भाषा और समुदाय
प्रस्तावना:
भाषा से तात्पर्य है वह माध्यम जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है और दूसरे के विचारों को भी जानता है। समुदाय का अर्थ है झुण्ड अथवा एक-सी विशेषता रखने वाले लोगों का समूह।
समाज में रहते हुए व्यक्ति अनेक विषयों से जुड़ा रहता है। धर्म, क्षेत्र, जाति, लिंग, राष्ट्र अथवा राज्य आदि की तरह ही भाषा भी किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की अस्मिता का एक आधार होती है। एक ऐसी पहचान होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समाज का सदस्य अवश्य होता है। समाज में रहते हुए वह उसी भाषा को प्रमुख रूप से सीखता है जिस भाषा – विशेष का वह सदस्य होता है।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में व्यक्ति एक स्थान तक ही सीमित नहीं रह गया है । वह कभी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए, अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए, जीविकोपार्जन के लिए या कभी-कभी किन्हीं अन्य कारणों से भी उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता है। यह आवश्यक नहीं है कि जिस स्थान पर जा रहा है वहाँ उसे अपने भाषा-भाषी ही मिले। अन्य स्थान पर जाने पर उस व्यक्ति और वहाँ के लोगों के बीच एक संबंध स्थापित हो जाता है। यह संबंध केवल औपचारिक स्तर पर ही नहीं होता बल्कि व्यवहारिक स्तर पर भी यह संबंध विकसित हो जाते हैं। यह संबंध भाषा के स्तर पर भी विकसित होता है और इस प्रकार एक संपर्क बोली भाषा का जन्म तथा विकास होता है।
हमारे समाज में राष्ट्रीयता, धर्म, वर्ग, लिंग, उम्र, क्षेत्र और व्यवसाय आदि के आधार पर कई समूह दिखलाई पड़ते हैं। हम एक ही समाज में रहते हुए कई समूहों का हिस्सा बन जाते हैं। इस प्रकार भाषा समुदाय भी ऐसे लोगों का समूह होता है जो एक ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसके मानदण्ड समान हों। उनका शब्दकोश, व्याकरण, उच्चारण- शैली आदि सभी कुछ एक जैसी हो और जिन्हें यह भी मालूम हो कि किन परिस्थितियों में भाषा के किस रूप का प्रयोग करना उचित है। ‘भाषा एक सीमित जनसमुदाय की होती है। एक समुदाय में भाषा और समुदाय के विषय में डॉ. राजनारायण का कहना है कि एक समुदाय में एक भाषा का प्रयोग होता है, दूसरे समुदाय में दूसरी भाषा का एक निश्चित क्षेत्र के लोग किन्हीं कारणों से एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं और वे सब विचार-विनिमय के लिए एक ही प्रकार का माध्यम अपनाते हैं। स्वाभाविक रूप से अपने-आप उनमें यह समझौता हो जाता है कि वे सब आपस में एक सर्वमान्य ध्वनि – समूह और उसकी व्यवस्था को स्वीकार करेंगे और उन सबकी एक भाषा बन जाती है। इसी प्रकार दूसरा समुदाय भी करता है और उसकी भी एक भाषा बन जाती है। इस प्रकार संसार में अनेक समुदायों की अनेक भाषाएँ है। एक समुदाय की भाषा दूसरे समुदाय के लिए पराई होती है; उसमें अपने विचारों को प्रकट करने के लिए उस दूसरी भाषा को सीखना पड़ता है। जबकि अपने समुदाय की भाषा स्वतः आ जाती है। ‘अपने समुदाय की भाषा को ही मातृभाषा कहते हैं ।’
प्रो. दिलीप सिंह के अनुसार ‘ब्लूमफील्ड’ जैसे प्रख्यात भाषाविद् ने काफी पहले (1935) में यह संकेत किया था कि भाषा समाज ही भाषा का नियोक्ता और प्रयोक्ता होता है। उन्होंने दो और बातें भी कही थीं कि भाषा – समुदाय का निर्माण उसके सदस्यों की सहभागिता से होता है तथा एक भाषा समाज के सदस्य समान वाक् संकेतों का प्रयोग करते हैं। बाद में गंपर्ज (1971) ने यह भी प्रमाणित किया कि भाषा समुदाय का एक ही सदस्य विभिन्न परिस्थितियों में भाषा के विभिन्न रूप बोलता है। इन विचारों से यह साफ-साफ प्रतिपादित हो गया कि ‘आदर्श’ या ‘एकरूप’ भाषा – समुदाय की संकल्पना (चॉमस्की 1965) सीमित प्रयोजनों से बंधी है, काल्पनिक है अतः अपर्याप्त है। ऐसा इसलिए कि भाषागत ‘विविधता’ समाज के प्रत्येक सदस्य के स्वभाव में निहित होती है। वह भाषा को नियमबद्ध करके नहीं बोलता बल्कि भाषा के नियमों को वाक् के लिए नियंत्रित करता है तथा ‘प्रयोग’ की समस्त स्थितियों की जानकारी रखता है।
