मॉडल प्रश्न उत्तर, हिन्दी कविता सेमेस्टर-2, इकाई-2

निम्नलिखित मॉडल प्रश्नोत्तर बी.ए.(ऑनर्स) हिन्दी के सेमेस्टर-2 के पेपर हिन्दी कविता: सगुण भक्तिकाव्य एवं रीतिकालीन काव्य के हैं।
इकाई-2: सूरदास- भ्रमरगीतसार
प्रश्न-2. सूरदास के भ्रमरगीत की काव्य संरचना। शिल्प/स्थापत्य/रचना विधान/काव्य रूपात्मकता पर प्रकाश डालिये।
उत्तर- सूरदास जी भ्रमरगीत में भावसजगता हीं नहीं शिल्पसजगता का भी परिचय देते हैं। सूरदास भ्रमरगीत में अनुभूति और अभिव्यक्ति का संतुलन कहीं बिखरने नहीं देते हैं। कुछ आलोचक इसे प्रगीत मुक्तकों का संग्रह मानते हैं तो कुछ आलोचक इसे खण्डकाव्य भी मानते हैं। खण्ड काव्य के रूप में भी यह किसी दृष्टि में उपालंब काव्य है, तो किसी की दृष्टि में प्रतीक काव्य। कोई इसे दूत काव्य कहता है तो कोई इसे वाद-विवाद मूलक काव्य। इस काव्य के बारे में भिन्न-भिन्न राय इसलिए है कि कवि ने विभिन्न काव्य प्रकारों और शिल्प प्रविधियों को आत्मसात कर इसे बहुरूपात्मक बना दिया है।
भ्रमरगीत के पदों में एक छिन सा कथाक्रम है। उसका एक पद भले ही तुरन्त बाद के पद से कथात्मक संगति अवध्य बनती है इसी कारण भ्रमरगीत के विभिन्न पद कथात्मक कड़ी की तरह दिखते हैं। इससे उक सुसंगत कथा भी उभरती है। कथा की शुरुआत कृष्ण द्वारा उद्धव को संदेश लेकर मथुरा भेजने से होती है। कृष्ण कहते हैं-
“सुख-संदेश सुनाय हमारो गोपिन को दुख मेटियों।”
उद्धव गोकुल पहुँचकर पहले नंद यशोदा से कृष्ण का संदेश सुनाते हैं और फिर गोपियों से यह विषय प्रतिपादन करते हैं। गोपियाँ पहले तो संदेश सुनेर चकरा सी जाती है लेकिन अभिप्राय समझकर वे भौरे के बहाने उद्धव कृष्ण और मथुरावासियों को तरह-तरह की आहना देती हैं।
गोपियों की भाव तल्लीनता, रसमयता, एकनिष्ठता देखकर उद्धव पिघल जाते हैं। उन्हें अपने ज्ञान और योग के मिथ्यात्व का आभास होता है फिर वे निर्गुण छोड़कर सगुण का चेला हो जाते हैं ‘भयो सगुन को चेरो!’ वे मथुरा लौटकर कृष्ण को गोपियों की विरह दशा से परिचित कराते हैं। कृष्ण भी कुरुक्षेत्र के मेले में गोपियों को दर्शन देने का आश्वासन देते हैं। चूँकि इसमें भूमिका, विषय प्रतिपादन इस परिपाक और उपसंहार है इसलिए एक खण्डकाव्य है। इसमें चरितों का घात प्रतिघात भी है और एक कथात्मक उद्देश्य भी हैं। इस कारण खण्डकाव्य के रूप में इसकी सफलता असंदिग्ध है।
भ्रमरगीत प्रगीतात्मक है। प्रगीत में कवि अपनी भावाकुलता लेकर आता है। प्रगीतों में कथा प्रायः नहीं होती उसमें होती है अविरल अनुभूतियाँ भ्रमरगीत में कवि का अविरल भाव उसकी निजता के साथ प्रकट हुआ है। दूसरी यह है कि भ्रमरगीत के हर पद में कवि शुरु में ही एक टेक पंक्ति रखता है। इस टेक पंक्ति में ही गीत का सार निच्छेपित होता है। गीत की शेष पंक्तियाँ विभिन्न दृष्टांतों से टेक पंक्ति के सार को ही सत्यापित करती हैं। लेकिन हर जगह शेष पंक्ति टेक पंक्ति की व्याख्या ही प्रमाणित नहीं होती। कवि ने कहीं-कहीं विच्छेद पैदा कर दिया है- ‘हम तौ कान्ह केलि की भूखी’ वाले पद से अन्तिम दो पंक्तियाँ इस टेक पंक्ति के साथ अपना अविछिन्न संबंध प्रदर्शित नहीं करती। इस विचलन या विच्छेप के द्वारा ही सूरदास जी एक पद को दूसरे पद के साथ जोड़ते हैं उनमें कथात्मक संगति बनाते है। सूरदास जी ने हर पद को किसी न किसी राग और रागिनी में बाँधा है, इसी कारण उनका भ्रमरगीत सिर्फ विरह का काव्य नहीं है, राग रागिनियों का भी काव्य है। भ्रमरगीत एक दूत काव्य है। दूत काव्य में दूतत्व का प्रयोजन कुछ भी हो सकता है लेकिन आम-तौर पर प्रेमी-प्रेमिका का मिलन नियोजित करने के प्रयोजन से बंधकर दूतत्व रूढ़ हो जाता है। भ्रमरगीत में दूत काव्य के तत्त्वों का उपयोग तो है लेकिन दूत काव्य की रूढ़ियों का पूर्ण अनुपालन नहीं है। सूरदास जी ने विरह शृंगार में भी दूतत्व को अपने ढंग से नियोजित किया है यह ठीक है कि उद्धव गोपियों के लिए अपेक्षित संदेश नहीं लाते और न ही उनके लाये संदेश से मिलन आयोजित होता हैं। लेकिन यह भी तो सही है कि उद्धव के आने पर ही गोपियों की श्याम स्मृति सजग हो जाती है।
भ्रमरगीत प्रतीक काव्य भी है। कृष्ण ब्रह्म है गोपियाँ जीवात्माएँ हैं, गोपियाँ भी राध यदि आत्मा हैं तो बाँसुरी ब्रह्म से जीवात्माओं को मिलाने का साधन हैं। यदि राधा आत्मा है तो शेष गोपियाँ हैं उसकी देह। यही माधुर्य या शृंगार रस में उद्दीपन की भूमिका निभाती है। उद्धव ज्ञानश्री अहंकार के प्रतीक हैं। इस अहंकार से बिना पीछा छुड़ाए ब्रह्म की प्राप्ति संभव नहीं हैं।
इस भ्रमरगीत में भ्रमर कई अर्थों का वाचक है। इसके सारे अर्थ लाक्षणिक है- कृष्ण उद्धव जिसका मति भ्रम को गया हो, जो दूसरों को भ्रम में डालता हो, प्रेमी या पति और व्याभिचारी। भ्रमरगीत में यह भ्रमर सामंती इस लोलुपता का भी प्रती है। यह एक सकल प्रतीक काव्य भी है।