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भाषा और सामाजिक व्यवहार

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भाषाविज्ञान की अन्य शाखाओं की अपेक्षा समाज भाषा विज्ञान अभी हमारे यहाँ अपने शैशवा काल में ही चल रहा है। कारण यह है जिस प्रकार पश्चिमी देशों, विश्वविद्यालयों में इस विषय पर तेजी से काम हो रहा है उतना अभी हमारे यहाँ नहीं। यहाँ तक की भाषावैज्ञानिकों में भी दो ऐसे वर्ग बने हुए हैं जिससे एक वर्ग भाषा को उसके वैज्ञानिक आधार अर्थात् उसकी संरचना, उत्पत्ति, वाक्य, पदबंध, पदशब्द, ध्वनि आदि के आधार भाषा का विश्लेषण करता है। एक दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो भाषा को उसकी व्यवस्था से अलग उसे व्यावहारिक रूप में जांचता है। वह मानता है कि भाषा का सर्वप्रथम कार्य अपने भावों की अभिव्यक्ति और संप्रेषण करना है। परन्तु ऐसा भी नहीं है कि इन विद्वानों के विचारों में मतभेद न हो। वे समाज भाषाविज्ञान को तीन दृष्टिकोण से देखते हैं। डॉ. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने इस दृष्टिकोणों को इस प्रकार व्याख्यारित किया है।


समाज भाषा विज्ञान के तीन अभिविन्यास समाज भाषाविज्ञान के क्षेत्र में शोधकार्य करने वाले विद्वानों में उसके लक्ष्य को लेकर मतभेद है। आज उसके तीन निश्चित दृष्टिकोण दिखाई देते हैं, जिन्हें निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित करना सम्भव है:

(1) भाषा का समाजशास्त्र
(2) समाजोन्मुख भाषाविज्ञान
(3) समाज भाषाविज्ञान।

भाषा का समाजशास्त्र- भाषा का समाजशास्त्र भाषा के उन प्रश्नों को अध्ययन का लक्ष्य बनाता है। जिसका संबंध समाज एवं उसके संस्थान से रहता है। भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति या माध्यम ही नहीं होती। वह स्वयं में वह कथ्य है जो सामाजिक अस्मिता और द्वेष का कारण बनता है, सामाजिक पद के सूचक के रूप में काम करता है और अन्य सामाजिक वर्गों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण को व्यक्त करता है। भाषा का समाजशास्त्र इन सभी पक्षों का अध्ययन करता है। इसी प्रकार समाज में किस भाषा को राजभाषा बनाया जाए. किसे शिक्षा के माध्यम भाषा के रूप में स्वीकृत किया जाए, आदि नीतिपरक प्रश्नों के साथ-साथ वह भाषा – नियोजन के अन्य पक्षों पर विचार करता है, यथा-मानकीकरण, आधुनिकीकरण आदि। इस क्षेत्र में काम करने वालों में ‘फिशमैन’ का नाम प्रमुख है।

मानक भाषा, भाषा का वह सुव्यवस्थित रूप है जो बृहत् भाषा समुदाय द्वारा स्वीकृत हो, जो भाषा समुदाय के लिए प्रतिष्ठा का विषय हो तथा जो उसके लिए प्रतिमान का काम करे। भाषा का यह मानक रूप ही औपचारिक भाषा रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही राजभाषा साहित्यिक भाषा आदि भाषा रूपों में भी मानक भाषा का प्रयोग किया जाता है। यह मानकीकरण उच्चारण और लेखन दोनों ही स्तरों पर देखा जा सकता है।

