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भाषा और संस्कृति

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जब प्रकृत या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है अंग्रेजी में संस्कृति के लिए ‘कल्चर’ शब्द या प्रयोग किया जाता है। जो लैटिन भाषा को ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना । संस्कृति का शब्दार्थ है- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति।

किसी भी देश या राज्य की पहचान का महत्वपूर्ण अंग है उसकी संस्कृति । आज भारत और भारतीय समाज की संस्कृति की पहचान पूरे विश्वभर में है। हमारी भाषा हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है। संस्कृति की पहचान उसकी भाषा के आधार पर होती है जैसे तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, हिंदू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति, क्रिश्चयन संस्कृति आदि।

संस्कृति को बनाने और विकसित करने का कार्य मनुष्य करता है। समाज और समय के बदलाव के साथ-साथ संस्कृति में बदलाव और निर्माण दोनों ही होते रहते हैं। हमारे भारत वर्ष में बहुत से लोगों ने आक्रमण किया। वे यहाँ रचे-बसे, उनको सायं साथ उनकी भाषा, रहने खाने-पीने के तौर तरीके, वेशभूषा आदि सभी संस्कृति निर्माण का एक हिस्सा है। यदि हम ज्यादा दूर न भी जाएं तो एक समय में भारत पर मुगलों का आधिपत्य था तब यहाँ की वेशभूषा, भाषा और खान-पान सभी पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है परन्तु जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा किया तो उन्होंने धीरे-धीरे यहाँ के लोगों के विचारों, सोच, पहनावा, खान-पान आदि सभी पर भी कब्जा स्थापित किया। आज हमारी भाषा में जो उर्दू अरबी-फारसी के शब्द हैं वे तत्कालीन समय की देन ही है। इसके अलावा आज हमारी भाषा में जो अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजीयत ने प्रभाव डाला है उससे हमारी ‘संस्कृति एक नए निर्माण की ओर जाती हुई दिखती है।

कोई भी व्यक्ति समाज के सांस्कृतिक नियमों से परिपूर्ण हुए बिना संपूर्ण नहीं माना जाएगा। हमें समाज में किस प्रकार उठना-बैठना है, किस जगह पर किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जाए, अपने से बड़ों या छोटों से किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया जाए आदि सभी प्रकार के सांस्कृतिक नियम हम अपने समाज में रहकर ही जान पाते है। उदाहरण के लिए हमारे यहाँ ‘वासुधैव कुटुम्बकम्’ और अतिथि देवो भवः की परंपरा रही है। हम बड़े से लेकर छोटे रिश्ते तक में अपनापन महसूस करते हैं। मानवीय संबंधों की बारिकियों का महत्व हमारे यहाँ सर्वाधिक देखा जा सकता है तभी तो हमारे यहाँ रिश्ते के लिए, एक अलग संबोधन शब्दावली का प्रयोग किया जाता है। जैसे – माँ पक्ष के सभी लोगों के लिए मौसा-मौसी, नाना-नानी, मामा-मामी। पिता पक्ष के – लिए चाचा-चाची, ताऊ ताई, दादा-दादी, देवर-भाभी, जेठ-जेठानी, बुआ-फूफा – आदि। जबकि यदि हम पश्चिम शब्दावली में देखें तो वहाँ सभी के लिए एक ही शब्द है अंकल और आंटी। ये केवल संबोधन शब्दावली ही नहीं है बल्कि हर एक संबोधन के पीछे एक गहरा जुड़ाव भी छिपा हुआ है। भारत में पाई जाने वाली सांस्कृतिक और भाषिक विविधता इसे अन्य सभी से अलग करती है।

भाषा और संस्कृति एक दूसरे के पूरक है जिनमें समाज से विस्तार प्राप्त होता है।

डेल हाइम्स ने भाषा और संस्कृति के बीच गहरा संबंध देखा। उनके मतानुसार ये दोनों इतने गहरे संबद्ध होते हैं कि एक के बिना दूसरे को समझ पाना संभव नहीं है। उन्होंने भाषा को स्थितिपरक ( सिचुएशनल) तो माना पर यह भी जोड़ा कि भाषा के साथ कई परंपरागत घटक आबद्ध होते हैं इसीलिए भाषा में कई उक्तियां (अटरेंसेज) ऐसी होती है जो सांस्कृतिक संदर्भ में ही अपना अर्थ दे पाती है। भिन्न भाषाओं का सांस्कृतिक संदर्भ भी भिन्न होता है। हाइम्स ने यहाँ तक कहा कि भाषा अधिगम का तात्पर्य ‘प्रयोग करना सीखना’ (लर्निंग टू यूज ) तक सीमित नहीं होता, ‘प्रयोग करके संस्कृति को जानना’ (यूजिंग टू लर्न इट) भी होता है।

