हिंदी साहित्य की ओर एक कदम।

मॉडल प्रश्न उत्तर, हिन्दी कविता सेमेस्टर-2, इकाई-2

0 352

निम्नलिखित मॉडल प्रश्नोत्तर बी.ए.(ऑनर्स) हिन्दी के सेमेस्टर-2 के पेपर हिन्दी कविता: सगुण भक्तिकाव्य एवं रीतिकालीन काव्य के हैं।

इकाई-2: सूरदास- भ्रमरगीतसार

प्रश्न-1. भ्रमरगीतसार का उद्देश्य। दार्शनिक एवं साहित्यिक पक्ष की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-  सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ के दो पक्ष हैं- दार्शनिक पक्ष और साहित्यिक पक्ष। दार्शनिक दृष्टि से इसके प्रत्येक पात्र, स्थान और घटना एक-एक आध्यात्मिक तत्त्व हैं। कृष्ण ब्रह्म है, गोपियाँ जीवात्माएँ हैं, गोपियों की विरह-वेदना ब्रह्म के लिए आत्मा की पुकार हैं और उद्धव उस ज्ञानअभिमान के प्रतीक हैं जिससे पीछा छुड़ाकर ही ईश्वर को पाया जा सकता है।        

‘भ्रमरगीत’ के साहित्यिक पक्ष में भाव व्यंजना, रस परिपाक एवं अलंकार चमत्कार का अनूठा सामंजस्य हैं। भ्रमरगीत-रचना का उद्देश्य कृष्ण द्वारा उद्धव को ब्रज भेजने के उद्देश्य से जुड़ा है। कृष्ण उद्धव को ब्रज भेजते समय कहते हैं-

“सुख-संदेश सुनाय हमारो गोपिन को दुख मेटियो।”         

इसी बहाने कृष्ण भी यह चाहते हैं कि उद्धव के योग-नीरस हृदय को प्रेम भक्ति से सिंचा जा सके। तीसरा उद्देश्य ब्रजवासियों की दशा जानने की उनकी इच्छा भी है। यह कहना स्थिति का सरलीकरण हैं कि भ्रमरगीत निर्गुण पर सगुण की विजय दिखलाने के लिए रचा गया है। दार्शनिक प्रतिपादन को लक्ष्य बनाकर या कथ्य को तर्कजाल में उलझाकर कोई भी महान रचना नहीं रची जा सकती। सूरदास जैसे संवेदनशील कवि से यह चूक हो ही नहीं सकती थी कि वे एक मार्मिक प्रसंग को बौद्धिक जुगाली करते हुए गँवा बैठते। प्रेम की एकान्वित अनुभूतियों को विरह व्यथा के द्वारा उजागर करना ही कवि का मुख्य प्रयोजन हैं। गोपियों के प्रेम के आगे उद्धव ज्ञान एवं योग की तलवार समर्पित कर देते हैं। मर्मस्पर्शी क्षणों की सही पहचान ही भ्रमरगीत की प्रभावान्विति का कारण है और उसी कारण भ्रमरगीत पुष्टि मार्ग का घोषणा पत्र कहलाने से भी बच गया है। निर्गुण और सगुण का विवाद कवि के लिए बस इतना महत्त्व रखता है कि निर्गुण कठिन मार्ग है और सगुण अपेक्षाकृत सरल-

“सब विधि अगम विचारहिं तातै
सूर सगुण लीला पद गावै।”

उद्धव गोपियों के लिए कृष्ण का संदेश लाए है- निर्गुण का ध्यान धरने एवं समाधि लगाने का संदेश। गोपियाँ उनसे व्याख्या की अपेक्षा नहीं करती, बल्कि बिलखने लगती हैं। वे निर्गुण का उत्तर रुदन एवं उद्धव के प्रति अपना गुस्सा जाहिर करके देती हैं। वे कहती हैं कि घर-बार छोड़ने, अंग में भस्म लगाने एवं सिर पर जटा धारण करने की सीख देकर दुःख देने का जैसे उद्धव ने ठेका ले रखा हैं। उद्धव का शरीर दुःख पायी हुई युवतियों के शाप के कारण काला पड़ गया है। फिर भी इन्हें डर नहीं होता।

“ता साराप तै भयो स्याम तन तउ न गहत डर जी कौ।”

यह तर्क का जवाब भावुकता से है। गोपियाँ निराकार को अस्वीकार करती हुई जो तर्क देती है वे भी भावना से ओत-प्रोत है। व्यंग्य-कआक्ष एवं निर्गुण के निषेध द्वारा भी वे अपनी प्रेम का ही इज़हार करती है। वे उद्धव से संतुष्ट नहीं होती। यदि कृष्ण निराकार हैं तो लीलाएँ किसने की? वे पूछती है- निर्गुण किस देश का रहने वाला है? उनके माता-पिता एवं पत्नी के नाम क्या है? निर्गुण कौन देश का वासी है?