प्रो. दिलीप सिंह के अनुसार आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में अनुवाद और
पारिभाषिक शब्दावली की भूमिका प्रमुख होती है। हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली अंग्रेजी शब्द- समूह के अनुवाद से बनी है। जिसमें हिंदी भाषा के शैली-भेद का ध्यान रखा गया है, पुराने अर्थ को नए संदर्भ दिए गए हैं और एक ही शब्द का भिन्न विषय क्षेत्रों में उपयोग के लिए उसे कई अर्थ छवियाँ प्रदान की गई हैं। एक ओर इसमें तत्सम शब्दों को स्वीकारा गया है, जैसे प्रबंधक, मुख्यालय, प्रशिक्षण, रेखांकित, मानक, अधोहस्ताक्षरी, वेग, गति, परागण आदि। दूसरी ओर संकर शब्द रचना की गई है तो तीसरी ओर लोक प्रचलित शब्दों को जगह दी गई है – गेंदबाज, नसबंदी इस्तीफा, भूख हड़ताल घेराबंदी, घेराव, पथराव, खपत, खाता, बही, कर्ज आदि शब्द, अभिव्यक्ति और वाक्य वैशिष्ट्य के आधार पर किसी भी आधुनिक संदर्भ में हम हिंदी की स्वरूपगत विशेषता का विवेचन कर सकते हैं।
भाषा नियोजन का कार्य और तात्पर्य है किसी देश और समाज की भाषा विषयक समस्याओं के लिए समुचित योजना बनाना तथा उसे क्रियान्वित करना। भाषा नियोजन का एक कार्य संरचनागत समस्याओं का निवारण भी है। इसमें प्रमुख है- मानक भाषा के रूप का निर्धारण (मानकीकरण)। फिशमैन (1976) ने इसे पाँच स्तरों पर पूरा करने का प्रारूप दिया है-

(1) व्याकरण की समस्त इकाइयों का मानकीकरण ।
(2) भाषा व्यवहार और भाषा शिक्षण के लिए मानक/अमानक की पहचान।
(3) भिन्न प्रकार के कोश निर्माण में मानक और उसके भेदों का संकेत।
(4) वर्तनी संशोधन और परिवर्तन।
(5) पारिभाषिक शब्दावली निर्माण और उसका निर्धारण।

समाजोन्मुख भाषाविज्ञान- अभिविन्यास के साथ काम करनेवाला विद्वान-वर्ग यह मानता है कि भाषा-भेद का आधार सामाजिक प्रकार्य होता है। वह भाषा को सामाजिक प्रतीक मानते हुए उसका विश्लेषण करता है। इस मत थे मानने वाले भाषा और समाज की संकल्पनाओं को एक-दूसरे के घात-प्रतिघात के रूप में देखते हैं, अतः इनके दृष्टिकोण को घात – प्रतिघातवादी भी कहा जाता है। इस मत के माननेवालों में गम्पर्ज और फर्ग्यूसन का नाम विशेष उल्लेखनीय है।

समाज भाषाविज्ञान- समाज भाषाविज्ञान की धारणा को बढ़ाने वालों में ‘लेबॉव’ का नाम सबसे प्रमुख है। यह वर्ग मानता है कि भाषा और समाज के सम्बन्धों को भाषाविज्ञान के अपने संदर्भ से अलग नहीं किया जा सकता। भाषा स्वयं में एक सामाजिक वस्तु है, अतः उसकी मूल प्रकृति में ही सामाजिक तत्व अंतर्मुक्त होते हैं। ये ही तत्र भाषा को विषमरूपी और विकल्पनयुक्त बनाते हैं भाषा-व्यवहार में प्राप्त इन विकल्पनाओं का अध्ययन भाषा की वास्तविक प्रकृति का उद्घाटन करता है। लेबॉव का यह कथन है कि समाज भाषाविज्ञान ऐसी कोई अलग विधा नहीं मानी जा सकती, क्योंकि समाज भाषाविज्ञान ही तो वास्तविक भाषा विज्ञान है।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि यद्यपि ये तीनों ही शाखाएं भाषा के सामाजिक पक्ष से जुड़ी है परन्तु फिर भी तीनों ही शाखाओं में कुछ न कुछ भेद अवश्य है।

भाषा और समाज एक-दूसरे के पूरक है। भाषा के बिना कोई भी समाज अधूरा है और किसी समाज के बिना भाषा का अस्तित्व डगमगाने लगता है। भाषा का प्रयोग समाज के लिए, समाज द्वारा किया जाता है। हम भाषा के दो रूपों का प्रयोग करते हैं उसके मौखिक रूप का दूसरा भाषा के लिखित रूप था।