लॉयंस (1970) ने यह माना कि भाषा – समुदाय उन लोगों से बनता है जो किसी भाषा या बोली का प्रयोग करते हैं। आज यह भी कहा जा रहा है कि भाषा – समाज छोटे-छोटे, भाषा समूहों (लैंग्वेज ग्रुप्स) का संगठन होता है। उदाहरण के लिए हिंदी भाषा – समाज, तेलुगु भाषा – समाज, भोजपुरी भाषा – समाज आदि लॉयंस की संकल्पना के अनुसार भिन्न भाषा समाज है। ‘समूह’ का संदर्भ में हम यदि हिंदी भाषा का उदाहरण लेते है- भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मातृभाषा हिंदी, प्रयोक्ता समूह अथवा, तेलुगु, मराठी, कन्नड़, मातृभाषी हिंदी प्रयोक्ता समूह की चर्चा कर सकते हैं जो अस्मिता की पहचान और परस्पर विचार-विनिमय के लिए हिंदी भाषा – समुदाय में सम्मिलित होते हैं।
व्यक्ति एक ही समाज में रहते हुए भाषा के कई कोड़ों का प्रयोग करता है। एक ही समाज में हमें कई वर्ग मिलते हैं जैसे- उच्च वर्ग, मध्य वर्ग, निम्न वर्ग, शहरी वर्ग, ग्रामीण वर्ग, पुरुष वर्ग, स्त्री वर्ग, शिक्षित वर्ग, अशिक्षित वर्ग. अन्य आयु वर्ग के आधार पर बने वर्ग आदि। ये सभी वर्ग समाज में भाषा के स्तर पर अलग-अलग कोड का प्रयोग करते हैं। इसलिए इनकी भाषा में स्पष्ट अंतर देखा जा सकता है।
हिंदी भाषा-भाषी समुदाय मुख्य रूप से चार कोड का प्रयोग करता है:-
- कोड-1 : मुख्य रूप से अंग्रेजी भाषा
- कोड-2 : अंग्रेजी मिश्रित हिंदी
- कोड-3 : हिंदी के मानक रूप का प्रयोग
- कोड – 4 : बोली मिश्रित हिंदी
कोड-1 का प्रयोग मुख्य रूप उच्च शिक्षित वर्ग के लोग ही अधिक करते हैं।
कोड-2 का प्रयोग शहरी वर्ग, मध्य वर्ग, शिक्षित स्त्री-पुरुष वर्ग द्वारा मुख्य रूप से किया जाता है इसके अतिरिक्त अन्य वर्ग भी इन कोड का प्रयोग करते हैं क्योंकि अंग्रेजी भाषा के बहुत से शब्द ऐसे हैं जो हमारी भाषा में आकर इस प्रकार रच-बस गए हैं कि वे आगत शब्द लगते ही नहीं हैं और उनका बहुत अधिक प्रयोग हिंदी भाषा के अंतर्गत किया जाता है। जैसे इश्यू, टॉयलेट, बाथरूम, लाइट, फोन, शर्ट, पेंट, रिलिज, मूवी, डिनर, लंच, मार्केट आदि शब्दों ‘का प्रयोग तो निम्न वर्ग भी आसानी से कर लेता है जबकि अन्य वर्ग वाक्यांश, उपवाक्य, आदि के स्तर पर इस कोड का प्रयोग करते हैं।
कोड-3 का प्रयोग मुख्य रूप से हिंदी पट्टी से आए हुए लोग ही अधिक करते हैं।
कोड-4 का प्रयोग मुख्य रूप से निम्न वर्ग अथवा अपने करीबी से मिलने पर ही वक्ता इस कोड का प्रयोग करता है। इसके अलावा उर्दू भाषा का प्रयोग भी एक अन्य कोड के रूप में देख जा सकता है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि एक ही समाज में रहते हुए व्यक्ति कितने कोड मैट्रिक्स का प्रयोग कर सकता है। जैसे-कितना – समय हुआ है, Time कितना हुआ है, कितना बजा है आदि का संप्रेषण के स्तर पर शब्दार्थ एक ही है परन्तु इनके उच्चारण में अलग-अलग कोड का प्रयोग किया गया है। इसलिए प्रत्येक भाषा-भाषी का शब्दकोश भी भिन्न-भिन्न होता है। इस शब्द कोश के विकसित और सीमित होने में उसका आर्थिक और सामाजिक पद प्रभाव डालता है। क्योंकि सामाजिक और आर्थिक स्तर ही किसी भी व्यक्ति की भाषा को बनाने और बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक भाषा-भाषी भाषा को बोलते हुए जिन बोलियों अथवा अन्य भाषाई रूपों का प्रयोग करता है वह उस समुदाय का भाषा कोश कहलाता है।
प्रो. वैश्ना नारंग के अनुसार एक भाषा समुदाय की सम्पूर्ण भाषायी सम्पदा उसका ‘भाषा कोश’ कहलाती है अर्थात् यह ‘भाषाकोश’ बहुभाषायी भी हो सकता है और बहुशैली परक एवं बहुबोली परक भी हो सकता है जैसे हिंदी अंग्रेजी दो भाषाओं का प्रयोग मिलता है और दूसरी ओर हिंदी की विभिन्न बोलियों (ब्रज, अवधी, मगही ….. आदि) और विभिन्न शैलियों (हिंदुस्तानी उच्च हिंदी, उर्दू) का प्रयोग होता है। हिंदी भाषा समुदाय को भाषा कोश का स्वरूप प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने कुछ इस प्रकार दिखाया है-
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कोई भी भाषा – समुदाय केवल संप्रेषण के स्तर पर ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह उस समुदाय की पहचान का एक हिस्सा भी है। जो उसे दूसरे समुदायों से अलग करता है।