक रूप से कमजोर महसूस करता है तब डायरी में भी हमें उनके उसी प्रकार के अनुभव पढ़ने के लिए मिल सकते हैं। दिनकर जी की डायरी का एक उदाहरण इस तथ्य को स्पष्ट करता है-

“मैं बहुत बेचैन हूँ। चाहता हूँ कि कोई कान में कह दे, तुम बेचैन क्यों हो? कुछ भी नहीं हुआ।” यह दिनकर जी ने बेटियों के विवाह के समय, दहेज की चिंता करते हुए लिखा। इसी प्रकार बच्चन की ‘प्रवास की डायरी’ जय प्रकाश नारायण की ‘मेरी जेल की डायरी’ हिन्दी साहित्य में डायरी विधा में कुछ प्रमुख डायरियाँ मिलती है।

इस प्रकार डायरी से पाठकों को इस बात की जानकारी भी मिलती है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह साधारण जन हो या बड़ा विद्वान सुख-दुःख हरेक के जीवन का हिस्सा होते हैं ।कुछ महान व्यक्तित्व अपने प्रतिदिन के अनुभवों और कार्यों को लेखनीबद्ध करते चलते हैं। इनको किसी अन्य लेखक द्वारा अथवा उसी महान हस्ती द्वारा संपादित करवाकर पाठकों तक पहुंचाया जाता है। इसे डायरी कहा जाता है। इससे हम किसी विशिष्ट व्यक्ति को निकट से जान सकते हैं।

वृत्तचित्र

वृत्तचित्र से अभिप्राय होता है किसी स्थान पर प्रत्यक्ष रूप से जाकर उसका यथार्थ चित्रण करना। इसमें सत्य घटना, सूचना को मनोरंजन की अपेक्षा शैक्षिक और सूचनाप्रद तरीके से प्रस्तुत किया जाता है।

वृत्त चित्र वह विधा होती है जो किसी सत्य घटना, सूचना, या परिस्थिति पर आधारित होती है। इसका प्रमुख उद्देश्य मनोरंजक करने की अपेक्षा उस व्यक्ति या घटना के विषय में शिक्षा और सूचना देना होता है जिसका वह वृत्तचित्र होता है।

जब वृत्तचित्र में दृश्यों की सहायता ली जाती है तो उसे टेलीविजन वृत्तचित्र कहा जाता है। रेडियौ वृत्तचित्र को रेडियो रूपक भी माना जा सकता है।

वृत्तचित्र में निम्नलिखित बातों को शामिल किया जाना चाहिए-

  • उद्देश्य- वृत्तचित्र लेखन के पूर्व लेखक को इस बात को स्पष्ट कर लेना चाहिए कि वृतचित्र किस पर आधारित होगा तथा उसका उद्देश्य क्या होगा। दूसरे शब्दों में हम इसे विषय का निर्धारण भी कह सकते हैं।
  • अवधि- इसके उपरांत लेखक को यह देखना पड़ता है कि वृत्तचित्र कितने समय में पूर्ण हो जाएगा अर्थात् यह कितना बड़ा होगा। प्रायः वृत्तचित्र की अवधि उसकी प्रस्तुति से जुड़ी होती है और यह लेखक अन्य विषय विशेषज्ञों से विचार विमर्श कर भी निर्धारित कर सकता है।
  • विश्वसनीयता- वृत्तचित्र में तत्त्वों का शोध किया जाता है कि ये सही है अथवा नहीं। इसमें कल्पनाशीलता भी होती है लेकिन सत्यता इसका सर्वप्रथम आधार होता है।
  • भाषा शैली- वृत्तचित्र की भाषा का विशेष महत्त्व होता है। दूरदर्शन पर जब वृत्तचित्र को दिखाया जाता है तब उसमें साथ में दृश्यों का विधान भी होता है ऐसे में जब दर्शकों को कोई चीज दिख रही है तो उसमें अनावश्यक विद्वतापूर्ण शब्दों को नहीं डाला जाना चाहिए। दृश्य और शब्दों में उचित सामान्जस्य वृत्तचित्र में बहुत आवश्यक होता है। दृश्यों के विषय में साथ-साथ जानकारी प्रदान करना ही वृत्तचित्र का प्रमुख उद्देश्य होता है इसके लिए वह (वृत्तचित्र लेखक) अपने विषय में अथवा अन्य विषय के बारे में बीच में बात नहीं कर सकता।
  • तकनीकी ज्ञान- वृत्तचित्र के लिए लेखक को विभिन्न तकनीकों की जानकारी आवश्यक है उदाहरण के लिए जिस स्थान की वह वृत्तचित्र में जानकारी देना चाहता है उस पर कैमरा की टीम भेजी जा सकती है अथवा नहीं। यदि कैमरा टीम उस स्थान पर भेजी भी जाए तो उनकी व्यवस्था में आर्थिक खर्चा कितना होगा। एकत्रित दृश्यों का क्रमबद्ध रूप किस तरह से प्रस्तुत किया जाएगा। कमैंट्री के साथ-साथ लोगों को बोलते दिखाया जा सकता है। अथवा उनके बोल रूपांतरित कर वृत्तचित्र लेखन में लिखने हैं। लघुगीत भी डाले जा सकते हैं अथवा फ्लैश बैक से किसी वाद्य यंत्र की ध्वनि सुनाई जा सकती। इन सब तकनीकों की जानकारी वृत्तचित्र लेखक को पहले ही होनी चाहिए।