हाइम्स ने ‘भाषा में संस्कृति’ का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए यह स्थापना भी सामने रखी कि भाषा में संस्कृति का संबंध भाषा समाज के मनोविज्ञान से भी होता है अतः भाषा व्यवहार तो सांस्कृतिक होता ही है, भाषा द्वारा संपन्न सांस्कृतिक व्यवहार मनोवैज्ञानिक भी होता है। सामान्य संप्रेषण में भी उन्होंने सांस्कृतिकता की प्रधानता सिद्ध की। उन्होंने कहा कि दुनिया के प्रत्येक भाषा – समाज की अभिवादन प्रणाली, संबोधन-प्रयोग, सर्वनाम- संरचना, नाते-रिश्ते की शब्दावली, रंग शब्दावली, नामकरण आदि के भीतर सांस्कृतिक विशेषता निहित होती है। इसके साथ ही भाषा के साथ होने वाले अंगविक्षेप, आचरण आदि भी संस्कृति नियंत्रित होते हैं। कई भाषा समाजों में भिन्न-भिन्न आचरण संबंधी निषेध होते हैं जैसे बायें हाथ से कुछ न देना, स्त्री के बैठने से पहले न बैठना, किसी बुजुर्ग के प्रवेश करने पर बैठे न रहना आदि। इसीलिए हाइम्स ने संप्रेषण के संदर्भ में सिर्फ भाषा को नहीं बल्कि उसके साथ दृश्य ( सीन), भूमिका (एक्ट), अभिकर्ता (एजेंट) और प्रयोजन ( परपज ) को भी सन्नद्ध किया।

भाषा और संस्कृति के संबंध के विषय में कुछ विद्वानों ने अपने विचार भी प्रस्तुत किए हैं क्रिस्टीफर्सन का मानना है कि भाषा और संस्कृति का संबंध एक-दूसरे से बहुत गहरा होता है। कुछ लोग तो भ्रम से भाषा को किसी समुदाय की संस्कृति दोनों का संबंध सामाजिक समुदाय से रहता है। यह सामाजिक समुदाय एक भाषी या द्विभाषी हो सकता है पर यह अनिवार्य नहीं कि एक भाषी समुदाय की संस्कृति भी एकनिष्ठ ही हो और द्विभाषी समुदाय की द्विनिष्ठ ।

बर्नस्टीन कहते हैं व्याकरण के तत्वों को समझाने के लिए भाषाविद् जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वह अनेक भाषा कोड़ों से मिलकर बनी होती है और भाषा – कोड संदर्भ सापेक्ष होती है। इस प्रकार भाषा नियमों का ऐसा सेट है जिसमें सभी भाषा कोड़ों के नियमों का समावेश होता है। किंतु कब किस कोड का प्रयोग करना है, इस बात का निर्णय संस्कृति और समाज द्वारा होता है, के भाषा व्याकरण द्वारा नहीं।

आर. के. अग्निहोत्री का मानना है कि भाषा केवल शब्द ही नहीं और नही सिर्फ शब्दों की व्यवस्था है। यह हमारी पहचान का एक भाग है, ऐसी पहचान जो प्रायः बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक हो सकती है।

प्रो. दिलीप सिंह कहते हैं- अब नाते-रिश्ते के शब्द सर्वनाम, और संबोधन प्रयोगों, शिष्ट और विनम्र अभिव्यक्तियों के साथ-साथ आशीष देने विरोध प्रकट करने, सहमत असहमत होने, यहाँ तक की गरियाने और अश्लील प्रयोगों तक को समाज की संरचना और उसके लोगों की मनोवैज्ञानिक बनावट के संदर्भ में देखा-परखा जाने लगा। मूल रंग शब्दों की परिकल्पना ने भिन्न समाजों में इनकी प्रतीकक्ता को देखने से अध्ययन की शुरूआत की थी। हिंदी में ही लाल के साथ अनुराग, हरे के साथ खुशहाली, पीले के साथ शुभ जैसे सामाजिक अर्थों का जुड़ते चले जाना हमारी लोक संस्कृति का नहीं, जीवन को देखने की एक खास दृष्टि का भी परिचायक है।

यह रंग का सांस्कृतिक संदर्भ ही है कि भारत में मृत्यु पर श्वेत तो पश्चिमी देशों में काले वस्त्र पहने जाते हैं। ईसाई दुल्हन श्वेत परिधान पहनती है और हिंदू विधवा श्वेत वस्त्र। संस्कृति चेतना का दिग्दर्शन कराती है वह लोक जीवन और साहित्य में सर्वत्र व्याप्त है।

अतः उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि भाषा और संस्कृति का आपस में गहन संबंध है। समय के साथ-साथ हमारी भाषा और संस्कृति में कुछ बदलाव अवश्य आ सकता है परन्तु वह पूर्णतः समाप्त नहीं होती। मुगल काल में बोली जाने वाली भाषा के कई शब्द और शैली का प्रयोग हम आज भी करते हैं। अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार तो आज भी जोरों-शोरों से चल रहा है। यहाँ तक की हम आज अंग्रेजीयत से बहुत प्रभावित भी है । परन्तु इसके बावजूद भी हमारी भाषा और संस्कृति में बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है।

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