“को है जनक जननि को कहित्त, कौन नारि को दासी।
कैसो वरन, भेस है कैसो केहि रस में अभिलासी।।”

गोपियों के विचार से निर्गुण ब्रह्म का कोई आधार नहीं है, न ही उसका कोई निश्चित स्वरूप है। उसकी आकांक्षाएँ एवं निर्देश भी अनिश्चित हैं। इस तरह सब प्रकार से अज्ञान सत्ता की आराधना कैसी हो सकती है। दार्शनिक निष्पत्तियाँ कवि का मुख्य प्रयोजन नहीं है। इसलिए गोपियाँ ज्ञान को मन का बोझ बताकर आगे निकल जाती है। उनकी दृष्टि में निराकार तो मन का लड्डू है, उससे भूख नहीं मिट सकती। यदि भक्ति असली दूध है तो ज्ञान खारे कुएँ का पानी, यदि भक्ति सोना है तो ज्ञान भुस्सी है-

“जाकौ मोक्ष बिचारत, निगम कहत है नेति।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै, मधुप तुम्हारे हेति।।”

ज्ञान चंचन है भक्ति स्थिर है। भक्ति मन का विषय है ज्ञान तर्क का। मन जिससे लग जाता है, तर्क उससे हट नहीं सकता। इसलिए गोपियाँ उद्धव के तर्क के सामने अपना हृदय रख देती है।

“मन में रहयौ नाहिं न ठौर।
नंद-नंदन अछत कैसे आनियै उर और।।

यहाँ ज्ञान और योग का जादू नहीं चल सकता। वे कहती है कि तुम्हारा निराकार ब्रह्म भी हमें स्वीकार्य है, यदि इसके माध्यम से कृष्ण हमें मिल जायें। गोपियाँ तो कृष्ण रूपी डोर के साथ घूमने वाली लट्टू हैं। वे भला योग क्यों सीखें?

“उधौ हमहिं न जोग सिखैये।
जिहि उपदेस मिलै हरि हमकौ, सो व्रत नेम वतैये।।”

 उद्धव ने प्रेम की स्मृतियों को उद्दीप्त कर दिया है। अच्छा ही हुआ कि उद्धव आ गए, नहीं आते तो उनके प्रेम की परीक्षा कैसे होती।

“उधौ भाली भई ब्रज आए
विधि कुलाल कीन्हैं कांचे घट, ते तुम आनि पकाए।
ब्रज करै अँवा जोग ईंधन करि, सुरित आनी सुलझाए।

यहाँ सूर ने साँगरूपक के माध्यम से प्रेम की थाती को चित्रात्मक बना दिया है। प्रेम के बल और विश्वास पर ही गोपियाँ कहती है-

“जोग ठगौरी ब्रज न विकैहें।”

‘भ्रमरगीत’ में “स्याम मुख देखे ही परतीत” कहने वाली गोपियों के समक्ष उद्धव का ज्ञान गर्व धूल चटाने लगता है। विरह के कारण उनकी आँखों से जो अश्रु पनाले बहते हैं, उसमें उद्धव का ज्ञान-योग तिनके की तरह बह जाता है। भ्रमरगीत में गोपियों की भावना का केन्द्रीय बिन्दु उनकी प्रेम भक्ति है। निराकार का खण्डन उनका लक्ष्य नहीं है। इसलिए यहाँ पुष्टिमार्ग का दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया है और यह पुष्टिमार्ग के घोषणा-पत्र कहलाने से बच गया है। यहाँ दर्शन भावभूमि का अंग बनकर आया है, मुख्य जोर तो अनुभूति पर है।

साहित्यिक पक्ष

 ‘भ्रमरगीत’ का साहित्यिक पक्ष अनूठा है। गोपियों की पीड़ा यहाँ क्षोभ, पश्चाताप, वेदना, आशा आदि कई स्थितियों में अभिव्यक्त होती है। भाव की दृष्टि से भ्रमरगीत सार का विषय प्रेम है और सभी दृष्टि से यह विरह शृंगार के अंतर्गत आता है। भ्रमरगीत की गोपियाँ सहृदय हैं। उद्धव से कृष्ण का पत्र पाकर उनमें से कोई पढ़ने की चेष्टा करता है, कोई नेत्रों से छूती है और कोई हृदय से लगा लेती है, पर उसे वे बाँच नहीं पाती। इस पत्र से क्या लेना-देना? गोपियाँ कहती है-

“कोउ ब्रज बाँचत नाहिन पाती,         
कत लियि लिखि पठवत नंद नंदन
कठिन विरह की कांति।”

वे अपना सीधा सच्चा प्रेम देकर उद्धव से योग भी लेना नहीं चाहती है। दूसरी बात मन तो दस-बीस हैं नहीं कि दस-बीस से नेह जोड़ा जाय।

“उधौ मन न भयो दस-बीस
एक हुतो सो गयौ श्याम संग को अवराधै ईस।।”

Leave A Reply

Your email address will not be published.