वृत्तचित्र में तथ्यों की सत्यता अति आवश्यक होती है। इसके साथ विभिन्न प्रमाणिक चित्रों का प्रयोग और स्पष्ट व सरल भाषा शैली।

इस प्रकार अभिव्यक्ति का माध्यम केवल कथा के द्वारा ही नहीं अपितु अन्य रूपों में भी होता है। इनसे भी रोचक तरीके से पाठकों और दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है।

पद्य

प्राचीन कल में जब लेखन के रूप में सबसे पहले पद्य का उद्भव हुआ तब से लेकर आज तक अभिव्यक्ति के लिए सबसे सशक्त माध्यम के रूप में पद्य का उदय हुआ। आदिकवि वाल्मीकि की पहली कविता भी उतनी ही अधिक सशक्त थी जितनी आज की कविताएं हैं। संत कबीर ने इतने पुराने समय से संबंधित होते हुए भी एक समाज सुधारक के रूप में अपनी बातों को सामान्य जन मानस तक अपनी पद्यात्मक पंक्तियों में पहुंचाया-

“बकरी पाती खात है ताकि काढ़ी खाल
जे नर बकरी खात है ताको कौन हवाल”

सूरदास ने अपनी करूणा से परिपूर्ण वाणी में श्री कृष्ण के लिए गोपियों का संदेश देते हुए लिखा है-

“संदेसो देवकी सो कहियो।
हौं धाय तिहारे सुत की दया करत ही रहियो।”

तुलसीदास ने अपनी अनन्य भक्ति को पद्यात्मक रूप में प्रकट करते हुए कहा है-

“सियाराम मय सब जग जानी।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी॥”

आधुनिक समय में अपनी बातों को विभिन्न कवियों ने विशिष्ट कविता में पिरोकर पाठकों तक पहुंचाया है।

जयशंकर प्रसाद के काव्य ‘आँसू’ का उदाहरण अत्यंत सुंदर और करूण बनकर प्रस्तुत होता है-

इस करूणा कलित हृदय में, अब विकल रागनी बजती।
क्यों हाहाकार स्वरों में, वेदना असीम गरजती॥

अज्ञेय ने व्यक्ति और समाज के रिश्ते को कविता में यूं दर्शाया है-

यह दीप अकेला स्नेह भरा है।

बाबा नागार्जुन ने अपनी प्रखर काव्यमयी पंक्तियों द्वारा अकाल की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है-

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास।
कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उसके पास।।

इस प्रकार पद्य कवियों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ है। प्राचीन से लेकर आधुनिक समय तक करूणा, माधुर्य, शृंगार, ओज इत्यादि सभी गुणों और भावों की सुंदर अभिव्यक्ति काव्य के अंदर मिलती है।

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