हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

मॉडल प्रश्न उत्तर, हिन्दी कविता सेमेस्टर-2, इकाई-1

0 423

निम्नलिखित मॉडल प्रश्नोत्तर बी.ए.(ऑनर्स) हिन्दी के सेमेस्टर-2 के पेपर हिन्दी कविता: सगुण भक्तिकाव्य एवं रीतिकालीन काव्य के हैं।

इकाई-1: गोस्वामी तुलसीदास: रामचरित मानस (सुंदरकांड)

प्रश्न-2. ‘सुंदरकांड के आधार पर गोस्वामी तुलसीदास के काव्य सौष्ठव का सोदाहरण विवेचन कीजिए।

उत्तर: सुंदरकांड गोस्वामी तुलसीदास जी का प्रमुख काव्य है जी उनकी महाकाव्य रामचारित मानस में स्थान पाता है। यह काव्य प्राचीन भारतीय कथा महकवी वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड पर आधारित है, जिसमें हनुमान जी ने लंका में माता सीता के दर्शन करने के लिए अनेक कार्य किए थे। यह काव्य गोस्वामी तुलसीदास जी की भावुकता, अद्भुत रचनात्मकता और धार्मिक भावनाओं का अद्वितीय परतिबिंब है।
सौन्दर्य के संबंध में तुलसीदास जी ने अपने काव्य में सुंदरकांड के विभिन्न रचनात्मक और भावात्मक पहलुओं को सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है। उन्होंने वर्णनात्मक भाषा, कविताओं व आदर्शवाद के द्वारा सुंदरता का प्प्रतीक बनाने का प्रयास किया है। तुलसीदास जी के द्वारा उपयोग की जाने वाली भाषा सरल, सुविधाजनक और सहज है जो पाठकों को अपनी अनुभूति में सहजता प्रदान करती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भारतीय साहित्य में रचनात्मकता का मापदंड स्थापित किया है। उन्होंने अपने काव्य में कविताएँ, छंद और अलंकारों का विस्तार किया है, जो उनकी रचनाओं को और भी आकर्षक बनाता है। इसके साथ ही उन्होंने भक्ति और प्रेम कि अद्वितीय छवि भी प्रस्तुत की है।

काव्य सौष्ठव: तुलसीदास जी के रामचारित मानस का भाव पक्ष इतना विराट और सघन है कि कला पक्ष गौण हो जाता है, पर भाव पक्ष अगर काव्य की आत्मा है तो कला पक्ष उसका शरीर है। काव्य का चरम लक्ष्य ‘रस-सिद्धि’ होता है। इसके लिए कवि में भाव-प्रवणता एवं भावुकता अपेक्षित है। भाव-प्रवणता तभी सार्थक और सफल होती है जब उसकी सफल और भावपूर्ण अभिव्यक्ति हो। काव्य का यही अभिव्यक्ति पक्ष कला पक्ष अर्थात काव्य सौष्ठव कहलाता है।
तुलसी महान कवि होने के बावजूद अपने काव्यशास्त्र संबंधी अज्ञानता का बार-बार दावा करते हैं और कहते हैं-
“कवि न हौऊँ नहिं वचन प्रवीनू।
सकल कला सब विद्या हीनू।।”
तुलसीदास घोषित रूप से यह मानते हैं कि कविता में शिल्प तभी सार्थक होता है जब वह समुचित के साथ सम्बद्ध हो। वह दावा करते हैं कि राम नाम जैसे सुंदर कथ्य के बिना कविता चाहे जितन सजे पर वह सुंदर नहीं हो सकती। वह कहते हैं-
“अनिति विचित्र सुकवि कृत होऊ।
राम नाम बिनु सोह न होऊ।।”
इन संदर्भों को ध्यान में रखते हुए सुंदरकांड के काव्य सौष्ठव पर दृष्टिपात किया जा सकता है।

  1. काव्यभाषा :- तुलसीदास जी संस्कृत के विद्वान थे, लेकिन भक्तिकाव्य के अन्य काव्यों की तरह उनका भाषा चयन भो लोकबद्धता का प्रतिनिधित्व करता है। जहां उन्होंने ‘ब्रजभाषा’ और ‘अवधी’ का चयन अपनी काव्य भाषा के रूप में किया, ‘रामचरित मानस’ की भाषा अवधी है। ‘सुंदरकांड’ स्वाभाविक रूप से ‘अवधी’ में रचित है।
  2. रचना विधान :- सुंदरकांड का रचना विधान पारंपरिक वर्णन क्रम से सम्बद्ध रामचरित मानस के अंग के रूप में होते हुए भी वैशिष्ट्य कि दृष्टि से पृथक अस्तित्व रखता है। प्रारंभ में हनुमान के उत्साह का आलंकारिक वर्णन अतिशयोक्ति से विशेष रूप से जुड़ा है। अतिशयोक्ति और अंयुक्ति के अनेक रूप इन प्रारम्भिक अंशों में दिखाई पड़ते हैं।
    “जेहि गिरि चरन देऊ हनुमंता।
    चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।”
  3. बिंबात्मकता :- बिंबात्मकता से काव्य ऐच्छिक अनुभूतियों में बदल जाता है और भाव को गहराई से प्रभावित करता है। तुलसी के समय यह शास्त्रीय आधार नहीं था यह आधुनिक काव्य शैली में गिनी जाती है तथापि तुलसी के काव्य में सर्वत्र इसे देखा जा सकता है। उदाहरण-
    “सहि अक न भार उदार अहिपति बार बारहिं ओहई।
    गह दसन पुनि-पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो कियि सोहई।।”
  4. छंद-विधान :- सुंदरकांड में भी रामचरित मानस के अन्य कांडों की तरह चौपाई और दोहा छंद की ही प्रस्तुति हुई है।
    उदाहरण-
    चौपाई:-
    “जलनिधि रघुपति दूत विचारी।
    तैं मैनाक होंहि श्रम हारी।।”
    दोहा:-
    “राम काज सब करिह हु तुम बाल बुद्धि निदान।
    आसिष देई गई सो हराषि चलेउ हनुमान।।”
  5. प्रतीकात्मकता :- काव्य में कम शब्दों में अधिक बात कहने के लिए कवि प्रतीकों का प्रयोग करते हैं। इससे काव्य में सरगर्भीकता का गुण पैदा होता है। तुलसी बहुसंख्यक समाज के लिए काव्य रचना कर रहे थे। इसलिए वह लोक के प्रासंगिक प्रतीकों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे थे। जब श्री राम ने समुद्र जल से अभिशक्ति कर विभीषण का राजतिलक किया तब तुलसी इस घटना पर अपनी टिप्पणी करते हुए दोहा लिखते हैं जो कि प्रतीकात्मक दोहा है-
    “अस प्रभु छांड़ि भजहि जे आना।
    ते पर पसु बिनु पुच बिषाना।।
    निज जन जानि ताहि अपनावा।
    प्रभु सुमाउ कपि कुल मत आना।।”

निष्कर्षतः कवि सुंदरकांड के प्रसंगों को संस्कृत काव्य परंपरा के लालित्य विधान से जोड़कर उसे मर्म द्रावक बनाने की एक ओर चेष्टा करता है, तो दूसरी ओर अनिष्टय कि भावात्मक भाव दृष्टि से उसे अभिसक्ति करके सामान्य जन के लिए सर्वथा ग्राह्य बनाता है। इस प्रकार सुंदकांड अभिजात्य के लालित्य विधान एवं मध्यकालीन भक्तिवासना के समवेत सृजन की अभिव्यक्ति है।

Leave A Reply

Your email address will not be published.