भाषा का सर्वप्रथम कार्य है संप्रेषण करना। और इस संप्रेषण को व्यक्ति-विशेष/समाज विशेष अपनी सुविधानुसार तोड़-मरोड़ लेता है। भाषा के लिखित रूप के साथ ऐसा नहीं है भाषा का लिखित रूप मानकीकरण के कारण ज्यों का त्यों ही बना रहता है। यह जरूरी नहीं कि हम जिस समाज में रहते हैं। वहाँ केवल एक भाषा-भाषी समाज ही रहता हो। हमारा देश एक बहु-भाषी देश है। यहाँ विभिन्न धर्म, समुदाय, लिंग, जाति के आधार पर सभी की भाषा में थोड़ा-बहुत अंतर अवश्य दिखलाई पड़ता है साथ ही हमारी भाषा और उसके उच्चारण पर क्षेत्रीय प्रभाव भी देखा जा सकता है। इस प्रकार एक ही समाज में रहते हुए व्यक्ति द्विभाषी, बहुभाषी बन जाता है। भाषा का समाजशास्त्र किसी भी समाज में पाई जाने वाले भाषा के कई रूपों जैसे द्विभाषिकता, बहुभाषिकता, कोड़ परिवर्तन, कोड-अंतरण, डॉयग्लोसिया आदि व्यावहारिक पक्षों का अध्ययन करता है।

समाज के अनुसार ही भाषा बनती और बिगड़ती है । हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज रहा है। यदि हम भाषा के व्याकरण को देखें तो उसमें भी हमें लिंग की यह प्रधानता स्पष्ट दिखाई देती है। हमारे समाज में जितनी गालियाँ दी जाती हैं वे सभी भी लिंग पर आधारित ही है। आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल आदिकालों में पाई जाने वाली शब्दावली में भी यह स्पष्टतः देखा जा सकता है। भाषा अपने समाज को देखकर ही बनती है। कबीर दास ने जो समाज में देखा उसी का वर्णन किया। यदि हमें कबीर के समाज को जानना है तो हम कबीर के साहित्य के माध्यम से उस समाज को आसानी से समझ सकते हैं।

अतः भाषा के समाजशास्त्र से तात्पर्य समाज का भाषा के सन्दर्भ में अध्ययन है। भाषा का समाजशास्त्र इस बात का अध्ययन करता है कि समाज में रहते हुए कौन, किसके कब और किस प्रकार की भाषा का अध्ययन करता है। और किस प्रकार विभिन्न समुदाय के लोग आपस में बात करते हुए भिन्न प्रकार का व्यवहार करते हैं। भाषा का समाजशास्त्र हमें दिखाता है कि एक निश्चित प्रकार की शब्दावली का उसके समाज पर क्या और कैसे प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त एक ही वर्ग विशेष से संबंध रखने के बावजूद किस प्रकार विभिन्न आयु वर्ग के सदस्यों की भाषा में बदलाव आ जाता है। एक बच्चे की भाषा उसके पारिवारिक स्तर और समुदाय के संपर्क में आने के पश्चात् किस प्रकार का प्रभाव ग्रहण करती है आदि का अध्ययन भाषा के समाजशास्त्र में किया जाता है। भाषा का समाजशास्त्र केवल भाषा को ही नहीं बल्कि उस समाज की जड़ों तक पहुँचना चाहता है, जहाँ से उस भाषा ने जन्म लिया है। भाषा का समाजशास्त्र यह देखता है कि हमारी सामाजिक संरचना या हमारे सामाजिक व्यवहार को हमारी भाषाई संरचना किस प्रकार नियंत्रित या निर्धारित करती है। भाषा का समाजशास्त्र द्विभाषिकता, कोड-परिवर्तन, भाषाद्वैत आदि को अपने अध्ययन क्षेत्र के भीतर समेटता है।

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